078

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसम्भव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

मूल

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसम्भव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

भावार्थ

पार्वतीजी की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पडे और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?॥78॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥

मूल

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥

भावार्थ

उन्होन्ने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होन्ने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ॥1॥

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥

मूल

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥

भावार्थ

जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोडकर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं॥2॥

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली॥3॥

मूल

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली॥3॥

भावार्थ

उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नङ्गा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है॥3॥

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पञ्च कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥

मूल

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पञ्च कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥

भावार्थ

ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पञ्चों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला॥