01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
सम्भु सुक्र सम्भूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥
मूल
सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
सम्भु सुक्र सम्भूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥
भावार्थ
ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा॥82॥
02 चौपाई
मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥
मूल
मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥
भावार्थ
मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेङ्गे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होन्ने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है॥1॥
तेहिं तपु कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
जदपि अहइ असमञ्जस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥
मूल
तेहिं तपु कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
जदपि अहइ असमञ्जस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥
भावार्थ
उन्होन्ने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिवजी सब छोड-छाडकर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बडे असमञ्जस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो॥2॥
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु सङ्कर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥
मूल
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु सङ्कर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥
भावार्थ
तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भङ्ग करे)। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देङ्गे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देङ्गे॥3॥
एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥
मूल
एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥
भावार्थ
इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बडे प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ॥4॥सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।
सम्भु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥
मूल
सम्भु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥
भावार्थ
देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥83॥
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहिं तेही॥1॥
मूल
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहिं तेही॥1॥
भावार्थ
तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योङ्कि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, सन्त सदा उसकी बडाई करते हैं॥1॥
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2॥
मूल
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2॥
भावार्थ
यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसन्तादि) सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है॥2॥
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3॥
मूल
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3॥
भावार्थ
तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई॥3॥
ब्रह्मचर्ज ब्रत सञ्जम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4॥
मूल
ब्रह्मचर्ज ब्रत सञ्जम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4॥
भावार्थ
ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई॥4॥
04 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट सञ्जुग महि मुरे।
सदग्रन्थ पर्बत कन्दरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
मूल
भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट सञ्जुग महि मुरे।
सदग्रन्थ पर्बत कन्दरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
भावार्थ
विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए।
उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रन्थों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत् में खलबली मच गई (और सब कहने लगे) हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिर वाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है?