01 दोहा सङ्गप्रभावः, सर्ववन्दनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रह भेषज जल पवन पट
पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग
+++(ऐसे)+++ लखहिं+++(=लक्षयन्ति)+++ सुलच्छन लोग॥7 (क)॥
मूल
ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥1॥
भावार्थ
ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसङ्ग और सुसङ्ग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम-प्रकास-तम पाख+++(=पक्ष)+++-दुहुँ+++(=दोनो मेँ)+++
नाम भेद बिधि-कीन्ह+++(=कृत)+++।
ससि +++(के सम्बन्ध मेँ पक्षोँ को)+++ सोषक पोषक समुझि
जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥+++(४)+++
मूल
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥2॥
भावार्थ
महीने के दोनों पखवाडों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जड़ चेतन जग जीव जत+++(=यत्)+++
सकल राममय जानि।
बन्दउँ सब के पद-कमल
सदा जोरि+++(डि)+++ जुग-पानि+++(णि)+++॥7(ग)॥
मूल
जड चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बन्दउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥3॥
भावार्थ
जगत में जितने जड और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोडकर वन्दना करता हूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव दनुज नर नाग खग
प्रेत पितर गन्धर्ब।
बन्दउँ किन्नर रजनि-चर
कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)+++(र४)+++
मूल
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्ब।
बन्दउँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)
भावार्थ
देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥4॥
02 चौपाई विनयकथनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकर+++(=आकरः)+++ चारि-लाख-चौरासी
जाति जीव जल-थल-नभ-बासी॥
सीय-राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग-पानी+++(णी)+++॥1॥+++(र५)+++ ॥
मूल
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥
भावार्थ
चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोडकर प्रणाम करता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानि कृपाऽऽकर किङ्कर मोहू+++(=मुझे भी)+++
सब मिलि करहु छाड़ि+++(=छोड़कर)+++ छल छोहू+++(=कृपा भी)+++॥
निज बुधि-बल भरोस मोहि नाहीं
तातें+++(=ततः)+++ बिनय करउँ सब पाहीं+++(=पादयोः)+++॥2॥
मूल
जानि कृपाकर किङ्कर मोहू। सब मिलि करहु छाडि छल छोहू॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥2॥
भावार्थ
मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोडकर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करन चहउँ रघुपति-गुन-गाहा
लघु-मति मोरि, चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अङ्ग उपाऊ+++(य)+++
मन मति रङ्क+++(=दरिद्र)+++, मनोरथ राउ॥3॥+++(4)+++
मूल
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अङ्ग उपाऊ। मन मति रङ्क मनोरथ राउ॥3॥
भावार्थ
मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अङ्ग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कङ्गाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥4॥
मूल
मति अति नीच, ऊँचि रुचि आछी+++(=अच्च्छी)+++
चहिअ अमिअ+++(=अमृत)+++, जग +++(मेँ)+++ जुरइ+++(=जुडइ)+++ न छाछी+++(=छास)+++॥
छमिहहिं+++(=क्षमन्ते)+++ सज्जन मोरि ढिठाई+++(=धृष्टता)+++
सुनिहहिं बाल-बचन मन लाई॥4॥
भावार्थ
मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बडी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुडती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेङ्गे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेङ्गे॥4॥
प्रीत्या ग्रहणस्य काङ्क्षा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौं+++(=यदि)+++ बालक कह तोतरि बाता
सुनहिं मुदित-मन पितु अरु माता॥+++(४)+++
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी
जे पर-दूषन-भूषनधारी॥5॥+++(४)+++
मूल
जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥5॥
भावार्थ
जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात् जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेङ्गे॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज-कबित्त केहि+++(=किसे)+++ लाग न नीका+++(=निक्त)+++
सरस होउ अथवा अति फीका॥+++(४)+++
जे पर-भनिति सुनत हरषाहीं
ते बर-पुरुष, +++(वैसे)+++ बहुत जग नाहीं॥6॥
मूल
निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥6॥
भावार्थ
रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग बहु नर सर+++(ः)+++ सरि+++(त्)+++ सम भाई
जे निज-बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत-सिन्धु सम कोई
देखि पूर बिधु+++(=विधु)+++ बाढ़इ जोई॥7॥+++(५)+++
मूल
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढि बढहि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढइ जोई॥7॥
भावार्थ
हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ से बढते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड पडता है॥7॥