099

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥

मूल

बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥

भावार्थ

फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान्‌ को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥99॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी॥1॥

मूल

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी॥1॥

भावार्थ

सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुन्दर श्रेष्ठ मङ्गल गीत गाने लगीं॥1॥

सिङ्घासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरञ्चि बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥

मूल

सिङ्घासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरञ्चि बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥

भावार्थ

वेदिका पर एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुन्दरता) का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योङ्कि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गए॥2॥

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिङ्गारु सखीं लै आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥

मूल

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिङ्गारु सखीं लै आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥

भावार्थ

फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृङ्गार करके उन्हें ले आईं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुन्दरता का वर्णन कर सके?॥3॥

जगदम्बिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुन्दरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥

मूल

जगदम्बिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुन्दरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥

भावार्थ

पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुन्दरता की सीमा हैं। करोडों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मन्दमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मण्डप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥

मूल

कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मन्दमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मण्डप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥

भावार्थ

जगज्जननी पार्वतीजी की महान शोभा का वर्णन करोडों मुखों से भी करते नहीं बनता।

वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मन्दबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुन्दरता और शोभा की खान माता भवानी मण्डप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गईं। वे सङ्कोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं (रसपान कर रहा) था।