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01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

मूल

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

भावार्थ

हे प्रभो! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए॥46॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥

मूल

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥

भावार्थ

हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कुराकर बोले, श्री रघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो॥1॥

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढा कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढा॥2॥

मूल

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढा कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढा॥2॥

भावार्थ

तुम मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान गया। तुम श्री रामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बडे ही मूढ हो॥2॥

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥3॥

मूल

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥3॥

भावार्थ

हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं श्री रामजी की सुन्दर कथा कहता हूँ। बडा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्री रामजी की कथा (उसे नष्ट कर देने वाली) भयङ्कर कालीजी हैं॥3॥रामकथा ससि किरन समाना। सन्त चकोर करहिं जेहि पाना॥

ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥

मूल

ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी की कथा चन्द्रमा की किरणों के समान है, जिसे सन्त रूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था॥4॥