01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
मूल
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
भावार्थ
मैं पवनकुमार श्री हनुमान्जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं॥17॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अङ्गदादि जे कीस समाजा॥
बन्दउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥
मूल
कपिपति रीछ निसाचर राजा। अङ्गदादि जे कीस समाजा॥
बन्दउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥
भावार्थ
वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जाम्बवानजी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अङ्गदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सबके सुन्दर चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होन्ने अधम (पशु और राक्षस आदि) शरीर में भी श्री रामचन्द्रजी को प्राप्त कर लिया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बन्दउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥
मूल
रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बन्दउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥
भावार्थ
पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥
मूल
सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥
भावार्थ
शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ, हे मुनीश्वरों! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥
मूल
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥
भावार्थ
राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बन्दउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भञ्जन सुखदायक॥5॥
मूल
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बन्दउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भञ्जन सुखदायक॥5॥
भावार्थ
फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देने वाले भगवान् श्री रघुनाथजी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूँ॥5॥