038

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे श्रद्धा सम्बल रहित नहिं सन्तन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

मूल

जे श्रद्धा सम्बल रहित नहिं सन्तन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

भावार्थ

जिनके पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है और सन्तों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथजी प्रिय हैं, उनके लिए यह मानस अत्यन्त ही अगम है। (अर्थात्‌ श्रद्धा, सत्सङ्ग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता)॥38॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुडाई होई॥
जडता जाड बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥

मूल

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुडाई होई॥
जडता जाड बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥

भावार्थ

यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नीन्द रूपी जूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बडा कडा जाडा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा॥2॥

मूल

करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा॥2॥

भावार्थ

उससे उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल) पूछने आता है, तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निन्दा करके उसे समझाता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥

मूल

सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥

भावार्थ

ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्री रामचन्द्रजी सुन्दर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान्‌ भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसङ्ग करउ मन लाई॥4॥

मूल

ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसङ्ग करउ मन लाई॥4॥

भावार्थ

जिनके मन में श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सुन्दर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोडते। हे भाई! जो इस सरोवर में स्नान करना चाहे, वह मन लगाकर सत्सङ्ग करे॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनन्द उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥

मूल

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनन्द उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥

भावार्थ

ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनन्द और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनन्द का प्रवाह उमड आया॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू नाम सुमङ्गल मूला। लोक बेद मत मञ्जुल कूला॥6॥

मूल

चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू नाम सुमङ्गल मूला। लोक बेद मत मञ्जुल कूला॥6॥

भावार्थ

उससे वह सुन्दर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलों की जड है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुन्दर किनारे हैं॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकन्दिनि॥7॥

मूल

नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकन्दिनि॥7॥

भावार्थ

यह सुन्दर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बडी पवित्र है और कलियुग के (छोटे-बडे) पाप रूपी तिनकों और वृक्षों को जड से उखाड फेङ्कने वाली है॥7॥