043

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी सङ्करहि कह कबि कथा सुहाइ॥1॥

मूल

मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी सङ्करहि कह कबि कथा सुहाइ॥1॥

भावार्थ

अपनी बुद्धि के अनुसार इस सुन्दर जल के गुणों को विचार कर, उसमें अपने मन को स्नान कराकर और श्री भवानी-शङ्कर को स्मरण करके कवि (तुलसीदास) सुन्दर कथा कहता है॥1॥अब रघुपति पद पङ्करुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहउँ जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग सम्बाद ॥2॥

मूल

कहउँ जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग सम्बाद ॥2॥

भावार्थ

मैं अब श्री रघुनाथजी के चरण कमलों को हृदय में धारण कर और उनका प्रसाद पाकर दोनों श्रेष्ठ मुनियों के मिलन का सुन्दर संवाद वर्णन करता हूँ॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

मूल

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

भावार्थ

भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बडे ही चतुर हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

मूल

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

भावार्थ

माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥

मूल

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥

भावार्थ

श्री वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाजजी का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥4॥

मूल

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥4॥

भावार्थ

तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का समाज वहाँ (भरद्वाज के आश्रम में) जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान्‌ के गुणों की कथाएँ कहते हैं॥4॥