01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥1॥
मूल
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥1॥
भावार्थ
फिर वही कथा मैन्ने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लडकपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ।
किमि समुझौं मैं जीव जड कलि मल ग्रसित बिमूढ॥2॥
मूल
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ।
किमि समुझौं मैं जीव जड कलि मल ग्रसित बिमूढ॥2॥
भावार्थ
श्री रामजी की गूढ कथा के वक्ता (कहने वाले) और श्रोता (सुनने वाले) दोनों ज्ञान के खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ जड जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥
मूल
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥
भावार्थ
तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को सन्तोष हो॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज सन्देह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥
मूल
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज सन्देह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥
भावार्थ
जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने सन्देह, अज्ञान और भ्रम को हरने वाली कथा रचता हूँ, जो संसार रूपी नदी के पार करने के लिए नाव है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुध बिश्राम सकल जन रञ्जनि। रामकथा कलि कलुष बिभञ्जनि॥
रामकथा कलि पन्नग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
मूल
बुध बिश्राम सकल जन रञ्जनि। रामकथा कलि कलुष बिभञ्जनि॥
रामकथा कलि पन्नग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
भावार्थ
रामकथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मन्थन की जाने वाली लकडी) है, (अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है)॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरङ्गिनि। भय भञ्जनि भ्रम भेक भुअङ्गिनि॥4॥
मूल
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरङ्गिनि। भय भञ्जनि भ्रम भेक भुअङ्गिनि॥4॥
भावार्थ
रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुन्दर सञ्जीवनी जडी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रम रूपी मेण्ढकों को खाने के लिए सर्पिणी है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुर सेन सम नरक निकन्दिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनन्दिनि॥
सन्त समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥
मूल
असुर सेन सम नरक निकन्दिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनन्दिनि॥
सन्त समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥
भावार्थ
यह रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली और साधु रूप देवताओं के कुल का हित करने वाली पार्वती (दुर्गा) है। यह सन्त-समाज रूपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मीजी के समान है और सम्पूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥
मूल
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥
भावार्थ
यमदूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत में यमुनाजी के समान है और जीवों को मुक्ति देने के लिए मानो काशी ही है। यह श्री रामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिए हुलसी (तुलसीदासजी की माता) के समान हृदय से हित करने वाली है॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख सम्पति रासी॥
सदगुन सुरगन अम्ब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥
मूल
सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख सम्पति रासी॥
सदगुन सुरगन अम्ब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥
भावार्थ
यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥