01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक सन्तापु॥56॥
मूल
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक सन्तापु॥56॥
भावार्थ
सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोडते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बडा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बडा सन्ताप है॥56॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब सङ्कर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेण्ट मोहि नाहीं। सिव सङ्कल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥
मूल
तब सङ्कर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेण्ट मोहि नाहीं। सिव सङ्कल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥
भावार्थ
तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेण्ट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह सङ्कल्प कर लिया॥1॥
अस बिचारि सङ्करु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढाई॥2॥
मूल
अस बिचारि सङ्करु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढाई॥2॥
भावार्थ
स्थिर बुद्धि शङ्करजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुन्दर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढता की॥2॥
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥
मूल
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥
भावार्थ
आपको छोडकर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होन्ने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥
मूल
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥
भावार्थ
हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥