063

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥

मूल

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥

भावार्थ

परन्तु उनसे शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं-॥63॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा। कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥

मूल

सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा। कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥

भावार्थ

हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निन्दा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरन्त ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछताएँगे॥1॥

सन्त सम्भु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥

मूल

सन्त सम्भु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥

भावार्थ

जहाँ सन्त, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निन्दा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निन्दा करने वाले) की जीभ काट लें और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाएँ॥2॥

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मन्दमति निन्दत तेही। दच्छ सुक्र सम्भव यह देही॥3॥

मूल

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मन्दमति निन्दत तेही। दच्छ सुक्र सम्भव यह देही॥3॥

भावार्थ

त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरा मन्दबुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है॥3॥

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥

मूल

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥

भावार्थ

इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरन्त ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया॥4॥