01 दोहा गुरुवन्दनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
जथा सुअञ्जन अञ्जि दृग
साधक-सिद्ध-सु-जान+++(ज्ञान)+++।
कौतुक देखत सैल-बन-
भूतल +++(में)+++ भूरि निधान॥1॥
मूल
जथा सुअञ्जन अञ्जि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥
भावार्थ
जैसे सिद्धाञ्जन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अन्दर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥
02 चौपाई वन्दनानि
गुरुवन्दनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरु-पद-रज मृदु-मञ्जुल-अञ्जन
नयन-अमिअ दृग-दोष-बिभञ्जन॥
तेहिं करि बिमल-बिबेक-बिलोचन
बरनउँ+++(=वर्णयामि)+++ राम-चरित भव-मोचन॥1॥
मूल
गुरु पद रज मृदु मञ्जुल अञ्जन। नयन अमिअ दृग दोष बिभञ्जन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥
भावार्थ
श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुन्दर नयनामृत अञ्जन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अञ्जन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बन्धन से छुडाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥
साधुवन्दनम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्दउँ प्रथम महीसुर-चरना
मोह-जनित-संसय सब हरना॥
सुजन-समाज सकल-गुन-खानी
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
मूल
बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥
भावार्थ
पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब सन्देहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान सन्त समाज को प्रेम सहित सुन्दर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु-चरित सुभ-चरित कपासू
निरस-बिसद-गुनमय-फल जासू+++(=यस्य)+++॥
जो सहि+++(=सहकर)+++ दुख परछिद्र दुरावा+++(=ढाङ्के)+++
बन्दनीय जेहिं+++(=जिससे)+++ जग जस पावा॥3॥+++(५)+++
मूल
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बन्दनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥
भावार्थ
सन्तों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, सन्त चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, सन्त का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तन्तु) होते हैं, इसी प्रकार सन्त का चरित्र भी सद्गुणों का भण्डार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढे जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) सन्त स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वन्दनीय यश प्राप्त किया है॥3॥
साधूनां प्रयाग-रूपकम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुद मङ्गलमय सन्त-समाजू
जो जग +++(मेँ)+++ जङ्गम-तीरथ-राजू॥
राम-भक्ति जहँ सुरसरि-धारा
सरसइ+++(=सरस्वती)+++ ब्रह्म-बिचार-प्रचारा॥4॥
मूल
मुद मङ्गलमय सन्त समाजू। जो जग जङ्गम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥
भावार्थ
सन्तों का समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस सन्त समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गङ्गाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिधि-निषेध-मय-कलिमल-हरनी
करम-कथा रबि-नन्दनि +++(यमुना)+++ बरनी+++(=वर्ण्यमाना)+++॥
हरि-हर-कथा बिराजति बेनी+++(=वेणी)+++
सुनत +++(तो)+++ सकल मुद मङ्गल देनी॥5॥
+++(रामभक्तिः विधिनिषेधकथा हरि-हरकथा इति त्रिवेणीसङ्गमः, सरस्वती च ब्रह्म-विचार-प्रसारः)+++
मूल
बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनन्दनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मङ्गल देनी॥5॥
भावार्थ
विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शङ्करजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(अक्षय)+++बटु+++(=वट)+++ बिस्वास अचल निज-धरमा
तीरथ-राज-समाज सु-करमा +++(है)+++॥
सबहि सुलभ सब-दिन सब-देसा
सेवत सादर +++(तो - )+++ समन+++(=शमन)+++ कलेसा॥6॥
मूल
बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥
भावार्थ
(उस सन्त समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (सन्त समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकथ अलौकिक तीरथराऊ
देह सद्य फल प्रगट-प्रभाऊ॥7॥
मूल
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥
भावार्थ
वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥