01 दोहा सद्-असद्-विवेकः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जड़-चेतन-गुन-दोषमय
बिस्व कीन्ह करतार।
सन्त हंस-गुन गहहिं पय
परिहरि बारि-बिकार॥6॥+++(र४)+++
मूल
जड चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
सन्त हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
भावार्थ
विधाता ने इस जड-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु सन्त रूपी हंस दोष रूपी जल को छोडकर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥
02 चौपाई सौजन्यम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस बिबेक जब देइ बिधाता
तब तजि+++(त्यजि)+++ दोष, गुनहिं मनु राता॥
काल-सुभाउ+++(=स्वभाव)+++-करम-बरिआईं+++(=बल से)+++
भले उ+++(=भले भी)+++ प्रकृति-बस+++(=वश)+++ चुकइ+++(←च्युत्+कृ)+++ भलाईं॥1॥
मूल
अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥
भावार्थ
विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोडकर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो +++(स्खलितसज्जन)+++ सुधारि हरिजन जिमि लेहीं
दलि दुख-दोष बिमल-जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसङ्गू
मिटइ न मलिन - सुभाउ अभङ्गू॥2॥
मूल
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसङ्गू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभङ्गू॥2॥
भावार्थ
भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम सङ्ग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भङ्ग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥
वञ्चक-दशा
विश्वास-प्रस्तुतिः
लखि+++(=लक्षित्वा)+++ सुबेष जग-बञ्चक जे ऊ+++(=येऽपि)+++
बेष-प्रताप पूजिअहिं ते ऊ॥
उघरहिं+++(=उद्घाट्यन्ते)+++ अन्त +++(मेँ)+++ न होइ निबाहू+++(=निर्वाह)+++
कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
मूल
लखि सुबेष जग बञ्चक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अन्त न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥
भावार्थ
जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौडे आ ही जाते हैं, अन्त तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(अन्ते)+++ किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू
जिमि जग +++(मेँ)+++ जामवन्त-हनुमानू॥
हानि कुसङ्ग, सुसङ्गति लाहू+++(भ)+++
लोकहुँ बेद बिदित सब काहू+++(=किसीको)+++॥4॥ +++(4)+++
मूल
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवन्त हनुमानू॥
हानि कुसङ्ग सुसङ्गति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥
भावार्थ
बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान् और हनुमान्जी का हुआ। बुरे सङ्ग से हानि और अच्छे सङ्ग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥
सङ्गप्रभावः
विश्वास-प्रस्तुतिः
गगन चढ़इ रज पवन-प्रसङ्गा
कीचहिं+++(=कीचड़ मेँ)+++ मिलइ नीच जल-सङ्गा॥
साधु असाधु सदन-सुक+++(=शुक)+++-सारीं+++(=शारी=मैना)+++
सुमिरहिं राम, +++(अथवा)+++ देहिं गनि+++(त)+++ गारीं+++(ली)+++॥5॥+++(५)+++
मूल
गगन चढइ रज पवन प्रसङ्गा। कीचहिं मिलइ नीच जल सङ्गा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥
भावार्थ
पवन के सङ्ग से धूल आकाश पर चढ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के सङ्ग से कीचड में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूम कुसङ्गति कारिख+++(=कालिख, कज्जली)+++ होई
लिखिअ पुरान मञ्जु-मसि सोई॥
सोइ जल-अनल-अनिल-सङ्घाता
होइ जलद जग-जीवन-दाता॥6॥+++(५)+++
मूल
धूम कुसङ्गति कारिख होई। लिखिअ पुरान मञ्जु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल सङ्घाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥
भावार्थ
कुसङ्ग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसङ्ग से) सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के सङ्ग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥