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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं सम्भु सन नारि सहज जड अग्य॥1॥

मूल

सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं सम्भु सन नारि सहज जड अग्य॥1॥

भावार्थ

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैन्ने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥1॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥2॥

मूल

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥2॥

भावार्थ

प्रीति की सुन्दर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पडते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥2॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिन्धु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

मूल

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिन्धु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

भावार्थ

अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होन्ने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होन्ने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥

सङ्कर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥

मूल

सङ्कर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥

भावार्थ

शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा॥2॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुन्दर सुख हेतू॥
बरनत पन्थ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

मूल

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुन्दर सुख हेतू॥
बरनत पन्थ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

भावार्थ

वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुन्दर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥

तहँ पुनि सम्भु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
सङ्कर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखण्ड अपारा॥4॥

मूल

तहँ पुनि सम्भु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
सङ्कर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखण्ड अपारा॥4॥

भावार्थ

वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड के पेड के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप सम्भाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥