01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस सङ्ग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बन्दिअ मलय प्रसङ्ग॥1॥
मूल
प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस सङ्ग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बन्दिअ मलय प्रसङ्ग॥1॥
भावार्थ
श्री रामजी के यश के सङ्ग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के सङ्ग से काष्ठमात्र (चन्दन बनकर) वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥2॥
मूल
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥2॥
भावार्थ
श्यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीतारामजी के यश को बुद्धिमान लोग बडे चाव से गाते और सुनते हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥
मूल
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥
भावार्थ
मणि, माणिक और मोती की जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥
मूल
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥
भावार्थ
इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोडकर दौडी आती हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥
मूल
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥
भावार्थ
सरस्वतीजी की दौडी आने की वह थकावट रामचरित रूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोडों उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥
मूल
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥
भावार्थ
संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥
मूल
जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥
भावार्थ
इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुन्दर कविता होती है॥5॥