01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥1॥
मूल
सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥1॥
भावार्थ
चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने लगें॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥2॥
मूल
सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥2॥
भावार्थ
ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत ही थोडा है, इसलिए बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों! आप कृपा करें, जिससे मैं हरि यश का वर्णन कर सकूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मञ्जु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥3॥
मूल
कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मञ्जु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥3॥
भावार्थ
कवि और पण्डितगण! आप जो रामचरित्र रूपी मानसरोवर के सुन्दर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुन्दर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें॥3॥
02 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्दउँ मुनि पद कञ्जु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मञ्जु दोष रहित दूषन सहित॥4॥
मूल
बन्दउँ मुनि पद कञ्जु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मञ्जु दोष रहित दूषन सहित॥4॥
भावार्थ
मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ, जिन्होन्ने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी (खर (कठोर) से विपरीत) बडी कोमल और सुन्दर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी दूषण अर्थात् दोष से रहित है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्दउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥5॥
मूल
बन्दउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥5॥
भावार्थ
मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद (थकावट) नहीं होता॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्दउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
सन्त सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥6॥
मूल
बन्दउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
सन्त सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥6॥
भावार्थ
मैं ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होन्ने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर सन्तरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥6॥
03 दोहा
:
बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बन्दि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मञ्जु मनोरथ मोरि॥7॥
भावार्थ
देवता, ब्राह्मण, पण्डित, ग्रह- इन सबके चरणों की वन्दना करके हाथ जोडकर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुन्दर मनोरथों को पूरा करें॥7॥
04 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि बन्दउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥
मूल
पुनि बन्दउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥
भावार्थ
फिर मैं सरस्वती और देवनदी गङ्गाजी की वन्दना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गङ्गाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबन्धु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥
मूल
गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबन्धु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥
भावार्थ
श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3॥
मूल
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3॥
भावार्थ
जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मन्त्र समूह की रचना की, जिन मन्त्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्री शिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मङ्गल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥4॥
मूल
सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मङ्गल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥4॥
भावार्थ
वे उमापति शिवजी मुझ पर प्रसन्न होकर (श्री रामजी की) इस कथा को आनन्द और मङ्गल की मूल (उत्पन्न करने वाली) बनाएँगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमङ्गल भागी॥6॥
मूल
भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमङ्गल भागी॥6॥
भावार्थ
मेरी कविता श्री शिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है, जो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेङ्गे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुन्दर कल्याण के भागी होकर श्री रामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी बन जाएँगे॥5-6॥