042

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बन्धु की जल माधुरी सुबास॥42॥

मूल

अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बन्धु की जल माधुरी सुबास॥42॥

भावार्थ

चारों भाइयों का परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक-दूसरे से प्रेम करना, हँसना और सुन्दर भाईपना इस जल की मधुरता और सुगन्ध है॥42॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥

मूल

आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥

भावार्थ

मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुन्दर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है (अर्थात्‌ अत्यन्त हलकापन है)। यह जल बडा ही अनोखा है, जो सुनने से ही गुण करता है और आशा रूपी प्यास को और मन के मैल को दूर कर देता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥

मूल

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥

भावार्थ

यह जल श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, सन्तोष को भी सन्तुष्ट करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥

मूल

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥

भावार्थ

यह जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य को बढाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने से हृदय में रहने वाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥

मूल

जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥

भावार्थ

जिन्होन्ने इस (राम सुयश रूपी) जल से अपने हृदय को नहीं धोया, वे कायर कलिकाल के द्वारा ठगे गए। जैसे प्यासा हिरन सूर्य की किरणों के रेत पर पडने से उत्पन्न हुए जल के भ्रम को वास्तविक जल समझकर पीने को दौडता है और जल न पाकर दुःखी होता है, वैसे ही वे (कलियुग से ठगे हुए) जीव भी (विषयों के पीछे भटककर) दुःखी होङ्गे॥4॥