01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा सम्भु सम्बाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
मूल
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा सम्भु सम्बाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥
भावार्थ
अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से हुआ, उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जाएगा॥47॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक बार त्रेता जुग माहीं। सम्भु गए कुम्भज रिषि पाहीं॥
सङ्ग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
मूल
एक बार त्रेता जुग माहीं। सम्भु गए कुम्भज रिषि पाहीं॥
सङ्ग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥
भावार्थ
एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥1॥
रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही सम्भु अधिकारी पाई॥2॥
मूल
रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही सम्भु अधिकारी पाई॥2॥
भावार्थ
मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुन्दर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया॥2॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥3॥
मूल
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥3॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले॥3॥
तेहि अवसर भञ्जन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दण्डक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
मूल
तेहि अवसर भञ्जन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दण्डक बन बिचरत अबिनासी॥4॥
भावार्थ
उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे॥4॥