01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिङ्करी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
मूल
नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिङ्करी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥
भावार्थ
हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥101॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु बिधि सम्भु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछङ्ग सुन्दर सिख दीन्ही॥1॥
मूल
बहु बिधि सम्भु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछङ्ग सुन्दर सिख दीन्ही॥1॥
भावार्थ
शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुन्दर सीख दी-॥1॥
करेहु सदा सङ्कर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥
मूल
करेहु सदा सङ्कर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥
भावार्थ
हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होन्ने कन्या को छाती से चिपटा लिया॥2॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥
मूल
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥
भावार्थ
(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होन्ने धीरज धरा॥3॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेण्टि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥
मूल
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेण्टि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥
भावार्थ
मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकडकर गिर पडती हैं। बडा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेण्टकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल सन्तोषि सङ्करु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
मूल
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल सन्तोषि सङ्करु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥
भावार्थ
पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए।
पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। महादेवजी सब याचकों को सन्तुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुन्दर नगाडे बजाने लगे।