01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मगन ध्यान रस दण्ड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥
मूल
मगन ध्यान रस दण्ड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥
भावार्थ
शिवजी दो घडी तक ध्यान के रस (आनन्द) में डूबे रहे, फिर उन्होन्ने मन को बाहर खीञ्चा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥111॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
मूल
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
भावार्थ
जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥
बन्दउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥2॥
मूल
बन्दउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥2॥
भावार्थ
मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वन्दना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मङ्गल के धाम, अमङ्गल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥2॥
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥
मूल
करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥
भावार्थ
त्रिपुरासुर का वध करने वाले शिवजी श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम करके आनन्द में भरकर अमृत के समान वाणी बोले- हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसङ्गा। सकल लोक जग पावनि गङ्गा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
मूल
पूँछेहु रघुपति कथा प्रसङ्गा। सकल लोक जग पावनि गङ्गा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥
भावार्थ
जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसङ्ग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गङ्गाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥