070

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥

मूल

अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥

भावार्थ

ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारदजी ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। (और कहा कि-) हे पर्वतराज! तुम सन्देह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा॥70॥

02 चौपाई

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकान्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥

मूल

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकान्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥

भावार्थ

यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैन्ने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा॥1॥

जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कन्त उमा मम प्रानपिआरी॥2॥

भावार्थ

जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लडकी चाहे कुमारी ही रहे (मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती), क्योङ्कि हे स्वामिन्‌! पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है॥2॥

जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥

भावार्थ

यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेङ्गे कि पर्वत स्वभाव से ही जड (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में सन्ताप न हो॥3॥

अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥

भावार्थ

इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पडीं। तब हिमवान्‌ ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारदजी के वचन झूठे नहीं हो सकते॥4॥