098

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह सम्बाद॥98॥

मूल

सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह सम्बाद॥98॥

भावार्थ

तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥98॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब मयना हिमवन्तु अनन्दे। पुनि पुनि पारबती पद बन्दे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥

मूल

तब मयना हिमवन्तु अनन्दे। पुनि पुनि पारबती पद बन्दे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥

भावार्थ

तब मैना और हिमवान आनन्द में मग्न हो गए और उन्होन्ने बार-बार पार्वती के चरणों की वन्दना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए॥1॥

लगे होन पुर मङ्गल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

मूल

लगे होन पुर मङ्गल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

भावार्थ

नगर में मङ्गल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए। पाक शास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी)॥2॥

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरञ्चि देव सब जाती॥3॥

मूल

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरञ्चि देव सब जाती॥3॥

भावार्थ

जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया॥3॥

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबृन्द सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥

मूल

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबृन्द सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥

भावार्थ

भोजन (करने वालों) की बहुत सी पङ्गतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मण्डलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

गारीं मधुर स्वर देहिं सुन्दरि बिङ्ग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलम्बु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनन्दु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

मूल

गारीं मधुर स्वर देहिं सुन्दरि बिङ्ग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलम्बु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनन्दु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

भावार्थ

सब सुन्दरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यङ्ग्य भरे वचन सुनाने लगीं।

देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बडी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनन्द बढा वह करोडों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।