100

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ सम्भु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

मूल

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ सम्भु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

भावार्थ

मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शङ्का न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की सन्तान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥100॥

02 चौपाई

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥

मूल

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥

भावार्थ

वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकडकर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया॥1॥

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय सङ्कर सुर करहीं॥2॥

मूल

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय सङ्कर सुर करहीं॥2॥

भावार्थ

जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बडे ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे॥2॥

बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥3॥

भावार्थ

अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनन्द भर गया॥3॥

दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥4॥

भावार्थ

दासी, दास, रथ, घोडे, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाडियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम सङ्कर चरन पङ्कज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर सन्तोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥

मूल

दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम सङ्कर चरन पङ्कज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर सन्तोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥

भावार्थ

बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोडकर हिमाचल ने कहा- हे शङ्कर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकडकर रह गए।

तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकडे (और कहा-)।