000 मङ्गलम्

01 श्लोक वन्दनानि

देववन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णानाम् अर्थसङ्घानां
रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ
वन्दे वाणी-विनायकौ॥1॥

मूल

वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥

भावार्थ

अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मङ्गलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवानी-शङ्करौ वन्दे
श्रद्धा-विश्वास-रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति
सिद्धाः स्वान्तःस्थम् ईश्वरम्‌॥2॥+++(4)+++

मूल

भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥2॥

भावार्थ

श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शङ्करजी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वन्दे बोधमयं नित्यं
गुरुं शङ्कर-रूपिणम्‌।
यम् आश्रितो हि वक्रोऽपि
चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥+++(५)+++

मूल

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्‌।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥

भावार्थ

ज्ञानमय, नित्य, शङ्कर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता-राम-गुणग्राम-
पुण्यारण्य-विहारिणौ।
वन्दे विशुद्ध-विज्ञानौ
कवीश्वर-कपीश्वरौ॥4॥+++(५)+++

मूल

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥

भावार्थ

श्री सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्भव-स्थिति-संहार-
कारिणीं क्लेश-हारिणीम्‌।
सर्वश्रेयस्-करीं सीतां
नतोऽहं राम-वल्लभाम्‌॥5॥

मूल

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्‌।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्‌॥5॥

भावार्थ

उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्-माया-वश-वर्ति विश्वम् अखिलं ब्रह्मादि-देवासुरा
यत्-सत्त्वाद् अमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर् भ्रमः।
यत्-पाद-प्लवम् एकम् एव हि भवाम्भो-धेस् तितीर्षावतां
वन्देऽहं तम् अशेष-कारण-परं रामाख्यम् ईशं हरिम्‌॥6॥

मूल

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्‌॥6॥

भावार्थ

जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वन्दना करता हूँ॥6॥

सङ्कल्पः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाना-पुराण-निगमागम-सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिद् अन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ-गाथा-
भाषा-निबन्धम् अति-मञ्जुलम् आतनोति॥7॥

मूल

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥

भावार्थ

अनेक पुराण, वेद और (तन्त्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥

02 सोरठा वन्दनानि

देववन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सुमिरत सिधि होइ
गन-नायक-करिबर-बदन।
करउ अनुग्रह सोइ
बुद्धि-रासि सुभ-गुन-सदन॥1॥

मूल

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥

भावार्थ

जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुन्दर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूक होइ बाचाल
पङ्गु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल
द्रवउ+++(=द्रवीभूयात्)+++ सकल-कलिमल-दहन॥2॥

मूल

मूक होइ बाचाल पङ्गु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥2॥

भावार्थ

जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुन्दर बोलने वाला हो जाता है और लँगडा-लूला दुर्गम पहाड पर चढ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नील-सरो-रुह-स्याम
तरुन-अरुन-बारिज-नयन।
करउ सो मम उर-धाम
सदा छीर-सागर-सयन॥3॥

मूल

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥

भावार्थ

जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे भगवान्‌ (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्द-इन्दु-सम-देह
उमा-रमन करुना-अयन।
जाहि दीन पर +++(स्)+++नेह
करउ कृपा मर्दन मयन+++(=मदन)+++॥4॥

मूल

कुन्द इन्दु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥

भावार्थ

जिनका कुन्द के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शङ्करजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥

गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ गुरु-पद–कञ्-ज
कृपा-सिन्धु नर-रूप-हरि।
महा-मोह-तम-पुञ्ज +++(के लिए)+++
जासु बचन रबि-कर-निकर +++(है)+++॥5॥

मूल

बन्दउँ गुरु पद कञ्ज कृपा सिन्धु नररूप हरि।
महामोह तम पुञ्ज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

भावार्थ

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

03 चौपाई वन्दनानि

गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दऊँ गुरु-पद-पदुम-परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ+++(=अमर)+++-मूरि+++(लि =सञ्जीविनी)+++-मय-चूरन-चारू।
समन+++(=शमन)+++ सकल-भव-रुज-परिवारू॥1॥

मूल

बन्दऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

भावार्थ

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (सञ्जीवनी जडी) का सुन्दर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

शिवतिलकवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकृति सम्भु-तन-बिमल-बिभूती।
मञ्जुल मङ्गल मोद-प्रसूती॥
जन-मन-मञ्जु-मुकुर+++(=दर्पण)+++ मल-हरनी।
किएँ तिलक - गुन-गन-बस+++(=वश)+++-करनी॥2॥

मूल

सुकृति सम्भु तन बिमल बिभूती। मञ्जुल मङ्गल मोद प्रसूती॥
जन मन मञ्जु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥

भावार्थ

वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुन्दर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥

गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्री-गुर-पद-नख मनि-गन-जोती
सुमिरत दिब्य-दृष्टि हियँ+++(=हृदय में)+++ होती॥
दलन मोह-तम सो सप्रकासू
बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

मूल

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बडे भाग उर आवइ जासू॥3॥

भावार्थ

श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बडे भाग्य हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उघरहिं+++(=उद्घाट्यन्ते)+++ बिमल-बिलोचन ही+++(=हृदय)+++ के,
मिटहिं दोष-दुख-भव-रजनी के॥
सूझहिं+++(=संज्ञायन्ते)+++ राम-चरित-मनि-मानिक
गुपुत प्रगट जहँ+++(=यत्र)+++, जो+++(→गुरु)+++ जेहि+++(=जिसका)+++ खानिक+++(=खनक)+++॥4॥

मूल

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥

भावार्थ

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पडने लगते हैं-॥4॥