01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोगी जटिल अकाम मन नगन अमङ्गल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
मूल
जोगी जटिल अकाम मन नगन अमङ्गल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥
भावार्थ
योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नङ्गा और अमङ्गल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पडी है॥67॥
02 चौपाई
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दम्पतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥
मूल
सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दम्पतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥
भावार्थ
नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान् और मैना) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजी ने भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योङ्कि सबकी बाहरी दशा एक सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी॥1॥
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥
मूल
सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥
भावार्थ
सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान् और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते, (यह विचारकर) पार्वती ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया॥2॥
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा सन्देहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
मूल
उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा सन्देहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥
भावार्थ
उन्हें शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मन में यह सन्देह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गईं॥3॥
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दम्पति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
मूल
झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दम्पति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥
भावार्थ
देवर्षि की वाणी झूठी न होगी, यह विचार कर हिमवान्, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिए, अब क्या उपाय किया जाए?॥4॥