01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
सन्तसभा अनुपम अवध सकल सुमङ्गल मूल॥39॥
मूल
श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
सन्तसभा अनुपम अवध सकल सुमङ्गल मूल॥39॥
भावार्थ
तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और सन्तों की सभा ही सब सुन्दर मङ्गलों की जड अनुपम अयोध्याजी हैं॥39॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥
मूल
रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥
भावार्थ
सुन्दर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गङ्गाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का पवित्र यश रूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिन्धु समुहानी॥2॥
मूल
जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिन्धु समुहानी॥2॥
भावार्थ
दोनों के बीच में भक्ति रूपी गङ्गाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी तीनों तापों को डराने वाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥
मूल
मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥
भावार्थ
इस (कीर्ति रूपी सरयू) का मूल मानस (श्री रामचरित) है और यह (रामभक्ति रूपी) गङ्गाजी में मिली है, इसलिए यह सुनने वाले सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। इसके बीच-बीच में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विचित्र कथाएँ हैं, वे ही मानो नदी तट के आस-पास के वन और बाग हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनन्द बधाई। भवँर तरङ्ग मनोहरताई॥4॥
मूल
उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनन्द बधाई। भवँर तरङ्ग मनोहरताई॥4॥
भावार्थ
श्री पार्वतीजी और शिवजी के विवाह के बाराती इस नदी में बहुत प्रकार के असङ्ख्य जलचर जीव हैं। श्री रघुनाथजी के जन्म की आनन्द-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरङ्गों की मनोहरता है॥4॥