01 दोहा
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकण्ठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥
मूल
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकण्ठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥
भावार्थ
उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गङ्गाजी (शोभायमान) थीं। कमल के समान बडे-बडे नेत्र थे। उनका नील कण्ठ था और वे सुन्दरता के भण्डार थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभित था॥106॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सान्तरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गईं सम्भु पहिं मातु भवानी॥1॥
मूल
बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सान्तरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गईं सम्भु पहिं मातु भवानी॥1॥
भावार्थ
कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शान्तरस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गईं।
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥2॥
मूल
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥2॥
भावार्थ
अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिवजी ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठने के लिए आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के पास बैठ गईं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई॥2॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥3॥
मूल
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥3॥
भावार्थ
स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करने वाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं॥3॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पङ्कज सेवा॥4॥
मूल
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पङ्कज सेवा॥4॥
भावार्थ
(पार्वतीजी ने कहा-) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करने वाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं॥4॥