084

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥

मूल

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥

भावार्थ

जगत में स्त्री-पुरुष सञ्ज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोडकर काम के वश में हो गए॥84॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अम्बुधि कहुँ धाईं। सङ्गम करहिं तलाव तलाईं॥1॥

मूल

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अम्बुधि कहुँ धाईं। सङ्गम करहिं तलाव तलाईं॥1॥

भावार्थ

सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड-उमडकर समुद्र की ओर दौडीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में सङ्गम करने (मिलने-जुलने) लगीं॥1॥

जहँ असि दसा जडन्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥

मूल

जहँ असि दसा जडन्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥

भावार्थ

जब जड (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए॥2॥

मदन अन्ध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किन्नर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥

भावार्थ

सब लोक कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल-॥3॥

इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥

भावार्थ

ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैन्ने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान्‌ योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥4॥

03 छन्द

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दण्ड भरि ब्रह्माण्ड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

मूल

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दण्ड भरि ब्रह्माण्ड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

भावार्थ

जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे।

स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घडी तक सारे ब्राह्मण्ड के अन्दर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।