01 दोहा सज्जन-वन्दनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्दउँ सन्त समान-चित
हित अन-हित+++(=शत्रु)+++ नहिं कोइ।
अञ्जलि-गत सुभ-सुमन+++(स्)+++ जिमि
सम सुगन्ध कर दोइ॥3 (क)॥
मूल
बन्दउँ सन्त समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अञ्जलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगन्ध कर दोइ॥1॥
भावार्थ
मैं सन्तों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अञ्जलि में रखे हुए सुन्दर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोडा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगन्धित करते हैं (वैसे ही सन्त शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त सरल-चित जगत-हित
जानि सुभाउ+++(=स्वभाव)+++ सनेहु।
बाल-बिनय सुनि करि कृपा
राम-चरन-रति देहु॥ 3 (ख)+++(र५)+++
मूल
सन्त सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3.1॥
भावार्थ
सन्त सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥2॥
02 चौपाई खलवर्णनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरि+++(=पुनः)+++ बन्दि खल-गन सतिभाएँ+++(=सत्यभावेन)+++
जे बिनु काज दाहिनेहु+++(=दाहने भी)+++ बाएँ+++(=वामे [करहिँ])+++॥
पर-हित-हानि लाभ जिन्ह केरें+++(=के)+++
उजरें हरष, बिषाद बसेरें+++(=वासे)+++॥1॥+++(र५)+++
मूल
बहुरि बन्दि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥
भावार्थ
अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजडने में हर्ष और बसने में विषाद होता है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरि-हर-जस+++(नामक)+++-राकेस+++(=राकापतिः)+++ राहु से+++(=सद्दृश)+++
पर अकाज+++(=अकार्य/ दुष्कार्य)+++-भट सहस+++(स्र)+++-बाहु से॥
जे पर-दोष लखहिं+++(=लक्षयन्ति)+++ सहसाखी+++(क्षी)+++
पर-हित-घृत +++(के लिए)+++ जिन्ह के मन माखी+++(=मक्खी)+++॥2॥+++(५)+++
मूल
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥
भावार्थ
जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शङ्कर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड देते हैं)॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेज कृसानु, रोष महिषेसा+++(=यम)+++
अघ-अवगुन-धन-धनी धनेसा॥
उदय +++(धूम)+++केत+++(तु)+++-सम हित सबही के
कुम्भकरन-सम सोवत +++(तो)+++ नीके+++(=निक्त/ साधु)+++॥3॥ +++(४)+++
मूल
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुम्भकरन सम सोवत नीके॥3॥
भावार्थ
जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर-अकाज लगि+++(=लग्न करके)+++ तनु +++(को भी)+++ परि-हरहीं,
जिमि हिम-उपल कृषी दलि गरहीं+++(=गलन्ति)+++॥
बन्दउँ खल-जस-सेष सरोषा-
सहस-बदन बरनइ पर-दोषा॥4॥+++(५)+++
मूल
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बन्दउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥
भावार्थ
जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाडने के लिए अपना शरीर तक छोड देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बडे रोष के साथ वर्णन करते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि प्रनवउँ पृथु-राज समाना
पर-अघ सुनइ सहस-दस-काना॥
+++(स पृथु-राजः सहस्रकर्णो ऽबुभूषत् सुर-यश-शुश्रूषया)+++
बहुरि+++(=पुनः)+++ सक्र-सम बिनवउँ+++(=विनयामि)+++ तेही
सन्तत सुरा-ऽऽनीक हित जेही॥5॥+++(५)+++
मूल
पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। सन्तत सुरानीक हित जेही॥5॥
भावार्थ
पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होन्ने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है (इन्द्र के लिए भी सुरानीक अर्थात् देवताओं की सेना हितकारी है)॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बचन-बज्र जेहि सदा पिआरा
सहस-नयन पर-दोष निहारा+++(=निभाला)+++॥6॥
मूल
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥
भावार्थ
जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं॥6॥