102

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

चले सङ्ग हिमवन्तु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

मूल

चले सङ्ग हिमवन्तु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

भावार्थ

तब हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें सन्तोष कराकर विदा किया॥102॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥

मूल

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥

भावार्थ

पर्वतराज हिमाचल तुरन्त घर आए और उन्होन्ने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥1॥

जबहिं सम्भु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु सम्भु भवानी। तेहिं सिङ्गारु न कहउँ बखानी॥2॥

मूल

जबहिं सम्भु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु सम्भु भवानी। तेहिं सिङ्गारु न कहउँ बखानी॥2॥

भावार्थ

जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृङ्गार का वर्णन नहीं करता॥2॥

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥

मूल

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥

भावार्थ

शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥

जब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥

भावार्थ

तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होन्ने (बडे होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है॥4॥

03 छन्द

जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित सञ्छेपहिं कहा॥
यह उमा सम्भु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मङ्गल सर्बदा सुखु पावहीं॥

मूल

जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित सञ्छेपहिं कहा॥
यह उमा सम्भु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मङ्गल सर्बदा सुखु पावहीं॥

भावार्थ

षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैन्ने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र सङ्क्षेप में ही कहा है।

शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेङ्गे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मङ्गलों में सदा सुख पाएँगे।