109

01 दोहा

बन्दउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धान्त निचोरि॥109॥

मूल

बन्दउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धान्त निचोरि॥109॥

भावार्थ

मैं पृथ्वी पर सिर टेककर आपके चरणों की वन्दना करती हूँ और हाथ जोडकर विनती करती हूँ। आप वेदों के सिद्धान्त को निचोडकर श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन कीजिए॥109॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढउ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥1॥

मूल

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढउ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥1॥

भावार्थ

यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ। सन्त लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते॥1॥

अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥2॥

मूल

अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥2॥

भावार्थ

हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके श्री रघुनाथजी की कथा कहिए। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है॥2॥

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥3॥

भावार्थ

फिर हे प्रभु! श्री रामचन्द्रजी के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए। फिर जिस प्रकार उन्होन्ने श्री जानकीजी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होन्ने जो राज्य छोडा, सो किस दोष से॥3॥

बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु सङ्कर सुखसीला॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! फिर उन्होन्ने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए। हे सुखस्वरूप शङ्कर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होन्ने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं॥4॥