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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किन्नर मुनिबृन्द।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकन्द॥105॥

मूल

सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किन्नर मुनिबृन्द।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकन्द॥105॥

भावार्थ

सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बडे पुण्यात्मा हैं और आनन्दकन्द श्री महादेवजी की सेवा करते हैं॥105॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला॥1॥

मूल

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला॥1॥

भावार्थ

जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुन्दर रहता है॥1॥

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥

मूल

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥

भावार्थ

वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मन्द और सुगन्ध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बडी ठण्डी रहती है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु श्री शिवजी उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनन्द हुआ॥2॥

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं सम्भु कृपाला॥
कुन्द इन्दु दर गौर सरीरा। भुज प्रलम्ब परिधन मुनिचीरा॥3॥

मूल

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं सम्भु कृपाला॥
कुन्द इन्दु दर गौर सरीरा। भुज प्रलम्ब परिधन मुनिचीरा॥3॥

भावार्थ

अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और शङ्ख के समान उनका गौर शरीर था। बडी लम्बी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे॥3॥

तरुन अरुन अम्बुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चन्द छबि हारी॥4॥

भावार्थ

उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अन्धकार हरने वाली थी।

साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था॥4॥