052

01 दोहा

पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पन्थ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥

मूल

पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पन्थ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥

भावार्थ

सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचन्द्रजी आ रहे थे॥52॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गम्भीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥

मूल

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गम्भीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥

भावार्थ

सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बडा भ्रम हो गया। वे बहुत गम्भीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे॥1॥

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अन्तरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥

मूल

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अन्तरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥

भावार्थ

सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचन्द्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी हैं॥2॥

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥

मूल

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥

भावार्थ

स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान्‌ के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचन्द्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले॥3॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥

मूल

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥

भावार्थ

पहले प्रभु ने हाथ जोडकर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?॥4॥