01 दोहा
राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह सन्देह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥
भावार्थ
हे पार्वती! मेरे विचार में तो श्री रामजी की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, सन्देह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥112॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदपि असङ्का कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रन्ध्र अहिभवन समाना॥1॥
मूल
तदपि असङ्का कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रन्ध्र अहिभवन समाना॥1॥
भावार्थ
फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शङ्का की है कि इस प्रसङ्ग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होन्ने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं॥1॥
नयनन्हि सन्त दरस नहिं देखा। लोचन मोरपङ्ख कर लेखा॥
तेसिर कटु तुम्बरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥
भावार्थ
जिन्होन्ने अपने नेत्रों से सन्तों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पङ्खों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कडवी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥
जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥
भावार्थ
जिन्होन्ने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेण्ढक की जीभ के समान है॥3॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥4॥
भावार्थ
वह हृदय वज्र के समान कडा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करने वाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करने वाली है॥4॥