01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाचहिं गावहिं गीत परम तरङ्गी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥
मूल
नाचहिं गावहिं गीत परम तरङ्गी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥
भावार्थ
भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बडे मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढङ्गे जान पडते हैं और बडे ही विचित्र ढङ्ग से बोलते हैं॥93॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥
मूल
जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥
भावार्थ
जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥1॥
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥
मूल
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥
भावार्थ
जगत में जितने छोटे-बडे पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा॥2॥
कामरूप सुन्दर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मङ्गल सहित सनेहा॥3॥
मूल
कामरूप सुन्दर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मङ्गल सहित सनेहा॥3॥
भावार्थ
वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुन्दर शरीर धारण कर सुन्दरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मङ्गल गीत गाते हैं॥3॥
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरञ्चि निपुनाई॥4॥
मूल
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरञ्चि निपुनाई॥4॥
भावार्थ
हिमाचल ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुन्दर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तडाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मङ्गल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुन्दर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
मूल
लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तडाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मङ्गल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुन्दर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥
भावार्थ
नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुन्दर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मङ्गल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुन्दर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं॥