01 दोहा साधूनां प्रयाग-रूपकम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि समुझहिं जन मुदित-मन
मज्जहिं अति-अनुराग।
लहहिं चारि+++(४)+++-फल अछत+++(=अक्षत)+++-तनु
साधु-समाज-प्रयाग॥2॥+++(५)+++
मूल
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस सन्त समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥
02 चौपाई सत्सङ्गः
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(साधु-प्रयाग-तीर्थ-)+++मज्जन-फल पेखिअ+++(=प्रेक्षतां)+++ ततकाला
काक होहिं पिक, बकउ मराला+++(=हंस)+++॥
सुनि आचरज करै जनि+++(=न)+++ कोई
सत-सङ्गति-महिमा नहिं गोई+++(=गुप्त)+++॥1॥+++(५)+++
मूल
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसङ्गति महिमा नहिं गोई॥1॥
भावार्थ
इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योङ्कि सत्सङ्ग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालमीक नारद घटजोनी
निज निज मुखनि कही निज होनी+++(=घटनाः)+++॥
जलचर थलचर नभचर नाना
जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥
मूल
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड चेतन जीव जहाना॥2॥
भावार्थ
वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तान्त) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मति कीरति गति भूति भलाई
जब जेहिं+++(=जिससे)+++ जतन+++(=यत्न)+++, जहाँ जेहिं+++(=जिसने)+++ पाई॥
सो जानब+++(=ज्ञातव्य)+++ सतसङ्ग-प्रभाऊ
लोकहुँ बेद न आन+++(=अन्य)+++ उपाऊ+++(य)+++॥3॥
मूल
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसङ्ग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥
भावार्थ
उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्सङ्ग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु सत-सङ्ग बिबेक न होई
राम-कृपा बिनु सुलभ न सोई+++(=सोऽपि)+++॥
सत-सङ्गत मुद-मङ्गल-मूला
सोई फल सिधि सब-साधन फूला॥4॥+++(४)+++
मूल
बिनु सतसङ्ग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसङ्गत मुद मङ्गल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भावार्थ
सत्सङ्ग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्सङ्ग सहज में मिलता नहीं। सत्सङ्गति आनन्द और कल्याण की जड है। सत्सङ्ग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सठ सुधरहिं सतसङ्गति पाई
पारस+++(=philosophers stone)+++ +++(स्)+++परस कुधात सुहाई+++(=शोभित हुआ)+++॥
बिधि बस सुजन कुसङ्गत परहीं+++(=पडहीं)+++
फनि+++(=फणि)+++-मनि सम निज-गुन अनुसरहीं॥5॥+++(५)+++
मूल
सठ सुधरहिं सतसङ्गति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसङ्गत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥
भावार्थ
दुष्ट भी सत्सङ्गति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसङ्गति में पड जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात् जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोडती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के सङ्ग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पडता।)॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिधि हरि-हर-कबि-कोबिद-बानी
कहत साधु-महिमा सकुचानी॥
सो मोसन+++(=मुझसे)+++ कहि जात न कैसें +++(इति चेत् -)+++
साक+++(=शाक)+++ बनिक मनि-गुन-गन जैसें॥6॥
मूल
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥
भावार्थ
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी सन्त महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥