01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
मूल
धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥
भावार्थ
किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥85॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु सम्भु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससङ्केउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥
मूल
उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु सम्भु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससङ्केउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥
भावार्थ
दो घडी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो गया।
भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥
मूल
भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥
भावार्थ
तुरन्त ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा पिए हुए) लोग मद (नशा) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयङ्कर) शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥2॥
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥
मूल
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥
भावार्थ
लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरन्त ही सुन्दर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं॥3॥
बन उपबन बापिका तडागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥
मूल
बन उपबन बापिका तडागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥
भावार्थ
वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुन्दर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उमड रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा॥4॥
03 छन्द
जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगन्ध सुमन्द मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कञ्ज गुञ्जत पुञ्ज मञ्जुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
मूल
जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगन्ध सुमन्द मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कञ्ज गुञ्जत पुञ्ज मञ्जुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
भावार्थ
मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुन्दरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगन्धित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुन्दर भौंरों के समूह गुञ्जार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं॥