011

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

मूल

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

भावार्थ

उन कविता रूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुन्दर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है (वे आत्यन्तिक प्रेम को प्राप्त होते हैं)॥11॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपन्थ बेद मग छाँडे। कपट कलेवर कलि मल भाँडे॥1॥

मूल

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपन्थ बेद मग छाँडे। कपट कलेवर कलि मल भाँडे॥1॥

भावार्थ

जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोडकर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँडें हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बञ्चक भगत कहाइ राम के। किङ्कर कञ्चन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धीङ्ग धरम ध्वज धन्धक धोरी॥2॥

मूल

बञ्चक भगत कहाइ राम के। किङ्कर कञ्चन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धीङ्ग धरम ध्वज धन्धक धोरी॥2॥

भावार्थ

जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धीङ्गाधीङ्गी करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढइ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥

मूल

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढइ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥

भावार्थ

यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैन्ने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोडे ही में समझ लेङ्गे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असङ्का। मोहि ते अधिक ते जड मति रङ्का॥4॥

मूल

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असङ्का। मोहि ते अधिक ते जड मति रङ्का॥4॥

भावार्थ

मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शङ्का करेङ्गे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कङ्गाल हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥

मूल

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥

भावार्थ

मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्री रघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि !॥5॥।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहिं मारुत गिरि मेरु उडाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥6॥

मूल

जेहिं मारुत गिरि मेरु उडाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥6॥

भावार्थ

जिस हवा से सुमेरु जैसे पहाड उड जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। श्री रामजी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है-॥6॥