01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥
मूल
अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥
भावार्थ
जो अत्यन्त बडी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बँधा देता है, तो अत्यन्त छोटी चीण्टियाँ भी उन पर चढकर बिना ही परिश्रम के पार चली जाती हैं। (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्री रामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)॥13॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥
मूल
एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥
भावार्थ
इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होन्ने बडे आदर से श्री हरि का सुयश वर्णन किया है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन कमल बन्दउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥2॥
मूल
चरन कमल बन्दउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥2॥
भावार्थ
मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होन्ने श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन किया है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥
मूल
जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥
भावार्थ
जो बडे बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होन्ने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होङ्गे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥
मूल
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥
भावार्थ
आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योङ्कि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमञ्जस अस मोहि अँदेसा॥5॥
मूल
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमञ्जस अस मोहि अँदेसा॥5॥
भावार्थ
कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गङ्गाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बडी सुन्दर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामञ्जस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥6॥
मूल
तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥6॥
भावार्थ
परन्तु हे कवियों! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिए सुलभ हो सकती है। रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी लगती है॥6॥