041

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

मूल

समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

भावार्थ

सम्पूर्ण अनगिनत उत्पातों को शान्त करने वाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जाने वाला जपयज्ञ है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं, वे ही इस नदी के जल का कीचड और बगुले-कौए हैं॥41॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥

मूल

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥

भावार्थ

यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुन्दर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यन्त पवित्र है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमन्त ऋतु है। श्री रामचन्द्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मङ्गलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पन्थकथा खर आतप पवनू॥2॥

मूल

बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मङ्गलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पन्थकथा खर आतप पवनू॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनन्द-मङ्गलमय ऋतुराज वसन्त है। श्री रामजी का वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कडी धूप और लू है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमङ्गलकारी॥
राम राज सुख बिनय बडाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥

मूल

बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमङ्गलकारी॥
राम राज सुख बिनय बडाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥

भावार्थ

राक्षसों के साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुल रूपी धान के लिए सुन्दर कल्याण करने वाली है। रामचन्द्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बडाई है, वही निर्मल सुख देने वाली सुहावनी शरद् ऋतु है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सती सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥

मूल

सती सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥

भावार्थ

सती-शिरोमणि श्री सीताजी के गुणों की जो कथा है, वही इस जल का निर्मल और अनुपम गुण है। श्री भरतजी का स्वभाव इस नदी की सुन्दर शीतलता है, जो सदा एक सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥4॥