01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मङ्गल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥
मूल
लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मङ्गल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥
भावार्थ
सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मङ्गल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥91॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिवहि सम्भु गन करहिं सिङ्गारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुण्डल कङ्कन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥
मूल
सिवहि सम्भु गन करहिं सिङ्गारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुण्डल कङ्कन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥
भावार्थ
शिवजी के गण शिवजी का श्रृङ्गार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुण्डल और कङ्कण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥1॥
ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा। नयन तीनि उपबीत भुजङ्गा॥
गरल कण्ठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥
मूल
ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा। नयन तीनि उपबीत भुजङ्गा॥
गरल कण्ठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥
भावार्थ
शिवजी के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गङ्गाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥2॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥
मूल
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥
भावार्थ
एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढकर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवाङ्गनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥
बिष्नु बिरञ्चि आदि सुरब्राता। चढि चढि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥
मूल
बिष्नु बिरञ्चि आदि सुरब्राता। चढि चढि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥
भावार्थ
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढकर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुन्दर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी॥4॥