01 दोहा खलोपहासोपेक्षा
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(मेरा)+++ भाग छोट अभिलाषु बड़
करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं+++(=पावेङ्गे)+++ सुख सुनि सुजन सब
खल करिहहिं उपहास ॥8॥
मूल
भाग छोट अभिलाषु बड करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥8॥
भावार्थ
मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बडी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेङ्गे और दुष्ट हँसी उडावेङ्गे॥8॥
02 चौपाई खलोपहासोपेक्षा
विश्वास-प्रस्तुतिः
खल-परिहास होइ हित मोरा
काक कहहिं - कलकण्ठ+++(=कोयल को)+++ कठोरा॥
हंसहि +++(को)+++ बक, दादुर+++(=मेण्ढक)+++ चातकही +++(=कोयलविशेष जो वर्षासूचना देता है)+++।
हँसहिं+++(=हसन्ति)+++ मलिन खल बिमल बत-कही+++(=वार्ता-कथा [को])+++॥1॥
मूल
खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकण्ठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥
भावार्थ
किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेण्ढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबित-रसिक न, राम-पद नेहू+++(=नैव)+++
तिन्ह कहँ+++(=कुत्र)+++ - सुखद हास-रस एहू॥
भाषा-भनिति भोरि+++(=भोली)+++ मति मोरी
हँसिबे+++(=हसिष्यन्ति)+++ जो हँसें नहिं खोरी+++(~दुष्ट)+++॥2॥
मूल
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥2॥
भावार्थ
जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु-पद प्रीति न सामुझि नीकी+++(=निक्त [भी])+++
तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि-हर-पद-रति मति, न कुतरकी -
तिन्ह कहँ+++(=कुत्र)+++ मधुर कथा रघुबर की॥3॥
मूल
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतर की। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥3॥
भावार्थ
जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्री हरि (भगवान विष्णु) और श्री हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है (जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्री रघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी॥3॥
काव्ये रामभक्तिप्राधान्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥
मूल
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥
भावार्थ
सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्री रामजी की भक्ति से भूषित जानकर सुन्दर वाणी से सराहना करते हुए सुनेङ्गे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आखर अरथ अलङ्कृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥
मूल
आखर अरथ अलङ्कृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥
भावार्थ
नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलङ्कार, अनेक प्रकार की छन्द रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥
मूल
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥
भावार्थ
इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ॥6॥