113

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

मूल

रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देने वाली है और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥113॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामकथा सुन्दर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥

मूल

रामकथा सुन्दर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुन्दर ताली है, जो सन्देह रूपी पक्षियों को उडा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाडी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥

मूल

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥

भावार्थ

वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनन्त हैं॥2॥

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद सन्तसम्मत मोहि भाई॥3॥

मूल

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद सन्तसम्मत मोहि भाई॥3॥

भावार्थ

तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैन्ने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुन्दर, सुखदायक और सन्तसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है॥3॥

एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4॥

मूल

एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4॥

भावार्थ

परन्तु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं-॥4॥