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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

मूल

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

भावार्थ

माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है॥80॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु सम्भु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥

मूल

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु सम्भु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥

भावार्थ

हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे?॥1॥

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥

मूल

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥

भावार्थ

यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड करने वालों को आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए)॥2॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ सम्भु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

मूल

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ सम्भु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

भावार्थ

मेरा तो करोड जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजी के उपदेश को न छोडूँगी॥3॥

मैं पा परउँ कहइ जगदम्बा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलम्बा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदम्बिके भवानी॥4॥

मूल

मैं पा परउँ कहइ जगदम्बा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलम्बा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदम्बिके भवानी॥4॥

भावार्थ

जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पडती हूँ। आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई। (शिवजी में पार्वतीजी का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!!॥4॥