069

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं अस हिसिषा करहिं नर जड बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥

मूल

जौं अस हिसिषा करहिं नर जड बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥

भावार्थ

यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक में पडते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतन्त्र) हो सकता है?॥69॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अन्तरु तैसें॥1॥

मूल

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अन्तरु तैसें॥1॥

भावार्थ

गङ्गा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर सन्त लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गङ्गाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है॥1॥

सम्भु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥

भावार्थ

शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योङ्कि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना बडी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द सन्तुष्ट हो जाते हैं॥2॥

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥

भावार्थ

यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं, पर इसके लिए शिवजी को छोडकर दूसरा वर नहीं है॥3॥

बर दायक प्रनतारति भञ्जन। कृपासिन्धु सेवक मन रञ्जन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥

भावार्थ

शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोडों योग और जप करने पर भी वाञ्छित फल नहीं मिलता॥4॥