004 सौजन्यम्

01 दोहा खलवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदासीन-अरि-मीत–हित
सुनत जरहिं+++(=जलहिँ)+++ खल रीति।
जानि पानि+++(णि)+++-जुग जोरि+++(डि यह)+++ जन
बिनती करइ सप्रीति॥4॥

मूल

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥

भावार्थ

दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोडकर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥4॥

02 चौपाई सद्-असद्-भेदः

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा+++(=प्रार्थना)+++
तिन्ह निज ओर +++(से)+++ न लाउब+++(=लाना)+++ भोरा+++(ला[पन])+++॥
बायस पलिअहिं+++(=पालयन्ति)+++ अति अनुरागा
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा+++(का)+++॥1॥+++(४)+++

मूल

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥

भावार्थ

मैन्ने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेङ्गे। कौओं को बडे प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ सन्त-असज्जन-चरना
दुःख-प्रद उभय, +++(किन्तु)+++ बीच कछु बरना+++(=वर्णन)+++॥
+++(सन्त-)+++ बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं
+++(खल-)+++ मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥+++(५)+++

मूल

बन्दउँ सन्त असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥

भावार्थ

अब मैं सन्त और असन्त दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अन्तर यह है कि एक (सन्त) तो बिछुडते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असन्त) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ सन्तों का बिछुडना मरने के समान दुःखदायी होता है और असन्तों का मिलना।)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपजहिं+++(=उपजात)+++ एक सङ्ग जग माहीं
जलज जोङ्क+++(=जलौका रक्तपाः)+++ जिमि, गुन बिलगाहीं+++(=विलग्न किये)+++॥
सुधा-सुरा-सम साधु-असाधू +++(क्रमशः)+++
जनक एक जग+++(रूपी)+++-जलधि अगाधू॥3॥+++(५)+++

मूल

उपजहिं एक सङ्ग जग माहीं। जलज जोङ्क जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥

भावार्थ

दोनों (सन्त और असन्त) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोङ्क की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोङ्क शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जडता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भल अनभल निज-निज-करतूती
लहत+++(←लभ्)+++ सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि+++(त्)+++ साधू
गरल अनल कलिमल सरि+++(त्)+++ ब्याधू+++(=व्याध)+++॥4॥

+++(इन के)+++ गुन अवगुन जानत सब कोई
जो जेहि+++(=यस्मै)+++ भाव, नीक+++(=निक्त/ साधु)+++ तेहि+++(=तस्मै)+++ सोई॥5॥

मूल

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥

भावार्थ

भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुन्दर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गङ्गाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥