097

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥

मूल

तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥

भावार्थ

इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥97॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसङ्गु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदम्बा तव सुता भवानी॥1॥

मूल

तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसङ्गु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदम्बा तव सुता भवानी॥1॥

भावार्थ

तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लडकी साक्षात जगज्जनी भवानी है॥1॥

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा सम्भु अरधङ्ग निवासिनि॥
जग सम्भव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥2॥

भावार्थ

ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी के अर्द्धाङ्ग में रहती हैं। ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं॥2॥

जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुन्दर तनु पाई॥
तहँहुँ सती सङ्करहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥3॥

भावार्थ

पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुन्दर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शङ्करजी से ही ब्याही गई थीं। यह कथा सारे जगत में प्रसिद्ध है॥3॥

एक बार आवत सिव सङ्गा। देखेउ रघुकुल कमल पतङ्गा॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥4॥

भावार्थ

एक बार इन्होन्ने शिवजी के साथ आते हुए (राह में) रघुकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होन्ने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया॥4॥

03 छन्द

सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध सङ्कर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा सङ्करप्रिया॥

मूल

सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध सङ्कर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा सङ्करप्रिया॥

भावार्थ

सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शङ्करजी ने उनको त्याग दिया।

फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होन्ने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर सन्देह छोड दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धाङ्गिनी) हैं।