श्रीमते निगमान्त महादेशिकाय नमः अस्मद्धुरु परॆंसराय्कॆ नमः क्षे! शि क । चरमश्लोकाथकारः यॆ उपनिषदा मन्ते यस्मादनन्त दयाम्बुधेः । त्त्रुटत जनतातोकः श्रोकस्प यं समुजायत ॥ तमिहॆ विधिना कृष्णं धर्मं प्रपद्य सनातॆनवरक् । शनित दुरिता शैजृतजृत्यज स्सुख मास्महे 1681 श्रीमतॆ निगमान्त महादेशिकाय नमः श्रीमद्रहस्यत्रयसारदल्लि चरम श्लोकाधिकारक्कॆ “सारचन्द्रिका? व्याख्यान हीगॆ शरणागत्यनुष्मासकवाद “द्वय”मन्त्रक्कॆ व्याख्यानवन्नु माडि शरणागति विधायक वाद चरमश्चोकक्कॆ- व्याख्यानवन्नु माडलॆणिसि य उपनिषदामन्ते, ऎन्दु अधिकारार्थ वन्नु निरूपिसुत्ता यः-यावनॊब्ब नु उपनिषदां-वेदान्तगळ अन्ते-नुध्यदल्लि “सायङ्कालेवनान्ते” ऎम्बल्लि अन्त शब्दवु मॆध्यवाचि, हागॆ. सर्वोपनिषत्तुगळल्लियू उपक्रमोपसंहारगळिगॆ अनु गुणवागि ip प्रतिपादकत्ववु हेळल्पट्टितु आधवा अन्तशब्दवु समीपवाची सर्वोस निषत्तुगळ समीपदल्लि वर्तिसुत्तानॆन्दरॆ सर्पोसनिषत्रृतिपाद्यनु ऎन्दु सूचित. “उपनिषदां” ऎन्दु गीतोसनिसत्तू विवक्तित. “भगवद्दीतासु उ पनिषत्सु? ऎम्ब प सिद्धि गॆ अनुसारवागि बहुवचन. इल्लि उपनिषत* पदवु गीतोसनिषत्तन्नु सूचिसुवुदागि हेळुवुशे मेलु “उपनिषद नखदारा मुद्वमन् स्लापिलक्षॆ कॆ शरणमुपगतान्मः त्रायते शांर्गदना My ऎन्दु आचार्यरु गीताभाष्य शात्पर्य चन्द्रिका व्याख्यानद आरम्भदल्लि अनुग्रहिसिरुव श्लोकद प्रकार, भगवद्गीतॆयॆम्बुदु उपनिषत्तु. “आत्रोप निषदं पुण्यं कृष्णद्वॆ सायनोःब्रवीत् ऎन्दु “भारतः पञ्चमोवेदः’ ऎन्दु प्रसिद्धवाद महाभारतवॆम्ब ऐदनॆय वेददल्लि उसनिस द्भागवागि गीतॆयु हेळल्पट्टिदॆ. भगवन्तनिन्द साक्षात्तागि प्रणीतवागि अर्जुननिगॆ उपदेशिसॆ ल्पट्ट प्रबन्धवु व्यासमहर्षिगळिन्द महाभारतद मध्यदल्लि यथास्थान बरकॆयल्प ट्टदि ऎम्बुदु सम्प्रदाय. भगनद्गीतय 15ने अध्यायदल्लि 75ने श्लोकदल्लि ल्लि “सात् कथयत स्स यम्? ऎम्ब गीता वाक क्क “कृष्ण्मूत् स्वयमेव कथयॆतः साफ्रात् शै )तवानहम्” ऎम्बुदु गीता भाष्य. “स्वयॆमेन कथयतः. नतुसकैैर्वाचयतः’ बन्द तात्पर्य चन्द्रिक. 70ने श्लोकद “सॆंवादमिम मद्भुतम्’ ऎम्ब वाक्यक्कॆ “अद्भुतं-शब्धत्य अर्थतक्क आश्चॆर्यावहम्”. ऎन्द. 1041 श्रीमद्रहस्यत्रॆयसारे दुर्बिज्जा नै नि९यमगहनै र्दूर निश्रा न्तिदेशै 8 । इरानि? ९ र्बहुभिरॆयन्सै श्कॊ ज् न स्सु सन्मा § । इत इरा, म ह आ ONS EBACE TN Ue EVRA न्तवता बा AY PERRIN, न ल्ल भज ह् जट तात्पर्य. चन्द्रिका व्याख्यान. आद्दरिन्द भगवद्गीतॆयु भगवन्युखारविन्ददिन्द हॊरटि शब्दगळ राशि, कृष्ण परमात्मनु उपदेशिसिद गीतार्थवन्नु व्यासमहर्हिगळु स्पवाक्यदिन्द रचिसिद प्रबन्धनॆन्दल्ल. पाञ्चरात्रस्य कृत्सस्य नक्रानारयणस्सृ मय्” निन्दु पाञ्चरात्र संहित गळन्नु भगनन्तनु साक्षात्तागि उपदेशिसिद हागॆ ई गीतोसनिसत्तू साक्रात्तागि भगवन्तॆनिन्द उसदेतिसिदुदु. आ वाक्यगळन्ने व्यासरु तम्म प्रबन्धदल्लि ग्रथिसिद्धारॆ. आद्द रिन्द ई उपनिष त्रिन “अन्ते « अन्त्यभागदल्लि पठितवाद “सर्वधर्मान् परित्यज्य? ऎन्दु जः चरम श्लोकवु ऎन्दु विनक्षिसुवुदु युक्ततर वर्तते-प्रतिपाद्यनागि इद्दानॆयो,यसा iS असरिमितदयासागरवागि अवतरिसिद कृष्ण सरमात्मन सकाशदिन्द तुटि स्रितजनशाशोकः-जनसॆन दायद संसार क्लेशवन्नु, होगलाडिसुव श्लोकः - भरन्यासानुन्ना नवन्नु विधिसुव mi ’ श्लोकवु स्वयंसमजायत-वन्याथनिन्द टु क्रौञ्च पक्षियन्नु नोडि शोकगॊण्ड वाल्मीकि महर्षिगळ शोकवु “मानिषाद प्रतिष्क्ठान्त्टं? विम्ब श्लोकवागि स्वयं परिणमिसि ’ दन्तॆ, दुष्टर भक्तियोगादिगळन्नु माडबेकॆन्दु केळिद अर्जुननु शोकसडलु, आ शोकवन्नु नोडि अदरिन्द उण्टाद भगवन्तॆन दयॆयु चरनुश्लोकवागि तानागिये परिणमिसितु. “स्वयं समजायत, दयाम्बुधेः?’ ऎम्ब पदगळिन्द दयासमुद्रदिन्द उण्टाद अमृतवु ई चरम श्लोकवॆम्बुदू इदन्नु पान माडुववरु आन्दरॆ ई चरम श्लोकार्थवन्नु ग्रहिसि शरणा गत्यनुष्ठान माडुववरु, शाश्वतॆवाद अमरत्ववन्नु हॊन्दबहुदु ऎम्बुदु सूचित, तं- सनातनं-धर्मं.कृष्णं–आ सनातन धर्मनाद कृष्ण सरमात्मॆनन्नु, इह. ई लोकदल्लि विधिना चरमश्कोकदल्लि “मामेकं शरणं व्रज? ऎम्ब निधि वाक्यानुसारवागि, प्रसद्य - शरणहॊन्दि शनितदुरिता8-“सर्वपासेज्यो मोक्ष क्ष यिष्यामि? ऎम्बन्तॆ सर्वपाप विमुक्तरागि शॆङ्कातङ्क त्यजः-सन्देहवॆम्ब व्याधियन्नु बिट्टु अवश्य भगवन्तनु रक्षिसुत्तानॆम्ब ळन्नु स युक्तॆ रागि (माशुचः ऎम्ब वाक्यद अर्थ.) सुखवनु हे- सुखवागिरुत्तॆ, (वॆ. भगवन्तनु दुष्टर कर्मयोग जा नियोग भक्तियोगगळनन्नु तिळिदु शोकसडुव’ अकिञ्च नराद जीनरिगॆ सुलभवाद शरणागति मार्गवन्नु तोरिसिकॊ ओृद्धानॆन्दु ‘दुर्विज्ञ्यानैः ऎन्दा रम्भिसुव श्लोकदिन्द तिळिसुत्तारॆ. अदागि दुर्ति ज्ञा नै 8-कष्टसट्टिरू, तिळियलागद नियॆमग हनैः-नियमगळिन्द कूडिरुवुदरिन्द अनुस्कि स् गळाद डन विश्रान्ति देशैः- चिरकाल साध्यवाद फलदशॆयन्नुळ ऎन्थ, आद्दरिन्दले बालानह्टॆ 1-अकिञ्चनरुगळिगॆ जा अशक्यगळाद ’ बहुभिः-नानाप्र जि आयन! 8- कर्मयोग, जा “योग्य भक्तियोग रूसगळाद उपाय गळिन्द, अन्दरॆ आ उपयगळ जा निन्द शोचतां-स वॆ शोकिसुत्तिरुव, न8-नमगॆ सुपन्थाः । सुलभोपायॆनागि, अन्दरॆ आ * दुष्टर कर्मयोग जा कनयोग सहकृ त भक्षियोग स्थानदल्लि ताने सिल्लुववनागि… अवुगळन्नु अनुष्मिसिदरॆ कॊडुन.: फलवन्नु सनक विषयदल्लि अवुगळन्नु. “अनुष्मि सदये प्रपत्ति वशीक सृतनागि जा ऎन्दर्थ- नक-नम्मुन्नु निन्न फ्रै त्यूहॆं याव चरमश्लोकाधिकारः 1042 निष्ट त्यूहं निजसदमसौ नेतु कामस्स _भूवतन्ना । र थेयं किमपि विदधे स्टा रथि स 4 रैसेता 1691. ऒण्णॊ डियाळ् शिरुमुहळुन्न नु माहि यॊरुनिन्सॆ वालीन्र्रवुयरॆल्ला मुय्यु । वज्जुनरैनगर् वां) वशुदेवर् काय्, मन्नवर्क्ळुत्तेर्प्पाहनाहि निन्र । तण्न्मुळव मलर् मार्फृन्ताने शॊन्न तनित्तरुमना,नॆमक्काय्त्तन्नॆ ःयिस्र्र । विफ्लवू इल्लदॆ स्वभूवन्मा-तन्न माहात्म दिन्द निजपॆडं-तन्न सदनवन्नु अन्दरॆ तनगॆ असाधा रणवाद परमसदवन्नु नेतुकामः-करॆदॊय्यलु आसॆयुळ्ळ सर्वनेता - सर्वनियन्तानाद, सारथिः-आश्रित वात्सल्यदिन्द अर्जुननिगॆ सारथियाद, आसौ-ई पार्थसारथियु किमपि– अनिर्व चनीयवाद, सत्पाथेयः. आर्चिरादि मार्गदल्लि होगलु योग्यवाद शरणागतियिम्ब १ पायॆ “सत् ऎम्ब शब्ददिन्द, सर्वाधिकारि साधारणत्ववू, सर्वानिष्टनिवर्तन क्षमत्ववू सर्वेष्ट साधन त्ववू सुकरत्ववू, सकृत्वर्तव्यत्ववू श्रीघ) फलप्रदत्ववू प्रतिबन्धानर्हत्ववू, उपायान्तर प्रयोगासहत्वादिगळू विवक्षितगळु, निदधे-“मामेकं शरणं व्रज ऎन्दु निध्दसिदॆ डु अनन्तर ऒण्डॊडियाळ् तिसुनुहळुम् तानुमाहि ऎन्दारम्भिसि श्रियःपतियु जगत्तन्नु सृष्ठिसि आ जगतु, उज्जीविसलु ताने कृष्णनागि अवतरिसि, अर्जुननिगॆ सारथियागिद्दु, अवनिगॆ उपदेशिसुव व्याजदिन्द लोकक्षेमक्कागि सीतॆयन्नु उपदेशिसिदनु. ऎन्दु अधिकारार्थक्कॆ अव तारिकॆयन्नु अनुग्रहिसुत्तार्कॆ, अदागि ऒण*-उज्वलवाद तॊडियाळ* - तोळु बळॆगळन्नु ळ्ळ तिरुमहळुव५-महालक्षि यू तानुमाहि-तानू कूड इद्द्बु ऒरुनिनैवालीन) इब्बरू सेरि माडिद सङ्कल्पदिन्द सृष्टिसल्पट्ट उयिरॆल्ला वय्य. जीवराशिगळॆल्ला उज्जीविसुवुदकॊ स्पर इदरिन्द तदै्षत, बहुस्कां प्रजायेय ऎम्ब जगत्स ृह्मि सङ्कल्पवू इब्बरिन्दलू माड ल्बडुत्तदॆ ऎम्बुदु सूचित, एकमेव” ऎम्ब ऐक्य श्रुतिगॆ विरोधविल्ल. लक्ष्मियु असृथग्यूत शक्तित ैवाद्मरिन्द शक्ति शस्त्रमान् ऎम्बुदु ऒन्दे तत्व, भास्वानेको लोक प्रकाशकः-प्रकाश दिन्द कूडिद सूर्यनु ऒब्बने लोकक्कॆ प्रकाशकनु ऎन्दरॆ भास-प्रकाशवू भास्वान्–स्रकाश दिन्द कूडिदननू नितेषण.. विशिष्टवाद ऒन्दे तत्ववॆन्दर्थ. “कमितुरिद मित्कन्त्व विभवात्? ऎम्बन्तॆ इदं शब्दक्कॆ इत्फ न्त्वद “sn लक्ष्मि यू. “व्यासकानति संस्थेषादेकतत्वविवोदितौ? ऎम्ब शास्त्र सन्दर्शित रीियल्लि, परमकारणवाचि शब्दगळल्लि विशेषण विशिष्टळागि ऎण्डु तत्ववू सेरि ऒन्दु ऎन्दे हेळुव रीतियल्लि अङ्गर्ततॆ. तिरुवुहळुव् तानुमाहि-ऎन्दु विशिसॆ ¥ MN स ळॆम्बुदु तात्पर्य. वण्तुवरै नगर्वाि-:दारवाद अन्दरॆ पुरीद्वारवतीचैव स्रैैते मुक्ति दायिकाः’ ऎन्दु मोक्षसॆ ‘)दवाद नगर अदरल्लि वासमाडुव नसुबेनक्कायक् त हत्त पुत्रनागि अवतरिसि «व्या? ऎड पाठवादकॆ आ नगरद जनगळु उज्जीविसुनन्तॆ ऎन्दर्थ, मन वर्क्य्क- राजनाद अर्जुननिगॆ, तेर्पाहनाहिनिन्र -सारथियागि निन्त तण् शीतल वाद्य तुळुव मलर् वतार्बन..तुळसीमालॆयन्नु ऎडॆयल्लि धरिसिद्द ताने शून्म- कृपा 1048 श्रीमद्रहस्यत्रॆयसारे जृण्णुकळित्तडि शूड जट्ट 1 निन्र कण्णुडैयल् विळ्ळॆयाट्टॆ क्क्यगिक्सिन्रा नी चरम शॊ कस्य अवतारिका
- “एष नारायण श्श्र्रीमान् क्षीरार्णव सिकेतनः । नागपर्य ज्ह मुत्त जृह्या गॆतो मधुराम्पुरीना् ॥” _ ऎन्नि रपडिये श्र यः a सर्वेश्वरन्, साधुपरत्रुण, दुष्कद्वि नाश धर्मसंस्का पन हु सण्णु वरापति मन्न न्ना टि वन्नवतरित्तरुळि सर्व सुलभनाय्, 1) दौ ्राहॆद्या सहिता स्लर्हे नमश्न कु ्रर्जनार्दननु*, ऎन्नि ई डियो शरणागतरान पाण्डवर हळुकु) विशीषदिन्द तानागिये उपदेशिसिद तनित्तरुमम् तान् - अद्वितीय धनवु ताने आगि ऎमक्काऎं्-नमगोस्यर भरस्वीकार माडि उपायान्तर स्थानदल्लि निल्लुनवनागि तन्नै-उभय् “विभूति विशिष्टनागि समस्त कल्याण गुण पूर्णनाद तन्नन्नु ऎनुुम्-सर्वकालदल्लियॊ, कण्डु साक्षात्करिसि, “कळितु सन्तोषसट्टु (आनन्दिसि ऎन्दर्थ) अदरिन्द अडिशूड- श्री प पादगळन्नु शिर सावहिसुवुदे कॊडलाद कैण्ठरृगळिगॆ निलक्भाय् निन्र -प्रतिबन्धकवागिरुव कण् पुदै यल् . विळ ४ याट्बि 4° मक्कळु कण्णा मुच्चा लै कटनासतॆ क तत्वहित पुरुषार्थगळ म ज्ञानवन्नु मरॆसुव संसार बन्ध लीलॆयन्नु क.गिक्टिन्राने- _ोसलाडिसुदा, नॆ. प्रबन्धावतार अनन्तर ई पाशुरदल्लि हेळिद चरमश्लोकद आनतार क्रमद पीठिकॆयन्ने !) एषनारा यण श्शि मान?” ऎन्दारम्भिसि विस्तारवागि तिळिसुत्तारॆ. अदागि ई श्रीमानाद नारायणनु क्षीरार्णवनन्नु तनगॆ वासस्कासवागि ’ नडॆदिद्दु, आदिशेषनॆम्ब हासिगॆयन्नु मुञ्चितवागिये बलरामनागि अनतरिसुनन्तॆ भूमिगॆ कळुहिसि. “भूमा वुत्स ज्य; नन्तर, तानु मधारानगरदल्लि बन्दं कृष्णनागि अवतरिसिदनु, ऎन्हिरपडिये-ऎन्दृ हेळुनन्तॆ, श्रियःपतियतानॆ सर्नेश्व रन्-लक्षि ’ पतियाद सर्वेश्वरनु साधु परित्राण-इत्याद साधु परित्राण दुष्कृद्धिनाश RR ब ऎल्ला इ. लक्ष्मी मत्तु अवळ पतियाद नारायणरिब्बरू सेरि नडॆसुत्ता फ्रा रॆम्बुदक्कॆ “निषनारायण श्रीमान् ऎम्ब वचनवु प्रमाण. इदन्नु अनुसरिसिये श्रियः पतियान स सरॆ श्व रन्? ऎन्दु अनुग्र हिसिरुत्ता, रॆ… गीता भाष्यद आरम्भदल्लियू इदे अभिप्रायदिन्द “श्रियः पता ऎन्दु आरम्भिसल्पट्टजि. हीगॆ श्रिय पतियु साधुगळन्नु रक्षिसलू, दृष्टरन्नु नाशनडिसलू, धर्नुसंस्का सनक्टागियू, वण्तुवरा पतिमन्म्ननाय्-इत्यादि उज्वलवाद द्वारकानगरक्कॆ राजनागि बन्दु अवतारमाडि सर्वसुलभ नागि, 1) दौ पिपद्यासहितास्पर्मे इत्यादि-दौसदियॊडनॆ कूडि पाण्डवरु जनार्णननन्नु शरणा गति हॊन्दिदरु-ऎन्दु हेळिरुवन्तॆ शरणागतराद पाण्डवरिगॆ इन्नार् तूदनननिन्रु-इन्थहवरिगॆ
- हरिवंस.113-6) 1) भारत अरण्य पर्व-192.56 चरमश्लोकाधिकारः 1044 इन्नार् दूतनॆननिन्रु, अर्जुनन रथियाक्कि, तान् सारथियायर्य, अननुक्ळु निधेय नाय्, निन्रवळॆविले इव्व र्जुनन् तन्नै नमित्त मात त्र माहक्कॊण्डु सर्वेश्वरन् तन*प्रति पक्षज्ञ ळ्ळ निरसिक्स निन्र सल्प य्ळ क्स डु बन्धुविनाकम् सिद्दनॆन्रु निशॆ य अस्थान स्थ हत्त ल् हिरन्ह सोक पः अस्थान क पै यालुम्म, अचार्यादिहळ् युद्धो नु खरीयाहिलुम्, अवर्हळ् वधत्ताले खिखॆर वरुहिरदॆन्नि र भयत्तालुमा् कलज्ञु ऎदुहितमॆन्रु तॆळियवेणुमॆन्रु पार्तु 1) “यॆचॆ । २ीयस्सा । न्म शि त ब्रूहि तन्मॆ! ९ शिषृस्तॆ नि शाधि मां त्वं न प्रपन्न म्” ऎन्नु विण्ण प ० शॆय्य, अवनुडैय शोकत्तॆ 4 निवर्विप्रिक्कॆ ग क्काह देहादिव्यतिरिक, माय्, परशेषतैकरस मान नित्यात्म स्वरूपत्तॆ, फयखुव्, न ऎरूपम् तॆळिन वनुक्सु सरमपुरुसूर्थ लाभ तु तक्क परम्परया कारणज्ञळान कर ‘योग ज्ञा नयोगज्ल ळैंयुम्, साक्लादुपाय माह जचोदितमान भक्तियोगत्त्वै यॆम्म्, सपरिकरमाह उपदेशिक्क, इप्परम पुरु तानु दूतनु ऎन्दु हेळुवन्तॆ-इदरिन्द सौलभ्यवू सौशील्यवू व्यक्त-अर्जुननन्नु रथियाक्कि इत्यादि रथदल्लि कुळितिरुवनागि माडि, तानु सारथियागि, अवनिगॆ विधेयनागि निन्रवळनिले- भगवन्तनु निन्तुकॊण्डनु. ई सन्दर्भदल्लि इव्वर्जुनन् इत्यादि-ई अर्जुननु तन्नन्नु निमित्त वागिट्टुकॊण्डु सर्वेश्वरनु तन्न (आर्जुनन) स्रतिसक्षिगळन्नु निरसन माडलु निन्तिरुवुदन्नु नोडि बन्धुविनाशवु सिद्दवॆन्दु निश्चयिसि, अस्थान स्नेहत्ताले इत्यादि-युद्ध भूमियल्लि युद्धमाडदॆ प्राप्तवल्लद स्कळदल्लि, बन्धु स्थॆ स्नेहॆदिन्द. उण्टाद शोकदिन्दल्लू करुणॆयिन्दलू आचार्यरुगळु यज्नोन्मुखरागि, अवरुगळ : वधदिन्द पापवु ‘सम्भवनिसित्तजॆ ऎन्दु भयगॊण्ड अर्जुननु, कलङ्गि-मनस्सु कलगि निन्तनु. ऎदुहितमॆन्रु इत्यादि-आग युद्ध माडुवुदु हितवे माडदॆ इरुवुदु हितवे ऎन्दु तिळुवागि तिळिदुक्कूळ्ळबेकॆन्दु नोडि, 1) यच्छॆ वीयतस्यान्सि श्लितम्ब्बू ) हि इत्यादि ननगॆ यावुदु श्रेयस्सॆम्बुदन्नू निश्चिसिदियो तिळिसु, अदकोस्टर निन्नल्लि शरणागति माडिद्देनॆ. नन्नन्नु शाधि-शासनॆ माडु ऎन्दु प्रार्थिसिदनु. अवनुडै यं शोकत्तॆ 4 ौत्यादि-अर्जुनन शोकवन्नु होगलाडिसल्लु देहादिव्यतिरिक्तमाम् जीहक्किन्तलू बेरॆयागि परशेसतै करसमान इत्यादि सर्वोत्सृष्ट नाद भगवन्तनिगॆ शेष भूत नागिरुवुदे तनगॆ स्वभानवाद अतन नित्य स्वरूपवन्नू ई स्व नु. तिळिदवनिगॆ सरम पुरु षार्थ लाभक्कॆ सरंसरॆयागि’ कारणगळाद. कर्नुयोग ज्ञा WSS ws , साक्षादुपायवागि चोदितमान-शास्त्रगळल्लि विधिसल्पट्टि भक्तियोगवन्नू सपरिकरनाह इत्यार्थिकातगळॊण्डॆ, 3.10 [बृ EE Landa DLP ia REIT he SE AEA BUI साय. वू धर्व es । यच्छॆ पीयस्कां निश्चितं ब्रूहितन्मे । शिष्यस्तेहं शाधि मान्त्मां प्रपन्मम् ॥ गीतॆ 2-7 कर्त्कवा कर्तव, जा नविलदॆ, धर्मवु यावुदॆन्दु तिळियदॆ निन्नल्लि शरणं हॊन्दिद्देनॆ, ननगॆ युद्द माडु पि कॆ इ ४ स्म ऎ ऎ वुदु श्रेयस्से, माडदिरुवुदु, श्रेयस्से ऎम्ब ऎरडरल्लि यावुदन्नु निश्चयिसिदॆयो अदन्नु निन्न शिष्कनाद अ ” खि गु ण् च षॆ क ननगॆ तिळिसि, नन्नन्नु शासिसु- मुन्दिन कार्यदल्लि आज्ञापिसु 1918: आं षु त्रा हाद्रहन्य वस स्य श्र म ey 4 Sy cE ATTN 4 षाफ्यत्तॆ, त तुतॆॆरनेश मनि कतक (याहिलुव् सहरिकरमान, इप्पुसायत्ति न्न्ज्छिय दुष्पकतैयिन्नालुवस्तॊ इवु पायानुष्ठा नतु नक्कु ` अपेक्षित ज्ञा नशक्तियुण्डे यॆाहिलुम् ‘नेकावधानत्को डे. सञ्ज चिरकाल. साध्यमान उपाय् स्वभावत्ता ले अभिव्हतम् “कडुहत्तलैक्टभ्याडसढि “इरुत्तॆ पयालुम्, निरतिशय शोकानिष्टन नान शिर्जुननै व्याजॆयाहक्क तु. फरॆमकारु कनान गीतॆ- १ सॆनिषद्दाचार्यन् A भक्ता प परमया मानि स प्रस् 3नक महामते । क य “फान् हा प्रो ‘नॆ “चुर् कॆ’ङ्कक्य अप्र भिः IBEEIE eB जा ९867 त् विधित्त उपायज. ळिल् 4 फ्रि, इन्था छा तावनॊ हस्तभांसुखर्म? ऎफ्सि स तनि हुतत धुख्छळ्सन5: मतु् सअभनककानन्सॆ ऎल्लात्तु)क्टुम् ‘पॊदुवान ‘साधनमाय् आनुकूल्य सज्जल्पादि व्यतिरिक्त, सरिकर निरसेश्षमाय्, लघुतरमायु्. क्षणमात्र साध्य मौन- रॆहस्कतनोषपायत्तॆ- शैव श्र्रोतव्य शेषनिल्ला दपडि उपदेश ire: चरम क्लू कत्ताआ् सकल -टलोक’रक्लार्थमाह अरुळिचॆ 3 य्दान्. ७2 इ प् सिद्द मास ‘इन्न व्वर्थत्तॆ 1 शरण्यनान - सक्तॆ र्व रन् नः उपनीशिक्क विदु ताने खुपगीतिसिवनु. आग इप्प रम पुरुषार्थत्तॆ, 3 ई सरमसुरुषार्थवन्नु कडुह-शीघ्रवागि, पणॆय :चेकॆय. त्व कियु उन्दादरू, सपरिकरवाद भक्तियोग रूसवाद- ई उपायवु, दुष्टरवाद, :रिन्दलू- हच उप्पायानुष्कानक्कॆ अपेक्षित वाद जा न शक्तिगळु इद्द रू. बहळ सावधानवागिद्दु रडु- चिरकाल. साध्यवाद. ई स स्वभावदिन्द इष्टार्थवु कडुहॆ-तीफ्रवागि, तल्पै 3 ‘सृष्टाद पडि यिरुक्सै ‘याय् सिद्धि सुवुदिल्लवाद्द रिन्दलू निरतिशय शोकदिन्द कूडिद अर्जुन नन्नु व्याजवागिट्टु yl परम २.४५… ep कृष्ण परमात त्मनु KE तानु विकल्पिसि “वधिसिद हर २, Ser सफावाञ्चा’ इत्यादियागि हेळि “नन्तॆ तन्न् श्री पादगळन्नु पडॆयनिवुदक्कू, मत्तु इतर पुरुषार्थगळॆल्लनन्नू पडॆयुवुदक्कू साधारणवाद आनुकूल्य सङ्कल्पादिगळिगिन्त बेरॆ याव अङ्गगळू बेकिल्लवागि लघुतरवागि- क्षणकाल साध्यवाद रहॆस्यत्प मवाद शरणागकियिम्ब उपायवन्नु निरवशेषवागि उपदेशद ऎल्लॆयाद चरम त्सोकदिन्द सकल लोक रक्षणार्थवागि कृनॆमाडि हेळुत्तानॆ. ; “नॆप्रॆसीदति वै विद्या विना सदुपदेशशः” ऎन्दु सदाचाक्योनदेशविल्लदॆ विद्यॆयु फलकारि यागुवुदिल्लवॆन्दकॆ, एतादृश अर्थवन्नु उपदेशिसिद श्रीकृष्ण परमात्मने सुट्ट इस रिन्द, ई उपदेशवु आचार्यन अनुज्ञॆ न आगिदॆ ऎन्दु श्रु ‘शिसिद मान इव ऎर्थत्तै ऎन्दा. रम्भिसि आनुग्रहिसुत्ताकॆ. SE “मुमुक्षुर्वै शरणमहं स स्र सड्यी ऎम्ब श्वेताश्वतर श्र्रकि विहितवाद शरणागतिरूसवाद अर्थवन्नु शरण्यनाद सर्वेश्वरनु ताने उपदेशिसल्कु इदे LESTE EL ESE 33 372.1
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चरमतश्कोकाधिकारः 1046
- सन्त्यज्य विधिना नित्यं षड्तिधां- शरणागतिम् ॥ आचार्यानुज्ञ या कुर्याच्छास्थ क्रदृष्ठॆ न वर्त्मना» ।
ऎनु श्री विष्णु तत्वादिहळिक्टॊन्न आचार्यानुज्ञॆ 3 यॆम्मायित्तु.
चरमश्लोकस्य मुख्यदृष्टिः
- ऎण्ड थ् रृथर्मा नित्यादि - इन्नक्लोकत्तुक्कु शॆज्करादि कुदृष्टि हळ् 'शॊलुं. SR हा म् तात्पर्य चन्नि कैयिलुम्, निक्षेप रक्षैयिलुव् परक दूसित्रोवॆक्ट्. ता इज्नु सारमान जक्क सत्सम्प्रदाय सिद्धमानपडिये शो बटर वति स इदिल् पूर्वार्धम् पाय निधायकम्. उत्त त रार्धम् फलनिर्देशादि मुख त्हाले निधिकीषम्. आहैयाल् इश्लॊ कं उपाय निधान स स्रधानम्. स (1) ) सन्त्यज्य विधिना इत्यादि विष्णु तत्वादिगळल्लि. हेळिरुवन्तॆ आचार्यॊस सदेशपूर्वक । हौचार्का नुज्जॆयू आयितु. अर्जुननन्नु "कुरितु प्रथमाचार्यनाद सर्वेश. रने _शॆरणागति विद्यॆ यन्नु उपदेशिसि, “मामेकं शरणंव्रॆज” ऎन्दु तन्नन्ने शरणवागि आश्र जट नियमिसिद दिन्द इदे आचारकॊ ीपदेशवू आचार्यानुज्ञॆयू आयितु ऎन्दु हात्पार्यू तागि त ¢ र्श जा Pa Ne चरमुश्लोकद मुखद स्टि. A द. अनन्तर शङ्करादिगळु ई चरमशॊ कक्कॆ 'अन्यथावागि व्याख्यान माडिरावाग, इद्दु च शास्त्र सरवॆम्बुदु हेगॆ ऎन्दरॆ अदन्नु सर्वधर्मानित्यादि - ऎन्दारम्भिसि निरूपिसु क "अदागि ई” चरमश्लोकक्कॆ शङ्करादि कुद्यस्टिगळु हेळुव) आर्थगस्लिलनन्नू. तात्सर MS कॆयॆल्लियू; : निक्षेपरक्षेयल्लू, “सरक्क विस्ता स दूहिसुदुदागि आचार्यरु. सुतॆ. "इङ्गु सारमान -इत्यादि : इल्लि st अर्थवन्नु. सत्सम्प्रदाय सिद मान्व सतिय तिरुक्ळोट्टयूर् . नम्बि-. सुभ्यतिगळन्द उपदेश -परम्परा पूर्वकवागि, शीगि. -प्राप्त वायिक्लो न FR कॊल्लु हिरोम् -: : फिरूपिसत्तॆ "वॆन्दु आचार्यरु प्रतिज्ञॆ माडुत्तारॆ. त ~w रा Bk ''इदिल् 'पूर्वार्थम् - आ इत्यादि ई शॊ ेकदल्लि पूर्वार्थन्रॆ “उपायवन्नु- शस सुत्तकॆ. 5 वित्तरार्धम् - - इत्यादि उत्तरार्थवु कॆरॆणागतिफलवन्नु ' तळिसुवुबरिंवॆ, तरहागतवध्: ज् इतॆवु- आहॆ कैयाल् - छि आद्द रिन्द ई श्थॊ ्ल्लीकवु जट नधिसुवुदुल्लि'प्रधानन्क सि ह व युळ्ळद्दु 4 876 i) Flap सिरॆ कामान् ऐहिका मतष्मिकानपि'! सन्त्यज्य विधिना नित्यं ' षड्डिधां शरणागतिम् ॥'' आचार्मानुल्लिया ककुर्याच्चास्त्र दृष्टेन्न वर्त्नृना ॥ विष्णुतत्व सर्वधर्मान्- नित्यकर्मगळन्नू, सर्वकामान्-ऐहिकामुष्मिकॆ काम्यफलगळन्नू, सन्त्यज्म- इवु प्रपत्तिगॆ अङ्ग वल्लवॆन्दु बिट्टु, विधिना. सात्विक त्कागपूर्वकवागि षड्विधां-ऐदु अङ्गगळिन्द कूडि, आरनॆयदाद अङ्गियाद शरणागतियन्नु ' आचार्कोपदेश मूलकवाद अनुज्ञॆयिन्द, शास्त्रीयवाद मार्गदिन्द, आनुष्ठिसबेकु. 1047 श्रीमद्रॆहस्यत्र्रयसारे “सर्वधर्म्मा” शब्दार्थ माह “धर'मावदु? शास्त्रमे कॊण्डरियनेण्षियिरुक्ळुम स्ररुषार्थसाधनम् “धर्मान्? अ. आ @ ऎन्लिर बहुनचनत्ताले अभिमतसाथनमाहॆ शास क्रै चोदितज्ञळान धर्मङ्गळुडैय बाहु ळृत्तॆ ज्हॊल्लुहिरदु. सर्वशब्दत्ताले सपरिकरमान सिलैय्यि विवक्षिक्किरदु. धर्मसरिकरज्ग ळैयुम् धर्ममॆन्रु शॊल्लक्कुरैयिल्लॆ 4यंरे. इस्पर्वशब्दत्तै निकशब्द प्रतिसम्बन्धियाह योजिक्कुम्पोदु इदु अजूहळान नानाधर्मज्गळिनुडैय कार्फ्स्मन्यत्तै च्लॊल्लुहिरदु. इप्पडि पॊदुविले शॊन्ना लुम्, इच्लुप्रुकरण वशत्ताले मोक्लार्थमाह शास्त्रनिहितज्ञ ळाय्, नानाप्रकारज्गळान “हासनज्ञ ळॆ.यॆल्लाम् शॊल्लुहैयिले तात्स्रर्यम्. इतराभिस्रायान् निराकरोति. पुरुसोत्तमत्वज्ञ्ञानं सर्रविद्यहळुक्कुम् उपकारमान तत्वज्ञानमात्रमाहवुम् अवतार रहस्यचिन्हनम् अनुष्मिक्कर उपासनादिहळुडै य शीघ्र निष्पत्ति हेतुवाहवुवा् देशवासादिहळ् । पायवनिरोधि पापक्सय हेतुक्कळाय्क्कॊण्डु उपाय निष्टादकज ळाहवुम्, अ्रीगीताभाष्यादिहळिले समर्थिक्कॆ पयाले इवत्तॆ, ळि साक्टान्कोप्लोसपायज्ल वात अव्. डाल् ना चरमश्कोळकद पूर्वार्ध विवरणॆ. "सर्वधर्मान्' शब्दार्थ. (सर्वधर्मानित्यादि) धर्ममावदु - धर्मवॆन्दरॆ शास्त्रनेकॊण्डु इत्यादि - आलौ कक श्रेयस्साधनताकत्सम् धर्मम् - अलौकिक अन्दरॆ शास्ट्रेतर प्रत्यक्ष- अनुमानगळिगॆ गोचरवल्लदागि, शास्त्रदिन्दले तिळियतक्टदु ऎन्दर्थ. यॆज्ञयागादिगळू, अवुगळल्लि आ षयोगि सुव व्रीहि, पुकोडाशॆ, आज्यमॊदलादवु प्रत्यक्षगळागिद्दरू, आ यज्ञा नुष्मानदिन्द पडॆयल्ल डुव स्वर्गादिफलगळु' प्रत्यक्षवल्लदॆ शास्त्रदिन्दले तिळियल्पडुत्तवॆ. आद्दरिन्द धर्मवु शास्त्रदिं दले तिळियल्पडतक्क पुरुषार्थक्कॆ साधन, धर्मान् - धर्मगळु ऎम्ब बहुवचनवु अभिमत- इष्टार्थसाधनवागि शास्त्रचोदिकगळाद धर्मगळ बाहुळ्ळ्यवन्नुु तिळिसुत्तदॆ. सर्वशब्द तााले इत्यादि सर्वशब्ददिन्द आ धर्मगळ अङ्गगळु तिळिसल्पडुत्तवॆ. धर्म परिकरङ्गळ्ळॆयुवु* - इत्यादि धर्मगळ आङ्गगळन्नू धर्मवॆन्दु व्यपदेशिसुवुदक्कॆ बाधॆकविल्ल. इस्सर्वशब्द त्रै — इत्यादि ई सर्वशब्दवन्नु "मामेकं' ऎम्बल्लि हेळुव “एक”. शब्दक्कॆ प्रतिसम्बन्धियागि योजिसुवाग, इदु अङ्गिगळाद अनेक धर्मगळ इात्प ऎत्त समूहवन्नु तिळिसुत्तदॆ. इप्पडि पॊदुनिले शॊ न्हालुम् - हीगॆ सामान्यवागि हेळिदरू, इङ्गु प्रकरणनशात्ताले - इत्यादि इल्लि मोका र्थवाद प प्रकरणक्कॆ अनुगुणवागि, मोक्सार्थवागि : शास्त्रविहितगळागि अङ्गगळॊडनॆ कूडिद नाना प्रकारगळाद पासनगळन्नॆल्ला हेळुवुदरल्लि तात्पर्य. । पुरुषोत्तमत्त ज्ञानम् - इत्यादि पुरुषोत्तमत्त्वज्ञानवु":सर्नविद्यगळिगू उपकार कवाद तत्वज्ञौनमात्रनागियू, अवतार रहॆस्कचिन्तनवु अनुष्ठिसुव उपासनादिगळु शीघ्रवागि चरमश्लोकाधिकारः . 1048 ळाक्ळि ' आज बहुत्व निषयवतान बहुवचनत्ताले निवत्तिक्टिरदॆन्नॆ , उचितमन्रु “नाना 'शब्दादि भेदात्' “ऎन्नि रपडिये इनैयॊ- (ओयवुम्म् सद्रि द्या दहर विदा दि भेदत्त ले अङ्गि बहुत म् किडक्क याल् इब ) हुवचनं सार्थम्. अङ्गिबहुत्त तॆ शै युवक्परिकर ऒहु त्हतॆ युव् कूड नूतन निरोधनिल्लॆ. परित्यज्य शब्दस्कार्थॆः परित्यज्य ऎन्सिरविडत्तिल् त्यागमावदु?“अनयाच प्रपत्ता ना माकिञ्चनै क पूर्व हम्” इत्यादिहळिर्सडिये आकिञ्चननान तन्पि ल्रै य्ळॆ क्स Ri उपायान्त रज्ज ळिर्रि 828 नै रा फलिसलु हेतुवागियू, पुण्यक्षेत्रवासादिगळु उपायविरोधि पापक्षय हेतुगळागि उपायवु निष्पत्तियागलु कारणवागियू श्रीगीताभाष्य सात्वतसंहितादिगळल्लि समर्थितगळाद्दरिन्द, इवुगळन्नु साक्षान्मोक्षोपायगळागि हेळि “धर्मान्” ऎम्बल्लिय बहुवचनदिन्द अनेक धर्म गळॆन्दु विवक्षिसुवुदु उचितवल्ल. अदागि भगवद्गीतॆ 15ने अध्यायदल्लि“योमामे नमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्त्रमम । स सर्वविद जतिमाम् > ऎन्दु पुरुषोत्तमज्ञ्यानवु भगवद्ग जन हेतु वाद तत्वज्ञानवागि हेळल्पट्टिदॆ. गीतॆयल्लि नाल्कने अध्यायदल्लि “ जन्मसर्मचमेदिन्यं एवं योवेत्ति तत्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोंर्जुन? ऎन्दु उपासकनिगॆ संशय विसर्ययरहितवागि अवताररहॆस्य चिन्तनवु, अदे जन्मदल्लि उपासनवु निष्टन्नवागलु हेतुवागि, मत्तॊन्दु जन्मवु इल्लदॆ सहकरिसुत्तदॆ. सात्व तसन्दितॆयल्लि “दुष्टेन्द्रिय वशाच्छित्तॆं नृणां यत्शल्मसैर्वृतन् । तनन्तकाले संशुद्धि' याति .नारायणालये ॥ , ऎन्दु भगनत्सेत्रवासवु पासनन्नु होगलाडिसि मनोनैर्मल्यवन्नुण्टुमाडि, : मुन्दिन जन्मदल्लि उपायानुष्ठानक्कॆ हेतुवागुत्तदॆ. आद्दरिन्द इवैय्यॊ”यवुवमु* - इत्यादि पुरुषोत्तमत्व ज्ञानादिगळन्नु बिट्टू, सद्विद्या दहरविद्यादिभेददिन्द अङ्गियाद धर्मगळ बहुत्ववु एर्पडुवुदरिन्द, धर्मान्' ऎम्ब बहुवचनक्कॆ सार्थक्यवु एर्सडुत्तदॆ. अङ्गिबहुत्त तॆ शैयंवर् - इत्यादि पुरुषोत्तमत्वज्ञानादिगळु उपायक्कॆ परिकरगळाद्दरिन्द अवुगळन्नु साक्रादुपायगळॆन्दु हेळि अङ्गि बहुत्ववन्नु "धर्मान्?. ऎम्बल्लि विवक्षिसुवुदु युक्तवल्लवादर्कू पॆरिकरगळन्नू अङ्गिगळन्नू सेरिसि धर्मान्'. ऎम्बल्लि विवक्षिसिदरू बाधकविल्ल. अन्दरॆ पुरु सोत्तम ज्ञानादि परिकर विशिष्टगळाद दहर विद्यादिगळं साक्षादुपायगळागि धर्म शब्दबहु त्वक्कॆ नक्षितगळॆन्दु तात्पर्य. । "परित्यज्य शब्दार्थ. (1) अनन्तर “परित सै ऎम्बुदक्कॆ अर्थवन्नु अनुग्रहिसुत्तारॆ. "परित्यज्य? ऎन्निरविडत्तिल् इत्यादि - सरि ऎम्ब उनसर्ग, त्यज् धातु ल्यप्प्रत्रय मूरू “परित्यज्य” ऎम्बल्लि सेरिवॆ. मॊदलु धातुविन आर्थनन्नु तिळिसुत्तारॆ. परित्यज्य ऎम्बल्लि त्यागवु यान्रदॆन्दरॆ "अनयाच प्रपत्त्या? इत्यादि हेळिरुवन्तॆ आकिञ्चननाद तन्न निलै - स्थिति अदन्नु तिळिदु उपायान्त रगळल्लि उण्टाद नैराश्य इतरोपायगळल्लि उण्टाद निरासॆय पूर्वकवागि, ई प्रसत्तियिं 1019 श्रीमद्रहस्यत्रयसाके शैमे. आश्रियाले पत्तानाल् अकॆ हयैनिडुहै त्या गमॆन्न उचितनिरे आदिल्*परि?ऎन्नि र उससर्गत्ताले 1)इना RSE nine, “ दृष्टसन्तारोसाय;? त्वत्पाद कमलादन्यन्न मे जन्मान्तरेष्वपि” इत्यादिहळिर् सडिये, आ- न्ता किञ्चननुक्सु सर्व कालत्ति लुम् सक्वप्रकारत्ता न् योग्य त्रै यिला न तॆळिहैयाले निरन्न नै राश्या र् शॊर्ल क डुहिरदु. परित्यब्य पदस्य अनुनादार्थमाह सर्व प्रकारत्ता लुव- 5 त्का गवळानदु ) र शक्ति इल्ला fe यॆथाशक्कॆ नुष्ठूनन ke पण रॊ! ‘मॆन्रुम्, अदकु कोग्यतै इल्लाद द दश्र यिले मेरॆ शिल अनुकल्प ब १ फ,यादल्, ४ ‘उपायॊ इयॆ १.४ 4 स ज्लळ्ळ क क णरिकुनर AB व् । कर् [Tere कय ग यति A रळ ¥ AEE अनु,सि ४ 69% 3. रोम ल स तॆनॆकु दुष्तरॆ ळॆ p; न : nM NEN oN EN अ पसर्गवर् अधिकारि पौष्टल्यत्तॆ ग । विनप्रिकिरणु, “अनित्यमसुखं क्र लोकमिम्मं प्राप्य भज द पन इ इइ आ नशीकरिसबेकॆम्बुदु. उपायनन्नु न्म बिडुवुदु त्याग. शब्दार्थवागिरुवाग, नैराश्य वनं स शब्दक्कॆ अर्थवागि हेळुवुदु- सरिये ऎन्दरॆ आश्मॆयाले ‘सट्रनाल् ऎन्दु समा कॆ…: अदागि आसॆयिन्द ४ We अङ्गीकरिसिदरॆ, आ आसॆयन्नु बिट्टरॆ, उपायान्तरगळल्लि सम्बन्धवु स्वतः .बडल्पडुत्तदॆयाद्द रिन्द आसॆयन्नु बिडुवुदु , त्यागशब्दार्थ वागलु उचित. “अदिल् “परि? ऎन्सिरउपसर्गत्ता ले? इत्यादि, नैराश्यवु. त्यागशब्बार्थवादक “परि’ ऎम्ब उससर्गवु अदर अतिशयनन्नु तिळिसुत्तदॆ. . (1) अनागतासन्त कालसमीक्ष यापि (2) त्रत्कादकमलादनृत् नम्बन्तॆ- बहळ आकिञ्चननारननिगॆ सर्नकालदल्लियू सर्वस्रकारॆ दिन्दलू यह डभॆलिरिनॊन्दू तिळियल्पट्ट अदरिन्द. उण्टाद नैराश्यद..: अतिशयवु “परि? ऎम्ब उऊपनर्गदिन्द तिळियल्पज जुत्तदॆ. सर्वप्रकारत्तालुवु’ ता भबगमावदु ऎ. इत्यादि. सर्वप्रकारॆ दिन्दलू त्यागनॆम्बुदु पूर्णनुष्का ननन्नु. माडलु शक्ति यिल्लद जशॆयल्लि बेरॆ कॆलवु अनुकल्पं गॆळ्सयादल् - प्रतिनिधियागि गौणवाद उपायगळना नागलि मुख्योपायक्कॆ उपायगळन्ना .गलि, इनन्नु अनुस्थिसिदरॆ नुडुखोपायवन्नुु अनुष्ठिसलु साध्य वागुत्तॆदॆयॆम्ब भावनॆयिन्द शॆयिन्नु अनुष्क 9” सुत्त्वेनॆन्दरि बिट्ट ब” रुवुदु. तनगॆ इन्वनुवादत्तु गुष्ककरोपायगळन्नुु कु. कणिशिक्टुवं् - इत्यादि ई अनुवादक्कॆ इत्याद निषयीकरिसुव, दारा आकिञ्चन्यरूसवाद आधिकार विशेषवन्नु ग क तिळिसुवुदरल्लि त प्रयोजन. ळि डालि अदिल् सरि इत्यादि अदरल्ल जि (पल? ऎम्ब उप स् ‘सर्गवु आसञ्चन्य 9 पि द वाद आ ०७% अधिकारण ऎ जब ऎळॆ इ! पौष्टुल्लवन्नु ड् स ऎ इस ज्र ब्ब ई विवकिसुत्तदॆ. गा 2. 2 “अनित्य ऐ ह् आय मसुखं इ इ लोकं? इ इत्यादि त्क ल्क रालि ज् इस ड् वु रगळ आनुवा- Sp CoD) विधिगू WE TI ES साधारण. REY SE; EUSA ब क्सु बा 00 pe द्रा ओणं चरेत्?» २१ ऎम्बल्लि भुजि ळॆ धातुविन मेलॆ स्स बन्दिरुव द्धि आ “उ्र्ञ्वा’ जर ऎम्ब प्रत्ययनु ल RE निषि ऒद्द स ४ जु माडिद छा सम्मा घान नीनु, ऎन्दु ळं पिग्ग बनि १४ न्न्न नुवादमाडि ना yn चान्द्रायण ० Ry कालन्न इ. प्रतनननत्नि, आर् अनुष सबीकु ल्ल ऎन्दु SR प्रायङ्क्सि हु )त्रैवन्नि स तिळिसुत्तदॆ. WE Hr) गल भवं यजेत [NN ०)… I जं पा स्प्यानिननिन्फ्ब Wap ब्र- १ आतॆ श्रील LN Fr मळ PD © WK रिति क् यल्लि अफित्यमसुखं “लोक मिमं प्रास भजस्वमां’ ऎम्बल्लि त ऎम्बुदु विधियिल्लदॆचरम काधिकारः 1050 स्व माम्? ऎन्सिर विरि ल्” प्रा प्य ऎन्सिरदु निधियस्रि क “प्राप्य वक्रवमानस्त ०” नस्रु निवक्षितनााह् रदु क स्टडि न 4 तरज ळिलुवा् प्र चाळ “०डा नस यालेेक्ता ह श्र ‘तिमात्र त्रॆ कॊं गॆ मज नुन वॊण्णा द. त परित्यज्य? सदस्य निध्यर्थमाह हा हु रखदु विधियानपोदु, प्रहत्त (सिर सधन विधिक्सि रपडिये आकिञ्च न्य प्रतिसन्धानादि रूपमान कार शण्यमाहिरॆ प्र स्रपत्त्यजत्तॆ K निधिकृरदॆन्राल् अर्थत्तिल् विरोधमुघ्छ,. “आप्टॊ €दु “सर्वधर्म ९परित्य सह्य” न रनिदु, ) “अहमस्म्यनराधानाम् अलयो.कञ्चनॆ. Aus 2) आनधर्द निष्ठॊ स्म त्यादिहंर् पडिये, सर्वधरृज्नळुवत् तन्न योग्यता पर्यन्त माह क्य त्र सडियी मन्नि टुिकॊण्डॆस्रवडि. म सर्वधर्मस्वरूप परित्याग विधिसरत्वॆवाद निरासः इव्वळॆवु विळम्बित ग्र ‘तीतिकमान अर्थमुनु् बहुप्रमा इणानु गुण माहै याल्, ह यं इइ षस ब इइ ।. ऎडवि पाप्त वर्तमानस्तृं” ऎन्दु वाख्यानमा डल्प ट्वन्तॆ, इल्लियू “परित्यज्य स्थितस्तैं’ ऎन्दु अनुवादवु विनक्षितवु. ई पक्षने भाष्ठकार सन स तनॆन्दु भाष्यादिगळल्लि स्पष्ट. इप्पडि अर्थां तरङ्गळिलुम्- इता AS त्ययक्कॆ “निधि’यिल्लदॆ ह रूप आर्थान्तरगळल्लिय प्रयोगवु इरुवुदर च “क्ष्या_’’ ऎम्बु तॆगॆदुकॊण्डु “8 “परिश्यज्य’वॆम्बुद क्कॆ “विधि’यॆल्लि तात्पर्यवन्नु हेळि. सर्वधथर्मपरित्यागवु प्रपत्ति अङ्गवॆन्दति हेळकूडदु. “परित्यज्य? ऎन्सिरनिदु - इत्यादि सरित्यज्यनॆम्बुदु विधियादकि, प्रपत्त्यध्यायादिगगल्लि विधिसुनन्तॆये,. आकिं ‘चन्या नुसन्धननरूस कार्पण्य वॆम्ब आङ्गनन्नु विधिसुत्तदॆ ऎन्दरॆ- अर्थदल्लि विरॊ"धविल्ल. अप्पोदु’’ ‘इत्यादि, ’ आग “सर्वधर्मास् परित्यज्य” - कनि ट्ट बिट्टु ऎम्बदु. (1) अहमस्म्यसराधानां - नानु अपराधगळिगॆ आलयॆभूतनु, अकिञ्चननु, गति यि सत (9) नथर्मसिष्टो.स्मि — कर्नुज्ञ्यानभक्तिगळल्लि अधिकारविल्ल” वनु, अकिञ्चननु, अन वैगॆ, ey sé हेळिरुवन्तॆ सर्नेधरू णॆ टॊ तन्नन्नू योग्यता पर्यन्तवागि कत्त सडिय्यॆ..बट्ट ग् वु स पुरस्परिसिकॊण्ड दर्थ, प्रकारन्नु नु सफ्लिट्टुस्कॊण्डु - पुरस्कर सिकॊण्डु. ऎन्दर्थ “सर्वधर्मान् सरित्यज्य? ऎम्बुदक्कॆ सर्वधर्म गळन्नू स्वरूपतः बिट्टु ऎम्ब अर्थवु विळम्बविल्लदॆ तोचुवाग, आ अर्थवनु, बिट्टु, सर्नधर्नुगळू तन्नन्नु स्वरूपदिन्द बिट्टु ऎन्दं सर्वधर्नुकर्तक, स्पळर्मक परित्यागवन्नु “पुरस्करिसि विळम्बवागि तॆ चुन अर्थनन्नु अङ्गीकरि ५ इ तॆ - सुव्रदु न्यायवे ऎन्दरॆ, इन्नळवु एिळम्बित प्रतीतमान ऎन्दु प्रति समाधानवन्नु तिळिसुत्तारॆ. : ‘अदागि शङ्करादिगळिन्द हेळल्पट्ट सर्वधवर्ति स्परूव त्यागवु अविळिम्बतवागि तो चुवुदादरू बहुप्रमाण विरुद्ध. इप्पळॆवु निळम्बित प्र तीतकमान - इत्यादि हीगॆ एळम्बिसि तोचुन अर्थव्र बहुस्रमाणगळिगॆ अनुगुणवादद्दु. आप्टयाल् अवळु २ क्कुविरुद्ध मा 1051 श्री मद्रहॆस्यत्तयसारे अवत्तु क्सु विरुद्धमाह शङ्कराद्युक्तज्जळान सर धर्मस्तरूप त्यागाद्यर्थज्गळिर् काट लवर् भि देयम. प्रपत्तिक्काह वॊरु धर्मज्ञ ळुम् अनुस्ठिकृनेण्मावॆन्रु प्रसत्ति, यिनुडैय नैरसेश्र; त्तॆ) च्हॊ अंहिरडॆनॆ ई निधिपक्षतॆ कु उचितम्. : द “परि ऎन्स्टिर ट् “आचानॆ स्र्रेन कर रप्यैसर्” शुचिनाकर्रव्यनर् इत्यादिहळिल् च्चॊ लंहिर सर रै साधारण योग्यतापादकज्जळुन्, इदक्कु अज्जमाह सि प्रीकार्यज्छ ळाहा कनु निवस्सिक्कि रदु. स्ट च सस :गवादनिरसननाह. इज्जि नि ki € कर्म योगम् ज्ञा नयोगवनवर्, भक्तियोगम*, ऎन्नि “र धर्मज्ञळिनुड्कॆ यॆ स । रूपा गव वर् “प्रपत्ति क्सु अजि २ वर् ऎन्नुम् पक्षत्रिल्, प्रपत्ति सर्बा धिकारमुन्रि ki ¢ या चन्द क्. धर्मासुष्मान शक्त नक्क रे अवति त्रिसुड्डॆय क्कागक्तॆ निधिरृनेण्नु वु ¥ इदु बहुप्रसळाण सिद्ध मान कार्च्यमाहिर अज्जतु कवर् 1) “पुहलॊप्रिल्ला नडियेन्? 2) “कुलज्ञळा यु” 3) “कुळित्तुमून्रु’ 4) “न धर्म निष्कोस्मि” इत्यादिहळिले ह सिद्ध मान वकिञ्चनाधिकारमॆन्स्टिर सम्प्रदाय त्तु कम् विरुद्धमावर्. र इत्यादि - आद्दरिन्द विळम्बित प्रतीतिकवाद, अर्थक्कॆ विरुद्ध वागि शङ्कराद्युक्तङ्गळान - शङ्कररु, आदिशब्ददिन्द एकदेशिगळ ग । हण, इवरुगळिन्द हेरल्पट्ट सर्वधर्मगळन्नू “`नरूसतः बिडबेकॆम्ब cn ठृ असात - नावु हेळिद अर्थवु अङ्गीकार्यवु डि आचार्यर अभिप्राय (111) प्रपत्ति क्काह - इत्यादि प्रपत्तिगोस्पुर याव धर्मगळन्नू अनुष्ठ्मिसकूडदॆन्दु, प्रसप्तिय नैैरपेक्ष क्ष्यवन्नु हेळुत्त बॆयिम्बुदु विधिपक्षक्कॆ आ चितवादद्दु. अप्पोदु - इत्यादि आग “परि? न उपसर्गवु “आचमनमाडि माडबेकु”, “शञ्चियागि माडबेकु”, इत्यादिगळल्लि हेळुव सर्वसाधारणवाद योग्यतॆयन्नु सम्पादिसिकॊडुव, स्मानाचमनगळन्नू ई प्रसत्तिगॆ अङ्गवागि स्वीकरिसलागदु ऎन्दु विवक्षिसुत्तदॆ. । *परित्यज्य?निगॆ इतररु हेळुव अर्थखण्डनॆ. (1 सर्वधर्मगळ स्वरूप त्यागनॆम्ब मतद खण्डनॆ इङ्गनश्रिक्के इत्यादि-हीगल्लदॆ कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोगवॆम्ब धर्मगळ स्व रूप त्यागवु प्रपत्तिगॆ अङ्गवॆन्दु हेळुव पक्षदल्लि प्रपत्ति यु सर्वाधिकारव्लदे होगुत्तॆदॆ. धर्मानुष्ठान “शक्त नुक्किरे - इत्यादि धर्मानुष्ठानवन्नु माडलु शक्तनादवनिगल्लवे आवु गळ त्यागवन्नु विधिसबेकु. शक्तनिगे सर्वधर्म स्वरूप सा विधिसुवुदु इष्टापत्तियॆं दरॆ- इदु बहुप्र माण सिद समान - इत्यादि स अनेक स्पमाणगळिुद सिद्ध वाद कार्पण्य वॆम्ब अङ्गक्कू स i) प्रहलॊनि निल्लानडियेन् (2) कुपङ्गळायु (3) कुळित्तु मून्रु (4) नधर्मनिषो.स्मि-इत्यादि वचनगळल्लि प्रसिद्धवाद अकिञ्चनाधिकारवॆम्ब सम्प्रदायक्कू विरुद्ध - तठिरुच्छॆन्द विरन्त्तम् 90-धर्मनुष्कानक्कॆ यो गृवाद नाल्कु कुलगळ्लॊोयू हुट्टदवनु. 3) किरुमाल्क-26 स माडि त्रेळूगि परिचरै माडुव ब्रुह्मण्मवन्नु मरॆसिट्टि, स्थान स ब् ऊ 4) आळ-स्तॊ त्र -कर्म ९ज्ञान भक्तिगळल्ल यो तॆ इल्लद अकिं-कननु, अनन्य; गति.
चरमश्लोकाधिकारः 1052
गुरुपाय ता ;गविधि पक्ष खण्डनम्. ईश्वरनॆ नैप्पत्त त्र अत्यन्त परतन्त ae इपायान नरॆङ्गळुक्सु क्षेत्रज्ञ जन् नित्याशक्त नॆन्रु काट्ट इवनुकृवति त्रिनुडैयत्यागत्तै विधिक्कि रदॆन्रुमदु सर्व शास्त्र स वचन स्प प्र वृ क्यान निरोधत्ता ले अत्यन्त परिहास्य हॆ अस्ट्रो तुल्य न्यायतकैयाले इव्र जु ऎनॆ तौनुम् भव " उपायान्तरङ्गळुक्ळु जीवाता ऒ नित्याशक्त् नन्नॆ , तङ्गसक्कु स्थि रीकरणं पणि ऎन सडिया मत्त नै. एकप्रयोगवर् ताने तक क्रनैप्पत्त त ‘नैगानुवाद नाय्, इतरनैप्पत्त त त्यागविधियाजै बिकवाक्य त्तिल् घटयानु.
फलत्तिल् वैषम्युवन्नर् अन्रिक्टे आधिकारियुनर् एकनायिरुक्त गुरु लफघुनिकल्प
00 काटा शाक उच स सवारर नडा रागद चका कदा स जा वति द ऎ इआ.. ऎोअ अ ्चु ुु ।, ।,।,ु,_ ुु ु ुरुुव्
गुरूपाय त्याग निधि पक्ष खण्डनॆ
यद्यपि शक्कनागिरुवननिगे कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोगगळ स्वरूसत्यागवु विहित वॆन्दरॆ, अशक्ताधिकारत्वनॆम्ब सम्प्रदायक्कॆ विरुद्धवागुत्तदॆ. हागिल्लदॆ अत्यन्तॆ पारतन्त्र्यृतॆयिन्द नित्याशक्तृनाद जीवनिगॆ कर्मयोगादि स्वरूपत्यागवु विहितवॆन्दु. हेळि, इदु अकिञ्चनाधिकारत्व सम्प्रदायक्कॆ विरोधवागुवुदिल्लवॆन्दक्कॆ आ पक्षदल्लियू सर्वशास्त्र स्वनचन स्वस्रनृत्यादिगळॊडनॆ विरोधवु एर्पडुत्तदॆ ऎन्दु ईश्वरनॆ पृट्र ऎन्दारम्भिसि तिळिसुत्तारॆ. अदागि ईश्वरनिगॆ अत्यन्त परतन्त्रॆनॆन्दु हेळि अदरिन्द desk क्षेत्रज्ञ नु नित्याशक्तनॆम्ब कथॆयॊन्दन्नु कट्टि इवनिगॆ अवुगळ त्यागवन्नु विधिसुत्तदॆ ऎम्बुदु सर्वशास स्ववचन स्वप्रवृत्यादिगळिगॆ विरोध वागुवुदरिन्द बहळ परिहास्यद मातागुत्तदॆ. हेगॆन्दरॆ अशक्तनॆन्दु सर्वधर्मस्वरूसश्यागवन्नु हेळिदरॆ, उत्तरकृत्यवन्नु विधिसुव सर्वशास्त्रॆगळू विरोधवागुत्तवॆ. उपायान्तरदल्लि इवनु नित्याशक्तनॆन्दु हेळि अवनिगॆ अदर त्यागवन्नु विधिसुत्तदॆयॆन्दरॆ स्वनचन विरोध. अशक्तनागि कर्मयोगादिगळन्नु माडदवनिगॆ, त्यागप्रसङ्गवॆल्लि, स्थान, तॆ पुण्ड्रधारण, जस, मालॆ यन्नु कट्टुवुदु, दीसवन्मु हॆच्चुवुदु मॊदलाद स्वप्रवृत्ति विरोधवू एर्पडुत्तदॆ. “आदि” . शब्ददिन्द शिष्ट्रानुष्मान विरोधवू सूच “वागि इन्तह मातुगळॆल्ला सरिहास्यास्पदवॆन्दु नगनि श्तारॆ. अप्रोदुतुल्यन्यायत्ता ले - इत्यादि जीवनन्नु नित्याशक्त नॆन्दु ऒप्पिदरॆ इननन्नु कुरितु “शरणंव्रज” ऎन्दु विधिसुवुदू घटिसुवुदिल्ल. उपायान्तरङ्गळुक्कु - इत्यादि उपा यान्तरगळल्लि जीवनु नित्याशक्तनॆन्दकि, तमगॆ अनिष्टवाद त्यागानुवाद पक्षक्कॆ स्मिरीकरणनं इत्यादि अनुकूलनॆन्दु एर्पडुत्तदॆ. एकप्रयोगन्ताने - इत्यादि “परित्यज्य? ऎम्बुदु उपायान्तरदल्लि शक्तनन्न्नु कुरितु विधिरूपवागियू अशक्तनन्नु कुरितु अनुवादरूपवागियू आदरेनु ऎन्दरॆ एकप्रयोगवु अशक्तैनन्नु कुरितु त्यागानुवादवागियू, शकनन्नु कुरितु श्यागविधियागियू, आगुवुदु एकवाक्यदल्लि घटसलारदु. वाक्यभेधवन्नु अङ्गीकरिसिदरू इदे दोष. i) फलत्तिल् मैषम्युनुमु* इन्रिक्टे - इत्यादि उपायान्तर शक्तनन्नु कुरितु उपा यान्तर त्यागविधि पूर्वकवागि. लघुवाद शरणागतियन्नु विधिसुत्तदॆयॆन्दू अवनिगेनॆ विकल्पदिन्द गुरुवाद उपासनान्तरवन्ने उफासनवाक्यवु निधिसुत्तदॆयॆम्बुदू हेळुवुदु सरियल्ल.
एकॆं 1055 " शीमद्द 'हॆस्यत्रुयसाके । मुनु शॊल्लवॊण्णा ट्र. ग् [x दु. गुरूपायित्तिले £५ शक,नानवनुक्के अदिन् काग मान लघू । षायतॆ सिधित्ताल्, गुरुषा यत्ति छूरुत्त शुखिर् प्रवृत्ति त ना न यालुवर्, नेरॊ रुपःङ्खत्ताले अधिका ग रभेडम् कॊल्लवॊ क्यान यालुवत्, गुरुषा यत्नॆ ऎऎधिक्कर शास्त्र जल्ला प्रमाणनंस्रिकैेयू यिवर्. ल‘अघूषपूयॆ प्ररोचनाफळमा साह, गुरु पायकॆ, NR 4 धि नत्त अडु तन्नॆ pa ये निषेधिक्सिर दॆनॆ. अळि i यावा, N अतैन्तानुचतनवर्. अनुपून्तॆं ज्गळ्ळॆ उपाय लक निविक्किरॆजिन वण ई लि आ श्रुति भ्र स्म ृतिकळ् मोहन शास्त्र बळाह प्रसङ्गि ळॆ ग याले शरण्य स्प रूपादिहळुम् सिद्धि याद सडियानवर्. गुरुक, ळान क ’ ष्यादिन्यासा रज ळुम् लघुक्ळळान रत्नवाणिज स्यादिहळॊम् आर्थर्थिहळ् ३ नकृल् निकलि रष व्रन्तत आधिकारनिशेष न .वसैॆयताले यन्नु निण्डम् लोकसप्रसिद्धनर्. आ।:वानुडैय चरमक्लोक व्यास्यूसत्तिलुव् इन्टळनॆ निवक्सितमाहैयूलॊरु विरोधमुमिल्गॆ 4° ॥ जरि फॆलदल्लि यान- व्यत्यासवू इल्लदॆ अधिकारियू ऒब्बने आगिरुवाग गुरूपायनन्नो लघु पायवन्नो माडबहुदागि’ विकल्पिसि हेळलागुवुदिल्ल. गुरूपायत्तिले -: गुरुवाद : उपायदल्लि शक्तनादनसिगेनॆ आदरॆ त्यागपूर्वक लघूपायवन्नु विधिसिररैगुरुवाद उपायवन्नु अनुष्किसुववरु यारू इरुवुदिल्ल. नेरॊरुमुखत्ता त् इत्यादि मन्दज्ञानरू मन्द विश्वासरू ₹क्तिगॆ आधिकारिगळॆङ्ग्यू पूर्णज्ञानरू महाविश्चा सशालिगळू प्रसत्तिगॆ £ A रिगळॆन्दू अधिकारिभेद कल्बनवु हेळउळगुवुदिल्लवाद्दरिन्दे लू, गुरूपायवन्नु, विधिसुव शास्त्रगळॆल्ला प्रमाणविल्लदे आन्दरॆ अनुष्ठिसुवनरु इल्लदि अननुषा न लक्षणाप्रावाण्यवु सम्भविसि, ऒ युम* - नष्टवागि होगिबिडुत्तवॆ. लघूषाय प्र रोचनार्थमाह - इत्यादि लोक गल्लि कहियाद औषधियन्नु सेविसलु मॊदलु बायल्लि बॆल्लनन्नु’ हाकि इदी रीतियागि औषधियू रुचियागिरुत्तदे ०दु प्ररोचनॆमाडि आ औषधियनु, बायलिडुवन्तॆ मॊदलु ’ लघुवाद उपायॆनन्नु तोरिसि आनन्तर ‘गुरॆ :पायवन्नु सप्ररोचिसुवुणु न्याय- हागिल्लदॆ मॊदलु. गुरूपायवन्नु विधिसि लघूप इयनन ऎ प्ररोचिसलु आ गुरूपायिनन्नु निषेधिसुवुदॆम्बद्ध्द आत्यन्तानुचित. “क्कॆ मेलॆ ‘अनुपा ऎङ्गळ, _‘‘सित्य्यादि’- पायगळल्लद चक् ;दिगळन्नु’ मोक क्क उपायगळॆन्दु विधि- सुप्तॆबियाद्द रिन्द “अवुगळन्नु बिडबेकॆम्बुदु विनक्षितवॆन्दक्कॆ श्रु७स्म गळु शोहनशास्त, सगळा ९ इति प्रसङ्गिसत्तैवॆ स्म क् आत न] यादि क नॆ ता क रिन्द"“शः pd ौ ह ण्यर’ 4 छु स्वरूपा विगळू, “मामेकं शरणंव्रॆज” । डि निम्बुगॊ 4 ना सदॆ `होगुत्तदॆ. po ky गुरुक्स् ४न इन - भि इत्यादि तत ह नु अशिपैयासॆ कु 0) पि Pe साध्यवाद म्या कृषि नॊदलाद व्यापारगळू, लघुवाद… हॆच्चु समविल्ल? रत्मिव्या नारॆगळू, आर्थार्थिहळ् पक्टुल् - हण वन्नु संसादिसॆबेकॆन्नु नवरिगॆ, अधिकारि वशेष न्यवस्थैय याले - कष्टसडलु योग्यवाद देहॆ वनिगॆ दार्थ्य्यवू, कृषियल्लि रत्सपरींर्हवाद आधिकार, रश्नसरीार्हज्ज्यानवू ज्ञानशून्यश्ववू, रश्शवाणिज्यार्ह बहुद्रव्यद अभाववू इरु बहुद न्यवू इर नववनिगॆ रत व्यापार दल्लि अधि कार. इन्तह ह KS he प्रसिद्ध. . इदरिन्द अधिकार… भेदविल्लदॆ ऒब्ब । आवानुडैं यॆ -माडि हेळरुन चरमश्कोक चरमुत्तॊ ऎ म्या लुवं् - इत्यादि व्याख्यान कूरत्ता;नानवरु । कृपॆ । चरमश्लोकाधिकारः ऎ 1054 समावर्त्कनादिहळिल् गुरुलघुनिकल्पनुम् अनस्थानिकीषङ्गळाले नियतमॆस्सु कॊळा ) दफोदु गुरुविधान वै यु र्य मम्म् वरुम्. ज्ञान निश्वास पूर्तिः प्रपत्त्यधिकारः, तयोर्मान्च्यं भक्त धिकारः इत्यभि त निरस्कृति जा नपूरियादल्, विश्वाससूर्रियादल्, उडैयवन् स्र सृपत्तिक्कु अधिकारि. जा न मा न्दृ; मादल्, विश्वास शवकान्द्यमादल्, उड्कैयदन् उषासनादिहळुक्कु अधिकारि, ऎन्सा ल्, इच्च स ्सा कादिहळुक्कु उपॆदेषा कळुमाय्, पॆरमास्ति, करुमाहैयाले पूर्णज्ञ्ञा न निश्वा सरान न्यासादिहळुक्कु समसत अध्लकारमिक्तॆ याम्. रा ना सा त बट ब जु घाट ब्रा“ नत व “उपायान्तर दौष्टुर्यात् शोचन् त्वं मदवास्तयी । साथनित्तॆ “नॆ निर्णीतान् सर्वान् सन्त्यज्य ज.दूरतः । मावे कं शरणं याहि ।? ऎम्बल्लि उपायान्तर डौ स्यर्यदिन्द्य मोक्ष साधनगळागि निर्णीतगळाद सर्वधर्नुगळन्नू बिट्टु शोकिसुत्ति रुव नीनु नन्न्न न्न ऒब्बनन्ने उपायवागि आश्रॆयिसु, ऎन्दु अन्वयिसि अर्थॆन नन्नु माडिदरॆ « अनुवादपक्षदल्लि आ रम्भरल्लि हेळल्पट्ट, अर्थवे सिद्धि सुवुदरिन्द, सॆ फु विकल्प स्रस क्रिये बरुवुदिल्ल. आद्दरिन्द गुरुवाद आ “फपायनन्नुु a शक्तनु आदन्नु बट्टु, लघुवाद इफायवन्नु अनुषि सबहुदु ऎन्दू इवुळने निवक्षित माहैयाल् - इष्टे विवक्षितवाद्द रिन्द, ऒरु निरोधमुम् इल्लै - याव विरोधवू इल्ल. समावर्तनादिहळिल . इत्यादि वेदवन्नु अध्ययन माडिद नन्तर व्रत सरा कर्नुवु विधिसल्पट्टिबि. आग “नेद मधीतै स्नास्कन् प्रागुदयात्’ व्रजम्प प्रविश्य” ऎन्दारम्भिसि आज्यभागान्तं. “अमुग् स्फोम मुर्हते जातवेदसे’, इत्यादि होमविशेषगळन्नु हेळि गुरुवाद स्नानवु विहित. आ प्रकरणदल्लिये “अथैतदसरं तूह्म्मीमेव तीर्थेस्टात्टा” ऎन्दु लघुवाद तूस्मिळंस्थानवु विधिसिदॆ. इवु समविकल्पवागि निधिसल्प डलिल्लने ऎम्बुदु चोद्य. इल्ल वॆम्बुदु प्रत्युत्तर. अधिकारभेधनन्नु इट्टे इल्लू व्यवस्थॆ माडिरुत्तदॆयॆम्बुद्कु समावर्तन प्रकरणदल्लि निबन्धनकाररु उदाहॆरिसिरुन,
- सति प्रथवु कल्ल स्कै” बोनु कल्ल न वर्तॆशे ।
नसांसरायिकं तस्य न ु९शे र्विद्यते सल म् ऎङ्ग 1.3 76 वचनवु साक्षि. हागॆय “अ तराश्र्रयागदल्लियू कालविळम्ब क्षनुरिगॆ मत्तु विळम्बाक्षमु[£गॆ ऎम्ब अधिकारि भेददिन्द यागभेगव निकल्फिसिदॆ.. आद्दरिन्द गुरु लघु विकल्प गॆ मुन् -” इत्यादि गुरु लघु विकल्पवु अवस्था विशेषगळिन्द नियतगळु ऎन्दु अङ्गीकरिसदॆ थु (द 4 न्नु इ द yd “dl pe (ज्य iN dp 4 खि हो- ठि गतरू सा वन्नू ऐ बसु व शं सक्क गि श्रि ् ई (9२) ख्य सित्तदि.
34 इ 1 इ ऊदा 8 ०८5 इळॆ त्तॆ ट् स पॆ ऎनॆ ऎग्गॆ का 111) नॆ- सूर्तियादल् - इत्यादि जननि पूर्णवागिरुवनलो, विश्वासवु पूर्ण
तॆ } ५ प् ’ इ खि प् ud. कळॆ 5) Sa dard sd in 8 ud २ वागि रतिवव नो. प्ट्र”क्षिगॆ आधिकारि ज्ञानवु मङ्ग - कडिनिति : यागिरुनननू, विश्वासवु कडित
त
’ 055 श्रीमद्रहस्यत्रॆयसाकी
अवर्हळ् उसदेशकालत्तिले ज्ञा न निशा सज्ज ळॆ युण्डॆ यॆनरांशॆक्: हिन्फु कलजू उपासकरानार्हळिन्नॆ 3क्कॊरं -माणमिल्लै न्रपन्न क् ‘वैत्तु, लोकस बि हार्थ माह उपासनादिहळ्ळि अनुष्ठित्ता _र्हळॆनॆ क्रति मव्वो प्र सट ळिरॊरुवचसमिट्लॆ
स्टडि कल्पिकृप्पु क्ळारुम् तन् ‘अदिकारतु, क्कु निहिद्ध मानवक्कॆ 3 लोकसङ्ग्रहार्थ सुळु कृप्प प्र’क्याल्, आनै इवन् तनक म् Rap SN अधिकारत्तु क्बु विरुदा सनुषा नम् हण्णु जृयाशे तन्ननुष्मा नत्त इट्टु लोकसङ्ग्रहम् पण वुम् कॆडप्पडा दॊ गियुम्. ई लोकसङ्ग्रह शब्दार्थ;
तनक्सिरण्डु वः; १हळ् शास्त्रा नुमतज्ञ ळॆ नाल्, अवत्तिल् लोकत्ता रु शळ्यमाय्क् अवनरुहळुक्टु ऒतमायिरुप्पदॊन्नै तान् अनुष्मितु क्वाट्ट लोकता ीर्सेयदिे निलै निरुत्तुजिये लोकसञ्ज्ल )हमॆन्रु अ्र गीताभाष्यत्ति ले अरुळिच्छॆय “दार्,
अल्लदु सन्मा सिक्कु ननद मान गृहस्थ स भ्रकौन्तधर! त्रॆ, । सन्मा ससियन-ह्मित्तु क्याट्टु मुदु, लोकसङ्ग ग्र हार्थमाहा-दु. ५ आज्ञा तिलङ्घनवमसामत्तनै.
ह यय द्द ल. ANN SER NE RSET साग रू.न ऎव स SN NN SB EO OC ऎण्ड I I TASES EESTI a यागिरुवननो, उपासनादिगळगॆ आधिकारियॆन्दकॆ, ई चरमश्लोशवन्नु उपजीश माडिद मत्तु. आदिशब्ददिन्द - महाभारतवन्नु उपदेशिसिद परमास्तिकराद्दरिन्द पूर्णज्ञान विश्वासॆयुक्त राद, प्यासादिगळिग उपासनादिगळल्लि अधिकारनिल्लवनॆन्दु एर्पडुत्तदॆ. अवर्हळ् - इत्यादि व्या. सादिगळु उप पदेशकालदल्लि ज्ञा ्लिनविश्वासगळन्नु हॊन्दिदवरागि, अनन्तर बुद्धि यु कलगि उपासक रादरॆन्दु हेळुवुदक्कॆ याव प्रमाणवू इल्ल. प्रपन राय्वैत्तु — इत्यादि व्यासा सादिगळु प्रुसन्नरुगळे आदरू मन्द ज्ञा ननिश्वा सवुळ्ळॆ A मॊदलाद जनर सङ्ग्रहार्थ वागि. उपासनादिगळन्नु अनुष्ठि सिरकॊदु” हेळुवुदक्कॆ आयाया. प्रबन्धगळल्लि वासादिगळु. प्रसन्न कॆन्दु- हेळलु याव वचन प्रामाण्यवू इल्ल. अप्प डि कल्पि क्त पु क्कालुम् - - इत्यादि हा दिगळिगॆ. प्र सन्नत्ववन्नु कथञ्चित्’ कल्पिसिदरू तन्न अधिकारक्कॆ” निद्दॆ वादवुगळन्नु लोकसङ्ग्रहा र्थवागि अनुस, सलु होदरॆ अवुगळु इवनिगॆ पापवागि अधिकारक्कॆ. निरुद्ध वाद अनुष्ठानवन्नु माडुवुदरिन्द तॆन्न आनुष्का नवन्नु तोरिसि लोकसङ्ग्र हम् हणु ) वुम् इत्का दि- जनरु हागॆ अनुष्ठान माडलॆन्दु, मार्गदर्शन साग तनक्कु इत्यादि -तनगॆ ऎरडु मार्ग गळु शास्त दिन्द अनुमतगळादरॆ अवुगळल्लि लोकदल्लिरुव जनरिगॆ शक्यवागि अवरुगळिगॆ हितवागिरुव दॊन्दन्नु तानु अनुष्ठिसि तोरिसि लोक जनरु आ मार्गवन्नु लॆ निरुत्तु हृये-अवलम्बि सुवन्तॆ माडुवुदे लोकसङ्ग्रहनॆन्दु त्री गीताभाष्यदल्लि कृपॆ माडि चा कॆ. आग ऎरडु मार्गगळू शाश्रसन्म तवाद्दरिन्द लघुवाद उपायवन्नु अनुषस्लिसिदरॆ अधिकार विरोधविल्ल वॆन्दु तात्स र्य. आ… च अल्लदु ‘सन्यासिक्ळु इत्यादि. “उपायापाय सन्त्कागी मध्यव मां वृत्ति माश्रितॆ ऎन्दु उपायान्तरवॆम्ब अपायॆकार्यनन्नुु बिट्टु प्रपन्ननु बत न हेळिकुवु/ तन्न आधिकारक्कॆ निषिद्धवाद उपास सन अनुष्ठिसि Me सन्यासियु तनगॆ निषिद्धवाद गृहस्थ निगे एकान्तवाद प्रजोत्सत्ति मॊदलाद धर्मगळन्नु अनुष्ठिसि तोरिसुवन्तॆ, पन सङ्ग गा रदु. इदु अज्जा क इत्यागि-इदु 2 शास्त्र रूप भगवदाज्ञ्यातिलङ्घनवागुत्तदॆ,
चरमश्लोकाधिकारः 1056
। इप्पडिये प्रसत्त यधिकारिक्ळु निषिद्दत्तै अनन्ताने क्रैज्वर्य बुद्धि याले अनुष्ठ्मि क्स युव् स्वाधिकार निरुद्धवर्.
नणा*श्रमधर्मा न त्याज्यम्, शास्त्र निहितत्वात्. प्रपत्तिक्कु अनपेस्ततज्नळान शास्ति प्रीयज्ञळ्ळि कैङ्कर्य बुद्धियाले अनुषस्मिप्ट्रार्ळु विरोधनमिुल्लॆ ै. तन्हाम् दकुक अनुरूस ०गळुमाय् तन्ना मुक्त शक्यङ्गळु मान सर्ग धर्मङ्गळिनुडै य स्वरूपत्यागम् अङ्गमाह विधेयनॆन्नुम् पनि लत. प पत्युत्त रकालम् तनी” वर्णाश श्रमाद्यधिकारज्ञ ळुक्कु अनुरूपमाहनडै त्त थॆ स जृर्यघल त्रैयन्नि्ञ्यन्नु अहिंसा सत्यवचनादि सामान्य धर्मज कैयनु” आचार्यवन्दनादिहळ्ळि
इप्पडिये इत्यादि-हीगेये प्रपत्त यधिकारिगॆ निषिद्दवाददन्नु काम्यबुद्धियिन्द. अनुषि सुवुदु दोसवागुवन्तॆ, अवन्ने कैङ्कर्य बुद्धियिन्द अनुस्मिसुवुदू स्वाधिकार निरुद्ध-दोषा वह. हागादरि प्रपत्तिगॆ अनपेक्षितगळाद वर्णाश्रम धर्नुगळन्नु अनुष्मिस कूडदॆ, ऎन्दरॆ; प्र पति शि क्कुनपेस्तितङ्गळान ऎन्दारम्भिसि उत्तरिसुत्तारॆ. आदागि वर्णाश्रनु धर्मगळु भक्तिगॆ “सह कान्त्वेनच? वन्दु अनुष्ठिसबेकादवु. प्रपत्तिगॆ इवुगळु अङ्गवागि अनपेक्रितगळु. आदरू, शास्त्रनिहितगळाद्दरिन्द, शास्त्रीय वर्णाश्रम धर्मगळन्नु कैङ्कर्य बुद्धियिन्द अनुष्मिसतनवरिगॆ विरोधविल्ल. वर्णाश्रम धर्मत्याग विधि सक्ष खण्डनॆ.
“सर्व धर्मान् परित्यज्य? ऎम्बल्लि कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोगगळ स्वरूप त्यागवु प्रपत्ति गॆ अङ्गवागि विधिसल्पडुत्तदॆयिन्दरॆ अवुगळिगॆ अधिकारिगळादवरे अवुगळन्नू बिड बेकॆन्दु एर्पट्टु, स्रपत्रियु सर्वाधिकारवल्लवॆन्दु एर्पदुत्तदॆ. आद्दरिन्द “सर्व धर्मान्’ ऎम्बल्लि तन्दामा् जात्यादिहळुक्कु अनुरूपङ्गळाय् इत्यादि-हेळिरुवन्तॆ तम्म तम्म जाति गळिगॆ अनुरूपगळागि तम तॆमगॆ शकृगळाद सर्वधर्मगळ स्वरूप त्यागवु अङ्गवागि निधेयॆम् इत्यादि-विधिसल्पट्टिदॆ, ऎम्ब पक्षदल्लियू, प्रुपत्तु तर Kuch तन्न नर्णाश्रमादि अधिकारगळिगॆ अनुरूपवाद कैङ्कर्यवन्नु फडकॆ अवुगळ फलवन्नू कळॆदुकॊण्डु, आहॆ, सत्यवचनादि सामान्य धर्मगळन्नू आचार्यवन्दनादिगळन्नू बिट्टु सशुमृग पक्षूदिगळ हागॆ स्वेचैयागि तिरुगाडिकॊण्डु इरुवन्तॆ एर्पडुत्तॆदॆ. सर्वधर्म स्वरूप त्यागवु प्रसत्तिगॆ अङ्गवागि प्रसत्रिगॆ पूर्वकालदल्लि त्यजिसल्पट्टि [रै प्रपता, [सुरॆ कालदल्लि अवुगळन्नु अनुष्मिसिदरॆ, पूर्वकालदल्लि अङ्गॆ वागि त्यजिसल्पटि । न्तॆ आगुवुदिल्ल. उत्तर कालदल्लियू तन्न स्वरूप शक्त नु गुणगळाद कैङ्कर्य वन्नु बिडबेकाद प्रसङ्गवु एर्स्पडुत्तदॆयॆम्ब अभिप्रायदिन्द हीगॆ स्ववर्णाश्रम धर्मगळन्नू बिट्टु स्वेच्छानिहारियागि सशु मृग पक्षिगळन्तॆ इरुव प्रसङ्गवु एर्सडुत्तदॆ ऎम्ब दुरवस्थॆयु हेळल्पट्टतु.
इल्लि “सर्वधर्म? शब्ददिन्द स्वरक्षणार्थ स्व व्यापारवे विनक्षित. अवुगळ त्कागवु प्रसत्तिगॆ अङ्ग. “न कळञ्जं भक्षयेत्, नानृतं वदेत्” इत्यादि निषेध वाक्यसिद्दगळाद कळॆञ्जभक्षणा भाव, अनैत वदनाभावगळु, अभाव रूपगळाद्वरिन्द, अवुगळिगॆ स्वरक्षणार्थ स्व व्यापात्ववु
1057 । श्रीमद्रहस्यत्रयसारे युम् तनिर्न्नु पशु मृग पक्ता 3दिहळ्ळॆप्पोले तरुयम्म्स डियाम्. निषेध वाक्य सिद्ध ज्ञळान निवृत्ति रूप धर्मॆज्नळ् स्वरक्षणार्थ स्वव्यापार मल्ला मै याले शरणागति योडु वकोधसाल्ला मै याल्, इब्ब प्रव्मत्तिरूप धर्मज अनुडैय त्यागमे विवक्षित मॆनुवर् निर्रा हमुम् मुन्दन. निवृ त्रि युवा् व्यापार निशेषमॆन्नु निडवखव् अदु वुमन् जु निडमुवर्् नोक नेद सिद्धमिरे. ।
व्विधि बलत्ताले प्रवृत्ति निवृत्ति रूपज्गळान सर्वथर्मब्नळ्ळॆयखम् तनिरन्नु तिरिगै ताने नन्न नुक्कु शासा स फेमानाशोनॆन्नि ८ ?.प्र नन रास पूर्वर्हळुम्, इस्रॊ ीदु ळ्ळारुम् सावधानरायाप्प ण्षि प्लोरुहिर p । जृर्य, ळुवर्, Es परिहारज्ञ ळु, वनिरुद्धानुष्का नमाम्. हथाप्र माणवं् प्रसत्ति सम्प्रदाय प्र वर्त कराय् सरवु कारुणिकरुवपाय् इरुक्टिरवर्हळुक्कु भ्र ष् निप स्रलम्भ सम्भाननॆययमिील्लि . याव ज्हीवनर् सर धर्मः त्या गम् विधेयमाहि लस्रू ९ स सीरोधमुळ्ळदु ; प्रपत्र न नुष्या न सणत्तिल् सर धर्मज ळिनुडैय स _रूपत्यागम्” अङ्गवानाल् निलोधमिल्लॆ प? ऎन्निल्,
इल्लदुदरिन्द अवुगळन्नु त्याग माडुवुदरिन्द सनिषिदृवन्नु अनुष्मि सिदन्तॆयागुत्तदॆ ऎन्दु हेळ लागुवदिल्लवॆन्दु वादिसि, प्रवृत्तिरूप कैङ्कर्य, आचार्यवन्दनत्यागादि विषयगळल्लि हेळिद प्रसं गवू, . इष्ट स्रसङ्गवॆन्दु र निषेध वाक्य सिद्धङ्गळान- ऎन्दारम्भिसि उत्तरिसुत्ता. अदागि निषेध वाक्यसिद्ध गळाद निवृत्ति त्रिरूप धर्मगळु स रक्षणार्थ स्न स्व व्यापारवल्लदुदरिन्द, शरणा गतिगॆ निरोधनल्लदुदरिन्द्य. इल्लि प्रवृत्ति त्रिरूस धर्मगळ” त्यागवे विवक्तितवॆम्ब निर्वाहवू बल्बज वादद्दु. हेगॆन्दरॆ निवृ त्ति युम् इत्यादि- -अमानित्वॆ अळतॆ 40दवुद. अदम्भित्व-डम्भा ’ चारविल्लदिरुवुदु इत्यादि’ “कादतियल्लि अन्नभोजन- निवृ मॊदलादवू, व्यापार.–विशेषगळु ऎम्बुदू, अदुप्रम्-२आफिवृ ैत्तिरूप व्यापारवू सैत ओत” ऎम्बुदू. लोक. वेद सिद्ध गळु. लोकदल्लि किळिजातेतत’ निवृत्ति त्रियू; विषभक्षणादि- निवृत्तियू, स्वरक्षणार्थ स व्यापार सिद्धगळु. : वेददल्लि pea सद्राथूहन” ऎन्दु; हेळल्पट्ट- हिंसा निवृति यू स्वरक्षणार्थ
स्व व्यापारवागि ‘स प्रसिद्ध… 4 इद ke लाज च
रौ धि बलत्ता ले इत्यादि-स्वेज्छि यिन्द प्रवृत्ति निवृ ति रूप सर्वधर्मगळन लॊ बिनॆच्ररु : होषवादरू, “परित्यज्य- ऎम्ब. विधि बलदिन्द अवुगळन्नु स र! दोषवागदु, शास्ता र्थ 5 षरिपालनॆयागुत्तिजॆ, आद्दरिन्द, ;सर्नधर्मगळन्नूू बट्टु स्वेज्छि यागि सञ्चरि सुवुदी स्प । सन्निगॆ शास्तार्थ-स्व रूपवॆन्दकॆ स पन्न रान पूर्वर्हळुवु” ग प्रपन्न! राद ज् पूर्वा , चारैरुगळू ईग- इरुव शिष्ट स्
सावधानवागि माडुत्ति रुव कैङ्कर्यगळू, अपचारगळु ऎर्स “ट्रैरॆ अवुगळिगॆ -प्ला प्रायॆश्छित्रनन्नु माडिकॊळ्ळु वुदू, विरुद्धानुष्का नवागुत्तदॆ.' [इदु पूर्व पक्षिगू सम्मतवल्लददु) आ भ ल. विप्रलम्भ. बुद्धि यिन्दलू माडुत्ता ऎकॆन्दरॆ यॆथाप्रमाणम् इत्यादि-प्ल श्रिमाणवनन्नु अनुसरिसि प्रपत्ति सॆम्प र प्रवर्तकरागियू परम कारुणिकरागियू इरुववरिगॆ भ्रम विप्रलम्भ सम्भावनॆयिल्ल. ' सम्प्रदाय प्रवर्तकराद्दरिन्द भ्रृमविल्ल. परव मकारुणिकराद्द रिन्द विप्रलम्भ-नञ्चनाबुद्धियिल्लवॆन्दु तात्पर्य. प्रपत्त नर ष्मानकालत्तिल् इत्यादि-प्प पत्र किनुष्कानकालदल्लि - सर्वधर्मगळन्नू स्वरूपतः बहुद्रय प्रप चरमश्लोकाधिकार; 1058 आप्पॊ €दु सम्भानितमल्ला दवत्ति नुडै यॆ स्वरूपत्यागम् विधिकृ नेण्ना. सम्भावितमानवत्ति नुड्कॆय स _रूपत्यागम् 'निधेममादिल् अप्पॊ hay भगवत क्षेत्रवास शिखा यज्जोपनीतोर्ध पुण्ड त्रधारणादिहळ्ळॆ त्त त्रविरन्नु कॊण्डु प्र सत्ति सण्ण पॆ रैसङ्गिक्टुम्. तस्मात्रा, बगनिध्यर्थमुपदिशन् उपस हरति, आहैयाल्, उपासनत्तिल् वरुम् करा स ०गळाले निरपेक्ष प्रियायिरुक्किर प्र प त्रिक्कु अङ्गमाहवॊरु “धर्मण्ण ळ्ळयुव्पु त्र त,नेण्न्ना नॆनॆ । ये त्यागनिधि पक्षतु, क्सु उ जि तम्, इन्नत्याग निधियानसक्षम् तन्निलुम् नषायान्तर WA दार्कु म् अदुण्ण्माहिलुम् विळम्बक्षमरल्ला दार्क्कु म् इप्रपत्तियिल् अधिकारम्, स्पडियाना लॊरु न ्रैमाणज्लळुक्कुम् निशोधमिल्तॆ छ् न । पूर्वा चार्यर्हळुम् इव्विडत्तिल् सर्वधर्म स्वरूपत्यागव्् प्रपत्त्य ज्ञ मॆन्रुम्, तान सावास भान नागा. सधा न मां जा द भा भज द अम् । 10० द द. ऎं ब इं em किगॆ अङ्गवागि विरोधवल्ल. ऎन्दकि अप्पोदु सम्भावित मल्लाद इत्यादि-आग सम्भवविल्लद धर्म गळ स्वरूप त्यागवन्नु विधिसबेकिल्ल. आग सम्भावितगळाद धर्मगळ स्वरूप त्यागवु विधिसल्पडु त्र नियन्दक, अप्रोदुण्डान-आग एर्पट्टिरुव भगनत्स्टेत्रवास्त, शिखॆ यज्ञ्यॊ bE ऊर्ध्व पुण्ड्रधारणादिगळन्नु तविर्न्हुकॊण्डु - तॆगॆदुहाकि, प्रपत्ति पण्ण प्रसिङ्गिक्कु म्- प्रपत्ति, यन्नु "माडबेकॆन्दु एन र्पडुत्तदॆ. इदु आत्यन्ता निष्क करडद काफक्य त्यागविधि पक्षक्कॆ समीचीनवाद अर्थ. हागादरॆ, त्यागविधि' पक्षक्कॆ हेगॆ निर्वाहवॆन्दकि आहैयाल्् : उपासनत्ति ल्. वकुम्- इत्यादि- -अनुग्रहिसुत्तारॆ. भर्मस्वरूप ' श्यागवु ' अनिष्ट करवाद्द रिन्द, ``उपासनदल्लि एर्पडुव कर्मयोग ज्ञानॆयोगगळिन्द, निरपेक्षडागिरुव अन्दरॆ कवगळ "आनीकॆयिल्लदिरुव प्रपत्तिगॆ आङ्ग वागि याव धर्मगळन्नू आवलम्बिसबेकिल्लवॆम्ब सर्वधर्म नैरपेक्ष Re त्याग विधि पक्षक्कॆ स्पर सवादद्दु. इन्द त्यागविधियान पक्षन्तन्नि लुम् इत्यादि-ई सर्वधमस्वरूप Wg विधि सुव पक्षदल्लियू, उपायान्तरदल्लि सामथण्यवि विल्लदवॆरिगू, अदु इद्द रू "ऎळम्बवन्नु हिसला रदवरिगू आकिञ्चन्याधिकारवु निर्पडुत्तदॆयॆन्दु तात्पर्य. इप्पडियानाल् ऎत्टुदि-हीगि हेळिदकि याव प्रमाणगॆळिगू विरोधविल्ल. पूर्वाचारृ रुगळल्लि एर्पट्ट विवाद-आ विवादक्कॆ सर्वधर्म स्वरूप श्यागवु विषय- वल्लवॆम्बुदर नवर, श्री भाष्यकारर कालदल्लि अवरिदुरिगेने ई श्लोक विषयवागि "सर्वधर्मस्वरूप त्यागवु' प्रपत्तिगॆ आङ्गवागि ई चरम श्लोकदल्लि विधिसिदॆ ऎन्दू हागल्लवॆन्दू विवादवु एर्सट्पिकॆन्दू ऎरडु पक्षगळू सरियॆन्दु भाष्यकाररु मौनवागिद्दरॆन्दू . हेळुव ऐतिह्यवु कल्पितवॆन्दु अभि प्राय पट्टु आचार्यरु पूर्वाचारैर्हळुवक् ऎन्दारम्भिसि विवाद विषयवेनॆम्बुदन्नु 1059 श्रीमद्रहस्यश्रॆयसारे विवादंसण्णिनार्हळॆन्रु नैरपॆ पेक्षमम्म्, प्रपत्तिकु ट्ट अधिकारवळान आकिञ्चन्यमंुम्, प्रपत्रियिनुडैय इच्चरमश्लोकत्तिल् ऎन्न सदज्गळिले विवश्तिक्सॆ शयञ्चितमॆन्रु निमर्शित्ता र् हळत्तनै अ अधिकारं पुरस्कृ त्क्योषायस्य निरसेक्सताव् । एकशब्देन वक्ति Ny केचिद्दाक निदो विदुः 1101! नैरसेक्र्यं पुरस्कृत्य विहितस्य लफीयसः । उपायस्या धिकारन्तु शोकद्योत्य ० विदुः परे [1111 इत्ममुर्था निशेषेपि योजना भेदमात्रतः ! प्रा चान्निवाद स्स ०वृ त्लो भाष्य करै रवारितः 1112 eed तिळिसि समाधानवन्नु हेळुत्तारॆ. अदागि पूर्वाचार्यरुगळु ई चरम श्लोकदल्लि सर्वधर्म स्वरूप त्यागवु प्रपत्तिगॆ अङ्गवे, अल्लवे- ऎन्दु वाद माडलिल्ल. मत्तेनॆन्दरॆ प्रपत्ति गॆ अधिकार वाद आकिञ्चन्यवू प्र प्रपत्तिय : नैरपेक्ष्यवू. ई चरमश्टोकदल्लि याव पदगळल्लि विनक्षिसुवुदु उचितवॆन्दु विमर्शॆमाडिदरष्टे. इदन्नु कारिका रूपदल्लि विवरिसुत्तारॆ. अधिकारं पुरस्कृत्य - इत्यादि “सर्वधर्मान् परित्यज्य? ऎम्बल्लि "स्थितस्त्यृं' ऎम्ब पद वन्मु अध्याहार माडिकॊण्डु अदरिन्द प्रास्तवाद आकिञ्चन्यवन्नु मुन्दिट्टु कॊडु उपायद नैरपे क्ष्यवन्नु “ऎक”शब्धवु तिळिसुत्तदॆयॆन्दु वाक्यस्वारस्कवन्नु तळिद कॆलनरु हेळिदरु. मत्तॆ कॆलवरु नैरपेक्ष ओ0पुरस्कृत्य-.. प्र हत्तिगॆ बेरॆ. यान : धर्मानुष्कानवू बेकिल्लवॆम्बनिरपेक्षतॆ यन्नु- मुन्दिट्टुकॊण्डु, ब लघूपायवाद . प्रपक्तिगॆ अधिकारवाद आकिञ्चन्यवु, “माशुचः” ऎम्बल्लि निसेधिसल्प टि ।, शोकदिन्द तिळिसल्पडुत्तदॆ. ऎन्दु. हेळिदरु. । हीगॆ अधिकारवू, नैरणेक्ष $वू चरमश्कोकदल्लि हेळल्पडुत्तदॆ. ऎम्ब अंशदल्लि विवादविल्ल दिद्दरू, कॆलवरु. “स स्वरकारोहतॆे त” "वृष्टिकानोयजेश' ऎन्दु. हेळुवन्तॆ अधिकारवन्नु मुन्दिट्टुकॊण्डु भत न्नु विधिसुवुदु स्पतसवॆथ्यू मत्तॆ. कॆलनरु. “मन्मनाभव” ऎम्ब श्लोकदल्लि हेळिद भक्तियोगद ह. pene नॆनॆदु. शोतिसिद्द अर्जुननिगॆ, आरम्भदल्ले, तानु विधिसुव प्रसत्त पायद लफघुत्वनन्नु (सुलभवागिरुवुडॆम्बुदन्नु) हेळुवुदु अवश्यकवॆन्दू न्सरपेक्र्यषन्नु मॊदलु हेळुवुदु उचितवॆन्दू "सर्वधर्मान् परित्यज्य'' ऎन्दु प्रसत्तिगॆ इतर धर्मगळ अपेक्षॆयिल्लवॆन्दू कृष्ण सरमात्मनु हेळिदनॆन्दु अभिप्रायपट्ट रु. हीगॆ योजना भेददल्लि विवादवु इद्दरू याव कक्सियन्नू बा बज भज- वस्तुस्सि बतियु च वाग नडॆद वृत्तांशवन्नु सरियागि तिळियद प्रतिवादिगळु, सर्वधर्म स रूप पत्यागवु प्रपत्ति प अङ्गवागि ता ताता विवादवुनडॆदुदागियू ई ऎरडु ’ कक्षिगळन्नू ह ररु निषेदिसलिल्लवाग्द सु सर्वधर्म स्वरूप त्याग विधिसक्षवु भाष्ककार सम्मतवॆन्दु हेळुवुदुचरमश्कोकाधिकारः । 1060 अज्ञात पूर्ववृता इ०तै र्यत्तत्रारोसपितं’ परैः । तत्तु. श्री विष्णुचत्ताैक्नि नूल मित दर्शितव । 13/1 आनाल् 1) “इदं शरण मज्ञाना विन्द मीव निजानता 4 इदं तितीर्ष्पतां पारनिद मानन्त्य निच्च इम्!” ऎस्रुम् 2) “अविद्या तो देने सरिब )ढतया वा जस स्वभक्ते र्थून्ना वा जगति गति मन्या मवनिडदुषाम् ॥ ऎन्रुम् शॊल्लुहिर अधिकार सत्यवचनक्कॆ बहुदूरवादद्दु. »आरोपितवु ऎन्दर्थ. आजा ्लातपूर्ववृ त्रा त्रै $ - इत्यादि हीगॆ हन्दॆ नडॆद वृत्तान्तनन्नु $ळियिदवरु आरोसणॆ माडि हेळिद २ससिद्दा. “ऎनन्नु त्रीविष सॆ कित्तके मॊदलादवरु निर्मूलवॆन्दु तिळिसिरुत्तारॆ. } “यत्स्प वर्णाश्रमाधीनं कर्नु न त्यज्यमेव तत् । यावद्देहॆं प्रसन्न्यैश्चत्याग हेतोरणर्शनार ॥ शु) तिस्मॆ त्या दि विहित मनुष्मानॆङ्कु नैत्यकम् [es इत्यादि ce डॆ प्रदर्शि तवॆन्दु तात्पर्य. अन्दरॆ तन्न नर्णाश्रमक्कॆ आनुगुणवाद कर्म वु यावागलू प्रपन्ननु बिडबारदु. हागॆ बिडुवन्तॆ याव वचनवू इल्ल. शु ्रतिस्म एत्यादि विहितवाद नित ैन्सैमित्ति क” कर्मगळु अवश्यानुस्यॆ ीयगळं. “इदंशगणमज्ञानां”, “अविद्यातो देवे, ऎम्ब श्लोकगळिगॆ यजुवाद अर्थ. ज्ञान विश्वासपूर्णरु प्रपत्तिगॆ जधिकारिगळु, ऎन्दु हेळि मन्द ज्ञान निश्चासशालिगळु भक्तिगॆ अधिकारिगळॆम्बुदन्नु दूषिसिदरु. “लक्षीतन्त्रदल्लि इदं शरणनुज्ञानां इदमेवविजा नतां,” ऎंरं अत्यन्त अज्ञरिगू, आत्यन्त ज्ञा ्लनिगळिगू, प्रपत्तियु न्यून हेळिरुवुद रिन्द, इवॆरडु रीतियू इल्लदॆ, मन्द जा ) नवन्नु ळवरिगेनॆ भक्तियल्लि अधिकारवॆन्दु एर्पडुत्तदॆ इवे. अदन्नु हिम्बालिसिये भट्टरु. “अविद्यातो देवे” ऎम्ब, मुक्तकश्लोकदल्लि अत्यन्त ज्ता ्लनिगळिगू, अत्यन्त ज्ञ्यानिगळिगू भगवन्तनु उपायनागुत्तानॆङ्गु हेळुवुदरिन्द, मध्यस्थ राद वान्द जा नवुळ्ळवरिगॆ भक्तियु उपायॊनॆन्दा एर्न्पडुत्तदॆन्दु शङ्किसि, आश्लोकगळिगॆ भाववन्नु तिळिसलु, आनाल् इदं शरणमच्चा नां? ऎन्दारम्भिसि समाधानवन्नु हेळुत्तारॆ. अ गि (1) इदं शरणमज्ञानां इत्यादियागियू, (2) अनिद्यातोदेवे इत्यादियागियू
- इदं शरणमज्ञानां इत्यादि-भक्तियोगादिगळल्ल तिळुवाद ज्ञानवो, प्रषत्तियल्लियू सूक्ष्मवाद विशेषांश गळल्लि ज्ञानवॊ इल्लदवरिगू, ई प्र सत्तिये त्य उपाय. बभक्तियोगाविगळल्लि तिळिवाद ज्ञानविद्दु कालविळम्बाक्सवृ रागि शीघ्रवागि संसारवन्नु दाटचेकॆन्नु ववरिगू, पपश्तियल्लियू’ तिळुवाव ज्ञानवु ळवरागि श्री वैकु वंशवन्नु पडॆदू परिपूर्ण भगवदनुभववन्नु पडॆयबेकॆम्ब. आसॆयिन्द कूडिदवरिगू ई प्रपत्तिये. उपाय,
लक्ष्मीतन्त्र (17-100) 2) अनिदा तोदेवे परिबृढतया वाविदितया
र्भूम्वावा जगति गतिमन्कामविदुषाव-* । गतिर्गम्यश्जासौ हरिरिति जितान्ताह्वय मनोः
० वाजहे स खलु भगवान् शौनकमुनिः ॥ पु, ति, नो,
1061 श्रीमद्रहॆस्यत्रॆयसारे
बेद मिरुक्क म्बु डियॆन्नॆ न्न ल् ? इद्दि डत्तिल् चॊन्न शास्त्रीय नननु” मया ज्योगगैयन्नु. : मत्तेदॆन्निल् अज्जा नन् पश्वादिहळ्ळि स्पेले ? उपासनादिहळिल् तॆळिनिल्ला म्ळै हॊदल्, थ्र सत्ति तन्निलुम् सूक्ष्म निशेषज्नळ् अरियामॆयादलामत्त, नै इन ति स्री ES ऎन्नु म् “देवे ‘परिब ढतया वा निदितॆया” ऎन्नु म् ‘शॊन्न ज्ञाननिशेषमुम् निषयति,ल् eds तॆळिवादल्ल प पति, क्सु उपयुक्त वतान करण्यगुण तॆळिनादला मित्तनै अल्लदु इदुक्कु रनपेक्टि तमान सर्व नषयॆजा ्लनमुन्रु. परिबृढ त्वरूप शरण्यगुणनिशेष” ज्ञाननिंरे इज्लु शॊल्लप्प eas इवु पॆयुक्त ज्ञान ल उपायान्तरत्तिल् शक्तियिला ं दपोदु” अकिञ्चननांय् 3 पत्ति, कु अदि’ कारियावुर्, ।
शरण्यॊ पयूुक, गुणज स्ल्यानात् स्वप्रवृति, निवृत्ति शि रेव इजितेतिवादस ; खुण्डनम्,
कक्तियुण्डेयाहिलुवु्” (१) “शरैसु,सङ्कुलां कृत्वा लङ्कां परबलार्दन ॥ मां नयेद्यदि काकुत्स्सस्मत्तस्य सदृशं भवेत् ॥?
हेळिरुवुदक्कॆ एनु अर्थवॆन्दरॆ :- इल्लि हेळिरुव अज्ञानक्कॆ सश्वादिगळ हागॆ अत्यन्ताज्ञ्यान
नन्नुळ नरॆन्दु अर्थवन्नु माडिदरॆ शास सवश्यनागि प्रस्त त्यनुष्का नवन्नु माडलागुवुदिल्लवाद्द
©
त इदु अज्ञरिगू उपायॆनॆन्दु हेळिरुवुदु सर्म्यकवागुवुदिल्ल आद्दरिन्द “अनुदराकन्या” सादि व्यवहारगळ हागॆ “नइ्गॆ अल्बार्थकश्ववन्नु स्वीकरिसि, “इन्विडत्तिल् शॊन्न ज्ञानं? ऎन्दारम्भिसि विवरिसुत्तारॆ. इल्लि ‘ेळिरुन अज्ञानवु पश्वादिगळ हागॆ शास्त्रीयवाद ऒन्दन्नू तिळियदॆ इरुवुदॆन्दल्ल. बेरॆ एनॆन्दरॆ उपासनादिहळिल् इत्यादि उपासनादिगळल्लि £ळिवु इल्लजि इरुवुदागलि, स्रसक्रियल्लियू सूक्ष्म विशेषगळन्नु तिळियदॆ इरुवुदागलि अर्थवस्टे. इवट्रल् निजानतां ऎन्दू, “ देवेपरिब्ब ज.1 वा विदितया” ऎन्दू हेळिद ज्ञान निशेषवु उपासनादिगळल्लि तिळुवाद ज्ञानवागि, प्रसत्तिगॆ उपयुक्तनाद शरण्यन गुणादि विसयदल्लि तिळुनाद ज्ञानवागलि इष्टे विनक्षित. अल्लदु इत्यादि हीगल्लदॆ ई उपायक्कॆ अन नेक्रितवाद सर्वविषय ज्ञानवल्ल. परिबृढत्तरूप - इत्यादि प्रपत्तिगॆ असेक्षितवाद स्वामित्व, सर्वज्ञत्व. सर्नशक्तित्त वात्सल्यत्व, सौशीलत्व, सौलभ्यत्तादि a विशेषगळ ज्ञानवे इल्लि विनक्सित इव्रु सयुक, ज्ञान मण्डानालुम् - इत्यादि प्रसत्तिगॆ उसयुक्तगळाद. ई गुणादि विषयक ज्ञानवु एस रट्ट रू, उपायान्तरगळल्लि शक्ति हि इरुवाग अकिञ्चननागि प्रस त्रिगॆ अधिकारियागुत्तानॆ. शक्तियुण्डे याहिलुम् - ८
सायांशररल्लि शक्तियिग्दरू 1) शरै स्तु सङ्कुलाङ्कृत्वा - इत्यादि हेळिरुवन्तॆ रक्षकनन्नु कृपार्रु - ऎदुरु नोडिकॊण्डु तान् कृवाङ्गियिरुक्कैयन्रो उचितमॆन्निल् - तानु याव प्रयत्नवन्नू माडदॆ इरुवुदल्लवे पराशरभट्लर मुक्तकश्लोक - भक्ति योगादिगळल्लि तिळुवाद ज्ञानविल्लदॆयू प्रसत्तियल्लि सूक्त्मज्जानविल्लदॆयू अथवा इवरडरल्लियू पूर्णज्ञानवुळ 1 इद्दु तम्म प्रीत्याधिक्कविन्द अत्यन्त शीघ्रदल्लि परिपूर्ण भगवदनुभववन्नु इदि द प डयलु RA आसॆयिन्द बेरॆ. उपा १यवन्नु तिळियदवरिगॆ डि [व भगवन्तने ह उपाय प्राप्कनू आवने 1) ई रीतियागि रामायण “जितन्ते” सुन्दरकाण्ड ऎन्दारम्भिसुव 39.30 व त्रद रहश्यवन्नु डि शौनक मुनिगळु तिळिसिदरु, चरमश्लोकाधिकारः । 1062 ऎन्निरपडिये रक्षकन् कैपार्तु त्तान् कैवाज्नयिरुक्कॆ सयन उ चितमॆस्रिल् ? इदु पन नुडय उत्तरक तृविशेषत्तु, क्सु उदाहरणमाम्. आल्लादन्तॆ Ho साय सूजि शास्त्र ज्ग४् निरर्फकण्ग ज् 4 । उपायान्र रत्तिल् तनक्कु ज्ञा नमुण्डांश3् अदिल् अनुष्का न शक्कियुण्डानालुम् विळम्बक्षमनस्रिकॆ के यिरुक्कु माहिल्, कडुह फलं तरवल्ल प्र पति त्रिये नमक्कु उचितै यॆनि 'रुक्टु वारा इप्र पति श्रिक्टु अधिकारियामु्. इत्तॆ A इ 3र पारं इत्यादि हळिले कॊलुहिरदु. वज्जि स ऎन्नि ल्? *तितीर्षतां पारं” ऎन्रदु कडुह अनिष्ट निवृ ति, पिरक्क वेणु मॆन्नु म् त्व कॆयॆण्डॆ) "यारु ऎन्र हडि. आनन्त्यनिञ्च्छ ताम्, ऎन्रदु इ स् पा स परिपूर्ण भगॆनदनुभवतॆ सत्त न धरिशैमाट्टा दारैन्रपडि. इवै इरण्डै यु निनैत्तु “स्तभक्ते र्भूम्या वा” ऎन्सिरार्, इज्लु भक्तियन्र दु पौ €म पाकवश्यकॆ अत्यन्त सरतन्त्रनाद जीवनिगॆ. उचितनॆन्दकॆ. ई श्लोकवु- प्रसन्नन उत्तरकृतैक्कॆ उदाहरण मात्र, हेगॆन्दरॆ सीतॆयु श्रीरानुचन्द्रनिगॆ. भाक्कियागि -जनकरिन्द समर्सिसल्पट्टिळु. भार्या रक्षणवु भर्त्रधीन. आद्दरिन्द श्रीरामुचन्द्रनु' लङ्कॆयन्नु बाणगळिन्द हॊडॆदु तन्नन्नु करॆदु कॊण्डु होगबेकॆन्दु अपेक्षि सुवुदु उचितवादद्दु.. अदे : रीतियल्लि प्रसन्न नु तन्न आत्मरक्रा भरसमर्पणवन्नुु भगवन्तनल्लि सॆ मर्सिसद नन्तर, तन्न रक्षणॆगोस्कर पुनः च प्रयत्न! तॆ माडबेकिल्ल. निर्भरो निर्भयोतस्मि ऎन्दिरबेकु. शरण्यने इवन रक्षण भरनन्नु तन्न कर्त व्यवागि हॊत्तुकॊण्डु रक्षिसुत्तानॆन्दु अर्थ... अन्दरॆ समर्स्षितभरनु. प्रपत्त्य्युत्तर कालदल्लि 'उपायान्तर शक्तनागिद्दरू स्वरक्षणॆगॆ पुनः याव विधवाद प्रयत्नवन्नू माडदिरबेकॆम्बुदि तात्पर्य. आल्लादपोदु- भक्तिय हागॆ प्रपत्तियू स्वरक्षणार्थ स्वव्यापारवाद्दरिन्द, परतन्त्रनाद इवनु अदनु अनुषि ऎसबेकिल्लवॆन्दक्कॆ उपाय ततुव शास्त्रङ्गळ* - इत्यादि "ओमित्यात्मानं ध्यायथ”, ऎम्बउपासन विधायक शास्त्रद हागॆ,“मामेकं pi प्रज”ऎम्ब प्रपत्ति निधायक शास्त्रवू अधिकारि. दौर्लभ्यदिन्द, व्यर्थवागि होगुत्तदॆ... Nock “इदं तितीर्षताम्पारं” ऎम्बुदक्कॆ अर्थवागि उपायान्तरत्तिल् तनक्कु - इत्यादि असु pw 1 हिसुत्ताकि.. "अदागि उपासनदल्लि तनगॆ ज्ञानविदू अदन्नु अनुसष्ठिसलु. शक्तियिद्दरू, विळम्ब वन्नु सहिसलारदॆ शीघ्रवागि मोक्षवन्नु पडॆयजेकम्ब त्हरॆयिद्दक्कॆ शीघ्रफलवन्नु कॊडतक्क स्रपत्तिये नमगॆ उचितवॆन्दिरुवननू ई प्रशसत्तिगॆ ' अधिकारि, इदन्नु«इदन्तितीर्ष्हताम्पारं इत्यागळल्लि हेळिदॆ. ऎङ्गने यन्निल् - हेगॆन्दरॆ, “तितीर्षतां पारं? ऎम्बुदु शीघ्रवागि आनिष्ट निवृत्तिय उ उभागबेकॆम्ब यल्लि प्रेमाःशयवन्नुळ्ळवरिगू - पडॆयदॆ, धरिक्स माट्या दक्कि न्रृसडि त्वरॆयुळ्ळवरिगॆ ऎन्दर्थ. “आनन्त्यमिच्छतां’ इष्टप्रान्ति अन्दरॆ स्व रूपॆप्पास्त सरिपूर्ण भगनदनुभवनन्नु पॆट्रल्लदु.. -’ आत्मधारणवन्नु माडिकॊळ्ळलागदॆ कळनळनडुववनिगॆ ऎन्द र्थ. इनैय-रण्डै याव इन त्तु, - ) ऎरडु” आधिक dna, ऒन्दुगूडिसि अन्दरि अनिष्ट निन्नत्रियल्लि त्र कियि’ 63नरनू हः भर्तावत्मावा’ ऎन्दु हेळिरुत्तारॆ. इस्टप्राप्तियल्लि ट प्रेमातिशय ऎनन्नु ळ्ळवरन्नू ऒन्दुगूडिसि स भक ग इङ्गु इत्यादि - इल्लि भक्षि बुद प्रेनुपारनश्श ननु 1068 श्रीमद्रहस्यत्रयसारी चॊन्न पडि;अल्लदु भक्ति योगतॆ चॊन्नस सडियन्रु इब कि क,यिनुडै यॆ भूमावाहिरुडु, कडुह किडै यादपोदु अ. युव डयान अवस्था निकीषॆन्. इदु शिलर्रु कट्ट ळ्ळ yy भक्ति फग मिलॆ 3 ीयाहिलुम्, सुकृत निशेषमूलन तान भगवत्त्र सिन्दत्ताले स इव्व वस्थॆ यण्डैॆयनवनुव् प्र पृपति हक्कु अधिकारि. श्लॊ कद्द यार्का न् उसपादयन् गति. सृडियाहै याल् उपा यान्र, रत्ति ल् अज्ज राय्, इवु ऎपायॆत्तिल् समुदाय. ज्ञा स फरा यिरुप्पा र्क्ळुम् इदिलुं hE a रत्तिलुं तॆळिवुण्णा नालुवु् उपायान्स त्ति ल् अनुष्का नशक्ति इल्लादार्कु न् इवैयिरण्णु मुण्डानालुनु्, निळम्बं पॊराद आत्य ९तिशय मुडैयार्कु म्, प्रपत्ति यिलेंयिगियलाम्. इव्विकम्बाक्षमुनुम् तान् निनैत्त कालति,ले फलं सॆरुहैकुु उपायान्तर रहितनि् इव्हाकारत्तॆ, निनृतु, “जगति गति मन्यामविदुषां? ऎस्विरदु. तिळिसुत्तदॆ. अल्लदु भक्तियोगत्त्वै हेळिदॆयिन्दल्ल. इल्लि भक्तियोगनन्नु अधिकांवागि हेळिदरॆयल्लवे, प्रपत्तिगॆ आकिञ्चनाधिकारत टन हेळुव प्रमाणगळिगॆ विरोधवु एर्पडुत्तदॆ ऎन्दु तात्पर्य. इब्बक्ति यिनुडैय - ई प्रेम भक्तिय भूमा - आधिक्यवु यावुदॆन्दरॆ कडुहप्राहि, यित्यादि - शीघ्रवागि फलवु लभिसदॆ होदकॆ तानु नशिसिहोगुव अवस्थॆय नुण्टु माडुवुदु ऎन्दर्थ. भक्तियोग निष्कनिगॆ ई अवस्मैयु बरतक्क दुदल्लवे, प्रपत्ति योग निष्कनिगू इन्तह अवस्थॆ यु बरुतॆक्कद्द € ऎन्दरॆ, इदु शिलर्कु इत्यादि - इदु कॆलवरिगॆ, कब्बळ्ळॆ. प्प ट्ट — अधिकारानुगुणवागि व्यवस्थितवाद भक्तियोगविल्लदिद्दरू सुकृत निशेष मूलमान इत्यादि सुकृ तविशेष मूलवाद भगव स्र साददिन्द. बरुत्तदॆ. ई सुकृत निशेष मूलवाद भग वत्प्रसादवु नल अकिञ्चननिगू सभ सबळ रिन्द, आ भगवत्प साददिन्द उण्टाद प्रेमाति शयवु भक्तियोगद उत्तर कालदल्लिये उण्टागबेकॆम्ब निर्बन्धनिल्लनॆन्दु तात्पर्य. इव्पवनस्सै युडै यॆवनुम् इत्यादि ई प्रेमभक्तिय अधिक्यनॆम्ब दशॆयन्नुळ्ळ वनू, प्रपत्तिगॆ अधिकारि. इप्पॆ डियाह्टेयाल् इत्यादि - हीगॆ भक्तियल्लि ज्ञानशक्तिगळिद्दरू विळम्बक्षमनल्लदिद्दकॆ प्रसत्तिगॆ अधिकारियाद्दरिन्द, उपायान्तरदल्लि आज्ञरागि, ई उपायदल्लि समुदाय जा कन मात्रवन्नु ळृवरागिरुववरिगू, इदरल्लियू : उपायान्तरदल्लियू तिळुवाद ज्ला ) नवुण्टादरू, उपायान्तर दल्लि अनुष्मानशक्तियिल्लदनरिगू, इवॆरडू इद्दरू विळम्बवन्नु सहिसलारद आतण्यतिशयनन्नुळ्ळन शॆ “रिगू प्रपत्ति सि अधिकारवागि अदन्नू अनुष्कि सबहुदु. इन्नि ळम्बाक्षमनुम् इत्यादि -. ई विळम्बाक्षमनू तानु नॆनॆद कालदल्लि फलनन्नु हॊन्दलु बेकॆ उपायविल्लदवनु. इप्र कारत्तॆ, किनैत्तु - ई प्रकारवन्नु तिळिदु “जगति गतिनुन्याम विदुषां? - प्रपञ्चदल्लि बे उफौयनन्नु तिळियदवरु ऎन्दु हेळिरुत्तदॆ. हीगॆ भक्तियल्लि ज्ञानशक्र्तियुळ्ळवरू विळम्बवन्नु सहिसलागद आकॆञ्चन्यनन्नु अधिकारनागिट्टुकॊण्डु प्रपत्ति यन्नु अनुष्ठिसबहुदॆन्दर्कॆ सरिपूर्णजा ऒनशक्किगळन्नुळ्ळ व्यासादिगळू निळम्बाक्षमरागि एकॆ प्रपत्ति ‘चरमश्लोकाधिकार- 1004 षभ भॆक्तियोगे अधिकारस त्ति न ज्ञा नशक्ति मान्दॆ न, असितु अर्थित त्व सामर्थ्य निळम्ब क्षमाड्यै सादिगळा अधिकारि पुरुषर्हळाहैयाले SPIN शक्त tele यिरुप्पार्हळाहै याल् उपासनति ल् यि;गिन्दार् हळ मान्द्य अशक क मादल् स्यातिकृच्छॆ (षु विश्वासमान्द्य दुराशा मादल् दाढ ्क्यशालिनः वुण्डांयि/िन्दार्हळन्रु. । उपायान्रर ; आल्लदु ‘ज्ला न न्न दि दौर्बल्यं लघुत्यागस्यकारणनु् ॥, 14! नि तत्र त्र ैनर्हाणा मन्यदित्यपि युज्यते । सव नैवैषा नीतिस्स2तयघातिषु ॥ 15 हाट)? ‘7)सागाघा उ)उगाग्वगगागाघाा काका घा घा साघाघाघापाना घा कारा अ 554 0/4/41 माडॆलिल्लवॆन्दरॆ, व्यासादिहळ अधिकारि पुरुषर् हळाहैंयाले इत्यादि अनुग्रहिसुत्ता शि अदागि हाडिगळ भगवन्तनिन्द आज्ञा 2 पिसल्प्र टि , कार्यवन्नु नडॆसिकॊडुवुदरल्लि 8 श्रद्धॆयिन्द शेषत्व पारतन्त्र्यकाष्कॆयनु वहिसि“यावदधिकार मवस्थिति राधिकारिकाणाम्”, ऎम्ब सूत्रद प्रकार पदवि यॊन्दन्नु वहिसिदरु. मेलू विळम्बक्षमरुवताय्… इवरुगळु पदवियल्लि. आसॆयिन्द :विळम्ब कमरल्ल. “भजनसुखमेशकस स्य विपुलं” ऎन्दु आचार्यरे अनुग्रहिसिदन्तॆ भक्तियोग निष्क निगॆ. भक्ति योग दशॆयॆल्लि विपुलवाद ‘भगनदनुभन सुखवु “अत्र ब्रह्म समश्शुते? “अमृतत्वञ्चानु, पोष्य?ऎम्ब श्रुति सूत्र प्रमाणानुसारवागि लभिसुत्तदॆयाद्वरिन्द विळम्बक्षमरागि उपायां तर शक्तॆरुमाय् इत्याधि - उपायान्तरदल्लि शक्तरागि उपास सनदल्लि तॊडगिदरु. वैराग्य विल्लवॆन्दल्लनॆन्दु भाव. दृप्त प्रसन्ननू अर्चानतार सेवनॆयिन्दलू, वेदान्तॆ कालक्षेपवन्नु अनेकरिगॆ हेळि अध्यात्म नन्थ निर्माणवन्नु माडिकॊण्डु कालनन्नु कळॆयुन सिसखिसिपबा €हावसान पर्यन्त- संसारदल्लिरलु अपेक्षॆसि विळम्बक्षमुनॆम्बुदू इदे न्यायॆनन्न वलम्बिसिदॆ. अल्लदु ज्ञानमान्द्य मादल् इत्यादि-प्रतिवादिगळु हेळुव रीतियल्लि पासजनकनाद हेत्वन्तर’ दिन्द उपासनवन्नु : माडिदरॆन्दल्लवॆन्दु विनरिसुत्ताशॆ. ज्ञानमान्द्यदिन्दलो, विश्वास मान्द्य दिन्दलो भक्त योगदल्लि इळिदवरल्ल. । pleas हीगादरॆ bs बुद्धि दौर्बल्यात् १ पायान्तर निष्कृते”ऎन्दु ऒब्ब निगॆ बुद्धि सयदौर्बल्य’ दिद उपायान्तरवाद भक्त, योगवु आसेक्षिसल्पडुत्तदॆ ऎन्दु हेळिरुव प स व्यासादिगळु बुद्धि दौर्बल्यदिन्द र्य कब् ऎन्दरॆ, इदक्कॆ तात्पर्यवन्नु “अशक्तस्यातिक । च्छ्रेषु ऎन्दारम्भिसि आननग्रहिसुत्तारॆ. : अबागि अतिक च्छॆ पीष्ट सक्रस्य-अत्यन्त कष्ट साध्यगळाद उपा यान्तरॆगळल्लि तौ दुर इशादाधि्य शालिन अवुगळ क्रष्ण (गळन्नु तिळिदू ह अवुगळन्नु माडिमॆुगिसबेकॆम्ब दुराशॆय दाढ्क्नन्मुळ्ळॆ कस्यचित्. ऒब्ब निगॆ बुदि दौट्र्ल्यक्ञामन्दट्ट्दि नवु लघन्त्याग्य्य कारणम*-लघुवाद प्रनत्तियन्नु `स” कारणवागुत्तदॆ. इल्लि “नरस्य शब्दवु’ दंरासॆयुळ्ळ आशक्तनन्नु आळिसुत्तदॆ, तत्र लघॊसायवाद प्रपत्तियन्नु बिडुवुदक्कॆ कारणवाद. बुद्धि दौर्बल्यवु इद्दक्कॆ प्रपत्तॆ क्यनपा ;९णां-प्रपत्रि माडलु अनर्हरादनवरिगै, अन्यदिस सियुज्यते- -जुरासॆय निमित्त प्रपत्तिगिन्त बेरॆयाद उपायदल्लि प्रवृत्तियुम्बागुत्तदॆ . यन्त हेळुवुदु युक्त. संशयघातिषु व्यासादिसु- इतरर संशयवन्नु होगलाडिसुव व्यासादिगळ विषयदल्लि, निषानीतिर्सै न-अशक्तनाद्द रिन्द उपायान्तरक्कॆ अनर्हनागि, बुद्धि इस्पडि उपासन प्रसदनज्गळुक्ळु अधिकारम् व्यनस्थि तमाह्टयाल् इरणन्नु शास्त्र मु वं प्र ET, इरण्ण धिकारिहळुक्सुम् स्व धर्म. त्तिल् प्रतिपत्ति नैसम्यमे न उळ्ळदु. प र्रपन्न नसुकु कोलिन “आतॆ त्रै प्प त्त वेकॊनॆ” ह अनुष्मि क्सि ल् ब्रहा स्रॆबन्ध न्या यत्ताले टॆ कासगळ, नालुम्स्व यं प्र योजनमाहना दल् ओगवणा सगॆवतसमृद्धा ) सदिफलान्तरत्तॆ 4 सृत्तवादल् वेरॊन्नॆ आनुषित्ताल् विरो धमिल्लै, उपाय त्व बुदि त्याग वादस्य निरसनम् इप्पडि स्वरूपत्कागम् कूडादॊॊगिन्नालुम्, उपायत्व बुद्धि त्कागमः् सण्णु है “फरित जृ’वुक्नु पॊरुळानालोनॆन्नि ल् प्रसन नकु उत्तरकृ त्य गोचर ळान वाक्यजौ ळिल् सास बुद्धि त्का गम् विधिक्कि र निषम्” उचितवः. आ उत्त रक तृ परमस्रिक्टे दौर्बल्यदिन्द प्रपत्तियन्नु अनुष्किसलू अनर्हनागि होदवन न्यायवु सम्भविसुवुदिल्ल. इप्प डि इत्यादि-हीगॆ उपासनक्कू प्रशपत्तिगू सकिञ्चनत्व, अकिञ्चनत्व रूपवाद अधिकारवु व्यवस्थित वाद्दरिन्द उपासन विधायक शास्त्रवू प्प पत्तिविधायक " शास्त्रवू प्रयोजनवुळॆ द्दागिदॆ. इरण्डधिकारिहळुक्कूवर् इत्यादि- ई ऎरडु आधिकारिगळिगू स्वधर्मत्तिल् प्रतिपति त्रिनैषम मेयुळ्ळिदु-नैरसेक्ष्यविधि पक्षदल्लि स्वनर्णाश्रम. धर्नुगळन्नु अनुष्ठिसुवाग आ स कनिगै “सह . कारित्वॆ (नर, ऎम्ब सूत इ प्रकार आङ्गत्त प्रतिपत्तियू,स्रसन्न निगॆ कॆ ? ङ्कर्यबुद्धि यू इरुत्तदॆ.प्रपन्न निगॆ प्रसत्तेतर धर्मगळन्नु अनुस्कि A ब्रह्मास्तैन्यायवु सम्भविसुवुदु वे ऎन्दरॆ प प्रपन्ननुक्ळु इत्यादि अन सुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि स्रपन्न नु तानु अपेशक्सिसिद मोक्षरूस फलनन्नु आ द्हेशिसि बेकि यॊन्दु धर्मवन्नू अनंस्मिसिदरॆ ब्रह्मास्त्र न्यायदिन्द. विरोधवु एर्पडुत्तॆ नॆयन्सॆ म स्वयं प्रयोजनमाहवादल् इत्यादि स्वयं प्रयोजनवागियागलि, : भगनद्भागवत समृद द्भ्यर्थ ke फलान्तरवन्नु असेक्सिसि बेकॆयॊन्दु धर्मवन्नु अनुष्मि सिदरॆ “ऎकोभिविन. Ce सर्वधर्मान ऎम्बल्लि “उपायत्त्व बुद्धि त्याग” पक्ष खण्डनॆ. मेलॆ हेळिद रीतियल्लि सर्वधर्मगळ स्वरूप त्यागवु. कूडदादरू, आ- धर्मगळल्लि उपायत्त बुद्धि त्यागवन्नु “परित्यज्य” ऎम्बुदक्कॆ अर्थवागि स्वीकरिसकूडदे. परित्यज्य ऎम्बुदक्कॆ धर्मगळ परित्यागने तोरुत्तॆदॆयल्लदॆ, उपायत्व बुद्धि त्यागवु तोरुवु दिल्लवॆन्दरॆ, : प्रसत्तु सितॆर कैङ्कर्यदल्लि “उफायॆतां सङ्ग्रहदल्लि हेळिदन्तॆ इल्लू हेळबहुदल्लवे ऎन्दक्कॆ परित्यज्य”… ऎन्दु . गीतार्थ इप्पडि स्वरूपत्कागमु इत्यादि ‘आरम्भिसि बुद्धि त्यागवन्नु समाधानन्नु माडुवुदु तिळिसुत्तारॆ. “परित्यज्य’वॆम्बुदक्कॆ अदागि हीगॆ स्वरूप अर्थवागि त्यागवु हेळिदरेनु कूडदि ऎन्दरॆ, इद्दरू उपायत्स प्रपन्नरिगॆ उत्तर कृत्यसोचरगळाद उत्तरकृत्यपरमनि क्के वाक्यगळल्लि आ- पाय बुद्धि त्यागवन्नु विदिसुवुदा३ उचित. इत्यादि- इल्लि उत्तर कृ त्यपॆरवल्लदॆ उपायवन्नु विधिसुव ई इङ्गु चरनु श्लोकदल्लि “सर्मधर्मान् परित्यज्य” ऎन्दु हे- वुदरिन्द, बुद्धि त्याग पूर्वकवागि धर्म चरमश्लोकाधिकारः 1066 उपाय विधायकमायिरुक्किर इव्वाक्स ६र्चॊ िल्लुह्टॆया ले इब्बु द्वि त्कागपूर्न्वकमान धर्म; स्व रूपम् प्र पत्ति क्कु अङ्गमाह ‘असुनॆ €यॆमॆनु) फलिक्स याल् स्त ट् रृयोजन Md केवल क्रै ऎकर्येन् वुत, सक्स तृमॆन्सि र मतवु सिद्धि यादु. इवुसायत्तुक्कु च्हॊल्लुहिर धर्मान्तर नैरसेक्ष मुम् *डैयादु ; इव्टुपा यव अफिञ्चनाधिकारमन्र क NX यॊ।नयुवम्, ऎज्ज फेयॆन्सि ल् 2-उपायमल्ला दवत्ति ल् उपाय बुद्धित्का गम् निधिक्सनेण्णा. उपायवमा सवत्ति ल् त साय बुद्धि त्या गमृ ण्ण अनु ष्ठ क्रै यावदु? पट्रक्कीय उपासनादिहळिल् निल्फॆयान्. इजु उपायुत्व बुडि त्का गम् Sb च्ठॊ लुहिरसॆक्टति, ल्, त्यागविधिक्कुम् अनुषा ननिधिक्कु म्, अधिकारि भेदता, ले विरोधम् सरिहरित्तनिडमुम् अनपेक्षित वचनर्म. अडि” स्वरूपत्कागम् शॊल्लुं पोदिरे इव्विरोध ।” ग्रसज्समुळ्ळदु. इप्पडि बुद्धि निशेष त्याग पूर्वक कर ज्ञान भक्ति हॆळ्ळॆप्र सति कु आज ता नक्क स क्षतिल् उपासन प्र निडनज ळुक्का अज्लू जू व्यसदेश
- स्वरूपवु स्रसत्तिगॆ अङ्गवागि अनुष्यॆ “यनॆन्दु फलिसुत्त सा रिन्द स्वयं प्रयोजनवाद केवल
क्रैङ्कर्यवु उत्तर कृत्यनॆम्बुदु सिद्धिसुवुदिल्ल. अन्दक्कॆ. सत्ति स उत्त त कालदल्लि स्ववर्णाश्रमो’ चितवाद धर्मगळल्लि उपायत्च बुद्धि यनु ह बिट्टु बत फलिसुत्तदॆ. स गॆ बन कालदल्लि आ सर्व धर्नुगळल्लियॊ उपायॆक्क बुद्धियन्नु बिट्टु . प्रपत्ति तियन्नु माडबेकॆन्दरॆ सर्वधर्मगळू, प्रपत्तिगॆ अनुस्केयनॆन्दु फलिसुवुदरिन्द,. उत्त त्ररकृत्यवॆल्या स. स्वयम्प्रयोजन वागि अनुष्किसबेकॆम्बुदु सिद्धि सुवुदिल्लवॆन्दु तात्सृर्य.
दूषणान्तरवन्नु इवु ऎपायत्तुक्सु इत्यादि निरूपिसुत्तारॆ. आदागि ई उपायक्कॆ हेळुव धॆर्शातरॆ नैरपेक्ष सिवू सिद्दिसुवुदिल्ल. मेलू इवुुपसायवम् इत्यादि-ई उपायदल्लि आकिञ्चनरिगॆ मात्र अधिकारनॆम्बुदू इल्लदॆ होगुत्तदॆ, - ऎङ्गने ऎन्निल् - हेगॆन्दरॆ, उपाय मॆल्लादवट्रल् इत्यादि - उपायनल्लद धर्मगळल्लि उपायत्र बुद्धि त्यागवन्नु विधिसुवुदु कूड सु वृर्ध. उपायवाद उपासनादिगळल्लि उपायत्व बुद्धि त्यागवन्नु विधिसुत्तदॆयॆन्द स्वरूपत्याग विधि पक्षदल्लि हेळिदन्तॆ उपायवाद Ae क्र अनुस्मि सबेकॆन्दु सिद्धिसुवु दरिन्द भक्तिगॆ स्रसत्रियु अङ्गवागिरुनन्तॆ स्रसत्तिगॆ भक श्ल्याङ्गळत्ववु हेळिदन्तॆ परिणमिसुवुद रिन्द प्रसत्तियु अकिञ्चनाधिकारकनॆन्दु हेळिरुवुदु सिद्धिसुवुदिल्ल ऎन्दु तात्पर्य. उपायुत्व बुद्धि त्यागमु् इत्यादि-हीगॆ उपायत्चॆ बुन्धि त्यागनन्नु विधिसुत्तदॆयिम्ब पक्षदल्लि प्रसन्ननु त्यागाधि कारी, भक्तनु अनुष्कानाधिकारी ग हेळिद तन्मु ग्रन्थक्कॆ विरोधवु ee बन्दु तिळिसुत्तारॆ” इङ्गु स्वरूप त्यागम् इत्यादि इल्लि ‘श्विरूप त्यागवन्नु हेळुवुदादरॆयल्लवे ई निरोध प्रसॆङ्गवु एर्पडुत्तदॆ. उपाय _ बुद्धि त्याग पूर्वकवाद कर्म ज्ञ्यान भक्तिगळन्नु स्रपत्तिगॆ अङ्गवागि ऒप्पि दरॆ एनु बाधकवॆम्बुदन्नु इस्टडि बुद्धि निकीष त्याग पूर्वक ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि हीगॆ उपायत्व बुद्धि विशेष त्याग पूर्वकवागि कर्म ज्ञान भक्तियोग गळन्नु प्रपत्तिगॆ अङ्गवागि अङ्गीकरिसिदरॆ उपासन प्रसदनगळिगॆ अङ्गाङ्गि वृपदेशत्तिल् इत्यादि उपासन स्कलदल्लि उपासनवु अङ्गि, प्रनत्ति अङ्गवॆन्दू, स्रसत्ति स्थलदल्लि प्रपत्तियु आङ्गि
1067 श्रीमद्रहस्य प्रयॆसारे तिल् माराट्टिनेयुळ्ळदु. अङ्ग भानत्तिले यथा कथञ्चिदनुष्मानम् अन्य मॆस्हिर मैषम्युमंव्् मन्दम्. “सकलाङ्गोप संहारे काम्यं कर्मप्रसिध्यति ऎन्रु क्लॊल्लपट्टदिगी.’
अतः स्वरूप त्यागोक्क, कैङ्कर्यस्यापचरता उपषायुत्व मतित्यागे तत्सरूपाङ्गता भवेत् ।1।२॥
सात्तिक त्यागयुक्तानिइं धर्माणा मेतदङ्गतू । नूनं विस्मृत काकादि वृता न्न, रुपवणि९ता 1 । आनि निल
सकृत्र्रपदनेनृव धर्मान्तर दनीयसा । तत्प्प्बणेभिमतं पूर्लेसम्प्पापु रिति शुश्रुम ॥18/
उपासनादिगळु अङ्गगळु ऎम्ब शब्ध भेदवु’ उण्टे हॊरतु इब्बरू ऎरडन्नू अङ्गवागियो अङ्गियागियो अनुस्मिसबेकॆम्बुदक्कॆ निवारकरिल्लवॆन्दु तात्पर्य. . अङ्गभावत्तिल् इत्यादि- भक्ति यन्नु अङ्गियन्नागियू अदक्कॆ प्रपत्तियन्नु अङ्गनन्नागियू अनुष्ठिसुव उपासकनिगॆ भक्ति रूपवाद अङ्गियु पूर्णवागि अनुस्मिसल्पडबेकु. प्रपत्र्रियॆन्सु अङ्गियागि भ्त्रयन्न्नु अङ्ग वागि अनुष्ठिसुव प्रपन्ननिगॆ भक्तियु यथाकथञ्चित् अनुष्मिसल्पट्टिकॆ साकु, ऎन्दु हेळुवुदु सरि यिल्ल. अङ्गभावत्ति ल् यथाकथञ्चिदनुष्ठानम् अमैेयं मॆन्निर वैषम्युमुवम् मन्दवर् प्रनत्तिगॆ अङ्गवागि भक्तियन्नु हॆच्चु कडिमॆ अनुष्मिसिदरॆ साकु ऎन्दु वैसन्यु-व्यत्यासवू मन्दमः*.सरियल्लवॆन्दर्थ. एकॆन्दरॆ, सकलाङ्गोपसहारे इत्यादि-काम्यङ्कर्म- ऒन्दु फल क्कोस्कर आसॆपट्टु माडुव कर्मवु ऎल्ला आङ्गगळू ऒन्दुगूडि अनुस्मिसल्पट्टरीनॆ सिद्धिसु त्तदॆ, ऎन्दु हेळल्ल ट्टिदॆयल्लवे. प्रपत्तियू ऒन्दु फलवन्नुद्देशिसि अनुष्ठिसॆल्पडुवुदरिन्द सक लाङ्गगळन्नू यथान्याय अनुष्ठिसदॆ होदरॆ मोक्ष फलवन्नु कॊडलारदु.
उक्तार्थगळन्नु कारिकॆयिन्द सङ्ग्रहिसुत्तारॆ. आदागि अतः स्वरूपत्यागोक्ता इत्यादि- “सर्वधर्मान् परित्यज्य? ऎन्दु ऎल्ला धर्मगळन्नू स्वरूपतः बिडबेकॆन्दरॆ वर्णाश्रमोचित धर्मानुष्कानवू गुरु वन्दनादिगळू असचारवागि पर्यवसानवन्नु हॊन्दुत्तवॆ. उपायत्त मतित्यागे इत्यादि-धर्मगळल्लि उपायत्च बुद्दियन्नु बिडलु विधिसुत्तदॆयॆन्दरॆ धर्मगळ स्व रूपवु प्रसत्तिगॆ अङ्गवागबेकागुत्तदॆ. सात्तिग त्यागयुक्तानां इत्यादि-सात्विक त्याग युक्त वाद धर्मानुष्क्मानवु ई प्रसत्तिगॆ अ-गनॆन्दा हेळुन कॆलनर मातू, सात्विक त्यागपूर्वक धर्मानुष्ठानगळन्नु प्रपत्तिगॆ अङ्गवागि माडजै, केवल प्रसत्रियन्नु अनुष्ठिसिद काक विभी षण मॊदलादवर वृत्तान्तगळन्नु मरितु हेळुव मातु. धर्मून्तर दवीयसा. ऒन्दु धवरर्तिगळू अङ्गवागिल्लदॆ इरुवुदरिन्द, अवुगळिगॆ बहु दूरदल्लिरुव सक्कत् प्रपदनेनैन-ऒन्दु सल अनुष्ठिसिद प्रसत्रियिन्दले, त्य ऎगेम्भिमतं पूर्ने आ क्षणदल्लिये पूर्नरु तम्म इष्टार्थ गळन्नु सम्प्रापुरिति शुश्रुम-सडॆदकॆन्दु इतिहास पुराणगळिन्द केळिरुत्तेवॆ.
चरमश्लोकाधिकारॆः 1068 नैरसेक्ष निधसक्षेतुन कस्यासि बाध इत्याह,
प्र सक्ताङ्गत्त बाधेतु ब ब्रहा स्र समतेजसः । यषायस्य. न प्रभावश्च कैङ्कर्यादिच सुस्मिरम् ॥
हर अवै शॊल्लुहिर शिप जळिनुडैय र्हळुडैय शास्त्र आहैयाल्, अज जळुक्कु पक्षङ्गळ्, मान्बुडि स्वरूप ग म् इज्नु अज्ञानु त्यागमुम् पूर्वाचार्य सर क्रम् [धर्मज इज्जु पालनादि ळिनुडै विरुद्ध प्रसति सम्प्र बुद्धि य शास्त्रङ्गळुक्ळुमः, दायज क्सु ज ळाम्. स्वरूप विशेष अङ्गमुन्रु. ळुश्तुम् ता इप्पडि त्यागमात्र गतॆ प्रपत्ति “प्रपन्न’ 4 उक्त अज्जमाह उक्त क्सु नैरपे व् ह दोसज्गळा नैरनेत्त विधिक्किरदॆन्रुमु् क्षृत्ता विधिक्किरदॆन्रुमु् पोन्म 3० ले ले शॊल्लु पूर्त अदॆ धर्म धर ङ्गळिसुडैय स्परॊपमंव् इदुक्कु अङ्गमन्रु. आहै याल् इज्नु मत्तॊरु धर्म त्रालुम् इस्रसत्तिक्ळु आपेक्षॆयिल्लॆयॆन्सॆ बले इत्ता ग विधिक्कु तात्रर्यम्: नैरसेक्स विधिसिद्धा स ९ Fy सक्तिं प्रसक्तांश्च दर्शयति इस्पडि स्रतिसेधिक्कॆ क्कु प्प स्रिसजु म् इज्लु ऎन्न धर्मज्नळ् प्रसक्त ब १ ळाय् नैरनेक्ष विधि पक्षदल्लि, उपाय प्रभाववु सिद्धि सुवुदल्लजॆ कैङ्कर्यादिगळू स्थिर प्रतिष्ठितग ळागुत्तॆ “तन्दु प्रसक्ता ङ्गत्त महि ऎन्दारम्भिसि तिळिस सुत्तारॆ. अदागि इतर ब्रह्म विद्यानाय दन्तॆ न्यास विद्यारूपवाद प्रपत्तिगॆ अङ्गवागि वर्णाश्रम थर्नागळु अनुस्केयगळु ऎन्दु प्रसक्तनागलु, अवुगळु अङ्गगळल्लवॆन्दु “सर्नधर्मान् परित्यज्य? ऎम्बुदरिन्द अवुगळ नॆ नेक सन Ci हेळि ब्रहास्त्र समतेजसः- सहायान्तर निरपेक्षवाद ब ब्रह्मास्त्र कै समान वाद प्रभावनन्नुळ्ळ उपायंस्य ्रभावक्व. -प्रपत्रिय प्रभाववु हेळल्पट्वितु. कैङ्कर्या दिच सुसि रनत्-नित्यनैमित्ति क वर्णाश्रम i प्रसत्तिगॆ अङ्गवल्लदिद्दरू, आश्रम धर्मगळाद्द रिन्द अनुसि ऒसल्पडबेकादवु. अवुगळु भगनदाज्ञा सन्नालन रूप कैङ्कर्य बुद्धियिन्द स्वयं स्रयोजनगळागि माडल्पडबेकॆम्बुदु सिग्मा.
“सरित्यज्य? ऎम्ब त्याग निधिगॆ तात्पर्य.
मेलॆ हेळिद कारणगळिन्द “सर्न धर्मगळ स्वरूप त्यागनक्षदल्लियू, अवुगळ उपायत्व बुद्धि त्याग सक्षदल्लियू हेळिद दूषणगळन्नु आहैयाल् ऎन्दारम्भिसि उससॆंहारमाडुत्तारॆ. चक्क, 00द इल्लि सर्नधर्मगळ स स्वरूप सता ्यगवन्नु अङ्गवागि विधिसुत्तदॆयॆङ्गू आ धर्मगळु अङ्गवागुनन्तॆ बुद्धि विशेष बॆ पत्र सुनिधसॆब्टडुत्तदॆ दॆयिन्दू हेळुननक्त्षगळु अज्ञानुपालन शास्त्रगळिगूप्रपश्तिगॆ नैरनेक्ष्य गळिगू वन्नुहेळुव निरुद्धगळु. शास्त्रगळिग्र्यू इगृडि पूर्नाचार्य उक्त दोषङ्गळाले सं प्रदायगळिगू इत्यादि-हीगॆ प्रसन्नरागिद्द हेळल्पट्ट पूर्वशिष्टरुगळ नोषॆगळिन्द आचार धर्म
गळ स्वरूस श्यागवू प्रपत्ति” f une नल्ल, प्रपत्ति य नैरपेक्ष दिन्द आ धन नगळ स्ति स्वरूपवु
स्रपत्ति गू अङ्गवल्ल आन्दकॆ धर्मान्तर नैरपे ेक्ष्यदक्लि ई त ह निधिगॆ तात्नॆ र्य नॆन्दु भाव. ~~“ २ सिति गॆ सर्वधर्मस सापेक्षत्व च इद्दरॆ अल्लवे, 4 श्रॆयु सम्भविसन्त्त्व दॆयन्दु इप्पडि
प्रतिसेधि धिक्सॆ, ब्र क्क इत्यादि केळुत्ता आदागि हीगॆ स 4 i केधिसुवु दक्कॆ
स्रसङ्गवु बेकु. इङ्गु
1069 - श्रि (मद
हस्यत्रयसारे प्रतिषेधिकृप्पडुहिरननॆस्रिल् ? वेदान्त चोदितैहळान विद्यॆ स् ऒरुनिद्यॆ यिले ने अज्सज्ज ळाय् तोत्तिन वर्णाश्रम धर्म ०गळुम् गतिचिन्त नादिहळुम् निड्यान्र रत्ति लुम् वरुमाप्ट्पोले न्या सविद.यिलुम् इनॆ तुल्क न्यायत्ता ले अङ्गॆङ्गळांयं् वरसु ह इप्पडि अङ्गत्त प सज्ज मुडैय सर्वधर बगळालुव् इदुक्कु अपेस्सॆयिल्ल सृ आ यॆन्नै ै इव्वि डुत्तु कु उचितम्; नैरपेक्ष 5 विध् प्रपन्नानां वर्णाश्रम धर्नूनुष्ठानम् कथं सङ्गच्छ ति.? इदृर्मज ळुकुु “सहकारित्वेन च” ऎस्लिर सूत्रत्तिर्लॊन्न विद्या सहकारित्रवेषम् तनिर्न्हालुम्विहतत्वाच । आश्रम कर्मापि” ऎन्रु सूत्रान स्त रत्ति कॊ न निनियोगा न्ररत्तुक्सु प्रपन्न न् पक्क ल् निवारकरिल्लॆ. अहैयाल् इद्द र्क इ नुड यॆ "नुष्ठानमुवत्,धर्मं ग्य तृजिक्कॆ यम् प्रपत्तिक्कु अङ्गमल्ला नया इल् “शक ज्लळिल् नैराश्यं, अधि ऎन्न धर्मङ्गळ् -इत्यादि इल्लि याव धमुगळु प्रसक्तगळागि प्रतिषेधिसल्प दुत्तवॆयिन्दरॆ, नेदान्तॆ चोदिकैहळान ऎन्दारम्भिसि उत्तरिसुत्तारॆ. अदागि 'नेदान्तगळल्लि - उपनिषत्तुगळल्लि चोदि सल्पट्ट मोक्ष विद्यॆगळल्लि ओदि... इत्यादि ऒन्दु निष्यान्रॆकरणरल्लि, “यज्ञेन, दानेन, तससा$ नाशकेन” ऎन्दु आङ्गनागि श्रुतगळाद वऐर्णाश्रम धनं- गळु चित्रशुद्धा पावक रूपाद आर्थ सामथण्यदिन्द ऎल्ला विदैगळिगू- अङ्गगळागि आगुनन्तॆयू, पञ्चाग्नि विद्यॆगळल्लि श्रुतवाद आर्जि रादि मार्ग चिन्तनवु फलप्रात्तिगॆ अनुकूलवागि इतर विद्यॆगळल्लियू- परुमाप्योले - आवृ स्मिसल्पडबेकागि प्रास्तवागुवन्तॆयू न्यासविद्यैयिलुवश् 2. न्यासविद्यॆयल्लू » . इवैतुल्यन्या यतैयताले - आन्दरॆ इदू मोक्षविद्यॆयॆरिम्ब ननसानन् न्यायदिन्द , आङ्गङ्गळाह सरफ्तुह डॆ अङ्गगळागि ई सर्वधर्मगळू अनुस्ठिसल्पड डबेकॆम्ब- स्रसङ्गवु एर्सडुत्तदॆ- ऎम्बुदु इल्लि स इदक्कॆ समाधानवागि इप्पडि अङ्गत्वप्रसङ्गत्व मुडैय ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. आ हीगॆ ' आङ्गत्व प्रसङ्गवन्मुळ्ळ सर्वधर्मगळिन्दलू, इदुकृपेक्षैयिल्ल्लै -. इत्यादि ई ह. आसेक्षॆयिल्लवॆम्बुदु इल्लि उचितवु. धर्मगळु प्रपत्तिगॆ अङ्गवल्ल. विहितगळाद्दरिन्द नित्यनैमित्तिकवर्णाश्रम धर्म गळु प्रपन्ननिन्द अवश्यानुष्मेयगळु. इद्भर्मुङ्गळुक्कु - इत्यादि ई धर्मगळिगॆ “सहॆकारित्रेनच [ब्रह्मसूत्रॆ (3-4- -33) ] ऎम्ब सूत्र दल्लि हेळिद निद्या सहकारित्व वेषव्रु न्यासनिद्या विषयदल्लि इल्लदिद्दरू, “विहितत्वाच्च आश्रमकर्मापि” [ब्र. सू (8-4-89) ] ऎम्ब सूत्रान्तरदल्लि आश्रमाङ्गवागि निहितवाद निनियो Sh प्रुसन्म्नन विषयदल्लि निवारकरिल्लै - तडॆयुनवरारू इल्ल अन्दक्कॆ प्रपन्ननिगॆ वर्णाश्रम धर्नुगळु, प्रपत्रिगॆ अङ्गगळागि अनुषि ऎसल्पडॆबेकागिल्लनादरू, विनियोग पृथक्त्व न्यायदिन्द, आश्रमधर्मगळागि विहितगळाद्दरिन्द अवश्यानुस्यॆ €यगळॆन्दु तात र्य. आहैयाल् इत्यादि-आद्दरिन्द ई धर्मगळ आनुषा ऎनवू, धर्मगळन्नू बिडुवुदू, प्रपत्तिगॆ- अङ्गनल्लवादचरमश्लोका धिकारः 1070 कारत्तिले शॊरुहुम्, शक मान सित्यनैमित्तिकङ्गळुडैय अनुष्कानं, आजा नुपालन अ इ” मान. कै जृरृमात्रम्. । वर्णाश्र म धर्माः णामहि, विहितत्वात् आनुकूल्यसज्ज ल्रॆ € अन्तर्गतश्हा च्च प्रपत्ते रङ्गु निन्ति वादस ; निरासः सज्कल्पमात्रनोनाङ्गं श्रुत माचरणं पुनः! । अनङ्ग माज्टया प्राप्तं न सङ्कल्प निबन्धनम् 111211 अनुज्हाकॆ ग ङ्कॆर्याणां प्र पन्नॊ €टितं प्रयोजकमाह इप्प डियाहिल् इवनुक्कु नित्यनै मित्ति कङ्गळिल् "अक्कि क िवॊण्णा द प्रभूत क पॆ क्र जोजकरार् ? ऎन्निल् - इनै “ननुक्कु ऊपायाङ्क्, त्तिर्बुहाडु. अङ्गान्तर सिक्कॆ से क्षॆ } यान प । पत्तिक्सु परिकरङ्गळुमाहादु. अकरणत्तिल् ईश्वरन् नॆरुकु )मॆन्रु शिय् रिन्द, अशक्यगळाद धन र्मेगळल्लि नैराश्शवु अधिकारदल्लि सेरिकॊळु त्तदॆ. शक $माननित्यन्सैमित्ति कङ्गळ् इत्यादि - शक्यगळाद नित सैमित्ति क धर्मगळ अनुष्ठानवु आज्ञानुपालनवाद कैङ्कर्य मात्र, प्रपत्तिगॆ अङ्गवल्लवॆन्दु तात्पर्य. सङ्कल्प मात्र. मेोवाूङ्गं, इत्यादि - प्रसत्तिगॆ अङ्गगळादवुगळल्लि, “आनुकूल्यस्यसङ्कल्प-”, ऎन्दु आनुकूल्य सङ्कल्पवु अङ्गवागि तोचुवुदाद्दरिन्द, अदर आचरणवु अङ्गवागबेडवे ह "आनुकूल्यस्यसङ्कल्पः? ऎन्दु आनुकूल्यद सङ्कल्प मात्रवे अङ्गवॆन्दु श्रुतवु, श्रुतमाचरणम्पुनः - अदर आचरणॆयु आज्ञॆयिन्दश्रुतवु. अनङ्ग माज्दया प्राप्तं - आज्ञॆयिन्द अन्दरॆ शास्त्रवु विधिसिरुवुदरिन्द, आ प्रास्तवु. आचरणॆयु अङ्गवल्ल. नकलु निबन्धनम् -प्रपत्र्यॆङ्गभूतवाद आनुसूल्य सङ्कल्प प्रयुक्तवल्ल. प्रपन्ननु अनुज्ञा. कैङ्कर्यगळन्नु माडलु विधि यावुदु. इस्पडि याहिल् - इत्यादि हीगॆ अनुकूल्याचॆरणवु आज्ञॆयिन्द अन्दकॆ स्वतन्त्र विधियिन्द प्रास्तवॆन्दु हेळिदरॆ, अनुज्ञा गळ निधि यावुदु ऎन्दरॆ अदन्नु विवरिसु त्तारॆ. इवनुक्कु नित्य नै निन्त्रिकङ्गळिल् इत्यादि - प्रपन्ननिगॆ नित्यनैमित्तिक कैङ्कस्यगळाद स्नान, i 4, “गनदारादकॆ, वैश्वदेव ree गळिगॆ Mousse पुष्प मालॆयन्नु तॊडुवुदु, भगवत्सन्निधियन्लि दीसनन्नु हच्चि डुवुदु, देवस्थानक्कॆ मण्टिस, गोपुर, नन्दनॆ वनगळन्नु निर्माण मासुवुदु उत्त्सृवादिगळन्न्नु नडॆसुवुदु इत्यादि अनेक कैङ्करैगळल्लि प्रयोजकरारॆनि ल् -प्रैनर्तिसुवुदक्कॆ कारणवु यावुदॆन्दरॆ, इनै इत्यादि-इवुगळु ई प्रपन्ननिगॆ इ ;जायान्तरदल्लि सेरुवुदिल्ल. अङ्गान्तर निरपेक्षमान इत्यादि. अनश्शगळाद ऐदू आङ्गगळिगिन्त बेकि यावुनन्नू अपेक्षिसिद, प्रस सत्तिगॆ ई अनुज्ञा कैङ्कर्य गळु परिकरगळू- अङ्गगळू आगुवुदिल्ल अकरणत्तिल् इत्युदि माडदिद्दरॆ भगवन्तनु इननन्नु वॆरुक्कि रान्- तिर नॆवत्मि माडुवुदू इल्ल. तनिये इन्न इत्यादि-इवुगळु प्रत्येकवागि" फापान्तर ल्र 1071 श्री मद्र हॆस्कत्रयसारे हिरानुमुल्लन्. तनिये इनै तनक्कॊरु पासक्सय, स्वर्ग, पशु- प्रत्रादि फलान्तरत्तै "आकॆ He लौकिकरासुवर्हळ् द्यूतादिहळ् प्रज्न माप्टोले Fhe तन्नु हस्पा ले प्रन नर्तिक्रि रानुमल्लन् , मुकॆ शैरैप्पोलॆस " भगनदभिष्रा यतॆ पॆ स्रतृक्षमाहक डु आवनै पक क्र क्कु प्र स्रवर्तिकरास सुमल्लन्. मत्तॆ ०गने ऎन्नि ल्) इक्कॆङ्कर्यङ्गळुक्कून म् “लाय् कॆ स “भगवति ेीतियुवर् फलनाह शास्त सिद्ध माद्य याले अवनुहप्पि ले सत्तोत्तरनान तन क्र त्रि ’ स्वभावत्ता ले रुचिसिरक्कॆ यारे नारिन प्रायश्चित्तनॆन्दो स्वर्ग, पशुप्रत्रादि फलान्तरगळिगॆ आसॆनट्टु. माडुवननू, अल्ल. लौकिक रानवर् हळि् इत्यादि- लल नसाक्षिकरु क्रीडार्थवागि द्यू त-सगदॆ मॊदलादवुगळन्नु आडुवन्तॆ; केवल तन् उहप्पाले-कन्न सन्तोषक्कागि स्न वर्तिसुववनू आल्ल. मङ्क्त रैप्रोले इत्यादि-मुक्तर हागॆ भगवन्तन अभिप्रायवन्नु प्रत्यक्षवागि टू अवनन्नु सन्तोषगॊळिसलु प्रवर्ति - सुवुदू अल्ल." मब्रॆङ्गने ऎन्निल्-बेकॆ हेगॆन्दरॆ, इक्ळ ङ्कर्यङ्गळुक्तु इत्यादि- ई अनुज्ञा कैङ्कर्यगळिगू इतर फलगळ. हागॆ भगवप्रीतियॊ फलनॆन्दु शास्त्रसिद्धवाद्दरिन्द. आ भगनन्तननु शि द ग सितु सन्तोषगॊळिसि. अदरिन्द सात्विक गुणदिन्द कूडिद तनगू प्रीतियु उण्टागुवुदरिन्द सुहृत् प्रत्राद्युसलाळनॆद हागॆ” सर्वविध ऒन्धुनाद आ भवन्तन प्रीति कार्यगळल्लि शास्त्रवु कै. दीप वागि : प्रवर्तिसुत्ता,रॆ. मेलॆ हेळिद विषयगळ तात्सर्यवेनॆन्दकॆ - नित्य नैमित्तिक कर्मगळिगॆ बहिर्भूतगळाद्क देव शान्तर “वाचक” “मुकिश्रॆगळ 'उच्चारण पूर्वक कान्यु कर्मगळन्नु सात्वि त्याग पुरस्स रवागि केवल्ल भगवफ्रीणन बुद्दियिन्द अनुष्कान माडलु अनुमतियिल्ल. नित्यन्रै मित्रि क कर्मगळल्लि, जन्तर्गतॆनल्लद तेन स्पर्शवु ई अधिकारदल्ली मुन्दॆ निराकरिसल्पडुत्तदॆ. शास्त्र विधि बल दिन्द नित्य नैमित्तिक वर्णाश्रम धर्मानुष्कानगळन्नु माडुवाग अग्निन्द्रादि नेवतान्तर शब्द घटित मन्त्रगळन्नु उच्च्रा रणॆ माडुवाग आ शब्दगळन्नु अग्रं नयतीत्यग्मिः - मोक्षक्कॆ कक दॊय्युवनु इदि सरमैश्व क्के इतीन्द्र-परमैश्व रृवाद स सरमपद स्थानीयसु इन्द्र शब्दवाच्य नाद भगवन्त, ऎन्दु साक्राद ऎगवद्वाचकगळन्नागि अर्थमाडियू दीवतान्तर लिङ्ग घटितगळाद अन्दरॆ “इन्द्रशृचीपतिः? “रुद्रः पशुपतिः” इत्यादि शब्दगळिगॆ तदंशर्यामियाद भगवत्परवागियू अनुसन्धान माडि माडुवुदरिन्द दीवतान्तर त्स निर्पडुवुदिल्ल. इदु विधिबलप्रास्त. कान्यु कर्मगळिगॆ अन्नयिसुवुदिल्ल. स्पर्शवॆन्दरॆ देवतान्तर वाचक शब्मॊ च्च्वा रणवु. शास्त्र तत्व विमर्श दशॆयॆल्लि देवतान्तर वाचक ह भारतॆ रामायॆणादि पतनद स्न मयरल्लि सद्य रा ऎ रुगळ वृत्तान्तगळू. अवरिन्द दूषिसल्प ट्टि भगवदपराधाद्यनुवादगळू हेगॆ भगवन्महिमॆय वर्णनॆयिन्द उपक्षीणगळागुत्तवॆयो हागॆ भगवत्सारम्य निष्ठर्नॆयन्दॆ, उसक्षीणगळागुत्तवॆ. इदरिन्दागि “सततं चात्मशुद्धयेगि “सदैवंवका,? “ऎण्णकृण्डविरल् हळ? इत्या दिगळल्लि अभिप्रेत गळाद त्री मन्मूल मन्त्रादि जनगळन्नू भगवश्भ्रदक्षिण प्रणामादि कैङ्कर्यगळे मॊदलाद भगव कान्त्य क्रै अनुगुणगळाद कर्मगळन्नू "प्रभूत 'कैङ्कथ्य' शब्ददिन्द आचार्यरु तिळिसुत्ता कॆन्दलॆ तात्पर्य. इनु” भक क्रियोगनिष्ठ निगू त मुत्त स सरमोभन”, ऎम्बल्लिय गीताभाष्य चरमक्लोकाधिकार- । 1072 सुज त्पुत्पा Rs ळिर्पॊले सर्रनिध बन्धुनान अवननुडैय सि प्रीणनज्नळिले शास्त्रं प्रपन्न स्य चु रूप स ओरूपज्ञानं आनश्यकं शास्त्रजा नॆं किमथर९? इतिकेषां चॆच्छङ्का माक्षिस्य परिहरति. इन्नि डत्तिल् शिलर् सर्वेश्वर पक्कलिले सर्वभरन्यासं पणि शन निवेकिक्कु त्याज्यो देय विभाग निणा यक पादे Kk भा ९ 0 "स्वरूप ज्ञानमन्रो ? इप्पडि” इवन् स्वरूप वश्यना मत्तनैप्पोक्कि, शास्त्रवश्य नामृडि यॆनॆ नु $e.दुवुम् अनुपपन्नम्. ऎज्स pe ऎन्नि त ? स्वरूपं इन्न पडि इरुक्कु मॆन्रु शास स्रृत्तैक्टॊण्डु अरुदियिट्टा ल्, इस्तरूपत्तु- कु सज पुरुषाथननूुम” SS. त्याज्यं, इन्न ह मुम् तदुपायॆमुम् उपादेयमॆन्रु सिरित्तु तॆ तै ळिहैक्टु मुक क नामळवुम् शास्त्र दल्लि त्त द्सि (तॆ 19ने अध्याय 10ने श्लॊ ीकुवनन्षितभॊळु अदर तात्सर्य चन्द्रि कॆयल्लि आचार्यरु हागादकि तन्न नित्यनैमित्तक कर्मगळिगॆ स सत्, पुत्र शिष्यादिगळ उपनयनादि वर्णाश्रम धर्मगळन्नु आचरिसुवुदरिन्द परमैशकान्तियाद तनगॆ दोषवु सम्भविसुवुदिल्लने ऎन्दरॆ, “सुहृ त्र ता द्य पलाळनङ्गळिल् सोले? ऎम्ब श्री सूक्तियिन्द उत्तरिसुत्तारॆ. अदागि सुहृत्पुत्ता )दॊसलाळन न्यायदन्तॆ, इवु सर्वसुहृत्त्वाद भगवन्तनिगॆ अभिमतगळु, इष्टु मात्र सदाचार शिक्षार्थवागि सुहृत्सुत्राद्युपलाळन न्यायदिन्द अङ्गीकृतवु. इदरिन्द तन्न प्रत्रादिगळल्लिरुव प्रीतियन्नु मुन्दिट्टुकॊण्डु अवरिगॆ चौरोपनयनादि संस्कारगळन्नु माड त्तानॆन्दल्लदॆ, भगवदभिमतवाद वंशदल्लि हुटि रुवुदे मॊदलाद सम्बन्धदिन्द उम्भाद स्नेहवन्नु प्ररस्करिसि, अवनवन वर्णाश्रमानुगुणवाद धर्मानुष्ठूनवन्नु तानु माडिदरू, निस्नङ्ग पूर्वकवागि माडबेकॆम्बुदु. द्यॊतितवॆन्दु तात्पर्य. प्रसन्ननु स्वरूसवशृनु शास्त्रनश्यनल्लवॆम्ब मतखण्डनॆ. अनन्तर प्रसन्ननाद इवनु स्वरूसवश्यनागिरबेके विनह शास्त्रनश्यनागिरबेकिल्लवॆन्दु हेळुव कॆलवर मतवन्नु अनुवाद माडि खण्डिसुत्तारॆ. ’ इन्विडत्तिल् शिलर् इत्यादि - इल्लि कॆलवरु सर्वेश्वरनल्लि सर्नभरन्यासनन्नु माडिद विनेकिगॆ त्याज्योपादेय विभागनिर्णायकर्व.. इदन्नु बिडबेकु) इदन्नु अङ्गीकरिसबेकॆम्ब निर्फानभ्नि निर्णय माडिकॊडुवुदु, स्वरूप ज्ञानवे अल्लवे. इप्पडि इवन् इत्यादि-हीगॆ इवनु स्वरूप वश्चनागिरुवुदष्टल्ल ल्लदॆ, शास्त्रक्कॆ नशसट्ट रबेकॆम्बुदु नतकै ऎन्दु कॆलवरु केळुत्तारॆ. इदुवुर्न्-इदू अनुपपसन्न म्-युक्त वल्ल. “ऎङ्गनेयन्नि ल्-हेगॆन्दरॆ, स्वरूप मिन्नपडि नत ५ ज्ञानवु इन्न पडि-भगन च्छै €ष भूतन गिरुवुजिन्दु शास्त्रवन्नु बळसि निश्च यिसिदरॆ, ई आत्म स्वरूपक्कॆ ई पुरुषार्थवू अदर उपायवू त्याज्य, स्वरूप पक्कॆ बा शि पुरुषार्थवू अदर उपायवू उपा देयुस्वीकार्यवॆन्दु, निधाग माडि तिळियलु मोक्षवन्नु पडॆयुव सर्यन्त शास्त्रनन्न्नु बिट्टरॆ 1075 श्रीमुद्रहस फत्रयसारे मॊोय वियिल्लै. स्तरूपत्तिल् शेषत्वादिहळ्ळॆक्टॊण्डु शिल औचित्यमात्र मरिय लाम् अत्तनैयल्लदु शेषियुहन्म कैङ्कर्यत्तिन् प्रकारनिदु इक्कॆ शकत. उपायॆ ज्लळ् इवै.ऎन्रु स्वरूप ज्ञा, नं नियमित्तु क्सा व्हा दु. अनसिनु शास्त्रस्तै अनादरित्तु निसिद्ध द व्यज्न फॆ ’ क्फॊण्डाल्, “निहितज्ञ 8 तन्नि त “ना, Ne मल्ला द द्रव्यज ¥ क्कॊ ण्डादल्, तनक्कु रुचित्त सडिये “शास्त्र विरुद । मायिरुक्कुब्बट्टिळ्ळियिले क्र र्यत्तॆ नडत्त प्पार्रा ल् eA चारज कुक्कु बरिबल्ल पयाम्. अप्पॊ ग तन् रजय य कि सौयानुक. विंला मैयाले मुमरुक्षुङ्कृ ४5 तवर्नु. पो €रुहिर सरॆ निसिद ज्ञळ्ळॆयॆन्नक् तन् रुचि मात्रत्ता ले क्कॆ जृरमाह’ अनुस्टि क्रै स्रसङ्गिक्ळु म्. हविर्नि वेद नत्त बन् (श्री भाष्ककारर् 1) रास् निरुद्धा नि सम्भ्य त निनु अगुळिच्छॆय-दार अतः सर्व त्र स्या 4 वश्यता अनक्यकी op शास्त्रवश्यनाय् त्स अधिकारत्तुक. शास्त्रमडैत्त कैज्यर्यज्गळ्ळिये सण्ण प्रास गव्, । 2) म च्कास्त्रं प्रमाणन्ते काया९कार्य व्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास शै निधानोक्त, ० कर कर्तु sh. ॥ ऎन्र उपडेशं सर्वाधिकारिहळुक्कु स ‘फॊडुनायिरुक्क म्. बेकॆ दारियिल्ल. :: स्वरूपत्तिल् इत्यादि-तॆन्स स्वरूपवु भगवन्तनिगॆ शेषभूतवादद्दु ऎम्ब शेषत्त ज्ञानवन्नु “नोडु- शेषभूतनिगॆ शेषियु इष्टपडुव कैङ्कर्यने पुरुषार्थवॆन्दु, इषु ई मात्र तिळियबहुदु. आल्लदु इत्यादि-इष्टल्लदॆ शेषियु सम्मतिसुव कैङ्कर्यद प्रकारवु इदु, ई- कैङ्कर्यक्कॆ : . उपायगळु- इवु. ऎन्दु स्वरूप ज्ञानवु नियविन्त्तु क्ळ्याबा डदु विभाग- : माडि : तोरिसलारदु : आनहिन्सु इत्यादि - आद्दरिन्द । शास्त्रवन्नु अनादरिसि शास्त्र निहिद्द द्रव्यगळन्नु कॊण्डागलि तन्न इष्टानुसारवागलि. शास्त्रविरुद्धवागिरुव रीतियल्लि कैङ्कर्यवन्नु अनुष्ठिसलु- नोडिदरॆ, उपचारयावुदु असचारयावुदु. ऎन्दु व्यवस्थॆ माडलाग वुदिल्ल. अस्पोदु इत्यादि-आग तन्न इष्टवन्नु बिट्टु बेरॆ नियामकवु इल्लदॆ, मुमुक्षुगळ्ळ तविर्न्न्हु फोरुहिर-सरित्यजिसुव्य सर्वनिसिद्दगळन्नू तन्न इष्टा ),नुसार तकर अनुष सुव प्रसङ्गवु एर्पडुत्तदॆ. . इदु शेष भूतनाद तन्न स्वरूपक्कॆ उचितवल्ल. प्रसन्ननु सर्व विषयदल्लू शास्त्रनश्यनागिं् इरबेकॆम्बुदक्कॆ श्री भाष्यकारर सम तियन्नु स्था ली पुलाक न्याय रीत्या हनिर्निनेदन- समयदल्लि तिळिसुत्तारक्कॆ अदागि हविर्शिवेदनत्ति, लुम् इ इत्यादि- भगवन्तनिगॆ आराधन शालदल्लि हविस्सन्नु (अन्न मॊदलादवु) समर्पिसुव कालदल्लि 5) भाष्यका रर् 1) शास्टा िविरुद्दा नि सं भै तृ-प्री’ भाष्यकाररु” शास्त्रविरुद्धनल्लदनन्नु सम्पादिसि तन्द समर्निसबेकॆन्दु, अनुग्रहिसिरुत्तारॆ. आहैयाल् - आद्दरिन्द शास्त्रनश्यनागि तन्न आधिकारकॆ अनुगुणवागि शास ऒ्रैमडैत्त शै शास्त्रवु वृवस्थॆ गॊळिसिद, कैेकर्यगळन्नॆ, € माडुवुदु प्रास्तवादद्दु. 2) तस्मा च्छास्त्र ० स बसिऎन्त। इत्यादि-माडबेकाददु इदु, माडकूडदु इदु ऎम्ब व्यवस्थॆगॆ शास्त्रवे कॆ शास्त्रवु विधिसिरुवुदद्द्दु तिळिदु कर्मवन्नु माडबेकॆम्बुदु, गीतोपदेश. ऎन्र प्रॆसशेकरवनब” ई उपदेशवु प्रसन्ना प्रपन्न सर्वाधिकारिगळिगू समानवागिरुत्तदॆ. अधिकारि विशेषवन्नु इल्लि हेळदिरुवुदरिन्द इदु ऎल्लरिगू समानवाद उसदेशवॆन्दु तात्पॆर्य. (1) इत्यग्रन्थ. च. गेति 1८२ 24, चरन शॊ का कार तॆ 1074 “प्रीत वकारितः” इति यामुनोक्ता स प्रपन्नस्क सन शास वशृता इति वादन्य खण्डनमः*. ‘आळवन्दार् श्री गीतार्थ सङ्ग्रहत्ति ले, लु ज्ञानीतु परम्फॊ कान्ती परायत्तात्क जीवनः ।तत्संश्लेष वियोगैक सुख दुःख स्तदेकधीः । भगवद्धा 3न योगोक्ति वन्दन स्तुति कीर, नै $ । लब्धा त्मा "तद तप्पा जमनो बुद्धि इ यॆ $ यः । निजकर्माद भॆक्त सन्तंकुर्या श्रीतैॆ घन सेन) बहय परित्यज्य न्यस्केद्देवेतु तामभीः 13:1 ऎनु आरुळिच्चॆ य्द विडत्तिल” “स्रि (तॆ 3 पनकारितः? ऎन सैदुवुम् शास्त्रं वेण्ना वॆन्र सडियनुु. बु शास्त्र म्कॊण्डे PE कै कर्क म् तन्नि ल् स्वामि सन्तोष जनकत्त्व नुडियाह तू तनुक्कु हि ुरक्टिर प्रि क8यनुड्कॆ स पॆ क्रीरकत्तािशयम् कॊल्लुस्क् यिले तात्पर्यवु. इश्लोकज्गळ्ळॆ उपासनाधिकारिपक्कलिले योजिक्कुम्पोदु उपासनादिहळुडैय कैङ्कर्यगळन्नु माडबेकाद क्रमवन्नु तिळसुव आळनन्दारनर गीतार्थ । सङ्ग्रहद तात्पर्य, आळनन्दार् प्री गीतार्थ सङ्ग्रहत्तिले इत्यादि-आळवन्दारनरु त्री गीतार्थ सङ्ग्रहदल्लि 3) ज्ञा नीतु परमै कान्ती इत्यादि हेळिरुव स्थळदल्लि “प्रीतै ृवकारित;” इत्यादि-स्पीतियिं दले माडिसल्पट्टिननागि ऎन्दु हेळिरुवुदू, शास्त्रवु बेडवॆन्दल्ल. शास्त्रवन्नु कॊण्डे तिळिय बेकाद कैङ्कर्यगळल्लि स्कामियाद भगवन्तन सन्तोषवन्नुण्टु माडुव, शेषभूतनाद तनगॆ उण्टागुव प्रीतिय प्रेरकत्वातिशयवन्नु हेळुवुदरल्लि तात्पॆर्य. इ श्लोकङ्गळ्ळॆ उपासनाधिकारि पक्कलिले इत्यादि - ई श्लोकगळन्नु उपासनाधिकारि- याद भक्तियोगनिष्कन विषयवागि योजसुवाग उपासनादिगळ सादुतमत्तनन्मू फलक्कॆ (3) गीतार्थ सङ्ग्रह 29 30; 23% । ऐश्वर्य कैवल्कगळल्लि अपेक्षॆयिल्लदॆ भगवन्तनल्ले भक्तियुळ्ळ ज्ञानियु, परमैकान्तियु - देवतान्तर पायान्तरगळल्लि आसॆयिल्लदॆ भगवन्तनल्ले आसॆयुळ्ळवनागिरुववनु, अवन प्राणधारणगळु भगवदधीन, भगवत्संश्लेषवे अवनिगॆ सुख. भगवद्द्वि योगवे अवनिगॆ दुःखवॆन्दु ’ तिळिदु अवनल्ले नॆट्टमनस्कनु भगव द्मा गळे करण भगवन्तने मोक्षक्कॆ न, आदियागि कळेबरगळु योग, उपायवल्लवॆम्ब मोक्सक्कॆ भक्तियोग वन्दन, शिथिलवागुव साक्षात् स्तुति बुद्धियन्नु पर्मन्तवाद दशॆयन्नुळ्ळवनागुत्तानॆ, सिद्धॊ कीर्तनॆगळिन्द (पायनॆन्दु बिट्टु, कर्मगळिन्नु आउपायत्व आत्मस सत्तॆयुळ्ळवनागि, तिळियबेकु, प्रीतियीदले इन्तह बुद्धियन्नु भक्तनु भक्तियु. आ माडिसल्पट्टदागि, तन्नॆ रीतियाद निर्भयनागि अवन नित्कनैमित्तिक प्रीतिगॆ भगवदन. भगवन्तनल्ले माडबेकु. वर्णाश्रम कारणवागि, भवविल्लदिद्दरॆ इडबेकु इवुगळ धर्म मोक तन्न वन्नु कॊडुव सङ्कल्पवन्नु माडिस त्तदॆ ऎन्दु भाव, 1075 श्री मद्रॆहस्यप्रॆयसारे त्वदुतमत्त ऎत्तैयुवु् फलोपसायमान शरण्यनुक्टु प्रसादनमायःक्कॊण्डु, फल हि “क्क साक्पादुषाय py स्टे निर्किर निलै यै युम्, इवुुपासनत्ताले प्र सन्न नान सक्तॆ श्ल रन् ता फलत्तुक्ळु साक्षाद ह भं निर्किर निलै यि,युमु् तॆ Es नोका न्वहकृडवदु. स्वतन्त्र प्र पत्ति निष्मन्ति, रत्तिल् इश्लोकज ळ्ळि योजिक्कुम्फॊ €डु इवन् आज्ञा सुज्जॆ 3 हळाले पण्णु म् “क जृरृमॆल्ला व् भक्ति ey रट्ट ळै कुलैयादिरुन्ना लुवर् स्वामि सन्तोष षि य नेरॊरु स्वर्गनोक्तादि प्र योजनतु सिक्कु. उपायमाह वनुष्मिक्सिरा नल्मूमैंयाले इवनुक्कु अनन्योपांयसत्रैयम्म् आनन्य स्रयोजनत्कॆ युनन्त् कुलैयादे इरुकि रपडियैयुर् आकिञ्चननान निवनुक्कु ईश्त क ताने स यान्तर स्मानत्तिले निन्रु फलं कॊडुक्किर पडियैैयुम, हॊल्ल यिलेशात्रर्यव् इत्स ० शास्त्र रीत्यु आज्ञा नुज्ञा कैङ्कर्यानुष्क्मा ने देवतान्त र सम्बन्धेन सरमैै काफि त्व अहानिरित्न त्राह. इरण्णधिकारिहळुव 1) “प्रतिबुद्धान सेवन्ति? 2, “अनन्यदेवशा भॆक्ताः साक्लात् उपाय भूतनागि “आमृतस्सॆ षसेतुः ऎन्दु हेळल्पट्ट शरण्कनिगॆ’ इवुगळु प्रसाद वाय् कॊण्डु-आनन- सिग्र हनन्नु. ARSE अनुग्र हनन्नु माडुवुणक्कॆ कारणनाद ह न्न तॆजुन्न्सु उण्टुमाडुवुदागि स्वीकरिसि, उपायतां सा चानलक्कॆ भक्कि योगत ५ साक्षूदुपाय वल्लवेेब स्थितियन्नू ई उपासनदिन्द प्रसन्ननाद भगनन्तने साक्षूदिपायवागि (सिद्धोपाय) निरिरनिलै य यम् इत्यादि,-इरुव-स्कि तियन्नु तिळिसुवुदरल्लि दृष्टि “न्यस्येद्देवेतु. तामभीः? ऒत्यादि-निम्बिणु, ई उफासनदिन्द प सन्न नाद भगवन्तनल्ले. सािदुपायत्त बुद्धि यन्नु माड बेकॆम्बुदु हेळल्प ट्टितॆन्दु तत “स्वतन्त्र प्रपत्ति निष्ठन् तिरत्तिल् इत्यादि-स्वतन्त्रॆ प्रसत्ति निष्कन निषयदल्लि ई श्लोक गज योजिसुवाग अवनु आज्ञ्वानुज्ञॆ गळिन्द माडुव- कैङ्कर्यगळॆल्ला भक्ति योगादिगळ कट्टिळ्ळॆ-व्यनस्मॆयु कुलैयाडिरुन्दालुम्-.नतसि होगदॆ इद्दरू “निवकारदिन्द स्वामिय 2 वल्लदॆ बेरॆ स्वर्गनोक्षादि प्रयोजनक्कॆ उपायवागि ’ अनुष्टि सुवुदिल्लवाद्द रिन्द मोक्ष सलनिषेधदिन्द गॆ अनन्योपायतॆयू फलान्तर निषेधदिन्द अनन्य प्रयोजनतॆयू नशिस्प सुवुदिल्लवागिरुव रीतियन्नू अकिञ्चननाद इवनिगॆ “उपायतां परित्यज्य न्यस्केद्द ेवेतु तामभीक ई प्रुसत्तियु साक्षूदुपायॆ- वॆम्बुदन्नु बिट्टु भगनन्तने उपायान्तर स्थानत्ति ले निन्रु भक्तियोगस्था नदल्लि प्रपत्ति वशीकृ तनागि त्त तादृश उपायान्तर सिरॆ ीक्षनागि फलवन्नु कॊडुत्ता नॆम्बुदरल्लि तात्पर्य. वर्णाश्रम धर्मगळु पारमैैङ्कान्त्यवन्नु * होगलाडिसुवुदिल्ल-निवरणॆ. इरण्डधिकारिहळुवुख् इत्यादि - भक्तियोगनिष्ठनू, प्रसत्रियोगनिष्ठ्कनू, (1) प्रतिबुद्धा
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- पुतिनो “तॆ ट् चरमश्लोकाधिकारः 1076 ; एर्पट्टु सरम्कैकान्तित्ववु नशिसिहोगुवुदिल्लने ऎन्दु वेदान्त व्यत्सुत्ति माडदवरु जोद्यवन्नु माडुत्तारॆ. इन्विडत्तिल् इत्यादि - ई जोद्यवन्न ऎरडु विध वागि परिहरिसलु अभिप्रायपडुत्तारॆ. मॊदलने विधवन्नु (4) “साक्लादप्यनिरोधञ्चै मिनि- (ब्रह्मॆसूत्र– 1- 2 - 29) ऎम्ब सूत्रद रीतियल्लि, अग्रन्नयतीत्यग्निः इत्यादि अग्रनयनादि व्यत्सृ६िगळन्नु स्वीकरिसि, अग्ल्यादि शब्दगळन्नु सर्वेश्वरनिगॆ साक्राद्वाचकगळन्नागि हेळबहुदु. हागॆ निर्वहिक्कलानिण्डत्तिल् - जीवतांशर लिङ्गसॊचकगळाद, पशुपत्ति शचीसति, इत्यादि शब्द गळिल्लद स्थळगळल्लि साक्षात्तागिये त्रिनिष्णु सहस्रनामदल्लि- “यानि नामानि गौणानि” ऎन्दु भगवं-न गुणकृत नानुगळन्नु हेळुव रीतियल्लि ई आअग्ग्लीन्द्रादि शब्दगळु भगवद्वाचकगळागि परमैशकान्ति धर्मक्कॆ बाधकगळागुवुदिल्ल. अन्दरॆ श्रीविष्णु सहस्रनामदल्लि “सर्वशृर्वश्शिवः स्काणुः”, ऎम्बल्लि शुभावहत्व, शुभत्तगळन्नु तिळिसुव, शर्व, शिव मॊदलाद शब्दगळ उच्छ रणदन्तॆ, अग्रन्नयतीतृग्नः, इदिसरमैश्चरैइतीन्दॆ 8 - ऎम्ब योगव्युत्सुत्तियिन्द, निरुपाधिक अग्र नयॆनादिरूस - परनु पदक्कॆ करॆदुकॊण्डु होगुव, गुण विशिष्ट परमात्मा अग्निः, इदि 3 नान्यन्देवं नमस्कुर्यात"3 इत्यादिहळिर् पडिये परमैकान्तिहळायिरुक्क., इजं “सिजकर्मादि भक्त ्य०तं? बसु अरुळिच्चॆय्दपडियी वर्णाश्रमादि धर्मङ्गळ्ळॆ इनर्हळ् अनुष्ठिकृपु काल्, अग्नि ₹न्द्रादि देवता व्यामिश्रतैयाले परमैशान्तित्वं कुलै त्रि पण्णादार् जोद्यं पॆणु वार्हळ्. इव्विडत्तिल् ₹० ताज दा pe ब्श्टोध गौ जा छॆ टि” लॆ ऐ ड्् “साक्साद्यप्य न फनातिनि ऎन्सिर सूत्रत्तिन् पडिये अग्रनयनादि व्यत्पत्तिहळाले कग्गद स्म सक्तीश्ररनुक्कु स्टाद्वाचकज्गळाह निर्रहिक्सला मिडत्तिल्, इवै श्री सहॆस्रना त्तिन’ तिरु कापुज्ञिळिर् पडिये निर्कयाले अवत्तिल् देवतान्तर स्पर्श विलॆ नसेवन्ते (2; अनन्य देवताभक 38 (3) नान्यं देवं नमस्कुर्यात्, इत्यादि वचन गळल्लि हेळिरुवन्तॆ, देवतान्तरगळन्नु भ जिसदॆ, सरमॆ्रि कान्तिगळु यिरुवाग, इल्लि “निजकरर्मादि भक्त्म्यन्तं? ऎन्दु हेळिरुवन्तॆ वर्णाश्रम धर्मगळन्नु इवरुगळु अनुष्ठि सलु आरम्भिसिदरॆ
- ब्रह्माणं शितिकण्ठञ्च याश्चन्का देवता स्मृताः । इ) च लि NN) प, तिबुदा न सेवन्ते यस्सात् परिमितं फलम् ॥ भारत शान्ति पर्व 350-36 चतुर्मुख ब्रह्म, रुद्र मत्तु इत- देवतॆगळु यारो, इवरुगळन्नु प्रतिबुद्दाः-परमैकान्तिगळु सेविसुवुदिल्ल, एकॆन्दरॆ अवरुगळु अल्प फलगळन्नु कॊडतक्कवरु. अनन्तवाप मत्तु अक्सयवाद मोक्स पलवन्नु कॊडतक्कवरल्ल वॆन्दु तत र्क. ऊरि 2) भारत आश्चमेधिक पर्व 104.9, $s
- बादरायणरॆन्दु पाञ्चरात्र रक्षॆ नान्यं देवं नमस्कुर्यात्- अन देवतॆ शि 1077 ती मद्रहस्यत्रयसारे “दीवानृसीस्पित्यन्स गवदात्मकान् ध्यात्वा सन्तर्पै” ऎन्रु नित्य प्रभृ तिहळिआ प्री भाष्य कारर् रच्चॆ यद सडिये तत्तद्देनता SoU न परमात्मा वॆ आनुसन्धित्तु “उपासातॆ ) निध्या त ऎन्नि रपडिये प्र तर्दन निद्यादिहळिल्, निकेष नान दिन्यात्म स्वरूपत्ता ऎक चेतना चेतन निशिष 4 नाहवुन् परवाता नॆ उपानियोा निन्रालुम्. निशीषणवान चेतना चेतनज ळिल् अराध्यत्व न् इल्लादाप्पोले इनव्विड७,लुम्, निकीषण मान देवर्षि पित्रादिहळ्ळॆ इवन् अराधिक्किरानल्लन्. 1) अहंहि सरय सरमैश्वन्ये - मैश्य श्वर्यदिन्द कूडिद परमात्मा इन्द्रः, ऎन्दु स्पाक्रात्कागि आग्गि न्द्रादि शब्दगळु भगनद्वा चकगळागि, तादृश शब्द घटत मन्त्रोच्चा रणपूर्वकवागि क् धर्म गळन्नु अनुष्क्ठिसुवुदु पारमैकान्त्र्य धर्मक्कॆ भङ्ग्गवन्नु ०टु माडुवुदिल्लनॆन्दु तात्पर्य. ऎर डनॆय परिहारवु एनॆन्दक्कॆ, “देनानृषीन् पि तन् भगवदात्म’ कान् ध्याश्वा सन्तर्प्य, “ऎन्रु इत्यादि - देव. खुषि पितृगळन्नु भगनदात्म; i (आन्दरॆ न् वरुगळिगॆ भगवन्तनु आन्त र्यामियिन्दु) तिळिदु तादृश देवता शरीरक परमात्मनु आराध्यनॆदु अनुसन्धानमाडि कॊण्डु आयाया कर्मगळन्नु अनुष्ठिसुवुदु परमैैकान्ति धर्मक्कॆ बाधकविल्ल. , इदु विधि बलप्रा स्तवाद्दरिन्द, विशेषणी भूत “जीवतान्तरगळिगॆ आराध्यत्न वु उण्टागुवुदिल्ल. . इरन शास्त्र बलसिद्धमान विडत्तिल’ ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तारॆ. अदागि अनन्यथा सिद्ध जीवादि लिङ्गगळिन्द कूडिद्द कर्मविशेषदल्लि, शास्त्र विधिबलदिन्द, “उपासात्रॆ ैनिध्यात्” (अन्द्र प्राणा धिकरण ब्रह्मसूत्र (1 - 1-32) ऎम्बन्तॆ सा निद्यॆगळल्लि विशेष्यवाद दिन्यात्म स्वरूप दिन्दलू, ह चेतन विशिष्ट रूसदिन्दलू सर मात्मनन्नु उपासनॆ माडिदरू, विशेषण गळाद चेतना चेतनगळल्लि आराध्य्ववु इल्लदिरुवन्तॆ, इद्दि डत्तिलुवं् - इल्लियू विशेषण भूतराद-_ बेव युसि पित्रादिगळन्नु इवनु आराधिसुवुदिल्लवाद्दरिन्द्र देवकान्तर स्पर्श रूप दोषवु एर्पडुवुदिल्ल. प्रतर्दन विद्यॆयल्लि इन्द्रनु ीमामुपास्त’ ऎन्दु हेळिरुवुदु तन्न. शरीरकनाद परमात्मनन्नु उपासनॆ माडुवन्तॆ विधि . अचेतन विशिष्ट सरमात्मोपा सनदल्लि अजीतनक्कॆ आराध्यत्ववु इल्लदन्तॆ, चेतन विशिष्ट परमोत्मोपासनदल्लियू विशेषणी भूतराद जेतनरिगॆ आराध्यत्ववु निर्पडुवुदिल्लवॆन्दु तात्पर्य. अ शङ्कातत्सृरिहार ग्रन्थगळ अभिप्रायवन्नु सरियागि विमर्शॆ माडिदकॆ प्रसन्नन हागॆ भक्तियोग निस्मनिगू नित्यन्सैनित्तिक वर्णाश्रम धर्मगळु मात्र अनुष्मेयॆगळु. इवुगळ ल्लदॆ बेरि देनतान्तर वाचक मन्त्रगळिन्द साध्यगळाद धर्मगळु सात्विक त्याग पुरस्सरवा गियू अनुस्केयगळल्ल. भक्तियोग निष्मनिगॆ वर्णाश्रम धर्मगळु “सहॆकारित्रेनच? ऎम्ब ११ सूत्रद प्रकार वाग अङ्गवागि अनुष्ठेयगळु. नृनन्न निगॆ आश्रम मगळु आकारदिन्द ’ मात्र, विहितगळागि अनुष्टेयगळु. प्रपत्ति योगक्कॆ अङ्गवागियल्ल. भक्तियोग निष्कनिगॆ `कान्युकर्मगळु नत्य नृवि त्ति कर्मगळन्नु माडि, नन्तर सात्विक त्याग पुरस्सरवागि आनु स्केयगळॆम्बुदु कर्मयोग दशॆयुल्लि मॊत्र नॆम्ब व्यवस्थॆ “विशेषणमान देवर्षि नित्रा दिगळ्ळ इवनाराधिक्सि रानल्लन्? ऎन्दु आचार्यरु आनु ग्रहिसिरुवुदरिन्द भगव च्छरीरगळागियू जेेौतान्तरगळल्लि आराध्यत्व बुद्धियु भक्त प्रपन्नरिगॆ चरमश्कॊ ेकाधिकारः 1078 ज्ञानां भोक्ताच प्रभुरेनच 7) “हव्यकव्य भुगेकस्त नं पितृदेन स्वरूपधृत् 3) ne यॆजन्ति, नित्वन् देनान् बा ्र्रह्मणान् सहुताशनान् सर्वभूशान्तरात्मानं विष्लुमेव यचस्तिते ॥” . ऎन्सिकसडिये, सर्का िन्तर्यानयानवने प्र तिबुद्दनान इ; ननुक्कू आराध, ,नाजैयाले इप्प डि तॆळिन्हु अनुषि सुवर् अवनुक्सु यथाशास्त्र मनुस्मिकि किर 3 जि रै जळाल् उपा यान रॆस्पर्शं वारादा ‘प्रोलवुम्, कै र्यार्थज्ल न द रम निनेनितोपयोगा दिहळाल् प्रॆयोजनान्तर स्पर्शम् वारादाप्टोलनुमु्, राध्य निशेषणमाह विधिबल प्रास्तॆज्गळान चेतनाचेकतनज्ञळाल् देवतान्त्वर स्प कू त यो CaS जीवं Pp 33 ह ॥ 5: “यस्तु नारायणं देवं सामान्येनाभिमन्यते स याति नरकं घोरं यावच्चन्द्र बदिमाकरवमु् ।” उम्बागुवुदिल्लवॆन्दु तात्पर्य. हागॆ उण्टागुत्तदॆयिम्ब. वादवु, ई वाक्यदिन्द निर्धूतवु. (1) अहंहिसर्वeयज्ञानां इत्यादि (2 हव्यकव्यभुगेकस्त मयं इत्यादि (5) येय जन्ति हित्वन् देवान् इत्यादिगळल्लि हेळिरुवन्तॆ -सर्वान्त र्यामि यादनने प्रतिबुद्धनाद द्य ज्ञानिगॆ आराध्यनाद्दरिन्द, हीगॆ : तिळिदु- अनुष्ठिसुववनिगॆ यथाशास्त्रवागि अनुष्ठिसुव कैङ्कर्यगळिन्द उपायान्तर स्पर्शवु बारदिरुवन्तॆयॊ, आ रीतियल्लि कैङ्कर्यार्थगळाद द्रव्या र्जन निवेदित निनेदनादिगळिन्द प्रयोजनान्तर- स्पर्शवु बारदॆ इरुवन्तॆयू आराध्य विशे सणवागि विधिबल तिष इतन चेतना जेतनगळिन्द. जीनतान्तर स्पर्श दोषवु उण्टाग लारॆदु. । (4) “नारायणं परित्यज्य, इत्यादि, (5) यस्तु, नारायणं देवं इत्यादि (1) : नतु मामभिजानन्ति तत्पेनात श्चृवन्तिते ॥ ऎम्बुदु उत्तरार्ध. स सर्वयज्ञगळिन्दलू आराध्यनु नाने . भोक्ता, स्था मियू सह, इदन्नु सरियागि तिळियदॆ अग्नीन्द्रादि देवतॆगळ आराधनॆयॆन्दु तिळिदु. अवरु कॊडुव अल्बफलगळिन्द स्वर्गाद्यत्यल्ब सुखगळन्नु अनुभविसि पुनः रक्कॆ हिन्तिरुगुत्तारॆ. गीतॆ 9-24 संसा
- त्वां योगिनश्चिन्तयन्ति ता यजन्तिच याचक । हव्यकव्य भुगेकस्त यं पितृदेव स्वरूप धृत् ॥ ऎलै भगवन्तने नन्नन्नु योगिगळु ध्यानिसुत्तारॆ. यागदल्लि याजकरु निन्न न्ने पूजिसुत्तारॆ, asd शरीरकनागि कव्यगळन्नु भुजिसुत्तीया. देव शरीप२कवनागि हव्यगळन्नु भुजिसुत्तीया, वि.पु्र1- 19-73
- पितृगळन्नू, [ आराधिसुत्तारॆ, देवतॆगळन्नू, ब्राह्मणरन्नू 5 अग्निगळन्नू आराधिसुववरु सर्वान्तर्यामियाद भगवन्तन भारत शान्तिपर्व 355. 4]. न्ते 4 ग
- पु.ति, नो 1079 श्रीमद्रहस्यत्रयसाके
- “बुद्धरुद्रादि वसतिं श्मशानं शननेवच । अटनीं राजधानीञ्च दूरतः सरिवर्जयेोत् ॥» इत्यादिहळिर् पडिये देवतान्तरज्गळिले परत्व बुद्धि सज्जु दल्, समत्वबुद्धि सण्णुदल्, नित्यनै मित्तिकजळिल् धु देवतान्तर स्थलङ्गळिल् शॆल्लुतल् शॆय्यिल्, परमॆ कान्तिक्कु नोषमान अल्लद्दु नित नमित, कज्लळिल् अराध्यनान सर्वान्तर्यामिक्ळु शरीरमार्य निर्किर ऎक इदॆ ेवत्सैॆहळ पक्क ल् परत्वबुद्दियुमा्, सान्यु बुद्धि युमः्, स्वनिष्ठ त बुद्धियॆखवर् आराध्यत्व बुद्धि यद्: फलप्र दत्त बुद्धियुम्, इल्ला मैयाल”, उपास्य निशेषणज्न ळान प्राण वैश्वानर तॆ क्र्रलोक्यादिहळाल्, इवनुक्कु व्यभिचारम् वारादाप्पोले शास्त्र सिद? जळान अग्नीन्द्रादि विशेषणज्ग ळालुम् इवनुक्कु ऐकान्त निरोधव् वारादु. (3) बुद्ध रुद्रादि वसतिं इत्यादि हेळिरुवन्तॆ, नारायणन्नु बिट्टु, देवतान्तरगळन्नु सरजेवतॆंिन्दु भाविसुवुदू, नारायणनू देवतान्तरगळू समवॆन्दु. भाविसुवुदू, शिक नैमित्तिकगळल्लि सम्बन्धविल्लद देवतान्तर स्थलङ्गळिल् शॆल्लुदल् “कॆय्यलि - देवताङ्कर शब्दोच्चारणवन्नू अवरुगळ आलयगळिगू होगुवुदन्नू माडिदरॆ, परमैकान्तिक्ळु - इत्यादि सरमैकान्तित्वक्कॆ दोषवु एर्पडुत्तदॆ. इदल्लदॆ नित्यनैनित्तिकङ्गळिल् इत्यादि - नित्यनैमित्तिक कर्मगळल्लि आराध्यनाद सर्वान्तर्यामिगॆ शरीरवागिरुव स्थितियल्लि, इदॆ ओवतै हळ्पक्कल् इत्यादि - ई अग्न्टीन्द्रादि देवतॆगळन्नु कुरितु इवरु नारायॆणनिगिन्त मेला दवरु, नारायणनिगिन्त स्वनिष्ट्रत्वबुद्धि - स्वतॆन्त्ररु ऎम्ब बुद्धियू, आराध्यत्वबुद्दियू- नावु अनुष्ठिसुव कर्मगळल्लि विशेषणीभूतराद (शरीरवागिरुव) ‘आयाया देवतॆगळु आराध्य कम्ब बुद्धियू, फलप्र दत्त बुद्धियू - विशेषणी भूतराद देवतॆगळू फलवन्नु कॊडु त्तारॆम्ब बुद्धि यू इल्ला न्ग याले - ई सरमैकान्तिगॆ इरुवुदिल्ल. इदक्कॆ अनुरूसवाद दृष्टान्तवन्नु “उपा स्य निशीसॆणङ्गळान ऎन्दारम्भिसि तोरिसिकॊडुत्तारॆ. अदागि इन्द्र प्राणा नकर, नैश्वानराधिकरणादिगळल्लि, इन्द्र शरीरकनागियू, प्राण शरीरकनागियू, जाठराग्नि शरीरकनागियू, श्रैलोक्य शरीरकनागियू, उपासनॆयन्नु माडुव स्कलगळल्लि, चेतना चेतनगळ सम्बन्धदिन्द, पारमैकान्त्य भङ्गवु एर्पडदन्ति, शास्त्रसिद्धगळाद नित्यनैमित्तिक कर्म गळल्लियू, र्माराध्यनाद अन्तर्यामिगॆ निशेषणगळाद आग्निन्द्रादि शब्दोच्चारणदिन्दलू इवन पारमैकान्त्यक्कॆ भङ्गविल्ल. विशेषणी भूतगळाद अजेतनगळ हागॆ, ई जीतॆनरुगळिगू आराध्यत्वविल्लवागि, ऐकान्त्यक्कॆ भङ्गनिल्लनॆन्दु तात्पर्य. जा तडा ज्य हवु सम MCSE SIS
- प्राजापत्क इ v सृृति-हृदयदल्लि I) बन्दु नॆलॆसिरुव, स्वामियू ईश्वरनू (नियमिसुववनू आद नारायण नन्नु बट्टु, बेरॆ’दे वतॆयन्नु प परदेवतॆयॆन्दु .! A पापगळिन्द कूडिदवनागुत्तानॆ, ४ क स् त द) महा भारत - नारायणन न्नु “इतर देवतॆगळिगॆ समवागि भाविसुववनु चन्द्र सूर्मरुगळु इरुव पर्यन्त नळोठवाद नरकक्कॆ होगुत्तानॆ 6 शाण्डिल्क स्मृति 4-]91 बुद्ध रुद्रर आलयगळन्नू स्मशान, शव, काडा, राजधानि, इवुगळन्नू दूरदिन्दले परिवर्जिसबेकु. इवुगळ समीपक्कू होगबारदु. ई आलयगळिगॆ प्रवेशिसुवुदु सर्वथा निषिद्दवु ऎन्दु तात्पर्य,चरमश्लोकाधिकारः 1080 पूर्वा चार्य संस्रदायानुष्काना स्यां धृढीकरोति, वङ्गि पुरत्तु नञ्जियुवा् सप क्रपन्न नुक्ळु अहोरात्र कृत्यमान भगवत शै माराधनत्त जॊ िल्लवि निन्नु 1) गायत्री जस सर्यन्तं मना तश्राचमन पूर्तकम् । साध्यं” कर्माखिलं साधु समौष्य च यथाविधि ॥ एतावता प्रबन्धेन. हेळिरुव विषयगळ तात्सर्यवेनॆन्दकि डु मोक्षार्थोपासनगळाद वैश्वानरादि विद्यॆगळल्लि त्रि तलोक्य शरीरकनागि भगवद्ध्य्यानवु हेळल्पट्ट, तादृश श्रैलोक्यादिगळु : विशेषणगळागि बुद्धियल्लि आरूढगळादरू, अवुगळल्लि स्रसाद्यत्व बुद्धियु बाधितवु. हागॆये उपासनाङ्ग भूतगळाद . आयाया- डेवतावाचि नुन्त्रादिगळिन्द साध्यगळाद धर्मगळल्लियू, विधिबलदिन्द आयाया- देवता शरीरक- सरमा त्मनु उपास्यनागि प्रीति विषयनागुत्तानॆये हॊरतु, आयाया देवतॆगळल्लि प्रीणनीयत्व बुद्धियु. सरमै कान्तियाद इननिगॆ इल्लवे. इल्ल… काष्ठाप्रास्तवाद : इन्तहॆ. पारमैकान्त्यवु ’ आरब्ब भक्तियोगनिगू, प्रसन्ननिगू तुल्क. उपयुक्तवाद कर्मगळ नडुनॆ कारीर्यादि यागगळ सङ्ग्रहोक्तियु, भाष्मादिगळल्लि अल्लल्ले काणल्बडुत्तदॆ.: इदु अनादिकालदिन्द अनु स्कॊतवागि बन्द कर्मवर्गगळु अनन्तगळागिद्दु, हिन्दॆ. फलवन्नु. कॊडदॆ. ईग फलवन्नु कॊट्टु उपकरिसुत्तनॆ, अथवा ईग इल्लदॆ मुण्डॆ फलप्रदगळागुत्तवैॆ, ऎम्बुदन्नु प्रकरणानु अतॆ तिळिसुवुदरल्लि तात्सुर्यवाद्मॆरिन्द, याव विरोधवू इल्ल. आद्दरिन्द भक्त प्रपन्नरिगॆ सर्वथा जीवतान्तरगळल्लि नित्यनैविकित्तिक कर्मगळ अनुष्ठान समयदल्लि आराध्यत्व बुद्धिगन्ध विल्ल. नित्यन्सैनित्तिकगळिगॆ बहिर्भूतगळाद व्यामिश्र धर्मोपसङ्ग्रहवु यान कारणदिन्दलू निरवकाशवु ऎम्बुदु तत्वनित्तुगळ रहस्य सरणि. पूर्माचार्य श्री सूक्त नुस्मानगळु नित्यन्सैमित्तिक कर्मगळल्लि अन्यथा सिद्ध जीवलिङ्ग स्थलदल्लि, आन्दरि भगनत्सरवागि आ शब्द गळिगॆ अर्थवन्नु हेळबहुदाद सन्दर्भगळल्लि, साक्षादृगवन्तनन्नू अनन्यथा सिद्ध जीवलिङ्ग स्कैलगळल्लि अन्दकि इन्द्रशृचीपतिः, रुद्रः पशुपतिः इत्यादियागि. शचीपतित्व सशुसतित्व लिङ्ग (गुरुतु) गळिन्द आयाया देवतॆगळन्नु स्पष्टवागि हेळुव स्मळगळल्लि अवरवरिगॆ अन्तर्यामि याद भगवन्तनन्ने ’ आराधिसुवुदरिन्द, देवतांशर स्पर्शवु बरुवुदिल्ल. इदक्कॆ संवादवागि पूर्वाचार्यरुगळ श्री सूक्तिगळन्नू अवरुगळ अनुष्ठानगळन्नू प्रमाणीकरिसुत्तारॆ. अदागि वङ्गिपुरत्तु नम्बियुवत् इत्यादि - श्री भाष्यकारर शिष्यराद वङ्गिपुरत्तु नम्बिगळु “आह्मिककारिकॆ’यन्नु रचिसिरुत्तारॆ. आ प्रबन्धदल्लि, भगनन्तन पूजानिधियन्नु हेळलु उस क्रमिसि, (1) गायत्रीजप परैन्तम् इत्यादि, “सूर्यश्समामन्युक्क > इत्यादि मन्त्राचमन 3 ? पूर्वकवागि गायश्रीजन पर्यन्तवागि प्रातस्सन्ध्यानन्दनादि कर्मगळन्नु “ब्रह्म यज्ञ्वान्त
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- वङ्गीपुरत्तु नम्बिय नित्म-77.84,90.496 1081 शीनुश्रहस्यत्रॆयसाकी
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- समिदाज्यादि भिर्दनै र्नुन्रैरॆपि यथोदितै- ।
हुत्वाग्नी नग्निहोत्रादौ उक्तं काल मनिक्षिस न्॥ ऎन्रुम् 3) ऒतत ‘माध्यन्दिनं कर स्टोदितं श्रु तिचोदितनु् ।
स्नानादि ब्रह्म य ज्ञान्तॆं कृत्वा ह मतन्द्रितः ॥» ऎन्रुम्, . 4) “होमं पितृक्रियां सश्चा चरग टि I> स इ प्प्प्रकारज्गळिले तत्तन्मन्न ) पूर्व कह ळान वर्णाश्र म धर्मज्गळ्ळॆ अरुळिच्चॆय्दार्. भट्टि रम् आ मा नुम् तन्ना ज्र ळ् अरुळिच्चॆ य्द नित्यज्ञ ळिल्मैॆ 1] “श्रु६ स्स त्यॊदितं “कर यावच क्र परात्मनः 1
रौधनतॆ sis सॆ ध्य ९ पुन्त्रस श्र तर यत्!” इतादिहळ्ळॆ अरुळिच्छॆ य्दार
"ह ळ्. I त्री डॆ. भ् य चरणौ संश्रयेमहि, “इत्काडियाले सम्प्रदाय विशेष ज्ञा 2 पनार्थमाह गुरुननुस्कारादिहळ्ळिप्पण्णि 2] “छगवच्च रणाम्भोज परिचर्या विधिक्रमम् ॥ वकास्तिभिरनुष्टेयं नित्यं समभिदध्महे (ऎन्रु तुडज्स आसोहीत्यादिभिर्मन्रैर्वाचक्कः परमात्मनः : सम्प्रोक्ष्य मना, अचमनं मन्न सृत्रतिपादक्कॆः । आदित्यान्तस्सि ऎकस्यार्फ्यं नितीर्य परमात न- । प्र तिसादकया विष्ठॊ (स्सावित्पा तं जसेद्धरिम् । ध्यायन्” तिष्ठ (3 तमेव पुरुषोत्तमन । नारायणात्मकान् देवान् युहीन् सन्तर्स येति शि त्युन् >» ऎन्र रुळिच्चॆ य्दार् माडि अग्निहोत्रगळन्नु समित्, आज्याहुतिगळिन्द माडि, माध्यन्दिन _ कर्मवाद माध्या हिक स्थान, इज्यॆ, होमं पितृक्रियां - वैश्वदेव सञ्चमहा यज्ञगळन्नु माडि भु पितृयज्ञ.), बॆळग्गॆ माडलागदॆ होदरॆ, पञ्च महा यज्ञगळल्लि सेरिद ब्रह्मयज्ञनन मनुष्य यज्ञा नन्तर माडबहुदु. (पञ्च महायज्चगळु - देवयज्ञ, पितृयज्ञ स । यज्ञ, मनुष्य यज्ञ, ब्रह्मयज्ञगळु,) अनुयाग - ऊटवाद नन्तर माढजीकुवि. उत्तर माध्याह्मिक. ई रीतियागि आयाया मन्त्रगळन्नु बळसि माडबेकाद कर्मगळन्नु कृपॆ माडि तिळिसिरुत्तारॆ, भट्टिरुव् आट्रवानुवर् इत्यादि - सराशरभट्टिरू कूरत्ताट्रवान् अपरू तावुगळु रचिसिरुव नित्यग्रन्थगळल्लि (1) शु त्रितिस्मृत्युदि तं कर्म इत्यादि - श्रुतिगळ ल्लियू स्क्रृतिगळॆल्लियू हेळिरुव कर्मगळन्नु तन्न शक्त्यनुगुणवागि भगवन्तन आराधनरूप वॆन्दु तिळिदु माडबेकु. द्वादकोर्ध्व पुण्ड्रगळन्नु धरिसि देनखयसषि वितृतर्नणगळनु 'माडबेकु, इत्यादिगळन्नु कृनयिन्द त, रॆ. पॆरियजेयरुवु् ऎ ता जु मुनि ऎम्ब ' नञ्जीयरू “त्री सराशरभटा र्फर पादगळन्नु आश्रयिसि ' इत्यावियिन्द सम्प्रदाय विशेष जा फा सकार्थवागि, गुरुनमस्कारा एदिगळन्नु-: माडि (2) भगवच्च रणाम्भोज इत्यादि 'आरम्भिसि, 'नरमैकान्तिगळिन्द अनुष्ठिसल्पडबेकाद भगनदाराधन रूपवाद नित्यकर्मगळन्नु तिळिसु वुदागि, आरम्भिसि आसोहीत्यादिभिः मन्तॆ शैक - इत्यादि आपोहिष्का मुयोभुनः इत्यादि चरमश्कोकाधिकारः 1082 भाष्यकारर् सम्प्र दायत्तिलुळ्ळॆ क लज्जळॆ ल्लानु् इन्र रुदियाह स्पसात्रोक्तमान पडिये तत्त द्दॆ जा मन्त २५ वैकू ण्डु नूतन् ला नष; स कुवुम् काणा निन्रोनु सॆरियनम्बि मन्दलान सरमाचार' र्हळुवर् - तन्दाम् सूत्रज्ञ ळिन्स डिये यज्ञादिहळ् पण्णिनार्हळॆन्नु निण्डम् : सर्व रुकुम् प्रसिद्धम्. आनसिन्सु, भाष्यकाररुडै युवुवं” शचि चैष्य प्रतिष्यर्हळुडै यंवुनर्, उपदेशानु पा नज्गळिले निषॆ व 4यण्डैेयार्क्कु आगम सिद्धान्तानुवर्रिहळान संहिता विशेषज्ञळिल् प्रतिनियतमाहच्चू ल्लुम् मन्त्रनिशेषण ळॆ कॊ ण्डु ५ क्रियानिशेषज्ञळ् अनुष्ठि कृवूण्णादु, वर्णाश्रम धर्मानुष्काने प सान्त शास्त स्य न निरोधः अधिकारादिहळुक्ळु अनुरूपमा ह चतुर्विध पञ्चरात्रमुव् विभक्तमाय* निर्भुम् निलैयुम् वचननिकोधमिल्लाद विडत्तिल् *अनुक्तमन्यतोग्राह्यम्” ऎन्निर न्यायं नडक्टुम् पडियुम्, नालु आश मत्तालुम् ब्रह्मविद्यॆयुवु् मो क्षलुभ परमात्मवाचक मन्त्रगळिन्द प्रोक्षिसिकॊण्डु, आचनुननन्नु माडि सूर्यान्त- र्नर्तियाद सर. मात गॆ तत्सृ तिपादक मन्त्र गळिन्द अन्दरॆ गायॆः २3) मन्त्रॆवु' सूर्यान्तर्वर्ति सरमात्मनन्नु फ्रतिपादिसुत्तसॆयाग्न रन्द आ मन्त्रदिन्द. आ. सरमात्मनिगॆ जभण्यवन्नू कॊट्टु, विष्णु सर मात्मनन्नु प्रतिपादिसुव साविश्री(गायत्रि €) मुन्न हद; आ- हरियन्नु ध्यानमाडिकॊण्डु, आ प्ररुषोत्तमनन्नु उपस्क्या न माडबेकु. आनन्तर नाराय निणात्मक तराद 'देवखुहि पिस गळन्नु तर्निसबेकु ऎन्दु अनुग्र ऒसिरुत्ता, रॆ. हिन्दॆये हेळिद प्रकार चन्ना सिद्धजीव लिङ्गगळ स्थळदल्लि “साक्षादप्य विरोधं जैन” , ऐम्ब सूत्रदन्तॆ अग्लिन्द्रादि शब्दगळु, स्टात्सर मात्मः वाचकगळा गियू,अनन्यथा सिद्ध जीव नि आयायादेनतान्तर्यामि वज चकगळॊदू शास्त्र निर्णय, भाष्यकार संस दायत्तिलुळ्ळॆ कुलङ्गळॆल्लाम इत्यादि - श्री भाष्यकारर सम्प्रदाय निष्कराद अवर वंशस्थ रुगळॆल्ला 7 sd ननकॆगू सम्म सम्म सूत्रगळल्लि टेळिरुव रीतियल्लिये आयाया. देवता मन्त्र गळन्नु, कॊण्डु- विनाहो*नयनादिगळन्नु अनुष्ठिसि बरुवुदन्नु काणु त्रिद्देनॆ. पॆरिय नम्बि नूदलान इत्यादि-सॆेयन '०बि.मॊदलाद सरमाचार्य रुगळू तम्म तम्म सूत्रद प्रकार यॆज्ञादिगळन्नुु माडिदकिम्बुदु सर्वत्र पुसिद्ध. ई रीतियाद शास्त्र) सम्प्रदायगळन्नु उल्लम्फिसि कॆलवरु देनतान्तॆर स्पर्शवु. एर्पडुत्तदॆ यॆन्दु हेळिकॊण्डु, देनर्षिसितृतर्शणगळन्नू, वैश्वदेव सञ्चनुहायज्ञगळन्कू श्राद्धदल्लि हो मगळन्नू माडदॆ इरुवुदु इ नष्ट तॆयन्नुण्टु माडुत्तॆ टॆक् नलय त शास्त्र रीतियन्नु अशिक्र निसि तनुगॆ इस सृनाद नुन्त्रगळ न्नु बळसि. कनर्तानु स्थान माडकूडदु. आनससिन क्ट इत्यादि- हीगॆ शास्त्र व्यवस्थॆ यु एर्सट्सिरुवागि भास्यकारर मत्तु आवर शिष्य स्पशिष्यरुगळ उपदेशानुष्मानगळल्लि निष्कैयुळ्ळनरिगॆ ऐाञ्चरात्र आगम सिद्धान्तवन्नु अनुवर्तिसि बरुव संहिता विशेषगळल्लि प्रतिनियत माह-आगनु सिं द्लान्तिगॆळिगॆ न्यनस्मि तवागि. हेळुव मन्त्र विशेषगळन्नु ऒळसि क्रिया विशेषगळन्नु अनुस्मिसकूडदु. आगनु सिद्धान्तिगळिगू, अधिकाराधि हळुक्कु इत्यादि-अधिकारगळिगॆ अनुरूपवागि, चतुर्विध सञ्चराक्रवू विभक्तवागि निल्लुव निलॆयू 1083 श्री मद्रहस्यत्रयसारे मुव् उण्डॆन्रु शारीरकादिहळले समर्थित्तार्फोले आगम सिद्धान्तादिहळ् नालिलुवु् साक्लान्मोक्षोपायमन्नु् मोक्षप्राप्तियुम् उण्डॆन्रुम् प्री पाञ्चरात्ररक्षै यिलेयुपपादित्तोम्. इश्यास्त्रृज्ञळिल् व्यनस्थि तमाह निधित्तपडियॊ य तन्ता मुक्कु रुचित्त मन्त ज्गळ्ळॆक्कॊण्डु सर्वकर्मब्नळ्ळॆयंव५् अनुष्ठित्ताल् प्रायश्चित्तादि हळुनु् परकृच्चॊल्लम्प्पट्टिदु. आनपिन्बु मुक्तनामळवुम् स्वाधिकारानु गुणमाह शास्त्र अवर् शॊन्नकट्टिळ्ळियस्रिक्टे कैङ्करैं पण्णविरहिल्ल ै. इप्पडि प्र सन्न नुक्कु म् शास्त्र) वश्यनाय् शास्त्रॊ क्त क्रै ०कर्यमॆे पल्ल वेण्णुहै याले ) निधिनिषेध लङ्घन वक्षमखम्, 2) विहितॆ निषिद्ध तागॆस धम रम् 3) नन् श श्रमधर्म. जळ औपाधिकज्ञ ळाहै याले स्व रूसज्ञा नं हिरन्न नॆनुक्कु त्याज्यज्गळ९ ऎन्नि रपक्ष स 4) । इवै किय्यवुनाम् तविरवुमाम् ऎस्सि र पक्षमुम् 5) इवै तविर् ग्रा 'ुम् उहप्पि क्कु स नैये वेरोरु प्रत्यवाय मिल्ल ऎसि रवक्षमुव् 6) इनॆ 5. अनुषि यादॆ' यु लोकविकोध प से प्रतवाय मॆन्सिरपक्षमुम् 7) त म् अना ऎं हारव वचन विरोथविल्लद स्थळदल्लि, "अनुक्तमन्यतो ग्राहैम्? ऎम्ब न्यायवु सञ्चरिसुव रीतियू नाल्कु आश्रमगळल्लियू, ब्रह्म विद्यॆयू, मोक्षलाभवू उण्टॆन्दु शारीरकादिगळल्लि समर्थिसि रुवन्तॆ आगम सिद्धान्तादिगळल्लि नाल्करल्लियू साक्षान्मोक्षोपायवू मोक्ष प्राप्तियू उटिं बुदु पाञ्चरात्र रक्षॆयल्लि आचार्यरिन्द स्का सिसल्पट्ट डॆ. इचा तॆ इत्यादि- ई शास स्त्रगळल्लि आयाया अधिकारिगळिगॆ व्यवस्थि तवागि निहितगळाद” शेनतान्तर शब्द घटत मन्त गळन्नु ह कर्मानुष्मूनवन्नु माडबेकु. अवुगळन्नु बिट्टु तमगॆ रुचिसिद सद्र ह्म नारायणादि शब्द घटत मन्त्रगळन्नु बळसि सर्वकर्मगळन्नू अनुष्कि "दरॆ पापवु सवा प्रायत्चि त्ता दिगळू विधिसल्पट्टिवॆ. आनपिन्सु -हीगॆ Ey नवु अवरवर अधिकारानु गुणवागि वेद मन्त गळन्नु बळसिये माडबेकॆन्दु व्यवस्थि तवाद्द रिन्द मोक्षवन्नु सडॆयुववरॆगॆ स्वाधिकारानु गुणवागि शास्त्रपु हेळिद कब्टळ्ळॆ-रीतियल्लि माडबेके विनह बेरॆ रीतियल्लि आ कर्मानुष्कान रूस कस्य गळन्नु च- निरहल्ल छ्र-दारियिल्ल. पक्षान्तरगळु परिता ज्यगळु. इप्प डिप न्रिसन .नुक्सु इत्यादि-हीगॆ प्रसन्न नु शास ्रवश्यनागि शास्त्रॊ (क्वगळाद कैङ्कर्य गळन्ने ke रिन्द 1) विधि निषेधलङ्घन पक्षमुम्- विहिगळाद सन्ध्यानन्दनादिग ळन्नु अतिक्रमिसुवुदू सरदार गमनादि निषिद्ध गळन्नु माडुव पक्षवू, 2) विहित निषिद्ध त्याग पक्षमुम विहित निसिद्धगळन्नु माडदिरुवुदू, निषिद्ध त्यागवु. पासविल्लदिद्दरू विहित त्यागवु.. पापजनक 3) वर्णाश्रम धर्मङ्गळ्' इत्यादि - आत्म स्वरूपदल्लि ब्राह्मणादि वर्णवू ब्रह्मचर्याद्याश्रमवू इल्लवाद्दरिन्द, वर्णाश्रमदिन्द कूडिद शरीर सम्बन्धवन्नु इट्टु आत्माविगॆ वर्णाश्रम धर्मगळु निहितगळाग्लरिन्द, अवु सोपा धिकवु, स्वरूप ज्ञानवन्नु पडॆदवनिगॆ अवु त्याज्यगळु ऎम्ब पक्षवू 4) इनॆ शॆय्यवुमाम् तविरपुमानु् इत्यादि — pe वर्णाश्रम धर्मगळन्नु माडबहुदु, माडदू इरबहुदु ऎम्ब सक्षवू 5) इनॆ यनुष्मियाद पोदु- इवुगळन्नु अनुष्ठ्मिसदॆ इद्दरॆ. लोक विरोध चरमश्लोकाधिकारः 1084 इप्पुडैहळिलुळ्ळॆ पक्षब्नळिल्लानमे सम्यज्ञा $यानुगृहित शास्त्र सम्प्रदाय विरुद्धज्ञ ळान सडियाले सत्वस्थर्भु अनुषादेयजब्बळ्. २ धि सन्यासाश्रमस्मर्दु पण्णुळ्ळवै शिलवत्तै निषेधित्तु, पुदिदाह शिलवत्तै निधिक्टुमा प्पॊ ीले भागवतत्व नुडियाण' ज्ज विनि निषेधित्तु शिलवत्तै आपूर्वमाह निधित्ता इ ब् 1) “सन्ध्या हीन्योकुबिर्सित्य 'मुनर्हस कैर्वकर्मसु? इत्यादिहळाले अनश्यकर्तव्य ०गळाह चॊल्लप्पट्टि कर्मज्नळ्ळि निडवॊण्णादु. धर्मशास्त सूत त भेदज्गळिर्फोले, । भगवच्छास्त संहिता भेदजळिलुम्, इतिहास पुराणज्नळिलुव्, शॊल्लुम् सन्फ्योोसासना भेदज्ग (ळै) ळव्वो शास्त्र )जळिले इन्न वर् हळनुषस्मिक्कक्कडवर्हळ्. 1) “दैनतान्यभिगच्छेत्तु” ऎन्रुवु् “देवस्थान स्रणानु मात्रमे इत्यादि-लोक निन्दा रूप दृष्ट प्र त्यवायवे विनह, भगवन्निग्रह रूस परलोका प्राप्तिरूस अदृष्ट स्रत्यवायविल्लवॆम्ब पक्षवू, मट्रु म् इपु ड्रॆहळिल् इत्यादि-इन्नू ई प्रकारगळाद पक्षगळॆल्ला सम्युज्ञा $यानुगृहीत जा जट टू न्यायगळिन्द अनुगृ हीतगळाद शास्त्र सम्प्रदायगळिगॆ विरुग्धगळाद्दरिंह सात्विकरिगॆ ई पक्षगळु वधु स्वीकरिसलु अनर्हगळु. सन्ध्यावन्दनादिगळन्नु बिडकूडदु. अवरवर सूत्रद प्रकार अवुगळन्नु माडलेबेकु, नित्यनैमित्तिक कर्मगळिगॆ निरोधवु उण्टागदन्तॆ, अनुज्ञा कैङ्कर्यगळन्नु माडबेकु सन्ना साश्र मस्क रुकु इत्यादि-सन्ना साश्रमदवरिगॆ पूर्वाश्रमदल्लि माडुत्तिद्द कॆलवु कर्मगळन्नु अन्दरॆ जॆजु! सञ्च महायज श्राद्ध तर्पणादिगळन्नु निषेधिसि, हॊसदागि कॆलवु कर्मगळन्नु विधिसिरुनन्तॆ भागवतनॆम्ब आकारदिन्द जीवतान्तर सम्बन्धादिगळन्नु निषेधिसि, अभिगम नादि कॆलवु कर्मगळन्नु हॊसदागि विधिसिदरू, 1) सन्ध्याहीनो अशुचिर्नित्यम् इत्यादि- सन्ध्याहीननु नित्यवू अशुद्धनु, बेरॆ याव कर्मगळन्नू माडलु सग इत्यादि प्रमाण गळिन्द अवश्यकर्तव्यगळाद सन्ध्यानन्दनादि नित्य नैमित्तिक कर्मगळन्नु प्रपन्ननु बिडकूडदु' हागादरॆ परमैकान्तियाद प्रपन्ननु अग्निन्द्रादि शब्द घटत मन्त्रगळन्नु बिट्टु, पाञ्च रात्रागमगळल्लि विहितॆगळाद विष्णु, वासदेव शब्द घटत मन्त्रगळन्नु बळसि सन्ध्या वन्दनादि गळन्नु माडिदरॆ निनु तप्पु ऎम्ब आक्षेपक्कॆ समाधानवागि धर्मशास्त्र सूत त्रभेदङ्गळिर् सोले इत्यादि- आरम्भिसि समाधानवन्नु अनुग्र हिसुत्तारॆ. अदागि धर्मशास्त्र, आपस्तम्ब, बोधा "यन, आश्वलायनादि सूत्रगळल्लि हेळिरुव रीतियल्ले आयाया सूत्र निष्करुगळु व्यनस्थि तवागि अनुष्मिसंवन्तॆ, आयाया संहिता भेदगळन्लियू 'इतिहास-पुराणगळल्लियू हेळिरुव सन्थ्योस सनादिगळन्नूु आयाया शास्त्र निष्क रुगळे अनुस्किसबेकॆे निनह प्रसन्न सामान्यरु अवुगळ रीति यल्लि अनुष्मिसॆकूडगु. हीगॆ प्रपन्ननिगू शास्त्रनश्यतॆयु बेकॆन्दरॆ, दैनतान्यभिगच्चेत्तु ऎन्दू देवस्थान प्रणवुनं ऎन्दू ई रीतियल्लि देवालयगळल्लि देवतॆगळन्नु नमस्सरिसबेकॆङ्गु, धर्मशास्त्र 1085 । श्रीमद्रहस्यत्रॆयसारी नम्” ऎन्रु मिस्रु डैहळले धर्मशास्ते २तिहासादिहळिर्कॊ न्न्न अचारमुमा्, परन्सॊकां तिक्कु शास्त्र बङ्क ईे भगवद्धि सयॆत्ति ले नियतव्. आहै साल् ऒरुशास्त ज्न ळुक्कु निकोथधमिळ्ळ. 1) “तॆस्मादष्माक्षरं मन्न )ं मद्भक्टैर्नीत कल सै $1 सन्ध्याकालेषु जप व १ सततञ्चात्मशुद्ध ये” >; ऎन्नु श्री वै स्लन धर्मः शास्त ज्लळिक्टॊन 'हुवुम् 2) द्वयॆमर्थानु सन्धानेन सह स दैव वक्ता स ऎन्नु) गद्यत्ति ल् ie” तय् ददुवुवर्, मत्तुम् इप्पु डैहळिलुळ्ळॆ क यल्लू म् अवश्य कर्रवृज ४ान नित्य नैमित्ति कज्गळुक्कु निरोधन् नविल न फ्लुपॊ (क विङ्क्ष 'कालत्ति ले ' याहक्क डवदु. 1) “श्रौतस्मार्राविरुद्देषु कालेषु जस ळ्बा त हि 6 । UE: इतिहास पुराणगळल्लि हेळिरुवन्तॆ देवतान्तर मन्दिरगळिगू होगि आ देनतॆगळन्नु नमस्तुरिस बहुदॆन्दु निर्पडुवुदिल्लने ऎन्दरॆ, ई वचनगळल्लि “दैवता, देव शब्दगळु सामान्य शब्द गळाद्दरिन्द्य' “नान्यं देवं नमस्सुर्यात् विष्णु पादाब्द सुश्रॆयः” ऎन्दु स्रसन्ननिगॆ जीव तान्तर नमस्कार निषेध रूस वचनबलदिन्द “दैवता”, “देव” शब्दगळु नारायणरूप.: दैवत, देव विशेष शब्ददल्लि सर्यवसानवन्नु हॊन्दुवुदरिन्द देवालय देवता ननुस्वार रूप आचारवु हरमैकान्तिगॆ शास्त्रबलदिन्द भगनद्दिषयदल्लिये नियतवु, अनन्यथा सिद्ध जीवलिङ्गक स्रकरणस्थ देव खुसि पितृ शब्दगळन्तॆ तॆदन्तर्यामि सरवागि नयन माडिदेवतान्तरगळन्नु नमस्स रिसबहुदु ऎम्ब न्यायवु इल्ल बरुवुदिल्ल. कारण इवु नित्यन्नॆ विन्त्रिकगळिगॆ. बेरॆयाद अनुज्ञा कैङ्कर्यगळु. आहैयाल् इत्यादि- सामान्य शास्त्रगळिगॆ विशेष "शास स्त गळल्लि सर्यवसानवु न्याय सिद्धवाद्दरिन्द, याव शास्त्रगळिगू विरोधविल्ल. (1) *तस्मादष्टाक्षरं मन्त्रं इत्यादि - ऎन्दु वै वैष्ण न धर्मशास्त्रगळल्लि गर? (2) "द्वयमर्थानुसन्धानेस् ऎन्दु गद्यदल्लि कृपॆ माडि हेळिरुवुदू, मुट्रुम् - इत्यादि इन्नू ई रीतियागि “गुरोर्नाम सु ऎन्दु हेळिरुवुनॆल्ला र कर्तव्य । गळाद . नित्यन्सैनित्तिकगळिगॆ विरोधवु : एर्पडदन्तॆ अवटु त्रक्कुप्पोक्कि -. आकालगळन्नु बिट्टु इतर कालगळल्लि माडशक्कवु. प्रसन्न नु नित्यन्सैनिन्त्रिक इवाग द इवन्नु माडबेकॆ दल्ल. : श्रीपाञ्चरात्र रक्तॆयल्लियू अष्टाक्षर मन्त्र जसवु, “अष्ट्माक्सर मन्त्र जपोःपि सन्ध्या : यां अवसरॆ रेकारैः” ऎ सन्ध्या वन्दन क्रियियल्लि जसवन्नु माडुवाग, माडबेकॆन्दु आजा र्यरु "तिळिसिरुत्तारॆ. (1) शौ सा,र्तां विदॆ (सु कालेषु जपमाचरेत् - श्रौतस्मार्त 1) ह आश्चमेधिक (98-69) अष्टाक्सर मन्त्रवु, पापगळु. इल्लदॆ शुद्ध मनस्कराद नन्न भक्तरिन्द, ’ आत्मश्चुदि गोस्कर, सन्ध्या कालगळल्लि सदा जप्यवु. 2) शरणागतिगद्द, “द्वयमर्थानु सन्धानेन सह सदैवं वक्ता यावच्छरीर पातं अत्तैव श्रीरङ्गे. सुख मास्ट’’.-द्वयमन्त्रदॆन्नु अर्थानं सन्दानदॊडनॆ विहितगळाद नित्य नैमित्तिकगळिगॆ विरोधविल्लदॆ इतर कालगळल्लि सदा हेळिकॊण्डु, शरीरपात पर्यन्त श्रीरङ्गादि पुण्यक्षेत्रगळल्लि सुखवागि वासमाडुत्तिरु, ऎन्दु प्रपन्ननिगॆ श्री भाष्ककारर आदे. )) सर्वेषां श्रुतिमूलानां नित्यनै विन्त्तिकात्मनाम् । श्रौतस्मार्ता विरुद्धेषु कालेषु जपमाचरेत् ॥ नारदीय अप्पक्बर ब्रह्मविदॆ चरनुश्लोकाधिकारः 1086 माचरेत्” ऎन्नु नारदादिहळुवु् शॊन्नूरहळ्. 2) हुत्वा ग्नीनग्नि होत्रादा वुक्तं कालमसपिक्षिसन्” ऎनु वजकि प्ररत्तु नञ्ज अरुळच्लॆय् दार्. 'भाष्य कारर् अन्तिम ' दशैयिलुम् वसुन्मिय । (न्न्न “कुन्नु सन्ध्याका लत्तिले जलाञ्जलि प्र क्लेसम् सणि सयरुळिनार् आहै याल् वर्णाश्रनु ध” बहळ् औषपाधिकज्बळॆन्रु तृजिक्कॆ पूर्वानुष्कानादि निरु दृम्. "इप्पडि त्यजिक्टिल् देहेन) २याद्युसाधिहळ्ळि होय् 'मालाकरण दीपारोप हादि निशेष त ज रद ळुम् अनुष, क ्यवॊण्णा म्कै सत अनॆ युमॆल्लावम् औपाधिकज ळार्य ता ख्यज्यज्ञ स ळाव अनै अनुषि) क अत्र स डिल्, अवत्तु क्सु योग तापादकब्मळान शौटाचार संस्था काडिडक्क र्व विडवॊण्णून ? आनहिनु 1) आहारग्र (ग्र)ह मन्रार्थ जात्यादि नियमैर्युत- । कुर्या ल्लस्ष्मीश कैङ्कर्यं शक्ता श$;नन्य प्रयोजन; 11221 कर्मानुष्का नगळिगॆ विर द्ध वल्लद कालगळल्लि आष्माक्षरादि मन्त्र जसगळन्नु माडबेकॆन्दु नार दादिगळू हेळिरुत्तारॆ. (2) हुत्वाग्गि (नहोत्रा दौ इत्यादि - अग्निहोत्रादि कार्यगळन्नु माडि, इतर कालगळल्लि जपादिगळन्नु माडबेकॆन्दु नङ्गिपुरद नम्बिगळू हेळिरुत्तारॆ. .इदु साम्प्रदायिकवॆन्दु तात्पर्य. सन्ध्यावन्दनादि कर्मगळल्लि श्रीभाष्याकारर अनुष्काननन्नू तिळि सुत्तारॆ. अदागि प्रीभाष्यकारर् इत्यादि -. शीभाष्यकाररु. तम्मु अन्तिम दशॆयल्लियू वरुन्दि ऎ्रन्दिरुन्दु - शिष्यर सहायदिन्द, कष्टपट्टु ऎद्दुनिन्तु, सन्ध्याकालदल्लि, जलाञ्जलि प्रक्लेपवम् -अर्फ्य प्रदानवन्नु कृसॆमाडि माडिदरु. वर्णाश्रम धर्म पूर्वक भगनतैङ्कर्यगळन्नु माडबेकु. आहै याल् इत्यादि-हीगॆ प्रमाणवचनगळू, पूर्वाचार्यर अनुष्कानगळू इरुवाग, वर्णाश्र त धर्नुगळन्नु औपाधिकगळॆन्दु बिडुवुदु पूर्वाचार्यर अनुष्टा नगळिगॆ विरुद्धवु. इप डित्यजिक्सि ल्-हीगॆ औफादिक बुद्धियॆन्दु नित्यनैनिन्त्रिकगळन्नु बिट्टरॆ, जेहेन्द्रियाद्युफाधि गळिकॆ अन्दरॆ देहेन्द्रियादिगळिल्लदॆ, मालाकरण्यदीपारोसणवे मॊसलान विशेष कैङ्कर्यगळन्नु अनुष्ठिसलागुवुदिल्लवाद्दरिन्द. अवुगळन्नू औपाधिकगळन्नागि बिडबेकागुत्तदॆ. अवुगळन्नु अनुस्ठिसलु आसॆपट्ट कि अवुगळिगॆ योग्यतॆयन्नु सम्पादिसि कॊडुन आचारसंस्था शरादिहळ्ळॆयुवु् हत शौच, ज् सन्ध्यानन्दनादिगळन्नू बिडॆलागदु. उक्तार्थगळन्नु शिस्यबुद्धि सौकर्यार्थवागि कारिकारूसदल्लि सङ्ग्रहिसुत्तारॆ. 1) आहार ग्रह मन्त्रादि इत्यादि. आहार निम जात्तिआश्रय,निमित्त, इवुगळिन्द दुस्मवागद अन्नवन्नु भुषिसबेकु. गह नियॆम-ग्र हनॆन्दु. पाठनादकॆ ज्ञानवन्नु ग्रहिसुवुदरल्लि जयतु. गृह वासस्कान नियम भागवतोश्त र 8ौकवास. मन्त्र नियनु-सदाचार्यसकाशदिन्द मन्त्रो सदीश माडबेकॆम्ब. अर्थ नियनु - कुखटा - “तै. सण्ड, पतितॆ, शत्रु मॊगलादवरतगळिन्दॆ आसदधृशॆयनल्लियू बिडिकासन्नू स्वीकरिसदॆ, न्यायार्जितवाद धनदिन्द जगवदारुधनॆगळन्नु माडुवुदॆम्ब नियुनु. जति निय - तन्न ब्राह्मणादि जातिगॆ अनु 1987 श्री मद्द हस्यृत्न शॆ यॆसारके - मञ्ज्नळ्य सूत्र नस्ता दीन् संरक्षति यथानधूः । तथा प्र पन्न शास्ति यॆ पतिकैज्छ यक पद्ध तिवु् ५1 3) यद्वन्मब्नळ्ळॆ सूत्रादेस्त्यागे संरक्षणेपिवा । रस्षेन्सि रोधथ्सर्छोगैर्ता पति स्तद्धदिहाहि नः 111241)
- अनज्ञा र्थ मनर्थाय भक्तजन्मूदि चिन्हनम् । शास्त्र न्न वसा ) मात्रार्थं नतु तदू सृति क्वचित् 1251 5) अत rx शास्त २सु तत श्रज्ञातैव asa । धर्मव्याथ सुर शबरी निधुरादयः 1261 6) स्वजात्यनुगुणै नैषा वृत्तिरसै ृतिहासिकी । विशेष विधि सिद्दन्तु तद्भ ह त्र युज्यते॥127/ 7) देशकालाधिकार्यादि निकीषेनु व्यवस्थि ताः । न न 8 प्रास्तिमर्हनि, देशकालान्त `रौदिषु 1128॥ We गुणवाद आचार परिग ह. आदिशब्ददिन्द आश्रम नियम - ब्रह्मचारियु गृहस्थाश्रम हन् वन्नु नडॆसदॆ इरुवुदु इत्यादि ग्रहिसल्कडुत्तदॆ. ई रीतियाद नियनुगळिन्द कूडिदवनागि श्रीसतिय कैङ्कर्यवन्नु यथाशक्ति अनन्य प्रयोजनदिन्द माडबेकु. (2) मङ्गळ्ळ्य सूत्र वस्त्रादीन् इत्यादि पतिव्रतास्त्रीयु माङ्गल्य. सूश्रवन्नू वस्त्रादिगळन्नू रक्षिसि हेगॆ तन्न पतिगॆ सन्तोषवन्नुण्टु माडुत्ताळो, हागॆ प्रसन्ननु शास्त्री यवाद . मार्गवन्नु, भगनश्रीतियद्दु सम्पादिसलु अनुष्ठिसबेकु. (8) यद्वन् मङ्गळ सूत्रादेः इत्यादि . मङ्गळ सूत्रादिगळन्नु परित्याग माडि दरॆ तन्न पतिय. प्रीतियन्नु कळॆदुकॊळ्ळुत्ताळॆ. संरक्षिसिदरॆ अनन नि तिगॆ. विषयळागि अव ळन्नु. पतियु भोगदिन्द संरक्षिसुत्तानॆ. हागॆ भगवन्तनू वर्णाश्रम धर्मपरिपालनॆ माडु ववनन्नु कैङ्करृरूस भोगगळन्नु कॊट्टु कापाडकित्तानॆन्दर्थ. ब । (4) अवज्ञा, र्थमनर्थाय इत्यादि - भक्तर इन्मादिगळन्नु चिन्तिसुवुदु :किरस्कारक्कागि . यादरॆ अनर्थकर. शास्त्र व्यवस्थॆयन्नु माडलु हेळतक्कद्दु जोषवागलारदु. (5) अत एवहि - स्त्र व्यवस्थॆयन्न नुसरिसि धर्मव्याधनु बेडॆनॆं दू, तुलाधारनु - वैश्यनॆन्दू, शब रियु - निषादस्त्री ऎन्दू, विदुररु - क्षत्ता, ऎन्दू आयाया जातियन्नु निर्देशिसि हेळ ल्पट्टिरुत्तारॆ. निन्दॆगोस्परनल्ल. (6) स्वजात्यगुणैनेषां इत्यादि तम्म जातिगॆ अनुगुण वाद वृत्तियॊ जीवनवू, ऐतिहासिकी - इतिहासगळल्लि हेळिजि. विशेष निधिसिद्दन्तु - अश i मॊदलाद. विशेष विधियिन्द एर्पट्ट विलक्षणवाद. आचारगळू तद ‘लात्रत्र युज्यते आ विशेष विधिबलदिन्द अवरिगॆ योग्यवादद्दु. 7) जेशकालाधिकार्यानि ज्यां” देश - उपाकर्मवु नर्मजोत्तॆर देशवासिगळिगॆ सिंहश्रानणदल्लियू, तद्दक्षिण नेश वासिगळिगॆ कर्काटक श्रावणदल्लियू विधिसल्पट्टिदॆ, कृत युगादिगळल्लि “समांसो मथुन र्कः? ’ निन्दु मधुसर्कवु अळियनिगॆ ES समयदल्लि मांस सहितवागि कॊडलु हेळिदॆ. कलि युगदल्लि . मांसवु निषेधिसल्पट्ट इतॆरॆ युगगळल्लि अनुज्ञातगळाद्य सन्यास, पलसॆ ैतैक- चरमस्लॊ काधिकारः 10R8 8 केचित्तत्तदुष्याख्यान तात्पर्यग्रहणाक्षमाः । कलिकोलाहलक्रीडां वर्धयॆन्सि रमापते- 11 91 मातृभि हितृभिश्लॆ तात पतिभिर्देनक्सैस्तथा । पूज्य नि वा श्ल बहुकल्याण नीपु भी ॥ २01 जामुयो याानिगेहानि शं म्पत्य प ्रतिपूजिता- । तानि कृत्याहतानीन निनश्यस्ति CO 123.1 बिवमादिषु पूज्योक्तिर्यथौ जत्यान्नियम्यते । भक्तन्नेच्छादि सूजोक्ति रेव मेव नियम्यताम* [13.1 इन्नियमज्जळॆल्ल्वान् सम्प्रतिपन्न शिष्कानुष्कान परम्परैयालुम् सिद्धज्गळ्. आहॆ मांसवन्नु बडिसि पितृ श्राद्धा चरणॆ, देवर (मैदन)निन्द मक्कळन्नु हॆडॆदुकॊळु वुदु, इत्यादि कलि युगदल्लि निषिण्मवु. " आधिार्यदि - अधिकारिगळे ह इदु दृष्ट्वान्तार्थ, ई विशेष गळल्लि व्यवस्थिताः २ व व्यवस्थितगळाद ई धर्मगळ्ळु देशकालान्तरगळल्लि माडलु अर्हगळल्ल. (8) *ेचित्तु इत्यादि कॆलवरु ई उपाख्यानग- तात्सर्यनन्नु ग्रहिसलु आशक्तरागि, वर्णा श्रम धर्मगळन्नु नाशमाडि, रमापतिगॆ कलियुगद क्रीडाकोलाहलनन्नु अभिवृद्धिगॊळिसुत्तारॆ. भक्तिरष्टनिध्याह्येषा यस्मीन् म्लेचॆ चेपिवर्तते तस्मैदेयं ततोग्राह्यं स च पूज्यो यथाह्यहम् ।» ऎन्द म्सेच्छनू भगवद्भक्षनादरॆ, आवनिगॆ हॆण्णु कॊडबेकु. इवन हॆण्णन्नु तॆन्दुकॊण्डु, अवनन्नु पूजिसबेकु ऎन्दु हेळिल्लवे. इदरिन्द जाति नियमवु इल्लवॆन्दु एर्पडुवुदिल्लवे ऎन्दरॆ, मात भः पितृ भिश्लॆ ताः ऎन्दारम्भिसि इदर भाववन्नु कळिसुत्तारॆ. अदागि मनॆगॆ बन्द सॊसॆयन्नु, आत्र माव, गण्ड, मैदुन मॊदलादवरु पूजिसि, ऒडनॆ मॊदलादवु गळन्नु कॊट्टु अलङ्करिसबेकु. याव मनॆयल्लि जामुयः - सूसॆयरु, गौरववन्नु पडॆ यदॆ मनॆयवरन्नु शपिसुत्तारो आ मनॆयु पिशाचिनिन्द आक स मिसल्प ट्वदागि सम्पूर्णवागि नाशवागुत्तदॆ. ई रीतियाद स्थळगळल्लि “पूजा? शब्दक्कॆ गौरविसि सन्तोषसडिसबेकॆन्दु औचित्यदिन्द सङ्कोचवु हेळल्पडुत्तदॆ इदे रीतियल्लि भक्तम्लेच्छादि पूजोक्तिः - भक्त राद म्लेच्छरन्नु पूजिसबेकॆम्ब मातू, गौरनिसबेकॆम्ब अर्थदल्लि सङ्कोचपडिसॆबेका. आद्दरिन्द मोहन शास्त्रगळल्लि हेळल्पट्ट जात्युद्धार प्रक्रियॆय प्रामाणिकरिन्द अङ्गीकरि सल्पडकूडदु. ई अंशवु हिन्दॆये प्रभाव व्यवस्था धिकारदल्लि हेळल्पट्टिदॆ. अदन्नु इल्लियू अनुसन्धानमाडबेकु. इदरिन्द सर्वधर्नुस्व रूप त्याग वाददल्लि कॆलवरु अरे मतवन्नु अनुसरिसिरुवुदू, जात्युद्धार प्रक्रियॆयल्लि शैैवागमनन्नु अनुसरिसिरुवुदू सॆरियल्लवॆम्बुदु आचार्यर हैदय. इस्लिय मङ्गळिल्ला न् इत्यादि - उत्कृष्ट जातियरु आसकृष्ण जातियरन्नु फूजिस बेकॆम्बुदू, सहपन्ति 3 भोजन, सम्बन्धवन्नु बॆळॆसुवुदु मॊदलादवु कूडदु, ऎम्ब नियम गळॆल्ला, सम्प्रतिसन्न शिस्टानुस्मान परम्परॆयालुम् सर्वरिङ्ग गौरनिसल्पडुन शिष्टरुगळ अनुष्ठानगळ सरंसरॆगळिन्दलू सिद्ध गळु. आहैयाल् इत्यादि-आद्दरिन्द तन्न नर्णाश्रमादि 1089 श्रीमद्रहस्यत्रयसाके याल्, तन् नर्णाश श्रमादिहळुक्कडैत्त नियॆमुब्ल ळोडे भगवक्कॆ बज्यर्य; न् सण्णुणै परन्सॊ का ‘न्तित्रॆ विरुद मुनु साक्लालक्षिी पतावेव कृतं कॆ जृर्यमण्णसा॥ सारकल्ल विभागेन द्विधा सद्भि रुदीर्यते ।] 21 कृतकृत स्य कै ङ्कर्यं यदनन्य प्र pe गुरा’ न रक्ष हार्थन्दा तत्सा रं सम्प न्रचक्षते 12321 दम्भ नर्थं परपीडार्थं थि कोधार्थनोववा । प्रयोजनइन्तरार्थं वा फैङ्कर्यं कल्क इष्यते 1134! । परम काठि न्लिहळॆल्लादार् प सण्णु 0० कैङ्कर्यत्तै सर्रेश्वरन् तिरुवडिहळाले कॆ ‘क्कॊळ्ळु मॆनु मिडतॆ, यम् परमैकास्ति, हळ् पण्णुं कैङ्कर्यक्रॆ क्क तिरुवन्दि यौाले क्रै सॊ ळुमॆन्रु मिडत्रैयुवम् 1) तत्सर्वं देदिजेवस्य चरणावुपतिष्क शे ऎन्नुम्
- याः क्रिया स्सम्प्रॆयुक्तास्युरेकान्तगत बुद्धिभिः : तास राश हॊडदु पतिसृष्णा ति वै स्वयम् I ‘ऎन्रुम् फी वेदव्यास भगवा नरुळिच्चॆ न गळिगॆ अडैत्त - एर्पट्ट, नियमगळॊडनॆ भगनत्सै ङ्कर्यनन्नु माडुवुदु सरमैकान्तित्वक्कॆ विरुद्धवल्ल. परमैकान्तिगळ मत्तु इतरर कैङ्कर्यगळन्नु भगवन्तनु अङ्गीकरिसुवदरल्लि व्यत्यास साक्लाल्लस्टीपतानेव. इत्यादि - लक्ष्मीसतिय विषयवागिये अननल्लिये माडुन कैङ्कर्यवु. सार, कल्प ऎम्ब ऎरडु विधवागिदॆयिन्दु सत्पुरुषरु हेळिरुत्तारॆ. अदागि अनन्य प्रयोजनवागि कृतक्क नाद प्रसन्न; नु माडुव कैङ्कर्यवू, आचार्यादिगळ रक्षणॆगोस्कर “माडुव ’ भगवतै ङ्कर्यवु “सार” वॆन्दु हेळिरुत्तारॆ. डम्भक्कागियू, इतररन्नु हिंसिसुवुद क्ळागियू इतरर कैङ्कर्यवन्नु तडॆयुवुदक्कागियू, प्रयोजनान्तरवागियू माडुन कैङ्कर्यवु “कल्प मेजु विभागिसल्पट्टजि.. ’ परमैैकान्तिहळॆल्लादार् - इत्यादि नरमैकान्तिगळल्लदनरु … माडुव कैङ्कर्यवन्नु सर्वेश्वरनु तस्य श्रीपादगळल्लि स्वीकरिसुत्तानॆन्दू, सरमैैकान्तिगळु माडुव कैङ्कर्य वन्नु तन्न दिन्य शिरस्सिनिन्द स्वीकरिसुत्ता तुट. (1) तत्स र्न९न्देव देवस्य ऎन्दू (2) याः क्रियास्सं प्रयुक्ता स्युः इत्यादियागियू श्रीपेदव्यास भगवान्
- : हव्यं कव्शञ्च सततं विधिपूर्वं प्रयुज्यते । तत्सर्वं दे- वदेवस्य चरणा वुपतिष्ठते ॥ भारत शान्तिपर्व (358-63) परमैकान्तिगळल्लदवरु विधि पूर्वकवागि समर्पिसुव हव्यगळू, कव्यगळू भगत पादगळन्नु सेरुत्तवॆ- भगवन्तनु तन्न कालिनिन्द स स्वीकरिसुत्तानॆ, अदरल्लि आनादरवॆन्दर्थ, ‘2) भारत शान्तिपर्व (358 -64) पम्मैकान्तिगळु अनन्य प्रयोजनरागि याव कैङ्कर्यगळन्नु माडुत्तारॆयो अवॆल्लवन्नू भगवन्तनु तन्न शिरस्सिनिन्द ताने सि स्वीकरिसुत्तानॆ, इदरिन्द परमैकान्तिगळु माडुव कैङ्कर्यदल्लि आदरातिसयवु तोरिसल्बट्टितु,चरमश्लोकाधिकारः . 1090 नॆ रपेक्त विधिपक्षमु? संहरति इप्पडि इवन् भगवदास्थ् सयालेयनुषि किर नित्य ,नैनिन्त्रि कज्जळुवु् भगॆवदनुच्चि ै याले “यननुहस्पॆ € प ग्रयोजनमाह वनुष्मिक्टिर एत्त मान कैङ्कर्य ब्लळुम् इप्प पत्तु योडु तुनक्कत्तु “क्र सति “सर्नधरा न् परित्यज » निन्न विध ‘नत्ताले सिद्धमायाटु’ अतश्श क्यानि सर्वाणि सप्रॆ पत्त र्थ सरा FL । अशक्त षं च सा इमफनैं नतदर्थं समार्जयेोत् । 3 ॥ अस्मिन् विधिपस्षे आकिञ्चन्स रूपाधिकारवु् दर्शयति. इन्न योजनैयिल् अधिकारमान आकिञ्चन्यवुवर् शोकियादे कॊळ्ळॆ न्रु तोत्तु विक्ठिग वाक्यत्ता सी सूचितम्. अनुवादपक्षे अङ्गनॆ )रहेक्षं “एक शब्देन निवस्षतम्. अनुवाद पक्षत्तिल् तन् आशक्तियाले कः” न्हनैय्हॊ य शकृ माय चैय्हिर आज्ञानुपालनादिहळुम् प्रपत्तियिल् तुनक्कॊण्का दॆन्रुमिडवुवु् एकशब्दत्तिले निव £० [6% स्रितनाहक्कडवदु. इप्पक्षत्तिल् “माशुचः” बन्सिरनाकृम् “सक्वधर्मान् परित्यज्य? ऎनु उक्कवतान कग- कृनॆयिन्द हेळिरुत्तारॆ. इदरिन्द परमैैतान्तिगळु माडुव कैङ्कर्यदल्लि आदरवू, इतररु माडुव कैङ्कर्यदल्लि अनादरवू, भगवन्तनिगॆ उम्बागुत्तदॆयॆम्बुगणु व्यक्तसडिसिदन्तॆ आयितु. आजा ्लिनुज्ञा कैङ्कर गळु प्र पत्ति गॆ अङ्गवल्ल. इप्पडि इवन् इत्यादि - हीगॆ इवनु भगवदाज्ञॆयिन्द अनुष्ठिसुव नित्यनैमित्तिकगळू भगन पुत्” अनुज्ञॆ यिन्द, चूत् सन्तोषवे प प्रयोजन ऎ अनुष्ठिसुव एब्रमतान - श्लाघ्य वाद कैङ्कर्यगळू प्र”त्तिगॆ सम्बन्धविल्लदवु. अन्दरॆ प्रसत्तिगॆ अङ्गवागुवुदिल्लवॆन्दु निन्रनिल्लि- इरुन स्थितियु “सर्वधरान् परित्यज्य? ऎम्ब विधियिन्द सिद्धवु. ई नैरसेक्ष्यनिधियिन्द फलिसुव अर्थवन्नु अतशृक्कानि सर्वाणि - ऎन्दारम्भिसि तिळिसुत्तारॆ. अदागि, “परित्यज्य ऎण्टॆ नैरपेक्ष्य्य विधिसरत्वनन्नु हेळिदुदरिन्द, शक्यवाद कर्मगळन्नु प्रपत्तिगॆ अङ्गवागि नुष्मिसबेकिल्ल. अशक्यगळाद कर्मगळल्लि साव मर्थ्यवन्नु स्रुसक्र्यर्थवागि सम्पादिसबेकिल्ल - हीगॆ इन्तु? ऎम्बुदक्कॆ नैरपेश्ष्य विधिसरत्व योजनॆयल्लि, चरमश्लोकदल्लि अधिकारवन्नु तिळि सुव स्थळवु यावुदॆम्बुदन्नु इन्द योजनैयिल् इत्यादि -. तिळिसुत्तारॆ. हीगॆ “परित्यज्य? नॆम्बुदक्कॆ नैरपेक्ष्य्य विधिसरत्ववाद ई योजनॆयल्लि आधिकारवाद आकिञ्चन्यवु शोकिसदॆ इरु ऎन्दु तेट्रुहिर - समाधानपडिसुव, “माशुचः” ऎम्ब वाक्यदिन्द सूचितॆवु. अनुवाद पक्षत्तिल् - इत्यादि “सरित्यज्य स्थितस्त्रं’ ऎम्ब अनुवाद सक्ष्षल्लि, तन्न आशक्तियिन्द माड लागदवन्न्टु बिट्टु, शक्यवागि माडुव आज्ञानुपालनादिगळू, प्रपत्रियॊडनॆ सम्बन्धवन्नु पडॆयुवु दिल्लवॆम्बुदु “एक” शब्ददिन्द. विवनक्षितवागुत्तदॆ. इप्पश्सत्तिल् - इत्यादि ई पक्षदल्लि *फप्रताशुच8? ऎम्ब वाक्यवु “सर्व धवर्तान् परित्यज्य?, ऎन्दु हेळल्पट्ट आधिकारवनु अधिकारतैैनृक्त क वताक्सि क्कॊज्जु मोलुळ्ळॆ निर्भरत्का _दिहळ्ळॆ मुन्नि ट्र उत्त रकालत्रिलिरुक्ळ कृडन सडियॆ “यॆल्लान म् उपलस्तिक्कि रडु. क्यागनिधिसष्नत्तु क्सु” “स माण निरोधम् सां इन्न मुम् शिलगतिहळुण्डु. त्यागनिधिपश्लेतु अर्थान्तराणि उपदिशति. 1) आत्मा शक्स व थायास निवाकण मिहाहिना । लजु प्ररस्थॆ रता गमाजोपृत्र नियमृ ताम् 11360 2) स्वदुस्क केषु धरॆ षु कुशकाशावलम्बतः । ’ च वृस्तिर्वा त्का गॊोक्ता, एनिवार्य ते ॥ 37 तॆ) अनिशिष्ट फलत्चॆ न निकल्बॊ ९ यश्च सूशितः । तन्नु, Ns वा त्रै ष्ट ब्रह्मा- आ न्याय सूचनवः ॥ त जत् च प्र वृत्तक्कॆ “त निर् ऎनॆ युम्म्, तनक्कु दुष सरज्गळिल् अभिनिनेश मुण्डॆ UE ne, भयछं इय. mm ed. न्यक्तस पडिसिकॊण्डु, मेलॆ हेळल्पडुव निर्भरत्वादिगळन्नु’ मुं कुट्टाक उत्तरकालदल्लि इर तक्क पडि - रीति यिल्लनन्नू उसलक्षिसुत्तदॆ. ता गविधिपक्षक्कॆ सदृशमाद मत्तॆ कॆलवु निनरणॆगळु. तागनिधिपक्षत्तुक्कु - इत्यादि सव धर्मगळ, स्वरूप त्यागवन्नु निधिसुव सक्षक्कॆ प्रमाण विरोधवु उण्टागदन्तॆ मत्तॆ कॆलवु गतिहळ् - दारिगळु उण्टु. अदागि (1) आत्माशक्य वृथायास इत्यादि - अनिवा - अथवा, इह - ई EE बिडु, ऎम्बुदक्कॆ तनगॆ आ गळाद भक्क्यादिगळल्लि, निष्फलवाद उद्योगवु, निमारणवनर् - बेडवॆम्बुदू, लज्जा पुरस्सर त्ता $गोहि - “सरि? ऎम्ब उपसॆर्गदिन्द लज्जापुरस्सर त्ता स7वू, आन्दरॆ अशक्यवाद कर्मनन्नु शै आरम्भिसिदुदु ऎल्ला व्यर्थवायितल्ल्वा, ऎम्ब लज्जॆ, - अनमान, अदन्नु मुन्दिट्टुकॊण्डु चिन्तॆ - अनुतासगळ त्यागवू कूड अत्र नियम ता न् - इल्लि विनक्षिसल्पड बहुदु. (11) स्वदुष्करेषु इत्यादि - तनगॆ आत्यन्ताशक्कगळाद " धर्मगळल्लि, कुशाकाशा वलम्बनं - प्रवाहद नीरल्लि तेलि होगुववनु. दर्जॆ अथवा जॊण्डन्नु अवलम्बिसुवन्तॆ आशालेशानुवृत्ति र्वा - अन्दरॆ योगाङ्गवाद प्राणायामवन्नु साधिसोण, आसन जय वन्नु परिचय माडोण ऎम्ब आशालेशद अनुनृत्तियू, त्यागोश्रा इत्यादि - परित्यज्य ऎम्बल्लि त्यागविधियिन्द, विनिवारृते - तडॆय्प सुत्तदॆ. (111) अनिशिष्ट फलत्वेन इत्यादि - “विकल्बो विशिष्ट फलत्वात्” ऎम्ब सूत्रदल्लि, फलैक्यदिन्द, परादिविड्यॆगळल्लि यावुदादरू ऒन्दु विद्यॆयन्नु अनुष्मिसिदरॆ साकु, ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द, आ कालसाध्यवाद प्रसत्तियिन्द मोक्षवु लभिसुत्तदॆये ऎन्दु शङ्किसि उपायाङ्करनन्नु pe सिदरॆ ब्रह्मास्त्र न्यायवु सूचिसल्पडुत्तदॆ ऎम्बुदू त्याग विधिपक्षक्कॆ विनक्षित अन्दरॆ स्पर निरपेक्षगळागि हेळल्पट्ट मोश्षनिदै गळल्लि ऒन्दाद प्रपत्तिरूप न्यासविद्यॆसॆ, कणकाल साध म फलसाधनत्त शङ्कॆयु न विद्यान्तरगळन्नु जतगॆ सेरिसि अनुस्मिसुवुदरिन्द, ब्रक्सूस्ट्र् न्यायवु प्रसक्तवागि प्रपत्तियु जारिकॊळु वुदरिन्द, इतर धर्मगळन्नु प्रपत्तिगॆ सेरिसि अनुष्ठि सकूडदॆम्बुदू, परित्यज्य ऎम्बल्लि नन्नत. मेलॆ हेळिद श्लोकगळ तात्सर्यवन्नु अशकृत्ति ले ऎन्दारम्भिसि चगमश्लोकाधिकारॆः 1092 टट इदुवेण्णानॆनॆ नी यॆम्, विकल्पित्त उपायान्र रज्ज ळिले ऒन्नॆ प इजिकी कूट्ट ल् ब्रह्मास्थ थॆ (बन्ध)न्यायत्ता. ले विरोधिक्ळुमस्रु क्वङ्क्कैै युम् विधिप्र स छ्. अथ “सर धर्माः न् परित्यज्य” इत्य स्य उक्तार्मान् सुखानुसन्धानार्थं शॊ ेकाभ्यां सङ्गृ ह्हा ति, आतोशक्ताधिकारत्व माकिञ्चन्य पुरस्सि या । अनङ्गभावो धर्माणामशक्कारम्भ वारणम् ॥।39॥ तत्सृत्याशा प्रशनुनम् ब्रह्मास्त्र न्यायसूचननु । सर्वधर्म परित्याग शब्धार्थ [र्था]स्साधु सम्मतः [ता8]1140/ निधिपक्षे पक्लान्तर मनूद्य तद्विनक्साया माचित्यं नास्त्रीत्याह देवतान्तर धर्माडि त्यागोक्ति रनिकोधिनी । पासकेपि तुल्कत्वादिहसा ननिशेषिका [ता] । 41 तिळिसुत्तारॆ. अदागि अशक्यगळाद धर्मगळल्लि प्रवृत्तियन्नु बिडु ऎम्बुदू, तनगॆ माडलशक्य गळागि बट्टि धर्मगळल्लि अभिनिवेशवुळ्ळ ननन्नु इवु बेडॆवॆम्बुदू, विकल्पिसि हेळिद EEE गळल्लि ऎ- प्रपत्ति ति यॊडनॆ सेरिसिकॊण्डरॆ ब्रह्मास्तै न्यायदिन्द विरोधवु एर्पडुत्तदॆ यॆन्दु, आदन्नु बिडुवुदू, “परित्यज्य’ ऎम्ब विधिय प्रकारगळु. “सर्वधरान् परित्यज्य? ऎम्बुदक्कॆ हेळिद आरु अर्थगळ सङ्ग्रह. सर्वधर्मान् परित्यज्य ऎम्बुदक्कॆ तावु मेलॆ हेळिद आरु अर्थगळन्नु अतोःशक्ता धि कारत्ववर् ऎन्दारम्भिसि सङ्ग्रहिसुत्तारॆ. अतः - शास्त्र विरुद्ध वाद विधिस स्रकारगळन्नु तोरिसि दुदरिन्द, (1) अशक्ताधिकारत्वं - “सर्वधर्मान् सरित्यज्य वर्तमानः” ऎम्ब अनुनाद पक्षदल्लि प्रॆसत्तिगॆ अशक्ताधिकारत (पू, विधिसक्षदल्लि, (11) आकिञ्चनृपुरस्सि या - आकॆञ्चन्यद प्ररस्करॆणव्र (111) अनङ्गभावोो धर्माणां - स्ववर्णाश्रमधर्मगळन्नु प्रसत्तिगॆ अङ्गवागि स्वीकरिसदॆ, परित्यज्य - बिडबेकॆम्बुदू (1%) अशक्कारम्भ वारणवर् - अशक्यगळन्न्सु माड दिरुवुदु, (४) तत्रृत्याशा प्रशमनं - प्रवृत्तियिल्लदिद्दरू आ इतर ष्ट. हेगादरू नुष्मिसबेकॆम्ब याव आसॆयुण्टो अदन्नु बिडु ऎम्बुदू (11) ब्रह्मास्त्रन्यायॆसूचनु- विकल्पितगळाद इतरॆ धर्मगळन्नु सेरिसिकॊण्डु प्रसत्तियन्नु अनु सिदरॆ, ब्रह्मास्त्रन्याय दन्तॆ, प्रसत्तियु जारिकॊळ्ळुत्तदॆ. आद्दरिन्द इतरोपायगळन्नु प्रसत्तिगॆ नीरिदॆ बिडु ऎम्बुदू “सर्वधर्मु परित्या ग? शब्दगळिगॆ साधुसम्मतगळाद अर्थगळु, देवतान्तर धर्मादि इत्यादि - देवतान्तॆर सम्बन्ध धर्मगळन्नु बिडु ऎन्दु त्यागोक्तिगॆ अर्थ हेळुवुदु अनिकोध वादरू, ई देवतान्तर सम्बन्धत्यागवु भक्तियोग निष्कनिगू समानवाद्दरिन्द, इल्लि प्रपत्ति योग निष्कनिगॆ प्रसत्त्य्यङ्गनागि विधिसुवुदरल्लि स स्रयोजनविल्लवाद्दरिन्द, देवतान्तर धर्मत्याग निधियु इल्लि सङ्ग्रहिसल्पडुवुदिल्ल. 1093 श्रीमद्रहस्यश्रयसाके “उपायााहाय सन्त्यागी` इत्यादिहळिर् चॊन्न उपाय त्यागमुम् इस्ट्रकारज्ग ळिले निर्वाह्यमः, । सर्वधर्मान् हरित ज्येत्यस (सै षडर्थ सज्ञहः. मूण्णालु मरियदनिल् es मन्न मतिला शैतनै निडुगै तिण्मॆ वेण्णा दु शरणनॆरि वेकॊसर् कूटु नेण ल यनत्तिरन्टोल् नॆळहिनिर्युव्म । नीण्ना हु निक मुदियोर् नॆरियिर्बूडा । निन्तनिमैतुणैयाहवॆन्नन्पादम् । पॊण्णालु न्रिणटकळॆल्लाम्फॊरु प्रेनॆन्र पुण्णियनार् पुह्यनैत्तुवमु क वोमे ॥42॥ लक्ष्मीतन्त्रदल्लि “उपायापायसन्त्यागि? मध्यमां वृत्तिमाश्रितः । मामेकं शरणं प्राप्य मामेवान्ते समश्न्चुते । ऎम्बल्लि अपाय - निषिद्ध, उपाय -. सर्वधर्मगळु, (उपायान्तरगळु), निहिद्धगळु स्व रूसत्य त्याज्यगळागि .प्रैपत्तिगॆ अङ्गवादरू, सर्वधर्म स्वरूपत्यागवु जा निरुद्धवाद्द रिन्द, उपायत्यागवॆम्बुदु मेलॆ हेळिद रीतियल्लि निर्वाह्य. मेलॆ हेळिद सर्वधर्मान् सरित्यज्यवॆम्बुदर अर्थवन्नु पाशुर” रूसदल्लि सङ्ग्र हिसुत्तारॆ. अदागि मूण्डाल- म् इत्यादि - अरियदनिल् - तिळियलागद भक्तियोगदल्लि 22६३… प्रवर्तिसिदरू, माडिबिडोण ऎन्दु प्रथमतः प्रवर्तिसिदरू मुयलवेण्डा - द्वितीयादि प्रनृत्तिगळन्सु माडबेड, इदरिन्द. अशक्यारम्भ वारणवु तिळिसल्पट्टिसु.. मुन्नवु् अदिला शैदनै - आरम्भदल्ले अदरल्लि आसॆयन्नु विडुसैतिण्मॆ - बिट्टुसुवुदु. श्रेष्ठवादद्दु. “सर्वभर्मान” परित्यज्य” ऎम्बुदक्कॆ “शत. श्रत्याशा प्प मुन ह नॆरत्ववु?, हेळल्प ट्टितु. शरणनॆरि- शरणागति रूपवाद उपायवु, नेरोर् कूट्टु नेण्डादु - आनुकूल्यसङ्कल्पाद्यङ्ग सञ्चक परिकरवन्नु बिट्टु बेरि याव परिकरनन्नू ’ अपेक्षिसुवुदिल्ल… इदरिन्द सर्वधर्मान” परित्यज्य ऎम्बुदक्कॆ “अनङ्गभानोधर्माणाम्” ऎम्ब अर्थवु किळिसल्पट्ट तु. वेण्डिल्अयन रः पोल्नळ९हिनिर्ळु म् - हागॆ इतर परिकरगळन्नु स्वबुद्धियिन्द’ सेरिसिकॊण्डरॆ, ख्रद’हागॆस्रसत्ति घुफॆनिवनक साधिसिकॊडदॆ बिट्टु होगुत्तदॆ.(वर्नह बट्टु ) आञ्जनेयनन्नु तट सकद ब्रह्मास्तवु, राक्षसरु तळिवळिकॆयिलदॆ’ हग्गगळिन्द आञ्जनेयनन्नु कट्ट हाकलु बिट्टु होयितु. नीण्डाहुषक - चिरकाल साध्यवाद, निरै मदियोर् .- भकि $योगवनु अनुष्ठिसलु पूर्णज्ञानिगळ, नॆरियिल् - ह काडा © सेरदिरुव, अकिञ्चननाद नीनु) इदरिन्द “सर्नेधर्मान् परित्यज्य स्कितस्त्य ऎम्ब आशक्ताधिकारत्हवु सूचित. निन्तनिमै - निन्न असहायतॆ अन्दरॆ आकिञ्चन्यत्व भन ’ तुणैॆयाह सहकारियागि कॊण्डु, “आकिञ्चन्य पुरस्थि ) या” ऎम्बुदर अर्थ, ऎन्नन् - नन्न पाडम् - श्रिीपादगळन्नु, पूण्डाल् - शरणवनागि . आश्रयिसिदरॆ इदरिन्द “मामेकं शरणं व्रज.” ऎम्बुदर अर्थवु ज्योतित; चरमक्लॊ ‘काधिकारः 1094 अथ “वरां मिति सदस्य तथा उत कैरार्धस्य “अहं” शब्दस्य च अर्थमाह, इजकि मानमुहं” ऎन्लिर पदज ळुक्तु अडैवे “अवतार रहस्य त्तिलुम्पुरुषो” मत्त प्र शिपादन प्रकरणत्ति लुम्” शॊल्लुहिरपडिये सालभ्यत्ति लुम् स्वातन्त्र त्ति लुम् पा ्रधास्येन नोक्कु, अवतारस्य सत्यतॆ, मुजहत्प _ स्पभावता । शुद्ध सत्तमयत्नञ्च स्वेच्छा नात्र निदानता ।142/ SE SEE ऎस ऎं मस ससिय सह स्य हा मदु मस त्तु सय न म व उन् पिस हळॆल्लाम् - निन्न्न पासगळन्नॆल्ला पॊरुप्पॆ ेनॆन्रु - कनिसुत्तेनॆन्दु हेळिद, इदरिन्द “आहन्त्वा सर्वपानेभ्यो मोक्षमिष्यामि” ऎम्बुदु अर्थवु सूचित. पुण्नि यनार् कृ स्म ० धर्मं सनातनं? ऎन्दु कॊण्डा- डल्बट्ट, प्रॆण्यस्वरूपनाद कृष्ण परमात त्सु? पुह्वन्सै हत -ऎल्ला कल्याणगुणगळन्नू पुह्यवोमे-स्कोत्र्र माडोण. “वताम् अहं” ऎम्ब पदगळिगॆ अर्थ. “इङ्गुवरावत् अहं”: इत्यादि-आनन्तॆर मामेकं” ऎम्ब पदगळल्लि अर्थवन्नु हेळुवनरागि सौकर्यार्थवागि “माम् अहं? ऎम्ब पदगळिगॆ ऒन्दागि अर्थवन्नु “अनुगॆ स हिसुत्तारॆ. अदागि ई चरम श्लोकदल्लि “मां अहं” ऎम्ब पदगळिगॆ अडैवे-क्रमवागि, अनताररहस्य प्रकरणद लियॊ (गीतॆ 4ने अध्याय) पॆरुषोत्तमत्व स्रतिपादकत्व प्रकरणदल्लियू [गीतॆ 15ने अध्याय] हेळुव प्रकार सौलभ्यदल्लियू, स्वातन्त्र्यदल्लियू प्राधान्येन दृष्टि. “मां? ऎन्दु सौलभ्य, अहं ऎन्दु स्वातन्त्र वु सूचित. अवतार रहस्य जा न अदर फल. दा अनन्तर अवतार रहस्य ज्ञा नवन्नू अदर फलवन्नू “अवतारसॆ सत्यत्वं’ ऎन्दारम्भिसि- तिळिसु त्तारि अदागि 1] भगनन्तन ‘‘प्रिफतारगळु परमार्थगळु- निज्क इन्द्रजाल विद्यॆयन्तॆ सुळ्ळल्ल. अवतार ज्ञानदिन्द संसार बन्ध निवृत्तियु एर्पडुवुदरिन्द अदु सत्य. मिथ्यॆयल्ल. मिथ्या ज्ञानदिन्द बन्धन निवृत्तिय एर्नडलारदु. “बहूनिमे व्यतीताथि जन्मानि तन चार्जुन? ऎन्दु आर्जुनन जन्मगळ हागॆ भगवन्तन जन्म-अनतारगळिगू, अतीतत्व वन्नु कळॆदु होदद्दन्नु हेळु वुदरिन्द भगवदवतारगळु मथ । यल्पनॆन्दर्थ. अजहत्स स्वभावता- -अवतार दशॆयल्लू स्वाभा विकनाद सर्वज्ञ ता _दिगळन्नू आप्राक ृत दिव्यमङ्गॆळ विग्रहता ्यदिगळन्नू बिडदिरुव स्कभानवुळ्ळननु. “आजोन्निस ह ैन्ययात्मा ताका, कोःपिसन् ॥ प्रकृतिं स्तामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्म मायया ।? ऎन्दर गीताचार्यनं ताने हेळिरुत्तानॆ शुद्ध सत्व मयत्वञ्ज-रजस्तनो गुणगळिन्द मिश्च वल्लद शुद्ध सत्व स्रचुरवाद दिव्यमङ्गळ विग्रहवुळ्ळवनु. “जन्म कर्मच मे दिव्यं” ऎम्ब श्लोकद अर्थ. स्टेच्छा मात्रनिदानता-तन्न सङ्कल्पवे कारणवागि, अनतार माडुनननु. बद्भजीनन हागॆ कर्मवु a लवॆन्दर्थ. मात्र पददिन्द कर्नुव्यानृत्ति. “माया” पदवु मिथ्य ऎम्ब अर्थवन्नु तिळिसुवुदिल्ल. वेद निघण्टुविनल्लि “मायानयुनं ज्ञानं” ऎन्दु 1095 श्रीमद्रहस्यत्रयसारे धर्मः ग्लानौ समुदयॆः साधुसंरक्षणार्थता । स जन रहस्यं यो वेत्ति नास्य पुनर्भव- 1411 भक्त प्रपन्नयोरवतार रहस्य ज्ञा नस्क प्रयोजनमाह. इव्व नवतारॆ रहस्य ज्जा नम् सद्वा रक प्र पत्ति निष सुक्कु उपायॆपूरकम्. स्व तन्त्र प्रपत्ति निन नुक्ळु स्वतन्त्र नुडैय सौलभ्यत्तैक्काट्बुन म्. इप्रकरणज्ञ ळिरण्णि ल् निद; मान सालॆ, मम्म्, स्वातॆन्त मम्, ऒन्रुक्कॊन्रु तुणॆ यायिरुक्कु म्. स्वतन्त्रस्क दार्शभ्ये आश्रयणमेव न घटते. सुलभस्कास्वातन्त्र्यत्वे आश्रयणफ लं’ नास्ति सतॆन्त्रस्का हि न्वैवस्कादा श्रयो दुर९भस्यतु । अस्वतन्त्रा त्सलं नस्यात्सुलभादाश्रितावहि 1441 माया शब्दक्कॆ ज्ञानवु अर्थवॆन्दु हेळल्पट्टिदॆ. धर्मणग्गानौ समुदयः.. “यदायदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्का नम धर्मस्य तदात्मानं सृ सृजाम्य हम् ॥” । ऎन्दु हेळिरुवन्तॆ धर्मक्कॆ ग्लानियु एर्पट्टु “अधर्मवु हॆच्चिदागि भगवन्तनु अवतरिसुत्तानॆ. साथु सं रक्षणार्थता-साधुगळन्नु हायुव मुख्य उब्दॆ क. दुष्ट र नाशन्र आनुषङ्गिक, “परित्रा हाय साधूनां” ऎन्दु साधु संरक्षणवन्नु मॊदलु हेळि, “दुष्ट्य द्विनाशायच”, ऎन्दु ज् जौ “च” शब्ददॊडनॆ दुष्टर र हेळिरुवदरिन्द ई अर्थवु द्योतित. इतिजन्म रहस्यं हीगॆ जन्म रहॆस्यनन्नु se नास्य पुनर्भवः-यारु तिळिदिरुत्तानो अवनिगॆ “वुनस्प ंसारनॆम्बुजु इल्ल. पुनः जनिसदे ऒन्दे जन्मदल्लि भन पडॆयुत्तानॆन्दु “जन्म र मे दिव्यं एनं योवेत्ति तत्वतः । त्र्यक्त्यादेहं पुनर्जन्मन्नॆ त मामेति जु I> ऎम्ब गीता श्लोकदल्लि हेळल्पट्टिदॆ. इव्ववतार रहस स्फृज्ञानं-इत्यादि-ई आवतार रहस्यद ज्ञा ्लिनवु सद्वारक प्र अन्दरॆ भक्तियोग निष्कनिगॆ जन्मान्तर हेतुभूतगळाद पापगळन्नु ड् & ६9 ३ 29 जन्मदल्लि ज् अन्तिम प्रत्ययानधियाद उपाय स् ०टु माडि मोक्षक्कॆ सहकरिसुत्तदॆ. स्वतन्त्र प्रपत्तिनिस्म नुक्कु इत्यादि-स्वतुन्त्र प्रपत्ति, निष्कनिगॆ स्वतन्त्रनाद नडसि प्रसत्त नन्ना नक्टॆ कारणवागुत्त जि इस्रकरणङ्गळिरण्डिल्-इत्यादि भगवन्तन सौलभ्यवन्नु ई ऎरडु तिळिय प्रकरण गळल्लियू सिद्धवाद सौलभ वू स्वातन्त्र्यवू अश्न कुव दशॆयल्लियू, यल्लू ऒन्दक्कॊन्दु ब इरुवुवु. फलवन्नु कॊडुव दशॆ स्वातन्त्र, उपकारियागुवुदिल्लवॆन्दु सौलभ्यवू ऒन्दु गूडॆदॆ इद्दक्कॆ आश श्रयिसुवुदक्कू फलवन्नु कॊडुवुदक्कू “स्पतन्त त्रस्यापि नॆ । वस्याश्? ऎन्दु आरम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि फलप्रदानदल्लि स्वतन्त्रनु LT अनॆनन्नु आश्रयिसलागुवुदिल्ल. अस्प तॆन्ता त्रत्- इत्यादि चरमश्चोकाधिकारः 1006 अस्वतॆन्त्रे न क्टज्टर्यं सिद्ध्येत्स्वैर प्रसङ्गत- दुर्लभे साध्यम्यह्येतन्न हृद्यं लोक नीतितः (145/ आहै याले केवल सुलभमळान तृणादिहळॆ प्लोलसि क्रै € घ्र नुमाय् मर्लभमान मॆंरुवैपॊ ीलुवुस्रिक्टे AE परसुमान ब आश्रयणी यॊनुवसाय् प्राप्यनु माहिरान्. इन्हि रण्णु सदत्तिलुवत् सर्नरकश्तनान सर्वशेषी रक्षणतु, कु अवसरं पार्र्तु निरि र नि लैतोत्तु हरदु. 1: *रक्षापेक्सां प्र र्रतीश्षते” ऎन्न रपडिये ऎन्रो नम्म्मै इवन् हळ् अपेस्तिस्पदॆन्निर अभिप्रा यता, ती अभिनुङ्खनाय् निर्किर निल्रै “मां” ऎन्सिर पद त्ता ले सूचितम्. ऎन्नु ०) नाम् इं नर्हळ्ळॆ आक्ट क ५ त्रिन अभरणक्किप्पोले आङ्गीकम्प्प दु ऒब्बनु सुलभनागि आश्रयिसल्पट्टिरू फल प्रदानदल्लि स्वतन्त्रनल्लदिद्दकि, अनिष्ट निवृत्ति पूर्वक इष्ट प्रास्तिरूस फलवु अवनिन्द लभिसलारदु. आस्प्रतन्त्रेन कैङ्कर्यं-इत्यादि-मेलू अस्त तन्त्रन विषयदल्लि कैङ्कर्यवु सिद्धिसुवुदिल्ल. . एकॆन्दरॆ साधुगळाद कॆलनरिगॆ विश्वासदिन्द कैण्ठर्यवु सिद्धिसिदरू, कठिण स ;सानवुळ्ळ वनिगॆ अस्पतन्त्रनल्लि भयविल्लदिरुवुदरिन्द स्वेछ्छैयागिरलु अपेक्षॆयु निर्पटु त कैङ्करृवु, सिद्धिसुवुदिल्ल. दुर्लभनाद पुरुषन हत्तिर, स्व र प्रसङ्गविल्लद कैङ्कर्यवु साध्यवादरू, कठिणनाद राजन हत्तिर क्लेशदिन्द भृत्यरु माडुव कैङ्कर्य -सेवॆय हागॆ मन स्सिगॆ तृप्तिकरवागलारदु. इदु लोक नीतियन्नु अनुसरिसिदॆ. आहैयाले इत्यादि-अदकारण केनल सुलभवाद तृणादि -हुल्लुकड्डि मॊदलादवुगळतॆ इल्लजॆयू श्लाघ्यवागि दुर्लभवाद मेरु पर्वतद हागॆ इल्लदॆयू सुलभनागियू, पर- मेलादवनागियू इरुव शरण्यनु आश्रयणीयनागियू प्रास्यनागियू आगुत्तानॆ. इन्निरण्डु सदत्तिलुवु्.“शरण”शब्ददॊडनॆ कूडिद “मां? ऎम्ब पददल्लि सर्वरक्षकत्ववु विवक्षित. “मोक्षयिस्यामि” ऎम्ब सदडॊडनॆ कूडिद “अहं” ऎम्ब पददल्लि सर्वशेषित्ववु निनक्षितॆ. हीगॆ सर्वरक्षकनाद सर्वशेषियु रक्षणक्कॆ अनसर-सकालवन्नु नोडिकॊण्डु इरुव निलै युम्. स्थितियू तोरुत्तदॆ. इप्पडि इत्यादि-बीगॆ अवसर प्रतीक्षनाद ईश्वरनु 1) “रक्तासेक्टां प्रतीक्षते” ऎम्बन्तॆ, यावत्तिगॆ ई बद्ध जीविगळु नम्मन्नु अपेक्षिसुत्तारॆम्ब अभिप्रायदिन्द अभिमुखनागि निन्तिरुव स्थितियु “मां” ऎम्ब पददल्लि सूचितवु. ऎन्रुनाम् इवर् हळ्ळ इत्यादि
- लक्ष्मीतन्त्र 17-78 सर्वज्ञो ेीपिहि ऎश्वॆ €शः सदा कारुणिको(पिसन् । संसार 3 तन्त्र वाजत्वा त् रक्षापेकां प्रतीक्षते ॥ भगवन्तनु सर्वज्ञसागिद्दरू. सदा करुणॆयिन्द कूडिदवनागिद्दरू, संसार तन्त्र- कर्मानुगुणवागि फलप्रद साद्म रिन्द वैषम्यनॆ र्फृण्यादि दोषगळु बारदिरलु रक्षापॆ पेक्षां- “नन्नन्नु रक्षिसु” ऎम्ब अपेक्षॆयन्नु ऎदुरु नोडुत्तानॆ नॆ, ` 1097 श्री मद्र हस्यश्रयसाके ऎन्सिर अभिप्रायत्ना ले सत्वॆरनाय् तन् सेराह फलं कॊडुक्क निर्किरनिलै ‘आहं? ह ऎन्निर सदत्ताले काट्बुप्पडुहिरदु- “मामेकं” सिद्धोषाय प्रदर्शनपरं. “अहं” साध्योपायेन प्रसन्नेश्वरस्य फलप्रदातृत्वसरम्, इप्पडि अकिञ्चननान अधिकारिक्कु यथाविधि रक्बाहेक्बा पूरक भरन्यासत्तैय्योंय नेरॊन्राल् असेक्लॆयिल्लाद सिद्धोषायत्रै “मामेकं” ऎन्रु काट्टि अदिनुडैय वशी करणार्थमान साध्योपायत्सै “शरणं व्रज? ऎन्रु विधियाले काटु हिरडु. इप्पडि विधिक्सर प्रपत्तिरूप विदॆ कु शरण्य स्रसादनमाह चोदितत्वत्ताले नरुहिर उपाय त्न मं” भक शियोडु तुल्य ह इदनाले प्रसन्न नान ईश्वरन्नोक्सत्तु कुसाक्सादुप, यवं् माम” मित्यत्र नेद्याकाराणि सर्वाण्याह. इन्विदैक्ळु विशेषित्तु मेद्याकारम् निरपेश्षोषायत्वम्. गॆ नावु इवरन्नु कॊळॆयन्नु नीगिसिद आभरणद हागॆ अङ्गीकरिसुवुदॆम्ब अभिप्रायदिन्द इयर् -त्वरॆयिन्द कूडिदननागि तन्पेराहॆ-तन्न प्रयोजनक्कोस्टर फलनन्नु कॊडलु स्कि न “अहं” ऎम्ब पददल्लि तिळिसल्पडुत्तदॆ. इप्पडि अकिञ्चनान अधिकारिक्टु इत्यादि - हीगॆ आकिञ्चननाद आ धिकारिगॆ यथाविधि रक्ता पेक्षू पूर्वकवाद भरन्यासवन्नु बिट्टरॆ बेरॆ यावुदरिन्दलू असेक्षॆयिल्ल द सिद्धॊ पायनाद भगवन्तनु तन्नन्नु “मामेकं” जु तोरिसि, आ तन्न नतीकरणार्थवागि सार्योपायन नन्नु “शरणं प्रज” - शरणु होगु ऎम्ब विधियिन्द तोरिसुत्तानॆ. इप्पडि विधिक्कि रण इत्यादि-हीगॆ निधि सुन प्रसत्तिरूस विद्यॆगॆ शरण्यप्रसादन- -शरण्यनु प्रस सन्ननागुनन्तॆ, चोदितवाद्द रिन्द निर्पडुव उपायुत्ववु भक्तियोडु तुल्कम्-भगनॆस्प्रसाद जनकगळागि जोदितगळाद सद्विद्या, दहरविदा मॊदलाद भक्तिरूस विद्यॆगळिगॆ समानवादद्दु. । हीगॆ प्रपश्रिगू उसायॆत्वनन्नु अङ्गीकरिसिदरॆ भगवन्तने उपायनॆम्ब सिद्धोपायत्वक्सॆ कॊत्तै-न्यूनतॆयु एस र्नडुवुदिल्लवे ऎन्दकॆ-इडनाले प्र सन्ननान ईश्वरन्-कई भक्ति आथवा प्रपत्रियिन्द प्रसन्ननाद ईश्वरनु-लक्षि स्स विशिष नं मॊत्तक्कॆ साक 2 भक्ति विद्यॆगळल्लि प्रति विदैगू नेद्याकार जीडिकु नन्तॆ, इन्विद्दॆ ‘क्युई स्र पृसत्ति रूप विद्यॆगू निरपेक्षोपाय त्ववु तनन वेद्याकार, निरपेक्षोपायत्रवॆन्दक्कॆ इसा र स्नानासन्नत्ववॆन्दु कॆल वरु व्याख्यान माडिरुत्तारॆ. इदु सरियल्ल. तॆ िमेवोपाय भूतोमेभन’, he यता याञ्चा” इयं केवल लक्षि टोपायत्व ज्य ‘)त्ययात्मिका, BEउNप इयार्थ्रैकवाचक;? इत्यादि भगवन्तनन्ने उपायवागिरुवन्तॆ प्रार्थिसुव प्रमाणगळिगॆ विरोधवागुत्तदॆ. शरण शब्दक्कॆ उपायवॆन्दर्थवे हॊरतु, उपायान्तरस्थान नविष्टृत्वनॆन्दर्थनल्ल. आद्दरिन्द भक्तिप्रसत्तिगळॆ रडू मुख्य साधनगळु. निरपेक्षॊ १(पायॆत्ववॆन्दकि भक्तादिगळन्नु अआसेक्षिसजि, भगवन्तने उपायनॆन्दर्थ. चरमस्सोकाधिकानः 1098. eee eT अदागि भक्ति प्रसक्ति रूपगळाद ऎरडु विध विद्यॆ गळू भगनन्तन कालुस्यवन्नु होगलाडिसि अवन प्रसन्नतॆयन्नुण्टु माडुत्तवॆ. इदरिन्दागि बत व्यवहितोपायगळु - व्याजरूपगळु. ताचरव भन भगवन्तने ऎम्बुदु सिद्धा न्त. ई अर्थगळन्नु आचार्यरु न्यासतिलकदल्लि, “हेतुवॆ .नृधे विमर्शे भजननदितरत्. किन्त्रनुष्कानकाले वेद्यस्कद्रूसभेदो निनिधइहॆ सतूपायतान्यानसेका । रङ्गिन् प्रारब्ध भङ्गात् फलमधिक मनानैश्निरुक्त्वेष्टिनत्सा सत् नाना शब्दादि भेदात् प्रसदन भजने सूत्रिते सूत्रकाकैः ॥” [न्यासतिलक 1 क क् ऎन्दु तिळिसिरुत्तारॆ. अदागि शास्त्रवु भक्तियहागॆ प्रसक्तियन्नू निधिसिरु त्तदॆ. अनुष्कानसमयदल्लि प्रपत्तिगॆ वेद्यनाद निरपेक्षोपायत्तवु निशेषनाद वेद्याकार वाद्दरिन्द रूपभेदवु : एर्पट्टिदॆ. प्रारब्धकर्मानन्तर मोक्ष. : तश्रकाररु “नाना- शब्दादि भेदात्? ऎम्ब सूत्रदल्लि स्रसदन, भजनगळॆरडन्नू सूत्रिसिद्दारॆ.. उपासीत्क प्रनद्येत, ऎन्दरि भजन प्रसरनगळु पर्याय शब्दगळल्ल, . शब्दभेदवु स्पष्ट. प्रॆनदननु क्षणिक व्यापार, भजनवु. आजन्म माडबेकादद्दु. श्र कारणगळिन्द भक्ति प्रसत्तिगळिगॆ परस्पर नैलक्षण्यविदॆ- करट लु भक्ति प्रपत्तिगळॆरडू तुल्य फलस्रदगळु ऎन्दु हेळिरुवाग, प्रसत्तियु भक्तिस्ना नदल्लि भग वन्तननन्नु इरिसुत्तदॆ ऎन्दरॆ प्रसत्तिगॆ भक्तियहागॆ फलसप्रदत्वनिल्लनॆन्दु एर्पडुतॆ शैजॆयाद्द रिन्दु “इप्रपत्तिरूप विद्यैक्कु-उपायत्वं भक्तियोडु तुल्यम्? ऎम्ब श्री सूक्तिगॆ विरुद्ध वागुत्तदॆ. “विकल्बो विशिष्ट फलत्वात्? ऎम्ब सूत्रद स्रकार भक्ति, स्रपत्तिगळॆरडक्क्टू फलवु ऒन्दे ऎन्दु हेतुवन्नु हेळि, विकल्पत्तन्र हेळल्ब ट्फडॆ.: प्रपत्तियु भक्ति स्का नदल्लि भगवन्त नन्नु इरिसि उसरत व्यापारवागुत्तदॆयिन्दरॆ प्रपत्ति स भक्तितुल्यवाद. फलत्व निल्लनॆन्दु एर्पडु त्कदॆ. ऎरडु विद्यॆगळू साक्षात् भगवत् प्रसन्नकॆयन्नु समानवागि उण्टु मजत् सन्न नाद भगनन्तनु “मो क्षयिष्यामि? ऎन्दु संशल्पिसुत्तानॆन्दु हेळुवुदु सर्व त्री सूक्ति ग समञ्जसवादद्नु. “शरणागति र्यथावस्थिता अनिरतास्तुमे” ऎम्ब गद्य श्री सूक्तिगॆ “अनिरति ’ शृरणागते रामोक्षलाभाश् स्वजन्य स्रसादानुन त्या, निन्दु श्री मद्रहॆस्य रक्षॆयल्लि व्याख्यान माडिरुवुदू इल्लि गमनार्ह. प्रसत्तियु भगवत्प साद जनकवल्लदिद्दरॆ अदक्कॆ. न्नोक्स, हत्तु त्ववु हेगॆ उण्टागुत्तदॆ. प्रसत्तै तस्योक्ते प सदन निधिध्यासनगती” ky भक बतत रडक्कू तुल्यफल साधनत्ववु हेळल्प ्बरुवुदु य् हागादकॆ प्रसन्ननिगॆ भगनं?नु उपायान्तर स्थानदल्लि निल्लुत्ता नॆम्ब मातिगॆ एनर्थ वॆन्दरॆ अङ्ग प्रसत्ति भक्तिगळिन्द साध्यवाद सरम पुरुषार्थवु प्रसत्ति मात्रदिन्द. अकिञ्चननिगॆ लभिसुत्तदॆ. ऎन्दर्थ. अत्यन्ताकिञ्चनन विषयदल्लि शरण्यन सरमकारुण्यातिशयवे इदक्कॆ नियामक. भक्तिरूस गुरुतरवाद प्रयत्नदिन्द प्रसन्म्ननागुव परमात्मनिगॆ लघुतरवाद उपाय दिन्द प्रॆसन्नतॆयु कारुण्यातिशयदिन्द अकिञ्चनाधिकारिय विषयदल्लि विर्सडुत्तदॆ ऎम्ब अभिप्राय् दिन्द उपायान्तर स्थान निनेशत्ववु ई ग्रन्थदल्लियू, श्रीमत्सारसार, विरोधि परिहार प्रबन्धगळल्लियू सुवृक्तवागि हेळल्पट्टिदॆ. आद्दरिन्द प्रसत्र्वियु भक्तिस्था नदल्लि भगवन्तनन्नु इरिसुत्तदॆ ऎम्ब मातु ओपचारिक, 1099 श्रीमद्रहस्यत्रयसारे इदुक्कु उपायुक्ता करण ळॆल्दाम् “इतामेशं? सदज्स ळिले निवक्षि” ज्लळ्. (1) “एषनारायण छी- मान्? इतादिहळिले निर्दिष्ट प्रकारनान “शरण्यन च्चॊ ल्लुहिर “मामा? ऎन्निरॆ सदता,ले तिरुमन्त्र त्तिलुवम् द्वयत्तिलुवं् प्रकाशितमान नर रक्षक त्वमुम् सर्व केसित ैमुंवर् शियःसतित्त मुम्, नारायणत्स मुन् इवत्ताल् आकृ ष्ट सार् परत्त सौलभ्यज्न ळुकु “om वरुशि-र सर्वज्ञत्व सर्व शक्तित्वा ऒह् a कारुणिकत्व सौशील्य वाश्चल्यादिहळुव द्वयत्तिल् द्रि ऒवचनान्त जा ले तोत्तिन शुभाग्र यन माय्, सरत्व सौलभ्य. व्यञ्जकमान पार्थसारथियिनुडैय दिव्यमज्ञळ निग्र च निकीषमुम् काट्बुप्पडुब्रनन. इजकि € (1) “निहरिल् पुह इय? इत्यादिहळिल् शॊल्लुहिर मात्र शल्य स्वाविन्त्र सौशील्य सौलभ्य रूसमान इग्गुण चतुष्टयवमम्म् अडियिले अस्थान स्न हा दिहळाले हागादकॆ “स्पहेतुत्व धियं रुन्थॆ?ि ऎम्बुदु हेगॆ उसपन्मवागुत्तदॆ ऎन्दरॆ उपायान्त रद हागॆ प्रसश्तियू मोक्षक्कॆ साक्षात् साधनवल्ल. भगवन्तने साक्रादुपायॆ. अवन कालुष्य वन्नु होगलाडिसि “नोक्षयिष्यानि? ऎम्ब सङ्कल्पक्कॆ कारणवागुत्तदॆ. प्रपत्तियु भक्ति निर पेक्षनादद्दु ऎम्बुदु प्रमाण सिद्धवाद्दरिन्द अकॆञ्चनन विषयल्लि भक्तिस्मानदल्लि प्रनत्तियु विहितवॆम्बुदु स्वरस… आद्दरिन्द मेलॆ हेळिद श्री सूक्तिय प्रकार भक पत्त्रिगळॆरडू मोक्षक्कॆ समानवाद नृवहित कारणगळु. भगवन्तने साक्षाादुपां रु ऎम्बुदु तत्व. डि “माव? ऎम्ब शब्दद अर्थ. इदुक्कु उपयुक्काकारङ्गळॆल्लुवर् इत्यादि - ई निरपेक्षोपायत्पक्कॆ उपयुक्त गळाद आकारगळॆल्लू “मामेकं? ऎम्ब पदगळल्लि विवक्षितगळु. “एषनारायण श्रि «मान्? इत्यादिगळल्लि निर्दिष्ट प्रकारनाद शरण्यनन्नु तिळिसुव मां”ऎम्ब पददिन्द तिरुमन्त्रदल्लियू द्वय मन्त्रदल्लियू प्रकाशितवाद आन्दरॆ तिरुमन्त्रदल्लि प्रणवद मॊदलनॆ अक्षरवाद आकारदल्लि प्रकाशितवाद सर्वरक्षकत्ववू, सर्वशेषित्ववू द्वयॆमन्त्रदल्लियू प्रकाशितवाद श्रियः पतिश्ववू नारायजत्ववू, इवुगळिन्द आकृष्टवागि परत्व, सौलभ्यगळिगॆ उरुषा म् प्रैकाशकगळागि, बरुव सर्वज्ञत्व सर्वशक्ति सका नगळ. सरमकारुणिकत त्व सौशील्यवात्स ल्यादिगळू द्वयदल्लिचरणौ? ऎम्ब द्विवचनान्तॆ पददिन्द शुभाश्रॆयत्ववागि परत्व सौलभ्य व्यञ्जकवाद र दिव्य मङ्गळ विग्रह विशेषवू तोरिसल्पडुत्तॆ दि. इङ्गे 1) निपरिल् पुह्नणय* इत्यादि-ई“मां?ऎम्ब शब्ददल्लि, “निहरिल् प्रह्नय्’ इत्यादि गळल्लि हळिळि्रॊषंव्न तनगॆ सृशनिल्लद क ैवनॆन्दु वात्सॆल्यवु निवक्रित भगवद्दु णगळल्लि दोषा नादरहेतु सॆ ेहॆरूपवाद वाश्सल्यक्कॆ धृशवाद गुणविल्लवल्लवे. आ उलहमूस्रुजैयाय्? । ऎम्बुदरिन्द स्वामिश्ववू, “ऎन्नैयाळ्वा स ऎम्बुदरिन्द सौशील्यवू “तिरुवेङ्गडत्तानॆळि ऎम्बुद रिन्द सौलभ्यवू. हेळल्पट्टृतु. हेगॆन्दरॆ. गीतॆयल्लि आरम्भदल्लि अस्मान स्टेहकारुण्यगळन्नु नान् अट /)सूग;गओास्ताघा/)गकाऎाणाहाणासाणासावन सा ननन
- अहलहिल्लि ेीन् इरै युमॆन्रु जा सात ळॆ निहरिल् पुप्रुंय्, इत्यादि-86 3ने पुटनोडि,च. मश्लोकाधिकारः 1100 कलज न अर्जुननै अनादरियानैयालुम्. 3) “मत्त- परतरं नान्कत्” ऎन्नु ताने आरुळच्चॆ य् ह्टयळालुवं् 3) “हे कप्प न्न हे यादन” 4) रथंस्का पॆयनमॆआच्युतॆौऎन्रु म्रडि निन्रु सारथ्यादिहळ्ळिस्टण्णु हैयालुवु् काणवेणु- मॆन्र सृवैक्त रूपत्तॆ क्रा मीण म् पट यॆ सौम्य विगॆ गृहत्तै काट्टनेणं मॆन्पपोदे गाव कोति निरॆ फयालुवु’ वृ उजितमायित्तु. उक नग् शर- स्य गुजळ्लु ळिल् आश्रि त रक्षणत्तुक्कु प्रधानतमज्जळ् (1) सर्वज्ञोपि क्र हि विक्वीशः दाकारुणिकोपि सन्” ह भगवच्चास्त्रत्ति उम् (2) “त्वद ्मानशक्त “म करुणा सु NE ऎन्लिर अभियुक्त वाक्यत्ति लुवु् सज्ल्रहिकृप्पट्टन. अथसर्वगुणेभ्य- दयायाः सर्रातशयत्वं उपसादयति इनै वखूस्रिलुम् ज्ञानशक्तिहळ् निग्रहानुग्रह साधारणज्ञळ्. स्वामित्रमंवम् NN वाश्सल्यवू 2) “मत्तः परतरं नान्यत्” ऎन्दु. हेळुवुदरिन्द स्वानमित्ववू ] “हे कृष्णहे यादव हेसखेति” 4] “रथंस्का सयमॆणच्युत ऎन्दु हेळल्पडुवन्तॆ सौतील लृवू 5) “योगल्व र ततोमेत्वं दर्शयात्मान न मव्ययनु?ऎन्दु आसॆसट्ट तत्त णवे 6] श्यी पार्थरूपाणि” ऎन्दरि पत विश्वरूप वन्नु तोरिसि, अदन्नु नोडि हॆदरिद eo प्रार्थनॆगॆ अनुगुणवागि 7] भूत्वा पुनः स्टौम्युवपु र्महात्मा” ऎन्दु हळॆय सौम्यरूपवाद, पार्थ सारथि वेषदिन्द कूडिदुदरिन्द “सौलभ्यवू? वृञ्जितमायिट्रु- प्रकाशितवायितु. उक्तनतान शरण्यगुणङ्गळिल् इत्यादि . हीगॆ हेळल्पट्टि शरण्यन गुणगळल्लि आश्रित रक्षणक्कॆ प्रधानगळाद, (1) सर्वज्ञोॊसि हि विश्वेश इत्यादि भगवच्छास्तदल्लियू, “सर्वज्ञः”, ऎन्दु सर्नज्ञत्ववू, विश्वेशः ऎन्दु सर्वशक्तित्ववू, कारुणिकः ऎन्दु कारुण्यवू सङ्ग्रहिस ल्पट्टितु.: (2) *त्वद्द्यान शक्ति करुणासु सतीषु? ऎम्ब अभियुक्कर (कूरत्ता।)वान्) बट्ट ) us । L वाक्यदल्लियॊ ज्गा न, शक्ति, करुणॆगळु सॆङ्ग्रहिसल्पट्टिवु. इनैमूनिलुम् - इत्यादि ई मूरु गुणगळ मध्यॆ ज्ञ्यानशक्तिगळु, निग्रहानुग्र साधारणगळु. स्वाविन्त्वमुम् - इत्यादि
- गीतॆ ।-7 3) गीतॆ 11-41 4) गीतॆ 1.21… 5) गीतॆ 1-4 6) गीतॆ 11-5 7) 11-50
- लक्षि (तन्त्र 17-78
- पापीयसोपहि शरणागति शब्ध _भाजः नोपेक्षितुं मम तवोचित मीश्वरस्य त्वद्ध्य्यानशक्ति करुणासु सतीषु नॆ पापं पराक्रमितु मर्हति मामकीनम् ॥ त सनुषस्तव 61ने श्लोक, नानु बहळ पापियागिद्दरू, शरणागतनॆम्ब हॆसरु पडॆदिद्देनॆ. नीनु ईस्तरनागि सर्वशक्तनागि सर्वस सैतन्तत्र नागिद्द रू नन्न न्नु उपे क्षिसलु उचितवल्ल, निन्न ज्ञान शक्ति करुणॆगळु इरु वाग, नन्न पा पापगळ- अवुगळन्नु अतिक मिसलु, आण्टिरॆ” सोलिसलु आगलारवु निन्न ज्ञा नशक्तिगळू, परमकरुणॆयू नन्नॆ पापगळन्नु होगलाडिस नन्नन्नु रक्षिसलु अर्हवादवु, 1101 । शीनुद्रहॆसत्रयसारे लीलोसकरण माक्कुणैक्युम्, भोगोपकरण माक्तुहैक्कम् सिना इहैॆयाले ज्ञानशक्ति हळ्ळॆ रक्षण कान्त ह नियमिक्क माट्टादु. धारुण मुन् इदिन न् कवडु हळान इाशील्य नात्सल्या दिहळुम् अनुग्र हत्तु क्र विकान्तज छ्. इप्सडि इक्कारुण्यत्तिनुडैय वाशियै कृण्ण पूरैर् हळ् 1) न ha देनदेनेश नार्चनादौ स्तुता नच । इमर्थ्यवान् कृसामात्र मनोवृत्ति फि? “प्र सीदमे 1? ऎन्रुम्. आ 2) न्न रुळे सुरिन्नि रुन्नॆ €न् ऎन्नुव, 3) ुजियेनिनि निन्न रुळल्लदनक्कु? ऎन्रि व् जा ला गं आहव तर १ऎ चघघाघफाफु गा भा आरडि नाट तडि कमरद करन गागार अरदर कनड आग हळ सर स्लामित्तवू लीलॆगॆ उपकरणनन्नागि माडुवुदक्कू भोगक्कॆ उपकरणवन्नागि माडुवुदक्कू पूमवाहैयाले - समानवाद्दरिन्द, अन्दरॆ भगवन्तनु उभय विभूतिगू स्वामियाद्द रिन्द तन्न लीलॆयन्नु नडॆसलु ऒब्ब जीननन्नु संसारदल्लि हुट्टिसि लीलारसनन्नु अनुभविसु : त्तानॆ. हागॆये अवनिगॆ. नोक्षनन्नु कॊट्टु अवन कैङ्कर्यगळिन्द सन्तोषसडुत्तानॆ. हीगॆ लीलाभोगगळ अनुभवक्कॆ स्वामित्ववु समानवु. आद्दरिन्द स्वामित्ववु, ज्ञानशक्तिगळन्नु रक्षणॆगॆ एकान्तगळन्नागि गड कारुण्यमुवर् इत्यादि - कारुण्यवू इदर कवडु- कवलुगळाद सौशील्य, वात्सल्यादिगळू. अनुग्रहक्कॆ एकान्तॆङ्गळ् - प्रत्येकवागि एर्पट्टवु इसप्पडि इक्ळारुण्यति,नुडैय - हीगॆ ई कारुण्यद वाशियृै - रक्षणॆगॆ एकान्तवागिरु वुदन्नु तिळिद पूर्वचार्यरुगळू (1) सोःहन्तेदेवदेनेश इत्यादियागियू, 9) निन्नरुळे इत्यादि (3) तुणियेसिनि इता बदि (4) उन्नरुळेपार्पन् इत्यादि. (8) तिरुमामहळॆ, प्पत्तुं इत्यादि (6) निन्तिरुनरुळालस्रि. इत्यादि (7) निन्तिरुवरुळुव् इत्यादि (18 1) सोंहन्तेदेवदेवेश नुर्चनाद्स्तुतौनच । वु ऎं सामर्थ्यवान् कृपामात्र मनोव त्ति प्रसीदमे ॥ विष्णुपुराण 5-7-70 ऎलै देव देवने, सान निन्नन्नु अर्चिसुवुदक्को स्तोत्र माडुवुदक्को समर्थनल्ल, निन्न कृपॆयन्ने आवलञ्चिनवागि मनस्सिनल्लि ध्यान माडिक ॊण्डिद्दॆ नॆ, ननगॆ करुणिसु,
- शॆन्नि योङ्गु तण्तिरुवेङ्गड’ मण्ड्य re र् उलगु तन्नॆ अवौट्रनिस्पनव्बी दामोदरा शनिरा । ऎन्नैयुम् ऎन्नुदैमैय्यैॆयुवर् उन् शॆक्करप्पूरियॊत्तिक्कॊण्डु । निन्नरुळे पुरिं र.०देन्’ इनि ऎन् तिरुक्कुरिप्पे ॥ पॆरिय सवार् तिरु मॊगि (5-4-1) ऎत्तरवाद शिखरगळिन्द कूडिद शीतळवाद तिरुपति बॆट्ट दल्लि वासमाडुववने लोकवन्नु कापाडुव परिपूर्णने, दामोदरा, आश्रित दोषवन्नु काणदे इरुव सामर्थ सवुळ्ळवसे नन्न सन सनणॆ सेरिद स्वत्तुग ळन्नू, निन्न चक्रदिन्द अङ्कितगळन्नु गि वू निन्न कृपॆयन्नु आश्रयिसिद्दॆ ेनै,. बेरॆ एनु तम्म चित्तदल्लिदॆ. कृपॆ
- यां पोल् शू अरङ्गनहरप्पा तुणियेन्. इनि निन्नरुळल्लदॆनक्कु ॥ मणिये मणि माणिक्कमे मदुशूदा पणियायः ऎनक्कुय्कुम् वहै, परञ्जोदी ॥ परियतिरुम्मॊठ (11-8-8) सौन्दर्मदिन्द कूडिद नाज् निन्नॆ कृपॆयल्लदॆ ननगॆ रक्सकवागि चेरॆ या पुदन्नू नम्बिल्ल. रत्न फे माज चरनुश्चोकाधिकारः 1102
- *उनदरुळे पार् पनडियेन्” 5) तिरुमामकळ्ळि हॆ श्र मॆन्नेल्लहम् कोयिल् कॊण्ड हेररुळाळन् ऎन्रुम्, 6) tons “उस्तिरुवरुळालस्रिक्कासॆरितु” ल ऎन्रुम् “क्रा 7) “फिस्तिरु कृवे- अवु गळन्तॆ पमसुलभने, कान्तियिन्द कूडिदवने, : मधुसूदनन दारियन्नु अनुग्रहिसु 1 el रञ्ज्योतशिस्से १. नावु उज्जीविसुव
- वाळुल् अरुत्तुच्चुडिनुम* मरुत्तुवन्पाल् माळादकादल् स्फोयाळन् फोल् . मायत्ताल् मीळात्तुयर् तरिनुम् वित्तुवक्कोट्सम्मा २ क) ई नी आळाउनद बळे पार्पनडियॆन्ने पॆरुमाळ् तिरुम्मागि (5-4) वैद्यनु शस्त्रचिकित्सॆ माडिदरू रोगियु अवनल्लि स- €तियिन्दिरुवन्तॆ, निन्न सङ्कल्पदिन्द नन्न पापगळिगॆ शिक्षॆ यन्नु कॊट्टु अदरिन्द बहळ दुःखवन्नु कॊट्टरू ऎ विद्दु वक्कॊ डिनल्लिरुव सा _मिये दासनाद ननगॆ निन्न कैङ्कर्यवु सिद्धिसलु, निन्न कृपॆ पॆयन्ने अवलम्बिसिद्देनॆ.
- शॆत्तवरन् तॆन्निलङ्गै मलङ्ग देवपिरान् तिरुमामहळ्ळॆ मौ कोयिल् कॊण्डॆ पेररंळाळन् ‘फरुमैपेश कृट्रवन्, कामर-शीर् कलियन् कण्ण हत्तुव म् मनत्तुम् pe) अहला क्कॊत्तवन्, मुत्तुलकाळिनिन्र कुरुङ्गुडिक्के ऎन्नै उयत्तिडुमिन् पॆरि तिरुम्मा9 9-5-10 दक्षिण दिक्किनल्लिरुव गूडि परम करुणॆयिन्द यन् ऎम्ब हॆस5ुळ्ळि लङ्कानगॆरवु नाकवागुवन्तॆ दुष्टरन्नैॆल्ला कॊन्दवनु, आ स्वामियु महालक्षि यॊड नन्न मनस्सिदल्लि सून्निध्यवन्नु पडॆविरुवनु, अवन हिरिमॆयन्नु हेळलु कलितिद्देनॆ कलि नन्न मनस्सिगू कण्णिगू गोचरनागि नन्नन्नु बिडदिरुववनु, मूरु लोकगळिगू स्वामि याद आवन वासस्मानवाद तिरुक्करुङ्गुडिगॆ नन्नन्नु करॆदॊय्यिरि,
- इर्रॆयो इरक्किनुम् ईङ्गोर् पॆण्पाल् ऎनवु मिरङ्गादु अरॆयो ऎन निन्रदिरुम् करुङ्गडल् ईङ्गिवळ्तन् । ‘रैयो इनिउन् तिरुवरुळान्रि क्याप्परिदाल्, . मुरैयो, तिरुविरुत्तम् ल घोषिसुत्तदॆ.आळौा अरवणैमेल् पळ्ळिकॊण्ड मुहिल्वण्ण ने॥ (62) स्वामिये नीवु कृपाशालिगळु आदरॆ ई स्त्री विषयदल्लि कृपॆयिल्लवॆन्दु रागिरुव “ स्त्रीयु तन्न गाम्भीर्य वन्नु निन्न कृ फियल्लदॆ कापाडलु साध्य विल्ल. मलगिरुव मेघ श्का मळने मेघदन्तॆ उदार स्वभावने, इरु निनगॆ सहजवे. निन्न कृपॆयन्नु समुद्रवू, आदिशेषन मेलॆ तोरिसि रक्षिसु
- पण्डैसाळाले निन् तिरुवरुळुम् पङ्गयत्ता ४९ तिरुवरुळुम् कॊण्डु. विनिकोयिल् शीय्तुप्पल् पडिकाल्, कुडिकुडिवभथिवन्दाळ् तॊण्डरोर्करुळिच्चॊ ीदिवाय*तिरन्दु उन्तामरैक्कण्णळाल् तॆण्डिर्दॆप्लूरुनल् तण्पणैशू तिरुप्पुळिङ्गुडिक्कि वात ॥ शॆय्युम् ! नोक्काय् तिरुवाय्म्कॊ? (9- डि.1) वूर्वकालदिन्दले निन्नॆ मत्तु वन्नु शुद्धमाडि, वंशपारम्पर्यवागि षङ्कजवासिनियाद लक्षि य श्रीमत् सेवॆ माडुत्तिद्देनॆ. “ताम्रपर्णि यब्बट्ट ऊ वाद तिरुपु ४िङ्गुडि बायन्नु तॆरॆदु दिव्य देशदल्लि विजय माडिसिरुव स्वामिये ई आशिर्लादमाडं, निन्न तावरैदळदन्तिरुव कण्णुगळिन्द कृपॆयन्नु पडॆदु, निन्न दिव्यालय नदियु शीतळवाद नीरिनिन्द सुत्तुव दासनिगॆ कृपॆमाडि निन्न ज्कॊ ेतिरूरि कटाक्षिसु. 1108 । त्रीमद्रहसृत्रयसारे वरुळुव3 पज्नयॆत्ताळ् तिरुवरुळुवुा्? ऎन्रुमु् 8) आनानॆस्र कुळ् शॆय्दु ऎन्रुवु् 9] “कृषॆया केनल मात्मसात्सुरु” ऎन्रुनु् षु “करीश तेषामहि तावकीदया तथा त्र” कृत्सॆ हवतु मे बलं मतम्” ऎस म्. इप्रकारज्गळिले इक्ळृस इगुणत्तै तण् माह अनुसन्धित्तु सम्बन्धक्कै यॊम् गुणान्त रण ग कारुण्य त्तु क्कु च्जॊ ल्लित्तु चैय् वाराक्किश्राब्ग ४8 ह स्त्रि हळाय् स्फोन्ला र् हळ्ः पिराट्टि युव् गुणान्र रगळरुक्क, 11)“नधार्हमनसि काकुत AE कृ हया परैपालयत् ऎन्ररुळिच्छॆ य् दाळ्.
- अआवानॆन्ररुळ्किय्दु इत्यादि (9) कृषयाकेवलवम् इत्यादि ऎन्दू (10) करीश तेषामपि इत्यादियाद प्रकारगळल्लि ई कृपागुणनन्नु तॆञ्जमाह - आश्रयनागि, अनु सन्धान माडि, सम्बन्धवन्नू गुणान्तरगळन्नू कारुण्यक्कॆ शॊल्लित्तु च्नॆय्वाराक्कि - आज्ञा कररन्मागि माडि अन्दरॆ सम्बन्धवन्नू गुणान्तरगळन्नू कारुण्य. गुण परतन्त्रगळन्नागि माडि, तान्रगळु कारुण्य कान्तिहळाय – कारुण्यवन्ने अवलम्बिसि निन्तरु. पिराट्टयंवर् इत्यादि - सीतादेनियू, इतर गुणगळू इरुवाग (11) वधार्हमपि काकुत्स्मः इत्यादि वधार्हनाद काकासुरनन्नु कृसॆयिन्दले कापाडिदनु, ऎन्दु हेळिरुत्ताळॆ.. हूं आह
- . आवारार् तुण्कॆयॆन्सु आलैनीर् कडलुळ(न्दुम् नावाय्पोल् पिरविक्कडलुळ् निन्रुसान् तुळङ्ग तेवार् कोलत्तॊडुम्- तिरुच्चक्करम् शॆङ्गिनॊडुम् आवा वॆन्ररुळ्शॆय्दु अडिये नॊडुव आवाने ॥ तिरुवाय् मॊगि (5-1-9) अलॆगळिन्द कूडिद समद्रदल्लि मुळुगुत्तिरुव हडगिनन्तॆ संसार समुद्रदल्लि यारु दिक्कु ऎन्दा मुळुगि तेलुत्तिरुव ननगॆ परिपूर्णवाद सॊबगिनिन्दलू शङ्ख चक्रगळॊडनॆयू बु तोरि भगवः तनु अय्यो ऎन्दु कृपॆ माडि नन्नॊ डन कूडुववनु. 9) स् सहस भाजनं पतितं भीम भवार्णवोदरे । अगतिं शरणागतंहरे कृपया केवल मात्मसात्कुरु ॥’ अआळॆवन्दार् सोत्त (49) अपराद सहस्तगळिगॆ नानु वासस्थान. भयङ्करवाद संसार समुद्रदल्लि बिद्दिरुवॆ. इन्थह नानु निन्नल्लि शरणागतनागिद्देन, केवल निन्न कृपॆयिन्द नन्नन्नु निन्नल्लि बरमाढिकॊण्डु निनगॆ कैङ्कर्यवन्नु माडुवन्तॆ अनुग्रहिसं. * 10) स्वकैर्मणै स्लैश्चरितैः स्ववेदसात् भजन्तियेत्वां तैयि भक्तितॊ€थवा । करीश तेनामपि तावकीदया तथात्वकृत् सैवतुमे बलम् मतम् ॥ वरदराजस्तव (94) ऎलै हस्तिगिरीशने, यारु तन्न वैराग्यादिगुणगळिन्दलू तन्न कर्मानुष्क्मानगळिन्दलू. तन्न विषयवाद ज्ञानयोगगळिन्दलू, निन्नल्लि भक्तियोगदिन्दलू निन्नन्नु भजिसुत्तारो अवरुगळिगॆ निन्न दयये तथात्वकृ त् भक्तादिगळन्नु उळ्ळवरक्नागि माडुत्तदॆ. अथवा मोक्स साम्राज्यवन्नु पडॆयुवन्तॆ माडुत्तदॆ. सैवतु मेबलं मतम्-आ कृपॆये ननगॆ पुरुषार्थसाधनवागि सम्मतवु, 11) स तं निपतितं भूमौ शरण्यः शरणागतम् । वधार्हदुपि काकुत्स्यः कृपया पर्यपालयत् ॥’ रामायण (5-38-84) पु.ति.नो 1104 चरमश्लोकाधिकारः गद्यत्तिलुम् 1) “मदीययैवन दयया” ऎन्नैयाले इक्कपैयिन् प्राधान्यम् विवक्तितम् ] ह “मा” मिति पदस्कार्थं निगमुयति. इप्पडि आश्रित रक्षणत्तुक्ळु प्रधानमायुवं् परिकरमायुम्, उळ्ळ सर्वाकार जळालुवर्, विशिष्टनान तन्नै अभिमुख स्थितियिले “मां” ऎन्रु निर्जीशित्तरुळिनान्. गद्यत्तिलुवु् - शरणागतिगद्यदल्लू (1) मदीयय्रॆवडयया - इत्यादि केवल नन्न दयॆयिन्दले प्रकृति सम्बन्धवन्नु बिट्टु नित्य कॆङ्करनागि आगुत्तीयि) ऎन्दु हेळिरुवु दरिन्द ई कृपॆय प्राधान्यवु विनक्षित.. अन्दरॆ भगनन्तन कृपॆये भगनत्प्रास्तिगॆ मुख्य कारण. इप्पडि आश्रितरक्षणत्तुक्पू इत्यादि - हीगॆ आश्रितरक्षणक्कॆ करुणॆयु प्रधानवागियू, ज्ञान शक्ति स्वामित्वादिगळू विग्रहादिगळू परिकरगळागियू इरुव तन्नन्नु अभिमुख स्थितियिले ऎंरिनल्लिद्दुकॊण्डु, मां ऎन्रु इत्यादि - “मां’ नन्नन्नु ऎन्दु कृपॆयिन्द तोरिसि कॊडुत्तानॆ. इल्लि “मां’ ऎम्बुदु लक्ष्मी विशिष्टनाद तन्नन्नु ऎन्दर्थ. प्रपत्रियु लक्ष्मी विशिष्टनल्लि माडबेकॆम्बुदु द्वयनुन्त्रदल्लि ’ कण्ठोक्त. अल्लि “श्रीमत्? शब्दद, मतुप् प्रत्ययदिन्द “नित्ययोगवु” स्पष्ट. आद्दरिन्द-आश्रितरक्षणॆगॆ प्रधानवाद करुणॆयू परिकरगळाद ज्ञ्यान शक्ति स्वामित्वादिगळू, विग्रहादिगळू इब्बरिगू साधारणगळॆम्बुदु विनक्षितॆ. ई प्रकरणदल्लि दयॆगॆ प्रधान्यतॆयन्नु हेळिरुवुदु. " श्रीनिवासानुकम्पयाग, “श्रीनिवास दयाम्भोधेः, “दीनालंऒन दिव्य दम्पति दया”, “पद्मासहाय करुणे”, पद्माकान्तं प्रणिहितवतीं?, इत्यादि दयाशतकदल्लि निरूपिसिरुवन्तॆ. दिन्यदम्पतिगळॆ दयॆयॆन्दु विनक्षित कॆलनॆडॆगळल्लि “बहुमति मनपायं विन्दसि श्रीधरण्योः, “लक्ष्मी भूमिनीळासु प्रथयति बहुमानं” ऎन्दु लक्ष्मियन्नु भूमि नीळॆगळॊडनॆ सेरिसि भगवन्तन दयॆयु, अवरु गळिन्द श्लाफिसल्पडुत्तदॆ ऎन्दु पृथकृरिसिरुवुदु, लक्ष्मिय पुरुषकारत्व रूसदिन्द अष्टे, भूमि नीळॆगळिगॆ पुरुषकारत्ववु मात्र. ’ आद्दरिन्द अवरॊडनॆ कूडिद लक्ष्म्मीयू पुरुष कारत्व वेषदिन्द भगवन्तन दयियन्न्नु श्लाभिसुत्ताळॆन्दु भान. इदरिन्द विशिष्ट तत्वद दयौयु चेतननिगॆ उपायभूतनॆम्ब सिद्धान्तवु निवर्तिसल्पडुवुदिल्ल. श्रीनिवासन दयॆय महिम नर्णनदल्लि लक्ष्मी दया महिम वर्णनवू अन्तर्गत. “ईश्वरन् शरण्यन्” इत्यादि स्थलगळल्लि सतिप्राधानृ विनक्षॆयिन्द एकवचनवन्नु हेळिद्दरू लक्ष्म्मीविशिष्टवाद तत्ववु “ईश्वर” शब्दक्कॆ निषयवॆम्बुदु अनेक “कडॆगळल्लि आचार्यरिन्द निरूपिसल्प ट्टिरुवुदु गमनार्ह. pe रा e - ANNAN ळ्ळ तॊ ई स आ रक्षकनाद श्रीरामचन्द्रनु तन्न पादगळ हत्तिर भूमियल्लि बन्दु बिद्दु शरणागतनाद काकासुर ५. क् चट ््ास्स]ग] गान् त्ति नन्नु. वधॆगॆ अर्हनागिद्दरू केवल कृपॆयिन्दले परपूलिसिदनु, 1105 श्रीमद्रहस्यत्रयसारे अथ एक शब्दं व्याचस्सॆ तॆ “मां” ऎन्सिर पडत्तिले एकवचनत्ताले एकत्तम्तोत्पानिरृ निन्नु «लक शब्दं 2) “ऎनक्टे तन्नॆ । तन्नकर्पहमु” ऎफ्लिकसडिये प्रास्यमान अवन् ताने प्रापक नानप पडियाले उपायथलैक्यक्कॆ च्हॊल्लुहरडॆन्रुम् योजिस्टर्हळ्. इदरु 1)’“वता मेक मेन शरणम्” ऎन्निर समान ह करणनाक्यमुवङ्ख् अनुगुणवम् निनकार मुण्डान्तिु । रुक्क एक शब्द व्किडना ल् अदुक्टु आवधारणम्मोय मेरे पॊरुळ् कूळ्ळुहॆ है उचितमिरे इज्जनन्रिकॆ ग « “मुख्यान्य केनलेष्टेकवर्” ऎन्निरपडियॆ€ बह्वर्थमान “ए श्रुष्त) शब्दविज्ण एकशब्दक्कॆ आरु निधवाद अर्थ. (1) उपायवू फलवू ऒन्दे “मां” ऎन्निर पदत्तिले इत्यादि - “माङ्ग ऎम्ब पददल्लि एकवचनदिन्द एकत्ववु तोट्रानिर्य . तोरुत्तिरुवाग, निन्सुवु् ऎक् शब्दम् इत्यादि - तिरुगियू “एकं” ऎम्ब शब्दवु (2) तन्न पित्रन्द कर्रहम् - तन्नन्ने तन्दुकॊट्ट कल्पवृक्षवु, ऎम्बन्तॆ प्राह्यनाद ताने प्रापकनान हडियाले - मोक्षदल्लि हॊन्दल्पडु, तॆ ताने तन्नन्नु मोक्षक्कॆ ककिजॊयु ब उपाय फल्रॆ क्र त्रॆ इत्यादि — उपायवू मोक्षक्कॆ उपायवू, मोक्षवॆम्ब व्य ताने (भगनन्तने) ऎन्दु स्य दॆ, ऎन्दू योजिसु त्तारॆ. ई योजनॆगॆ समान प्रकरणगळल्लि हेळिरुव प्रमाण वाक्यगळन्नु इदुक्ळु (1) “मामेक नेव शरणं? ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि ई ह फलवू अनने ऎम्ब योजनॆगॆ, नन्मॊब्बनन्ने उपायवन्ना गियू, फलनन्नागियू पडॆ, ऎम्ब समान प्रकरण वाक्यवू अनुगुणवादद्दु. एवकार मुण्डायिरक्क इत्यादि “मामेक मेव? ऎम्बल्लि ऎनकारवु इरुवाग नन्नन्ने ऎम्ब अनधारणार्थवु तुत्त. आग “ऎक” श्वबक्कॆ बेकॆ अर्थवन्नु अन्दरॆ प्राप्यप्रापकगळॆरडू अवने ऎम्ब अर्थवन्नु स्विकरिसुवुदु उचितवल्लवे. (11) जीन प्राधान्य निवारणॆ - एकशब्दार्थ. । इङ्गनस्रिक्के इत्यादि -. हीगल्लदॆ, न केवलेष्टेकम्” ऎम्बन्तॆ - ऎकशब्दवु.
- शरीरपातसवूये केवलम्मदीय यैव दयया अतिप्रबुद्दः. .. प्रकृतिं स्थूल सूक्ष्मरूपांविस्कज्ज,..,.. नित्यकिङ्करो भविष्य? सि (शरणागति गद्य) प्र पन्न न शरीरवु बिट्टुहॆ नीगुव समयदल्लि भगमतनु ग तन्न दयॆ यिन्दले जीवनु तन्नन्नु ननॆसिकॊळ्ळुवन्तॆ प्रबुद्धनन्नागि माडि (अन्तिम स्मृृतियन्नुण्टु माडि) ऒडने ई प्रकृति सम्बन्धवन्नु बिडिसि मोक्टक्कॆ करॆदॊय्दु तन्न, अनुभव परीवाहॆवाद नित्य कैङ्कर्यवन्नु दयपालिसुत्तानॆ. 2) पर्बनाबन् उयर्वर वुयरुम् पॆरुन्तिरलोन् ऎर्सरन् ऎन्नॆ ैयाक्किक्कॊण्डु ऎनक्के तन्नॆ त्तन्द, ब ag क्र हम्, ह ताव कात्मुहिल् पाडि वेङ्गड नल् वॆर्चन्, विशुम्बोर् परान् ऎन्दै तामोदरने ॥ तिरुवाय् मॊगि (2-7-1) 1) मामेक मेव शरणं आता नं रे । याहि सर्वात्म भावेन यास्कसिह्मकुतो भयम् श्री भागवत(11-12-14) सर्वप्राणिगळिगू अन्तॆरात्मनाद नन्नन्ने ‘सर्वात भावेन - जट फलवू इवने ऎम्ब भावनॆयिन्द शरणहॊन्दु, आनन्तर संसारादि भयगळु यावुवू इरुवुदिल्ल. चरमश्लोकाधिकारः न 11106 केवल पॆर्यायॆमांय्, 2 “मामेव ये प्रपद्यन्ते? 3] “तमेव शरणं गच्छ इत्यादिहळिर्पडिये, अवधारणार्थमाय्य, शरण्यगुण पौष्टल्यत्ताले स्व स्वा तन्त्रा” ्र्र दिहळ्ळॆ निवर्ति प्रिक्सिरदॆनु शॊल्लुनर” हळ. ऎज्लने ऎन्निल् ? स्वरक्षैक्कु उपयुक्त ज्गळान नशीकरणज्जळ्ळै शास्त्रनियुक्तनान तान” असुस्मिकॆ य हाले रक्षॆ 4यिले तनक्कुम’ कर त्रम् तोत्ति सिद्धो साय “भूत नान शरण्यसोडॊक्ळ तन्नैयुम् उपायॆमाह विज प्रुह प्रसक्त मान उपायद्दि त्वत्तै कृ।5’क्बिरदु एकशब्दम्. अदु क्यगिन्नपडि यन्न नि ल् “फरा २ शास्ट्रार्थवत्कात्?, ऎस्सिर पडिये जीवनुक्कु कस्तृत्व म् प्रा मव टॆकटिसबटलुव् इदु हपराधीननुमाय् मुख्य, बेरॆ, केवल- ऎन्दु. अनेकार्थगळिन्द : कूडि, इल्लि केनलनॆम्ब अर्थदल्लि (2) मा मेवयेप्रपद्यन्ते - नन्नन्ने यारु शरण हॊन्दुत्तारॆयो, (3) तमेव शरणङ्गॆच्छ– अवनन्ने शरणहॊन्दु, इत्यादिगळल्लि हेळिरुवन्तॆ, अवधारणार्थमाम् -. अवनन्ने ऎन्दु ऒत्ति हेळुवुदागि, शरण्यन गुणपौष्टल्यदिन्द स्वस स्वातन्त्प्रादिगळन्न्नि ; निवर्तिप्पिक्टिरदॆन्रुम्- होगलाडिसुत्तदॆयॆन्दू, हेळुत्तारॆ. ऎङ्गनेयिन्निल् - हेगॆङ्गक्कॆ स्वरक्रैकरुु इत्यादि - तन्न रक्षणक्कॆ उपयुक्तगळाद वशीकरणङ्गळ्ळॆ - भक्तिप्रपत्ति मॊदलादवन्नु, शास्त्रदिन्द विधिसल्पट्टु तानु अनुषस्मिसुवुद रिन्द रकणदल्लि तनगू कत र्सैत्ववु तोरि, सिद्धोपायभूतनाद शरण्यनिगॆ समानवागि तन्नन्नू उपायवागि ऎण्णप्पुह - गणिसलु, हीगॆ प्रसक्तवाद उपायिद्वित्वनन्नु, (तानू भगवन्तनू इब्बरू उपायवॆम्बुदन्नु ), एकशब्दवु होगलाडिसुत्तदॆ. अदुकन्दपडि फ् त आ उपायद्वित्ववु कळॆदुहोददु हेगॆन्दक्कॆ “कर्ताशास्त्रार्थवत्वात्3 ब्रह्मसूत्र (2-3-833) जीननुकर्ता, शास्त्रगळु हीगॆ माडु, हीगि माडबेडॆ ऎन्दु जीवनन्नु कुरितु हेळुवुदरिन्द जीवनिगॆ कृ ९त्ववन्नु हेळिदरेने निधि निषेध शास्त्रगळिगॆ प्रयोजन त्रवु एर्पडुत्तदॆ. - ऎम्बन्तॆ जीवनगॆ कर्तृत्ववु प्रामाणिकने आज, इदु पराधीन वागि अन्दरॆ “गरात्तुतच्छु ते? ऎन्दु भगवदधीनवागिरुत्तदॆयाद्दरिन्द जीवनु स्व तठत्र
- दैवीह्येषागुणवमुयी मममाया दुरत्कया । रुव वामेव ये प्रप द्यन्ते षि यव तरन्ति ‘मॊ गुणगळन्द कूडिद क सृति (माय ना निन्द) निर्मितवु, जीवनु त दन्नु ताने Fup नः न्निन्नु यारु शरण bg अवरु- ई प्रकृति सम्बन्धदिन्द बिडुगडॆ हॊन्दुत्तारॆ,
- तॆमेव शरणङ्गच्छ सर्वभूावेन भारत ।
इश्वतम् ॥ गीतॆ (18-62) सा, प नापकनु ऎम्ब भावनॆयिन्द आ भगवन्तनन्ने इवनॆ क सर्व [AD WN शि Wd शरण हॊन्दु अवन आनुग्रहदिन्द सर्वकर्मगळिन्दलू बिडल्पडुत्तीया. शाश्वतवाद परमपदवन्नु हॊन्दुत्तीया,
1107 । श्री मद्रहस्यत्रयसारे
ल ) निषयॆमुम्माय् प्रतिहतियोग्यमुमाय् इरुक्बुम्.
आहॆयाल् इवन्नान् उपायानुष्कानं पण्णित्तु म् 1) “नरद तवखलु प्रसादा दते शरणविन्ति वजोपि मे नोदियात्? ऎन्रु शॊल्लुहिरपडिये अवन् कटाक्ष मडियाह वरुहै याले अवनाले प्रेरितना ह अनन् सहकरियादपोदु नीट मुडुक्क माट्टा “डे अवन् कॊडुत्त इ कळेबरज्गळ्ळॆकॊ िण्डु, अवन् काट्टिन उपा यत्सै आव तुणै शॆय्श अनुस्कितु, अवन् कॊडुकृपु ल्लॆ फलतु क्सु चातकन्नॊ ले यण्णास्जिरुक्कि र निवन्य स्वाधीन सर्वनिषयाप्रतिहत कर्तृ त्वमुडैयननोडे ‘तुल्य माह इरण्णाम्, सड्फोपायमाह वेण्णुद्र निनेकियान मुमुश्सुवुक्कु उचित मन्रॆन्रु एळ? शब्दत्ताले शॊल्लित्तायित्तु. ।
साध्योषाय व्यवच्छेद परत्वमपि एक शब्द तात्रर्यम्
इक्कट्टिळ्ळियिले साथ्योपायनमान प्रपत्तिय्छॆयम्म् सिद्धोषायत्तॊ ीडॊरु
कर्ताव्ल मेलू इवन कर्त्यत्वॆवु अल्पनिषयमुमाय् — एकदेशवागियू, प्रतिहति योग्यमुमाय् -. प्रतिबन्धकळिगन्द तडॆयल्प डुत्तदॆ.
आहैयाल् इत्यादि इवनु भक्ति, स्रसत्तिरूस उपायानुष्कानगळन्नु माडुवुदू (1) वरदतवखलु प्रसादादृते इत्यादि हेळिरुवन्तॆ भगवन्तन कटाक्षने कारणनागि एर्पडु वुदरिन्द, अवनिन्द प्रेकेपिसल्पट्टिननागि अवनु सहकरिसदॆ इद्दरॆ कैकालुगळन्नु चाचलू,
मडिसिकॊळ्ळलू आगदॆ, अवनु कॊट्टि करणकळेबरङ्गळ्ळॆ क्कॊ ०डु - इन्द्रियगळन्नू शरीरनन्नू धरिसि अननु. तोरिसिकॊट्टि भक्ति हक रूस i हु अवनु जतॆयल्लिद्द सहकरिसलु, अनुष्ठिसि अननु कॊडलु उपक्रनिसुन फलक्कॆ चातकसक्षि मेघवन्नु तलॆयॆत्ति नोडिकॊण्डि. फुनन्तॆ अण्णू ्लिन्दिरुक्ळिर - भगवश्पासियु 14.1 जसु- दॆयिन्दु, : मेलॆ नोडुत्तिरुव । ‘इवनै — न पळ? हं स्वाधीन ‘सर्ननिनयगळळ्क तडॆयिल्लद कर्तृत्वनन्नुळ्ळ भगवन्तनॊडनॆ “समानवागि, ऎरडने सिद्धॊ े(पायवागि नॆनॆसुवुदु विनेकियाद मुमुसुसिग उचितवल्लवॆम्बुदु एिकॆ?शब्ददिन्द हेळिदन्ता यितु. ई रीतियाद भगनत्सारतन्त्र वन्नु तिळिदवनिगॆ, अवधार ‘हार्थनाद, “एक”शब्दवु स्वस्वातन्त्रा दिगळन्नु निर्वहिसुत्तदॆ ऎन्दु तात्सर्य.
(iii) प्रपत्तिरूपसाध्योपायवु, सिद्धोपायनाद भगवन्तनिगॆ समान वाद उपायवॆन्दु तिळियबारदु.
इक्क्ट्टिळ्ळियिले - इत्यादि ई रीतियल्लि साध्योपायवाद प्रसत्तियन्नू सिद्दो ’ रा वादन नानि 1) इयमिह मतिरस्मदुज्जीवनी वरदतवखलु प्रसादादृते
शरणमिति वचो पिमे नॊदियात्त मसिमयि ततः प्रसादोन्मुखः ॥ वरदराजस्तव (98) : हेवरद प्रभो नम्म उज्जि वसक्का गि एर्पडुव नीने शरणु ऎम्ब. ई बुद्दि स निन्न अनुग्रहदिद अल्लदे बेरिन्दल्ल. निन्नॆ अनुग्र हविल्लद ई वाक्कू उण्टागलारदु. आद्द रिन्द नीनु न्नल्लि अनुग्रह परनागिदि या. इ
चरमश्कॊ काधिकारः 1108
कोर्नैयाह नॆण्णानॆ नै्फक्ळाह आवक 3b _वॆरिस्रुवर् शॊल्लुवर्हर्ळ. अदु ऎज्जने ऎन्नि ल् ? इप्रपत्ति युवर् भक्ति योगं पोले न्रसादनमाह विधिकृपट्टिजीयाहिलुवा् सहज कारुण्यादि निशिष्टनान सर्वेश्वरनुडैय कालुस्य शमन मात्रार्थमाय् साक्षा तृलत्तुक्ळु सहज सामर्थ्यकारुण्य विशिष्ठ नान अवन्निनैवे कारणमावा् सडियांय् म अत्यन्ताकिञ्चननान प्र पन्न नुक्बु भरस्ती (कारत्ताले भक्ति योगादिहळान गुरु
तरोपायॆज्ञ ळिन्नॆ रे निन्रु इन्नानुकूल्य सङ्कल्पादियुक्त प्रसत्ति मात्र व्याज सापेक्ष नाय्, नेकॊन्रा ल् अस्त )यिल्लानॆ याल् नैरपेश्रोषायत्त मे ‘इन्यासनिद्य क्कु नेद्या कारमाहक्क्साण्डु 1) “त्रैमेवोपाय भूतोमे भन” ऎन्रु अपेक्षणीय नायिरुक्स 2) “ऎनु ि णद्विसुळ्ळि यिरुत्ति, ने नदुवु मवननदु इन्न रुळे? ऎन्रुम्
(3) “इशैवित्तॆ न्न 4यॆन्न्राळिणैक्सि ब मम्माने” ऎन्रुम् शॊल्लुहिरपडिये .
पायनाद भगवन्तनॊडनॆ ऒळुकोर् वैयाह - समानवागि, लॆख्बिसडॆ इरुवुदक्कागि, “एक” शब्दवॆन्दू हेळुत्तारॆ. अजिङ्गने यॆन्निल् इत्यादि - अदु. हेगॆ ऎन्दरॆ ई प्रपत्तियू भक्तियोगद हागॆ भगवन्तन प्रसन्नतॆयन्नुण्टु माडुवुदागि विधिसल्पट्टिद्दरू सहजकारु ण्युदि विशिष्टनाद सर्वेश्वरन कालुष्यवन्नु शमन माडुवुदु मात्रार्थवागि साक्षात्सलक्कॆ सहज सामथ्य कारुण्य विशिष्ठ नाद भगवन्त सङ्कल्पवे कारणवागिरुत्तदॆ. आ रीतियल्लि अनने अत्यन्ता कॆञ्चननाद प्रसन्न न भरस्टि (कारदिन्द, भक्तियोगादिगळाद गुरुतरोपायगळ स्थानदल्लि निन्तु, “ई आनुकूल्य सङ्कल्पादि युक्त पुसि मात्रॆ व्याजसासेक्षनागि बेरॆ यावुदन्नू अपेक्षि सुवुद्दि. आदरिन्द निरसेश्षोपायत्व वे ई न्यासविद्यॆगॆ वेद्याकार. (1) “त । नमेवोपाय कारिटवॆनछन् -. नीये उपायवनागिरु ऎम्ब प्रार्थनापूर्वक भरन्यासवन्नु मात्र आफेक्रिसुत्तानागि, (2) ऎन्नु उर् एिनुळ्ळीी इरुत्तिनेन् इत्यादि (3) इशैनित्तॆ न्नैेउन्
डि जा! 2) उणर्विलम्ब तत अवनदरुळाल् उरल् पॊरुट्टु ऎन्
उणर् ओनुळ्ळे इर त ;ि [त
अदुवुम् अवनदु इन्नरुळे, । उणर्वुम् उयिरुम् उडम्बुम् मट्टु ्रिलप्पिनवुम् प्यन्देयाम् उणर्वॆ ,प्रॆर ऊर्न्हिरवेरि यानुम् तानाय्यॊगिन्नाने ॥ तिरुवाय्म्मा98(8-8-3) नित्कसू२.सळिगू मेलाद भगवन्तनन्नु ननगॆ उषायवॆम्ब ज्ञानक्कॆ विषयवन्नागि माडिदॆनु. अदक्कॆ कारण
असन भोग्यवाद कृपॆये. कृपाकार्यवॆन्दर्थ, 3) इशैवित्तॆन्न्य उन्ताळणैक्की्ञ इरुत्तुमम्माने अशैविलमरर् तलैवर् त लैवा आदिप्टॆरुमूर्वि तिशैविल् वीशुम् श्रॊमामणिहळ् शेरुम् तिरुक्कुडन्दै आशै विलुलहव५् परवक्किडन्दाय् काणवाराये ॥ तिरुवाय् म्मॊ9(6-8-9) इतर विषयगळल्लि मनस्सु होगदन्तॆ ई आत्मा निनगे दासनु ऎन्दु नन्नन्नु ऒप्पिसि, निन्न पाद परिसर दल्लि इट्टुकॊळ्ळुव स्वामिये नित्यसूरिगळगू निर्वाहकन श्लाघ्यराद कॆ
शिरुम्म3शै “याळ्कार् प्रभ तिगळु वासमाडुव आदि मूर्तिये दिक्कु गळल्लि ल्लाज्ञा नवन्नु हरडुव तिरुक्कुडन्दै-कम्भ घोणदल्लि, लोकद. जनरॆला स्तोत्र व् माडुवन्तॆ मलगिरुव स्तावि निंयो नन्न कण्णिगॆ डॆ काणिसिको,
a
1109 श्र्रीमद्रहस्यत्रॆयसारे
उपायभूतनान अवन्कॆय्निकृच्छॆय्हिर व्याजमात्रत्तॆ यवनोडॊक्क “उपाय माह ऎण्णूहै उचितमुन्रॆन्रु “निक” शब्दत्तुक्कु तात्सर्यम्.
प्रपत्ति निषयक अतिवादस्य खण्डनम् इप्पडि सिद्धॊ पायत्रॆ स्पत्त साध्योषपायवत् व्याजमात्रमाय् प्रधानम सी निर्किर निल्बॆयौ पुत्त, (1) सम्बन्धज्ञाननात्रम् ( (:)सिद्धोषाय प्रतिपत्तिनरा त्र Pp अनिवारणमात्रम् (4) अनुमति मात्रम् (5) अचिद्दा नृप 3मा तात्रवर् (8) चैतन्य कृत्यम् (7) चित्त समाधानम (8; अधिकारि निकेसणम् ऎस्रिप्पु डैहळिले अतिवादम् पण्णिनार्हळ्. इव्वन्य परोक्तियैक्क्ळॊण्डु इनैताने प मॆन्ररुदियिड वॊण्णा दु. इन्सयॆल्लाम् “शरटंव्रज” ऎन्निर विधिक्टु विरुद्ध ज्ञळावं अतिस्रसज्गादि दोषज, ळुं उण्डु- ।
अदॆज्ञने ऎन्निल् - सम्बन्धज्ञानमात्रनॆन्रा उम्, सिद्धोसाय
ताळिणैक्क ल) इत्यादि हेळुवन्तॆ उपायभूतनाद अवनु माडिसलु, तानु माडुव व्याज मातॆ नन्नु अवनिगॆ समानवाद उपायवागि गणिसुवुदु उचितवल्लवॆन्दु “एक”शब्दक्कॆ ताश्क र्य.
प्रसत्तियन्नु कुरितु कॆलवरु माडुव अतिवादगळ खण्डनॆ.
इपृडि इत्यादि-हीगॆ सिद्धोपायवनन्नु कुरतु साधॊ ;“पायवु व्याजमात्रवागि, इदु - प्रधानवल्लदे इरुव स्थितियन्नु नोडि, साध्योपायवु सम्बन्ध ज्ञा न मात्रम्- शास्त्रदिन्द विधिसल्पडदॆ केवल शेषत्व रूस सम्बन्ध जा .नमात्र, सिद्धॊ (पाय प्र तिसत्ति वत व् भगवन्तने सिद्ध वाद. उपायवॆम्ब ज्ञा नमात्म, ऎनन ण ‘हात्र व् _रक्षणार्थस्वन्यापार रूपवाद जः माडि भगवन्तनन्नु रक्षिसलु अवकाश कॊडदॆ. तॆडॆयुवुदु निवारण शब्दार्थ, हागॆ तडॆयदे इरुवुदु अनिवारण अन्दरॆ स स्वस्प्र नृत्ति निन्सृत्रिये प्रपत्ति ऎन्दर्थ.
अनुमतिमात्रवर्, - भगवन्तनु ताने रक्षिसलु बन्दाग ओडिहोगदॆ तन्न अनुमतियन्नु कॊडुवुदु मात्रॆ. अचिद्वा 3नृति श्रिमात्रम्- चेतनक्किन्त बेरॆ ऎन्दु तिळिसुवन्तॆ रक्सासेक्षॆयन्नु माडुवुदु मात्र. चैतन्यकैतैव्- कृपाजनकवाद कृसणवृत्ति, आदागि आञ्जलिबन्ध , दन्त प्रदर्शनादिगळु; स् Me (उ निर्भरत्व, अधिकारि निशेषणम् - आकिञ्चना ्यनन्यगतित्व, ऎन्दु ई रीतियाद अतिवादवन्नु कॆलवरु माडिदरु. इव्वन्य परोक्ति य्ळि क्कॊ डु इत्यादि.
स्टॊ ज्ज ेननेच्छा यदिते स स्व सत्तायांस्त स्स शा । आत गान हठेस्सा वम्यं य सदास्मर! इत्यादिगळल्लि सम्बन्ध जा ्लिनमात्रनु उज्जि सदु तोरुवन्तॆ” EE आन मातन्नु अङ्गीकरिसि. इवुगळे « म निश्च यिसलारदु.
इनॆयॆल्लाम्-इत्यादि- इवुगळॆल्ला “शरणं व्रज” ऎम्ब विधिगॆ निरुण्धगळु अति तिप्रसाङ्गदि- अधिक प्रसङ्गवॆम्ब दोषगळु बरुत्तवॆ. अजिङ्गने ऎन्निल्-अडु हेगॆन्दरॆ, सम्बन्ध ज्ञानम्चरमश्लोकाधिकारः 1110
प्रतिपत्तिमात्रमॆन्रालुम्, अदु वाक्यमात्र जन्यमाहिल् विधिनिसय माहमाटा दु दं, अनिधेयज्ञा नत्ताले मोक्षमॆन्बारु उपासनादि निधिनिरोधव् भाष्यादि सिद्धम्. तत्वज्ञान मुडैयवनक्कु पिन्पु कर्रन्यमान ज्ञानान्तरमाहिल्. प्रपत्ति इ द यिनुडैय विधि लक्षणानुष्ठान. वाक्यज्ञळ् शॊल्लुहिर सडिये, इदिन् स्वरूपनु” अजं «करिक्कवेणुन्. १
-सिद्धोषाय स्वीकारमॆन्र साशुरत्तुक्ळुम् सिद्धोषायुत्तॆ अरिन्न्हु अदुतनक्कु बु कार्यकरमानुडि पण्णुहिर विधिप्राप्तॆ, प्रार्थनापूर्वक भरन्यास रूपाधिकारि कृत त्रिलेयिरे तात्पर्यम्. जि
अनिवारण मात्रमॆन्रदु निलक्काद मात्रमानुल्, रक्षकनान ईश्वरनै इवन् मुन्नु प्रबलनाय् िलक्सिनानाहिल्, ईश्वरनुडैय ईश्वरत्तनर् सङ्कुचितमाम्.
अपराधत्ताले निग्रहत्तॆयुण्डाक्कि विलक्किनानाहिल् इनन् पॆण्णुहिर प्रपत्ति
इत्यादि - सम्बन्ध ज्ञानमात्रने प्रसत्ति ऎन्दर, सम्बन्धज्ञ्वानवु “शेषोहिसरमात्मनः” ऎन्द भगवन्तनिगॆ शेषभूतनॆम्ब शास्त्रैजन्यवाद ज्ञान मात्रवागि शब्दश्रवणदिन्दले उम्बागि, विधिगॆ विषयवागुवुदिल्ल. हागॆये सिद्धोषाय प्रतिपत्ति इत्यादि - भगवन्तने सिद्धनाद उपाय वॆन्दु तिळिदु अदरल्लि नम्बिकॆयिन्दिरावुदु ऎम्बुदू वाक्यमात्र जन्यमाहिल् - शास्त्र जन्य ज्ञानवागि केवल श्रवणदिन्दले उण्टागुत्तदॆ. इदू हीगॆ माडु, हीगॆ माडबेड ऎम्ब शास्त्रविधिगॆ विषयवागुवुदिल्ल. अनिधेय ज्ञा नत्ताले इत्यादि - विधि विषयवागद ज्ञान दिंले मोक्षवॆन्दु. हेळुववरिगॆ उपासनादि विधिगळिगॆ विरोधवु एर्पडुत्तदॆ” ऎम्बुदु भाष्यादि सिद्ध. अद्वैतिगळु “तत्वनुसि, आहम्ब्रह्मास्मि” इत्यादि शास्त्रजन्य ज्ञानदिन्दले अज्ञान निनृत्तिरूप मोक्षवु सिद्ध ऎन्दू हेळुवन्तॆ इदू सह अनविधेय ज्ञानवागि भाष्यादि विरुद्धवागुत्तदॆ. तत्वज्ञान मुडैयवनुक्कु इत्यादि - सम्बन्ध ज्ञानरूस तत्वज्ञान वुळ्ळवनिगॆ अनन्तर कर्तव्यवाद ज्ञ्मानान्तरवादरि प्रपत्तिय विधि अदर . लक्षण, अदर अनु ष्ठासवन्नु तिळिसुव वाक्यगळु हेळुवन्तॆ, ई प्रपत्तिय स्वरूसनन्नु अङ्गीकरिसबेकु. सिद्धोपाय प्रुतिस्ति ऎम्ब मातिगॆ पर्यायवाद, सिद्धोपाय स्वीकार - अन्दकॆ सिद्धो पायनाद भगिवन्तनु नम्मन्नु अङ्गीकरिसुवुदु स्रसत्ति ऎम्ब वाक्यक्कू सिद्धॊपायनन्नु तिळिदु अदु तनगॆ शार्यकरवागुवन्तॆ, माडुव विधिप्रास्तवाद प्रार्थनापूर्नक भरन्यास रूपवाद आदधिकारिकृत्यदल्लिये तात्पर्य. अनिवारणमात्रमॆन्रदु इत्यादि - इदन्नु मूरु विधवागि विकल्पिसि खण्डिसुत्तारॆ. अदागि अनिनारण मात्रनॆम्बुदु (1) निलक्काद मात्र मानाल् - भगवन्तनु रक्षणोन्मुखनागिरुवाग तानु तडॆयदे इरुवुदॆन्दक्कॆ रक्षकनाद ईश्वरनन्नु इवनु. पूर्वदल्लि प्रबलनागि तगॆदिद्दरॆ, ईश्वरन ईश्वरत्त्वक्कॆ सङ्कोचवु ऎएर्सडु त्तदॆ. (9) असराधत्ताले इत्यादि - असराधगळन्नु माडि, भगनन्तनिगॆ’ निग्रह… कोप, वन्नुण्टू माडि तडॆदरॆ इवनु. माडुव प्रुसत्तियु प्रसादन - प्रसन्नतॆयन्ने उण्ट्
1111 श्रीनुग्रहस त्र यॆसारे
प्रसादनमे याहनेणुम्. स्वरक्षणा र्थ न्याषारत्ता ले विलक्किनानॆस्रिल् निर्वा पसारमान सुषुप्ति प्रळॆयाद्यवस्थॆ ैहळिलुन् व्यापिरिक्क योग ्यमांयिरुक्ळिर, जाग्र दनस्थॆ $ ल् निलकादी इरकु पोदु. ईश्वर मोक्ष प्रदानं “पण न ठि प्रसजू क्कु जा
(4) अनुमति मात्र म ल्, अदु उफासननुक्कुं’ तुल्य स (5) अचिद्वा वृत्ति मात्रम्, प्रतिकूल दक्रॆ यिलुवं् उण्डाहैयाले इन्नळने रक्षणीयतॆ पक उरुस्टा हादु. (6) चैतन्य “क त्य मॆन्राल्, उपासनादिहळुव् मत्तुमुळ्ळ चेतन वृत्ति हळु मॆल्लाम् चि तन्य कृत्यमाहै याले इदुक्कॊरु वाशि शॊल्लित्ताहादु. चेतन नुक्सु ताने वरॊमबॆननि, निव्, उपदेशादिहळ् नेण्हाद्यॊगियुम्. (7) फला नुपयुक्त, चित्त समाधानमात्रमॆन्सिल्, तन्नाम्रुच्छनुरॊसमाह प्रतिपुरुषम्
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माडबेकु. (8) स्वरक्षणार्थ स्वव्यापारत्ताले इत्यादि - तन्नॆ रक्षणॆगॆ तानु माडुव व्यापारदिन्द, तडॆदवनादरॆ, व्यापारशून्यवाद - सुषुप्ति . गाढनिद्रॆ, स्पळयाद्यवस्थॆ गळल्लियू, व्यासरिसलु योग्यवाद जाग्रद्धशॆयॆल्लियू, तडॆयदे इरुव समयदल्लि, ईश्वरनु नोक्षप्रदानवन्नु माडुव प्रसङ्गवु एर्पडुत्तदॆ. हागॆ रक्षिसुवुदन्नु नोडिल्लवाद्दरिन्द ई वादवू सरियल्लवॆन्दु शात्पर्य.
अनन्तर अनुमति सक्षनन्नु दूषिसुत्तारॆ. अदागि अनुमति मात्र मॆन्राल् इत्यादि… भगनन्तनु रक्षिसलु बरुवाग नावु अनुमतिसुवुदु मात्र उपायवॆन्दरॆ इदु उपासक निगू सम…” इउपास सकनन्नू भगवन्तनु रक्षिसलु बरुवाग अननु अनुमतिसिदरॆ साकु. उप्पास्प नारम्भ कालदल्लिये अनुमतियु. सिद्धवागिरुवुदरिन्द उपासनॆ माडबेकाद प्रसङ्गवे इल्लदॆ उपासन विधायक शास्त्रगळॆल्ला व्यर्थ. उपासनानुष्कानवू व्यर्थवागि एर्पडुत्तदॆ. अचिद्व्या वृत्ति मात्रवम् इत्यादि - जीवनु आजेतनक्किन्त बेरॆयादननु ऎम्बुदु. मात्र रक्षणॆगॆ ता भगवन्तनिगॆ प्रतिकूलनागि अन्दरॆ विरोधियागिरुव दशॆयल्लू अचिद्वा सिनृत्ति यु ऎएर्सट्टिरुवुदरिन्द,’ इष्टे रक्षणॆगॆ कारणवागलारदु. प्रतिकूलरन्नू रक्षिसबेकाद” प्रसङ्गवु बरुत्तदॆ. ।
चैतन्यकृत्यवॆन्राल् - जेतॆननु. माडुव व्यापारवे प्रसत्तियिन्दक्कॆ उपासनादि गळू, इन्नू इतर चेतननृत्तिगळॆल्ला जेतनकृत्यवाद्दरिन्द, उपासनक्कू इतर व्यापार गळिगू व्यत्यासविल्लदॆ, ऎल्ला समान फलवन्नु कॊडुवन्तॆ आगुत्तदॆ. इदु लोक विरुद्ध अथवा चेतननङ्क्कु ताने वरुमदॆन्रु इत्यादि चीतनन साभाविक निमेषोन्मेषादि - कण्णु . तॆरॆयुवुदु, मुच्चुवुदु. मॊदलाद व्यापारदन्तॆ भगनदनुग्रहॆवू ताने बरुवु बॆन्दरॆ, उपदेशादिगळु बेडनॆन्दु एर्पडुत्तदॆ. फलानुपॆयुक्त चित्त समाधानम् इत्यादि - फलक्कॆ उपयुक्तवाद चित्त समाधान - मनस्सन्नु इतर ‘निषॆयगळल्लि होग दन्तॆ अडगिसिकॊळ्ळुवुदु, स्रसत्ति,यल्लि सर्यवसन्न वागुत्तदॆ. फलक्कॆ उसयोगनल्लद चित्त समा धानवु मात्र सब चन्त ई चित्त समाधानवु तन्म तम्म रुच्यनुसार, प्रति पुरुषनिगू बेरॆ बेरॆयागिरुत्तदॆ. इदरिन्द अनुगतवाद प्रसत्तियु सिद्धिसुवुदिल्ल.
चरमश्लोकाधिकारः 1112 नेरुपडुम् (8) “व्रज” ऎन्नु विधेयमाय् फल तत्यामनादिहळस्रिक्टे इरुक्सिर वित्त, अधिकारनिशेषणनॆन प स न त्क अधिका षणनॆुन्न वॊण्णा दु, कर्रन्यमाह विधिक्किर प्रपत्ति तनक्के इप्पडि एदेनु मॊरुकण्ण वु सण्णल् उपासनादिहळ्ळॆयुम् इस्पडि कण्ण/0क्कलाम्. अप्लोदं इव्नाखजळाले उपासनादिहळिल् काट्रिल् प्रपत्तिक्कुव्यावृत्ति शॊल्ल निन्गॆत्तदु तलॆ [व छा कृट्टादु स्वविषय स्वीकार विशिष्टमाय् क्कॊण्णु फलप्रद माहासिरच्तॆय्दे इस्सिद्धोसायवु् स्लीकारत्तालुवर निरपेक्समॆन्रु बुद्धि पण नेणुमॆन्रिल्, इदु वृष्टिनिधफोले आरोफितमादल् स्ववचननिरुद्ध मादलाम्, अथ एकशब्दस्य सिद्धान्तार्थनमाह __ अक्सयाल् ईश्वरन् प्रसादनीयनाय् प्रधानमान सिद्धोसायम्. भक्ति ह मज ट् me “व्रज? ऎनु निधेयनताय* इत्यादि - व्रज - आश्रयिसु, ऎन्दु प्रपत्तियु निधि प्रयुक्तवागि तोरुत्तदॆ. प्रपश्रियु फल आदर आसॆ मॊदलादवु इल्लदॆ फलतत्कामनादि भिन्नवाद्दॆ रिन्दलू, इदन्नु अधिकारि निशेषणवॆङ्गु हेळलागुवुदिल्ल. यामुनाचार्यरु,
फलादिभ्यो विभक्तत्वात्, प्रुपत्तिर्निद्द नन्वयात् । विधेयान्तॆर हानेश्चनाधिकारि विशेषणम् । ; ऎन्दु अनुग्रहिसिरुवुदु इल्लि अनुसम्भेय - अदागि फलतत्कामनादि भिन्नवु स्रसत्ति. अधिकारि विशेषणवॆन्दरॆ प्रसत्तियु विधिसलागदु. विधेयांशरवू आगुवुदिल्ल. आद्दरिन्द अधिकारि विशेषण वागलारदु ऎन्दर्थ. क
मेलॆ हेळिद पक्षगळिगॆल्ला साधारणवाद दूषणनन्नु कर्तव्यमाह विधिक्किर ऎन्दा ’ रम्भिसि तिळिसुत्तारॆ. आदागि कर्तन्यवागि विधिसल्पडुव प्रत्तिगेनॆ हीगॆ यावुदादरॊन्दु
कण्ण/गवु - कण्मगॆयन्नु माडिदरॆ, उपासनादिगळन्नू हीगॆ कण्मरॆ माडबहुदु. आदरेनु बाधकवॆन्दरॆ, अप्पोदु इत्यादि आग ई रीतियल्लि उपासनादिगळिगिन्त प्रपत्तिगॆ व्यावृत्ति - बेरॆयिम्बुदन्नु हेळलु नॆनॆसिरुदु सिद्धिसुवुदिल्ल. “शरणं व्रज” ऎन्दु स्वविषय स्वीकार वन्नु विधिसुत्तदॆयॆन्दू, सिद्धोपायवु स्वविषय स्वीकारदिन्दलू निरपेक्षनॆन्दु बुद्धि माड बेकॆम्बुदु, एकशब्ददिन्द द्योतितवॆन्दू हे-ुव पूर९पक्षवन्नु स्वनिषय स्वीकार विशिष्ट माय् कॊण्डु ऎन्दारम्भिसि खण्डिसुत्तारॆ. आदागि तॆन्नन्नु स्तीकरिसुनननागि फलप्रधान माडलु निन्तिद्दरू, ई सिद्धोपायवु “शरणं व्रज” ऎम्ब स्वीकारदिन्दलू निरसेक्षनॆन्दु तिळियबेकॆन्दु हेळिदक्कॆ इदु. दृष्टिविधिय हागॆ आरोनितवागियागलि, स्वनचन विरोधवागि यागलि आगुत्तॆदॆ. अन्दक्कॆ वस्तुतः स्वविषय स्वीकार सासेक्षनाद सिद्धोपायवन्नु तन्निर पेक्षवागि अनुसन्धान माडिदक्कॆ “मनोब्रहेत्यु पासीत” ऎम्ब दृष्टि विधियन्तॆ आरोपित वागि भ्रमरूपवागुत्तॆदॆ. आग्कॆ अदु मोक्षस्रदवागुवुदिल्ल. “शरणं व्रज? ऎन्दु तन्न विषयस्टीकारवनन्नु विधिसुत्तडॆयिन्दु हेळि, एकशब्दवु, तन्न स्वीकारदिन्दलू निरपेक्षनॆन्दृ हेळुवुदु स्वनचन विरुद्धवागुत्तदॆयल्लदॆ भगवद्दचनक्के परस्सर निरुद्धार्थनन्नु कल्पिसि दन्तॆ आगुत्तदॆ.
एकशब्दक्कॆ सिद्धान्तार्थ सिद्धान्तार्थवन्नु आहैयाल् ऎन्दारम्भिसि निगमिसुत्तारॆ. आदकारण ईश्वरनु प्रसाद
1118 श्रीमद्रहस्यत्रयसाके
प्रपत्तिहळिरण्णुम् प्रसादनब ळाय् कॊण्ड- प्रधानमल्लाद साथध्कोपायॆब्लळ्, इनै इरण्णुत्तॊस्रिले यथाधिकारवं् सनिलैयाहक्कडवदु.
अथ एक शब्दस्यान्योषायतयानसन्य हरत्वमाह
अपेक्षित फलत्तुक्कु उसायमाह निधित्त साधनान्तरज्ञळ्ळॆ यिडैयिडनेण्नाद पडि प्रपत्तिक्टु अनसन्तरम् भरस्वीकारं पण्णिन शरण्यन
तनित्तुनिर्कुपत् निलैय्यै धि (ट्ट फि ) फि कलर खॆ १न ज्, क 2 पृत्व “क” शब्दमॆन्रुव् कॊल्लुवर् हळ्., अजॆज्ञनेयिस्सिल ज् स्रपत्तियुव्पुण्णॆ अनन्तरमदडियाह उपासनादिहळुव् अनुस्क्ठित्ताल् फलोपाय माहक्कडननान शरण्यन् अकिञ्चननाय् विळम्ब स्पमनल्लाद निनस्तिकत्तिल् प्रपत्तिक्कुम् तनक्कुव् नडुवे निश्रदूरु शुमॆ, शुमत्तादी इवन् शुमैयैत्तन् गुणज४न् नीीलॆयेरिट्टु “शरणन्त्वां प्रपन्नाये ध्यानयोग विवर्जताः । तेनिमृत्यु मतिक्रम्मयताण, तद्मैष्णनं पदम्” ऎन्रुवु् “आरॆनक्ळु निन् सादमी शरणाह त्रन्द्यॊगिन्दाय्” ऎन्रुम्, ह द द रविनु. हसरु रति लामा 5 दावा नीयनागि प्रधानवाद सिद्धोपायि. भक्ति प्रपत्तिगळॆरडू अवनन्नु प्रसन्ननागि माडिकॊण्डु प्रधाननल्लद, साथो्यपायगळु -. व्याजभूत साध्योपायगळॆन्दु तिळिसल्पट्टतु. इवैयिरण्ड त्रॊन्रिल् इत्यादि - ई ऎरडु उपायगळल्लि यावुदादरू ऒन्दरल्लि तन्न अधिकारक्कॆ अनु गुणवागि, निरैॆयाहक्कडनदु, स्थितियन्नु अवलम्बिसबेकु. । (iv आनन्तर एकशब्दक्कॆ नाल्कनॆ. योजनॆयन्नु आसेक्षित फलत्तुक्कु ऎन्दारम्भिसि तिळिसुत्तारॆ. आदागि अपेक्षिसिद फलक्कॆ उपायवागि विधिसिद साधनान्तॆरगळन्नु इडैयड वेण्डादपडि - मध्यदल्लि इरिसदॆ प्रपत्ति माडिद नन्तर ई प्रसन्नन भरवन्नु स्वीकरिसिद शरण्यनु, प्रत्येकवागि निन्तिरुव स्थितियन्नु कुरतु “एक?शब्दवॆन्दू हेळुवरु. अदॆङ्गने यॆन्सिल् अदु हेगॆन्दकॆ, अङ्गप्रसपत्तियन्नू माडि अनन्तर तन्मूलकवागि उपासनादिगळन्नू अनुस्मिसिदकॆ, फलोपायमाहक्सडवनान- मोक्षनॆम्ब फलवन्नु नॊडुनननाद शरण्यनु अकिञ्चन नागि विळम्बक्षमनल्लाद इवन विषयदल्लि, प्रपत्तिगू तनगू नडुनॆ निर्रदॊरु शुमै शुमत्तादे इत्यादि - निल्लुव उपासनवॆम्ब भारवन्नु हॊरिसडॆ, तन्न गुणगळ मेलॆ इवन ११२ भारनन्नु हॊत्तुकॊण्डुआन्दरॆ भक्तियोगवननन्न माडिदरॆ उण्टागुव स्रसन्नतॆयन्नु अकिं चनन विषयदल्लि केवल स्रपत्रि वशीकृतनागि तन्न करुणॆयिन्दले माडि अफेक्षिसुव फलवनु सङ्कल्पिसि अनुग्रहिसुत्तानॆ. (1) शरणं त्वां प्रसन्माये इत्यादि (निन्नन्नु स्वतन्त्रवागि शरण हॊन्दिदवरु भक्तियोगवन्नु अनुष्मिसडेनॆ पुण्य सास रूप कर्मगळन्नु निश्शेषवागि नीगिसिकॊण्डु वैष्णवसदवन्नु हॊन्दुत्तारॆ; ऎन्दु हेळिरुवन्तॆयू, (2) आरनक्कु निन् लग डरागर्ट्राघागवळुर AN ह NS SSNS DAREN TENN सुनिय DASA (1) ब्राह्म पुराण. (2) आरॆनक्कु निन्पादमे शरणाहत्तन्दॊथिन्दाय्, उनक्कोर्कै म्मारु नानॊन्रिलेन्, ऎनदावियुमुनदे ॥
1114 शॊल्लुहिरपडिये गुणनिशिष्टनान ताने निरपेक्ष स्पदनाय् निर्कुम् निलैयै अनु सन्धित्तुक्कॊण्डु शरणवताह नडैयॆनु) जु ग यित्तु. एक ७ब्दस्य अङ्गातरानन्वय परत्वञ्चाह. इप्पडिये परिसूर्णनान तनॆ णि प्रपत्ति हणु पोदु आनुकूल्य सङ्कल्फादिहळ्ळॆ यॊगिय वेरॊरु परिकरत्तॆ तॆ इदे निन रति श्रि क्पोरे शॊरंहिकॊण्डु अद वुवक् प्रसादनॆमान उपायॆकोटयिले निरि रजिस्रु म् निनॆ मैक्ष क्यृकिक्स 4क्साह “एक” शब मौसम् शॊपब्लुनर्हळ्, आज्ञा नुजॆ त्ल ैहळापे नन तुम कर्रव्यान्तरज्जळुमॆल्ला म प्रसत्तिक्कु तुणॆयनु इस्ट सत्तियॊले नशीकृतनाय* फलं तर विरुक्ळिरनानॊरु SST 2. इइ. हादनो शरणाहत्तन्दॊिन्दाय् - (निन्न पादगळन्ने ननगॆ मुख्यवाद उपायवागि अनुग्रहिसिदीये) ऎन्दु हेळरुवन्तॆयू, गुण विशिष्टनान ताने इत्यादि - गुणगळिन्द कूडिद ताने निरपेक्स फलप्रदनाय् निर म् निलैय्य इत्यादि - भक्तियोगवॆम्ब उपायवन्नु अपेक्षिसदेने फलस्रदनागि इरुन स्थितियन्नु अनुसन्धिसिकॊण्डु शरण हॊन्दु ऎन्दु, विकशब्दक्कॆ अर्थवन्नु हेळिदन्तायितु.
- निकशब्दवु, प्रपत्तिगॆ एर्पट्ट रुव ऐदु अङ्गगळन्नु बिट्टु बेरॆ
; यावुदन्नू अङ्गवागि अपेक्षिसुवुदिल्ल.
एिकशब्दक्कॆ, ऐदनॆय योजनॆयन्नु अनुग्रहिसुत्तारॆ. इप्पडिये सरिपूर्णनानतन्नै इत्यादि - हीगॆ परिपूर्णनाद तन्नन्नु कुरितु प्रसत्ति माडुवाग आनुकूल्य सङ्कल्पवे मॊदलाद ऐदु अङ्गगळु विनह बेरॆयॊङ्गु हरिकर - अङ्गवन्नु इदरल्लि विद्यान्तरद हागॆ सेरिसिकॊण्डु अदू प्रसादननतान - भगवन्तनन्नु प्रसन _नन्नागि हाडुव उपायकोट यॆश्लि निल्लुत्तदॆयॆम्ब निनैवै - अभिप्रायवन्नु KES लु “एक” शब्दवॆन्दू हेळुत्तारॆ.
नर्णाश्रन . धर्मादिगळु प्रसत्तिगॆ सहॆकरिसुवुदिल्लवॆम्बुदन्नु भगनन्तन वाक्यवागि आज्ञ्वानं ज्ञैहळाले ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि आज्ञाकैङ्कर्यगळु नित्यन्सैनित्तिक वर्णा श्रम धर्मगळु. आनुज्ञाक्सैङ्कर्यगळु भगवदालय सम्मार्जन, उसलेसन, मालाकरण, दीपा कोसणॆ जस, पारायॆणादिगळु, इवुगळॆल्ला प्रसत्तिगॆ अङ्गगळल्ल. सहकरिसुवुदिल्ल. इप्रपत्ति याले - इत्यादि ई प्रसत्तियिन्द वशीकृतनागि फलवन्नु कॊडलु सिद्धनागिरुव नानॊरु
नानाना नादद नानाना ाााााननााााााााा्ााजारार्ानानादारनररर् जाना
शेर्कॊळ् विशुम्बुम् पॆरुं शॆन्नलुम् मवलितण् शिरीवरमङ्गै नारु पूण्तण् त्मुूय् मुडिया- 2 1 दैवनायकने ॥ तिरुवाय् (5.7- 10) दैवनायकने निन्न पादगळन्ने ननगॆ मुख्शोपायवागि . अन्दरॆ भक्ति योगवन्नु अपेक्षिसदॆ आस्थानदल्लि प्रपत्ति वशीकृतनागि नीने निन्तु फलवनु कॊडुववनागिद्दीये, ba त्का pl 6. निनगॆ एनु प्रत्सुपकार माडलि, ई आत्मा निनगॆ सेरिदुदु,
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1115 श्री मुद्रॆ ‘स्कश्र्रयसारे
वनुमे इक्षणॆकोपायत्तुक्ळु जतन 33 निन्रेन्; इस्पृप ’ रुतेवै कॆय्य; नेण्ना; अत्तॆ क् यत्तु णृयाहक्कॊ क उनॆ
नॆन्रु “तात्पर्य म्. आता सा अनुकॊल, सङ्कल्फा निशि परवन्नु
हेरिट्टुतनक्कु नेरॊरु सहकारि ह णत्लॆ क त्तायित्तु. “येन केनाहि प्रकारीण द्वयनक्कात्वं?. ऎन्रुम् “प्रपत्तिवाचैव निरीक्रितुं वृणे? ऎन्रुवर् कॊल्लुहिरथ डिये पूर्णप्रपत्ति ५ टु तॆळिनिल्लानिडुलुनु् ' यथाकथञ्चिदनुष्कानत्राले कार्यंशॆय" 'हिर इवु हायुत्तुक्ळु नेकॊरु. परिकरत्तै ; त्केड प्रसज्लमिल्ल 4यिंरे. ननु राघन ब्रह्मदत्त शरणागत्कोः अन्यपरिकरानेक्लादृष्टः इतिपूर्वसक्षं कृत्वा परिहरति, “ततस्सागरनेलायां दर्भान् आस्त्रीरृराघवः । बाहुम्भुजग भोगाछं उपधायतारिसूदन; । अञ्जलिम्प्राज्मुखं कृत्वाप्रतिशिक्के महोदधेः ॥ ? ऎनु ह् समुत्पक्कै कक शरणागति पण्णिनविडति, लुर्म्म ऎं TO जर टी छइ्लं भज इ इम् । ्लंइं इं ंइ्प्प्ल्पबछ्लअ्ल इं इं इं इ षषजषु शल डं [ (इब (६ रा इटावा ee वनुमे - नानु (भगवन्तनु) ऒब्बने ई सणॆकॊ (सायक प्रतिभूमाय् - 9) ीकरिसुव वनागि निन्तिद्देनॆ. ई प्रसत्तियन्द . उण्टागुव फलक्कॆ बेरॆयॊन्दु अनेकॆयु बेडॆ. अत्तेनैय्यॆ - आ, अपेक्षॆयन्नु सहकारियागिकॊण्डु निन्नन्नु नानु रक्षिसुववनल्ल ऎन्दु तात्पर्य. इत्ताल् आनुकूल्य सङ्कल्पादि निशिष्ट प्रसत्तिय्योय इत्यादि - इदरिन्द आनु कूल्य सङ्कल्पादि विशिष्टवाद प्रनक्तियु विनह, प्रपत्ति परिकरवॆन्दु हॆसरिट्टु, तनक्कु - भगवन्तनाद तनगॆ, बेलयॊ न्दु सहकारि कारणवन्नु सेरिसबेडनॆन्दु एकशट्दक्कॆ अर्थवन्नु हेळिदन्तायितु. (1) येन केनापि प्रकारेण 'द्वयवक्तात्व्य - समुदाय ज्ञ्य्ञानपूर्वकवागि यागलि, सस ज्ञ्ञानपूर्वकवागियागलि आजार्कोसदिष्ट द्वयनमुन्त्रनन्नु उच्छरिसुव नीनु ऎन्दू, (2) _ ्रसत्रिवाच्छव. निरीस्लितुं वृणे - प्रसत्रिनाक्यदिन्दले अनुग्र हिसुवन्तॆ वरिसु त्तेनॆ ऎन्दू द 11 गॆ आनेक्षितवाद तिळिवु जा सॊ नविल्लदिद्द इरू. यथाकथञ्चि दनुष्का नदिन्द कार्यवन्नु माडुव : ई उपा यक्कॆ बेरकॆयॊन्दु सरिकरव न्नु हुडुकुव प्रसङ्गॆ निल्लवल्लवे. भर ऎह् बा (1) शरणुगतिगद्य. (2) वरदराजस्तव ला चरनुश्चोकाधिकारः 1116 “सराजा परमानन्नो देव श्रेष्ठमगात्तदा । शरण्यं सर्वभूतानां भक्त्या नार-यणं हरिम् । समाहितो निरहार स्बड्रात्रेण महायशाः । ददर्शादर्शने. राजा देवं नारायणं प्रभुम् ॥ ऎन्रु सप्त व्याधोपाख्यानत्निले ब्रह्मदत्त चरित्रत्तिलुम् कॊन्न प्रकारज्ञळुमॆल्लावर् प्रपत्तिक्कु अज्जमन्तु. इव्विरण्लिडमुम् सपरिकर प्रतिशयनादि स्रधानमाहैयाले अज्जु अन्न निय 8) मज्कळ् शॊल्ल प्रास्तम्, इप्पडि सुकृत प्रणामत्तिलुव् कण्डुकॊळ्ळदु. इज्जि पृपत्त ,ध्यायादिहळिल् इनुकूल्ल सज्ज्बला स : प्रसत्म्यध ळि हळिल चॊन्न नानु ल्य सज्जल्पादि सरिकरज्नळ्ळॊय नेरॊरु SE RN BS AN WE SNE ERT दारि (3) ततस्सागरवेलायां इत्यादियागि, भगवन्तनु समुद्रराजनन्नु शरणागति नाडिद सन्दर्भदल्लू (4) सराजा परमापन्नॊ इश्यानियागि सस्तव्याथोपाख्यानदल्लियू हेळिद दर्भास्तरण, निराहारत दि सरिकरगळॆल्ला, स्रसत्तिगॆ अङ्गवल्ल. इप्विरण्डिडमुमु् इत्यादि- ई ऎरडु सन्दर्भगळू ससरिकर प्रतिशयनादि प्रधानवाद्दरिन्द अल्लि आ नियमगळन्नु हेळि रुवुदु युक्त. इवु प्रसत्तिगॆ अङ्गवल्लवॆन्दु ताश्पॆर्य. इप्पडि सुकृत प्रणानुत्तिलुवम् इत्यादि - हीगॆये सुकृत स्रणामादिगळन्नू, प्रपत्तियल्लवॆन्दुतिळिदुकॊळ्तदु. अदागि, एकोतपि कृष्णे. सुकृत . प्रणामः रशाश्व मेधा$व भृतेन शुल्यः । दशाश्वमेधी पुनकेति जन्म कृष्ण स्रणामी न पुनर्भवाय । ऎन्दु सुकृत प्रकानुवु हत्तु आश्चमेधॆ यागगळिगॆ समवॆन्दु हेळल्पट्टिदॆ. अश्वमेधॆ यागवन्नु माडिदवनु तिसुगियॊ संसरिसुत्ताकॆ. . कृष्णनन्नु कुरितु सुकृत प्रणामवन्नु वराडिदवनु तिरुगि संसॆरिसुवुदिल्ल. सुकृत प्रणानुद स्वरूसवेनॆन्दरॆ, तोळुगळिन्द मूरु स) विस्तारनागि अजंलि माडुवुदु, मूरु सल मण्डियवरिगॆ तोळुगळन्नु नीडुवुदु, हणॆ, मूगु, कपोलगळन्नु मूरु. सल भूस्पर्शवागुवन्तॆ, साष्टाङ्ग प्रणामवन्नु हन्नॆरडु सल माडिदरॆ अदु सुकृत प्रणामवॆन्दु हेळल्पट्टिदॆ. ई सुकृत प्रणामवनु 1 माडुववनिगॆ पुनर्जन्मनिल्लवॆन्दु हेळिदॆ. इदु प्रसत्तियल्ल. सुनर्जन्म निनर्तकवाद प्रणाव गूप क्रियाविशेष. आद्दरिन्द अल्लि हेळिद परिकरगळु प्रपत्तिगॆ अङ्गगळल्ल. भक्ति प्रपत्तिगळल्लि' मूडिसि पुनर्जन्म निवर्तकवॆम्बुदु प्रमाणान्तरगळिन्द एर्पडुत्तदॆ. (1 122नेपुट नोडि) इङ्गु प्रसत्यध्यायादिहळिल् इत्यादि - इल्लि प्रुसत्त्यध्यायादिगळल्लि हेळिद आनन (4) रामायण युद्धकाण्ड ४ ६. र्क्यो- तॆ- अनन्तर समुद्रद तीरदल्लि श्री रामचन्द्रनु दर्भगळन्नु हरडि भुजगद शरीरदन्तॆ अगलवागिरुव बाह- वन्नु तलॆगॆ दिम्बागि इट्टुकॊण्डु प्रास्बुखनागि अञ्जलि बन्ध नन्नु माडिकॊण्डु समुद्रक्कॆ ऎदुरिनल्लि मलगिदन 4) आ राजनु बहळ अपत्तिनिन्द कूडिदवनागि देव श्रेष्ठनू शरण्यनू आद हरिनारायणनन्नु इन्द्रियगळनु असगिसिकॊण्डु, आरु रात्रि आहानविल्लदॆ शरण हॊन्दिदनु. महा कीर्तिवन्तनाद आ राजनु आ हरि नाराय ननन्नु साक्षात्करिसिदनु - हरिवंश (७7-10-22) 1117 श्री नुद्रॆहस्यत्र्रयसारे नियमज ळ् वेण्णा. आकिञ्चन्यै5 धनरान द्रौसदि, दमयन्ती, राक्षसी, विभीषण, क्षत्रबन्धु,' मुचकुन्द. गजेन्द्र, पाण्डव्य देव, सुमुखि, त्रिशङ्कु, शुनश्केफ *िरात्म काक कपोतादिहळ् शरणागतराहिरपोदु अस्रोदैय अनुकूल्यादिहळ्ळ योगिय नेरॊरु इतिकश्रव्यतैयै शॊल्लकृण्डिलोमु्. । क्षणकाल साध्यमाय्, निरपेक्षमान प्रसत्ति मात्रत्ताले कडुह अव्ट्वोशरणा गतर्क्कु, अव्वो अपेक्षित सिद्धियुम् कण्णू वर्. इप्पडि नोक्हार्थ प्रपत्तियिलुमु् इवन् _ कोलिन कालत्तिले फलसिद्धिक्ळु क्ळुरैयिल्लॆ . BETAS OES ACEC 2, wT त चागद अ ई अ कूल्य सङ्कल्बादि परिकरगळु विनह बेरॆ यान नियनुवू बेड. अकिञ्चन्यैक धनरान इत्यादि - आकिञ्चन्यनन्ने धनवन्नागि उळ्ळ द्रौसदी, दमयन्ती, राक्षसी, विभीषण, क्षत्तुबन्धु, मुचकुंर, गजेन्द्र, पाण्डनरु, देवतॆगळु, सुनुख, त्रिशङ्कु, शुनशैेफ किरात्क काक्क कपोतादिगळु. शरणागतरागि बन्द' समयदल्लि तात्पालिकवाद, अनुकूल्यादिगळु विनह बेरॆयॊन्दु इतिकर्तव्यतैय्य - अङ्गवन्नु कण्डिलोमु' - नोडिल्ल. (1) दमुयन्तियु नळनन्नु वरिसलु. बन्दाग देवतॆगळु नाल्वरु नळनन्तॆ वेष हाकिकॊण्डु निजवाद नळ नॊडनॆ कुळितिद्दरु. आग दमयुन्तियु निजवाद . नळनन्नु तोरिसिकॊडुवन्तॆ देवतॆगळन्न कुरितु शरणागति माडिदळु. (11) गरुडनु सुमुखनॆम्ब' सर्पद तन्दॆयन्नु तिन्दु हाकि, सुमुख नन्नू अट्टिसिकॊण्डु बन्दाग, आ सुमुखनु भगवन्तननन्म प्राणार्थियागि शरणुहॊक्कनु. (111) राक्षसि - श्रिजटियु सीतॆय हत्तिर तन्नन्नू राक्षसिय-न्नू रक्षिसबेकॆन्दु माडिद शरणागति (1४) देवतॆगळु रावणन भय निवारणॆगोस्कर भगवन्तनल्लि शरणागति माडिदरु. v) त्रिशङ्कु, शुनशैेफरुगळु विशामित्ररल्लि माडिद शरणागति. 1/1) कॆरातनु मळॆ छळि भयदिन्न नन देवतॆगळन्नु कुरितु- माडिद शरणागति. अवनु निं६द्द मरद मेलिद्द गण्डु कपोतवु, तन्न गॆळॆतियु आ बेडन कृसॆरॆगॆ सिक्कि अवन चीलदल्लद्दुदन्नु' तिळिदू- अवनन्नु छळि, हसिवु गळिन्द रक्षिसिद वृत्तान्तवु इल्लि अनुसन्धेय. कारण तन्न गॆळतियु ईतनु नम्म वासस्थानद हत्तिर. बन्दु शरणागति माडिदुदन्नु तम्म ल्लि माडिदुदागि, तिळिसलु, गण्डु कपोतवु अवनन्नु छळियिन्दलू हॆसिनिनिन्दलू रक्षिसितु. ४11) काक - काकासुरनु प्राणार्थियागि रामनल्लि माडिद शरणागति. ४11) कपोतवु शिबिचक्रवर्तियल्लि प्राणार्थियागि माडिद शरणागति. 1%) पाण्ड वरु श्रीकृष्णसरमात्मनल्लि माडिद शरणागति, x) द्रौसदि श्रिकृष्ण सरमात्मनल्लि मानसंरक्षणा ' थ-वागि माडिद शरणागति, । विभीषणनु श्रीरामचन्द्रनल्लि नोक्टार्थवागि माडिद शरणागति इवरुगळु क्षणकाल साध्यमांयं् इत्यादि - क्षणकाल. माडलर्हनाद, निरपेक्षमान प्रपत्ति मात्रत्ताले, - ऐदु अङ्गगळु विनह बेकॆ यावुदन्नू अपेक्षिसद प्रसत्तिमात्रॆदिन्द _ कडुह - शीघ्रवागिये आयाया शरणगतरिगॆ आयाया अपेक्षितगळु,. सिद्दिसुदुदन्नु कण्डोम् - प्रत्यक्षवागियू, शास्त्रदिं दलू नोडिद्च्टेवॆ. इन्सडि मोक्षार्थ प्रसत्ति यिलुम् इत्यादि - हीगॆ मोक्सार्थवागि माडुव प्रपत्त्रियल्लियू इवनु अपेक्षिसिद कालदल्लि फलसिद्धियागुवुदरल्लि संशयविल्ल. अदागि “सामान्यसस्तु दृष्टा, अतीन्द्रियाणाम चरमश्लोकाधिकारः 1118 इदु “माशुचः” ऎस्तिर वाक्यत्तुक्ळुम् तात्म ्रिरैम्. “परित्यज्य? त्र ले परिकरान्तर नैरपेक्ट, म् कॆकणार्थमाहक्कडवदु इदक्कु शॊन्नस्टॆ नरुळिटे एकशब्दत्तिल् इन्द योजकनै दृढी आर्थुन्वरव कॆ विनक्षित. माहवुमाम् “एक शब्द त्तुक्कुइदु पॊरुळानाल् “परित्यज्य” ऎन्नि र निदुक्सु आब्दु शॊन्न अर्थान्वरज्ञ ळ्ळ हॊ ळॆ वुमाम्. ऎन्सिर निड सपरिकर प्रपत्तिकु उपासनादिहळान अङ्गिहळ्ळॆयुन वक् इवत्तिन् परिकरज्नळा इ धर्मान्तरज्पळ्ळॆयुवु् क्फणक्कर पॊरुळ्हळिल" इनॆ ्रीकशब्दवर् शरण्यनै निशेषित्त पडि यॆन्नॆन्रिल् ? आकिञ्चनन् पक्कलिले, इदु प्रसाषन माय्ळ्कॊण्डु शरण्यनॆ सीरु तुवक्कत्तमै काट्टुणैक्काह “मानोकं” ऎस्सि व्या (6) अथ “एक? शब्दस्य सर्वफल साधनं मामित त्यर्थान्व माह -. “सर्वधर्मान्? ऎन्निर क्वल् “सर्व? शब्दत्तैै युवर्, “सर्वॆ पाहेभ्यः? ऎन्सिर प्रतीतिरनुमानात्” ऎम्ब न्यायदन्त्रॆ दृष्टा र्थ प्रसत्ति दृष्टान्तदिन्द, 'अग्य ष्कार्थस्रसत्ति, यॆल्लू फलसिद्धियु ae निश्चि स इदु इत्यादि - हीगॆ इवनु तिनीिसिद काल दल्लि फलसिद्धियु, निर्पट्टु, “माशुचः ऎम्ब वाक्यक्कॆ शोकनिषेधदल्लि तात्पर्यवाद्दरिन्द, अदरिन्द सङ्करान्तॆराभाव कालविळम्ब प्रयुक्त शोकवू निनर्त्यनॆन्दु भान. “परित्यज्य? ऎन्निर वनिडत्तिले इत्यादि - “परित्यज्य” ऎम्बल्लि परिकरान्तर नैरपैक्स्यननस्स हेळिरुवुदु . निनक्रितवागि ई योजनॆयु एक? शब्ददल्लि दृढीकरिसल्प ट्वैदागि आगबहुदु. इदरिन्द पुनरुक्ति दोष विल्लनॆन्दु तात्पर्य. इदुक्कु इत्यादि - इदक्कॆ अर्थांशरवु विनक्षितवागलू बहुदु. : अदागि fs ऎम्बुदक्कॆ नैरपेक्ष नन्नु. हेळुव पक्षदल्लि एकशब क्रै ``प्रास्यने प्रापकनु” ऎम्ब न्तरगळन्नु स्वीकरिसबहुदु. विकशब्दत्तुक्ळु इदु इत्यादि - विकशब्धक्कॆ नैरपेक्ष्वार्थ कत्ववन्नु हे ळुवुदाजरॆ; परित्यज्यनिगॆ अनुवादाद्यर्थान्तरनन्नु स्वीकरिसबहुदु. हीगॆ “एक”शब्ददिन्द सपरिकर प्रपत्रियल्लि उपासनक्कू आदर अङ्गगळिगू अन्वयनिल्ल नॆम्बुदु हेळल्प्रडुत्तदॆयादकि, ई एकशब्दवु शरण्यनिगॆ हेगॆ विशेषणवागुत्तदॆ ऎम्ब जोद्यक्कॆ. समाधानवागि ससरिकरप्रपत्ति त्स ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि ससरिकॆरवाद प्रसत्तिगॆ उपासनादिगळाद अङ्गिगळन्नू इवुगळ परिकर .., अङ्गगळाद धर्मान्तरगळन्नू निनर्तिसुव ई अर्थदल्लि, ई ऎएकशब्धवु शरण्यनिगॆ हेगॆ विशेषणवागुत्तदॆयॆन्दक्कॆ अकॆञ्चनन् सक्कलिले इत्यादि - अकिञ्चनन विषयदल्लि इनै - ई. उपासनवू अदर -आङ्गगळू, स्पस्तादनॆगळागि शरण्यनॊडनॆ सम्बन्धनडजि इरुवुदन्नु तोरिसलु, “मामोकं” ऎन्दु हेळुत्तदॆ, (0)“नएिक”शब्दवु भगवन्तने सकलफखसाधकनु ऎम्बुदन्नु तिळिसुत्तदॆ. “सर्वधरान्” इत्यादि - "सर्वधर्मान्' ऎन्दु पूर्वदल्लि हेळिरुव सर्वशब्द्धवनू सर्वपापेभ्यः ऎम्बल्लि मुन्दॆ हेळिरुव सर्वशब्दवन्न्यू नोडि ई एकशब्दवु. सर्वशब्दक्कॆ प्रतिसम्बन्धियागि निञ्जि ऎन्दू हेळुत्तारॆ, अन्दरॆ ऎल्ला धर्मगळन्नू आनुस्किसिदरॆ लभिसुन फलनन्मुु नानॊब्बने शरणागतिगॆ वशनागि कूडुत्तेनॆ. हागॆये शरणागतिगॆ नशनागि, सर्व मेलिल् "सर्व? शब्दत्तॆ युवर्, पार्त्रु इन्नेक शब्दम्, सर्फशब्धत्तुक्ळु प्रतिसम्बन्धि याय् निक्किरडॆन्रुन् शॊल्लुवर्हळ्. अस्टोदु. fp "सुदुष्करेण शोजेद्यो येन येनेष्ठ हेतुना । सस तस्याहनेनेति चरमश्लोक सज्प्रहः ॥” इत्ताले ऎन् शॊळ्ळित्तायित्तॆन्रिल् ? - (1) “"यद्देन काम कामेन न साध्यं साधनास्तरैः । मुमुक्षुणा यत्साङ्ख्येन योगेन नच भक्तितः । प्राप्यते परमन्धाम यतोनावर्रतेयतिः । तेनतेनास्यशे तत्न न्म्य्यासेनैन महामुने । परमात्माच तेनैन साध्यते पुकुषोत्तवंः ।? ऎन्हिर कट्टळ्ळॆयिले तनक अभिमतज्ञळायिरुप्पदेदेनु नॊरु फलज्जळ्ळॆप्सत्त अव त्तुक्ळु अनुगुणमाह तनित्रनिये शास्त्रज्ञळाले निधिकृप्पट्टि उपायज्ञ ळिल्, ज्ञाना भानत्तालेयादल्, ज्हानमुण्डायिरुकृ शक्त ;,जावत्त्रालेयादल*, इवै इरण्णु मुण्डायिरुक्क निळम्बाक्समत्तता,ले यादल” शोकित्र अधिकारिय्यिप्पत्त अवु_साय जळॊनप्रिलुवु, नी यलैयनेण्मा, अवै तनित्तनिये तरुवश् फलज्नळुक्कॆल्लामः “प्रपत्ति वशीकृतनान नानोरुवनुन अम्रैेयखन२स्र शॊल्लित्तायित्तु. फल औषध पाषगळन्नू नानॊब्बने निनर्तिसुत्तेनॊबुदु तात्पर्य. असॆग्फीडु - आग, सुदुष्टरेण इत्यादि - याव याव इष्टार्थवन्नु साधिसिकॊडवुदक्कॆ हेतुवाद कर्मगळन्नु अनुष्ठि सल् साध्यविल्लदॆ शोकिसुत्तानो, आयाया कर्मगळ स्थानदल्लि, प्रपत्रि वशीकृतनाद, नाने (भगवन्तने) आयाया फलगळन्नु साधिसिकॊडुत्तेनॆ, ऎम्बुदु चरमश्लोकद सङ्ग्रहार्थ. (नि इत्ताले इत्यादि - ई कारिकॆयिन्द निनु हेळल्पट्टितु ऎन्दरॆ यद्येन काम कामेन इत्यादि - [अहिर्बध्द संहितॆ] तनगॆ इष्टवाद लौकिक पुरुषार्थगळन्नु साधनान्तरगळिन्द. साधिसिकॊळ्ळलागदननू, मोक्षदल्लि आसॆयिन्द कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोगगळन्नु माडलु अशक्तनागिरुवननू, आयाया फलगळन्नु प्रप्पटयिन्दले पडॆयुत्तानॆ. पुनरावर्ति यिल्लद परमनदवू,. सरमात्मन सायज्यवू आ श-हागतियिन्दले हॊन्दल्पडुत्तदॆ, ऎन्सिर कट्टळ्ळॆयिले इत्यादि - ऎम्ब रीतियल्लि, तनग आभिमतगळागिरुव यावुदादरॊन्दु. फलगळन्नु अवुगळिगॆ Res प्रत्येकवागि शास्त्रगळल्लि विधिसल्पट्ट उपायॆगळल्लि ज्ञानविल्ल यो ज्ञ्याननिद्दु शक्तियिल्लदॆयो, इवॆरडू इद्दरू विळम्बनन्नु सहिसलागजियो शोकिसिद Rs स iis आ उपायगळल्लि यावुदादरू ऒन्दन्नु अनुसष्ठिसुत्तेनॆन्दृ ुसडबेीड. अवुगळु प इ इडॆ फलगळनॆ स्पृसत्ति त सः कॊडुत्तेनॆ तॆ! जू द इ ज् तिळिसुत्तारॆ. आदागि आनेक औषधिगळु कॊडतक्कु a म ई A ग तक्कुदाद्दरिन्द नीनु बेरॆ बेरॆ औषधिगळन्नु सेविसलु Nel ई सदौ सदवॊन्दन्नेे a ॥ सीविp4 चगमश्लोकाधिकारः 1120 ज्ञळ्' तरवल्ल आरोग त्तॆ यॆला निम्, इस्सि 'दौषद मॊन्रुमे तरनत्ता ह्रॆयाले, नी औसधान्तरज ळु क्सु अलमरवादे. इन्न औषधनॊनॆ युवमे उपजीविक्क वमै युव्, । इदु उनक्कुअन्द औषधज ळालेक्यगिकृप्प डुम् व्याधिगळॆल्ला त्रैयुवं् क्यळत्ळु म् उनक्कु पिन्सु सर्रभोगज 'ळैयंवर् भुज सव ; नी आरोग, तैयंवर् भोगज, ळ्ळ युम् । इट कोमु वॆरुक । नेण्डानॆन्रु कॊल्लुमा प्रोले आ इरुक्किरदु, इच रिमशॊ कमर्. “सर्व? शब्द प प्र तिसरिबन्धियाह “एक? शब्दं सिम्मॊ पाय प्लाधान्यत्ता ले शर ज्यनै निशेषित्तु कॊण्डु निन्रालुम्, *न्यासेनैव? ऎस्लिरसडिये प्रसत्तियॊन्रुमे सर्वधर्मा तर सा सत्ति लुवु् विधिकृपडुहिरदॆन्रु फलिक्कु वन्. इत्ताल् त्रिसॆग्गार्थिहळॊम् इब्बगवत्तॆ पत्ति, सण्ण लामॆन्र दायिट्रु. अप्पॊ ीदु (1) त्तॆ यानि" प्राप्त न श्वर्यं wsकोषयाम्यहम् । रु त्वां तवबद्गॊ €यॆमजंलिकः । 2) सत्वं प्रहरवा माना मह वज्रं पुरन्दर नाहमन्त्स A गोविन्द मन्य ह भो ॥? सिदरॆ साकु, इदु निनगॆ आयाया औषधिगळिन्द निवर्तिसल्पडुव व्याधिगळॆल्लनन्नू होगलाडि सुत्तदॆ. आनन्तर नीनु सर्वभोगगळन्नू अनुभविसबहुदु. च आरोग्य नन्नू भोग गळन्नू कळॆदुकॊळ्ळुत्तॆ शेनॆन्दु दुःखिसबेडनॆन्दु हेळुवन्तॆ इदॆ ई चरमश्कोक. दार्ष्ट्पान्ति कदल्लि सर्वधर्मगळन्नू « अनुष्ठिसलु शक्तियिल्लद नीनु नन्नॆब्बनन्ने शरणहॊन्दु. नानु सर्वपास गळिन्दलू निन्नन्नू बिडिसि निनगॆ नोकनन्नु कॊडुत्तेनॆ । प्रपत्तियु ऎल्ला उषायगळ स्थानदल्लि इरुत्तदॆ ऎम्बुदर भाव. आहिर्बुध संहितॆयल्लि “न्यासेनैव” ऎन्दु हेळिरुवुदक्कॆ भावनन्नु तिळिसुत्तारॆ. : अदागि सर्व७ब्द प्रतिसम्बन्धियान इत्यादि - “सर्व धर्मान्’ ऎम्बल्लि : “सर्व? शब्दक्कॆ प्रतिसम्बन्धि याद (ऎरुतामि एकशब्दम् - एकशब्दवु, सिद्धॊ साय प्राधान्य दिन्द करण्णुनन्नु विशेष्य नन्नागि तिळिसिदरू, न्यासेनैव - ऎम्बन्तॆ करणागतियॊन्दे NN स्थानदल्लियू विधि सल्पडुत्तजॆ. ऎन्दु फलित. इत्ताल् इत्यादि -इदरिन्द त्रिवर्गार्थिगळू अन्दरॆ धर्म, अर्थ, कामगळन्नु अपेक्षिसुववरू सह, आयाया फलगळिगॆ भगवन्तनल्लि प्रपत्ति माडबहुदु ऎन्दु हेळिदन्तायितु. ‘अप्पोदु - त्रिवर्गार्थिगळू भगवन्तनल्लि शरणागति माडबहुदॆन्दु सिद्धिसिद मेलॆ, (1) “त्वयाहि प्राप्रमैश्वर्यं” इत्यादि - (2) सत्वं प्रहरवा वा इत्यादि यागियू हेळिरुवन्तॆ नित्यनैविितिकगळल्लि - प्रुतर्दन विद्यान्यायदन्त्कॆ आयाया अनन्यथा i 1) विष्णुधर्म 2:14 ऒन्दु परमैकान्तियाद तपस्वियन्नु कुरितु इन्द्रनु “नन्ननु आराधिसु” ऎन्दु हेळलु आ परमैकुंशियुु निनगू यारिन्द ऐश्वर्यवु प्राप्तवायितो आ भगवन्तनन्नु नानु आराधिसुत्तेनॆ, निन्नन्नु अराधिसुवुदिल निनगॆ नमस्कार हॊरटु बा” ऎन्दनु )) विष्णुधर्म 8-28 ऎलै इन्द्रने नन्नन्नु वज्रायुधदिन्द बेकादरू- हॊडॆ अथवा बिडु. गोविन्दनन्नु घॆ बिट्टु बेरॆयॊब्बनन्नु नानु आराधिसुवुदिल्ल, 1121 श्रीनुद्रहसत्र्रयसाके इत्यादिहळर् सडिये नित्यनैमित्ति, कज ४८ निकीषणमांय् पुहुमुळर्वोय मत्तुम् सर्वावसॆ फिलम् को स्प र्शम् अत्ति रुक्कै उचितम्. भु मोक्सत्तुक्कु उपायान्वरार्थिहळाय् उपाय विरोधिहळ्ळॆक्सैनिक्क वेण्णु वार्तु म् इप्र पत्ति पण्ण लाम्. प्रा प्रि निरोध यै कृगिक्क नेणु वार्ळुम् इप्रसत्ति तानॆनियन्नयुनॊन्रु प्र पत्रि यिनुडै स्व सकलाभिमुत साधनतु वा् इजक्कॆ € शॊल्लित्तायित्तु. प्रपत्तेः विरोधि निवर्तनेन भक,निष्टा दकत्वं सास्टान्मोक्ष साधनं च अस्लीति (श्रीभाष्यकार सम्मतमित्याह . इदिल् प्रपत्ति उपाय विरोधिय्य क [/क्टुमु् कट्टिळ्ळिय्बि (श्री गीता भाष्यत्ति ले द्वितीय योजनैयिले अरुळिच्छॆय्दार्, प्राप्ति विरोधिय्यै कृगक्प्पम् कट्टि ळ्ळॆय्फै गद्यत्तिले यरुळिच्लॆय् दार्, इवै इरण्णिडत्तिलुम् ऒन्नै स्न जॆ यरुळिच्चॆ य्द पडियन्रु. इरॆ च्लिडमुम् सर्वाभिनुत ऎङ्कॆ इन्न पायु ग प्रभावत्तु क्र उ उदाहरणप स प्रणवम्, मन्र्रान्तरत्तिल् प्रवेशित्तु म स्वतन्त्रमायुवं् निर्भुवताप्टोले सिद्धजीव लिङ्गसहित वाक्य प्र-पादक मन्त्रगळ उच्चारणॆयिन्द अन्तर्यामियाद भगवन्तने आराध्यनाद्दरिन्द, विशेषण भूतराद देवतॆगळिगॆ आराध्यत्वनिल्लदिरुवन्तॆ, इदु विनह, मट्रुष् इत्यादि - इतॆर सर्वावस्थॆ गळल्लियू देवतान्तर स्पर्शवन्नु बिट्टिरुवुदु उचितवादद्दु. मोक्षत्तुक्ळु इत्यादि - मोक्षक्कागि भक्तियोगरूसवाद उपायान्तरगळन्नु अनुष्मिसु ववरागि, भक्तियोगवु. सुलभवागि निष्पुन्नव गलु विरोधिगळागि आशक्यानुष्ठानगळाद पास गळन्नु कळॆयलु आसॆसडुववरिगू इस्फृसत्तिताने - ई प्रनत्तियॊन्दे अव्छयुम् - साका गुत्तबि ऎन्दु प्रपत्तिय सकलाभनुत साधन त इल्लि हेळल्प ट्टि दायितु. इदिल् प्रपत्ति इत्यादि - ई सकलाभिमत साधननिषयदल्लि, ई प्रसत्तियु भक्रिरूस विरोधि पासनन्नु निवर्तिसुव कट्टळ्ळॆयैॆ - प्रकारवन्नु श्रीगीताभाष्यदल्लि द्वितीय योजनॆयल्लि भगवद्भाष्य काररु अनुग्रहिसिरुत्तारॆ. अल्लि चरमश्लोकक्कॆ अङ्ग प्रसत्तिसरवागि व्याख्यान माडिरुत्तारॆ प्रास्तिनिरोधिय्सि इत्यादि - मोक्षनन्नु पडॆयलु निरोधियाद पापवन्नु निवर्तिसलु स्पतन्त्र प्रपत्त ec ननन्नु `शरणा गतिगद्यदॆल्लि भगवद्भास्यकाररु अनुग्रहिसिरुत्तारॆ. इवै यिरण्डिडत्तिलुम् शत्यादि - . ई ऎरडु ‘जागगळल्लियू । ऒन्दन्नु (अङ्गत्वनन्नु) अनादरिसि मत्तॊंरन्सु (स्वतन्त्रत्वनन्नु ) हेळिद्दारॆन्दल्प. इरण्डिडमुम् इत्यादि - ई ऎरडु स्नलगळू सर्वाभिनुत साधननाद ई उपायद प्रभानक्कॆ उदाहरणॆगळु. ९ प्रसत्तिगेने, अङ्गत्वनन्नू स्वतन्त्रत्ववन्नू हेळुवुदु युक्तवे ऎम्ब शङ्कॆयनु ओ प्रणवम् म स म पूर्वकवागि होगलाडिसुत्तारॆ. अदागि प्रणववु व्यासकमन्त्रगळल्लि, व्यासकनानु अन्द इरायण स] सुब आ २ क डै स स त is ps an त स ज्र ल्ल क ल्ल त्मा ई”, स्वतन्त्रवागियू प्रपत्ति चरमक्कॊ ेकाधिकारः 1122 इप्रसत्ति अधिकारि निकीषत्तिले भक्त 0गमुमाय्, अकार-तरति ले स्ह तॆन्त्रनुमाय् इरुक्कॆ वचन बलत्ता प्रे सिद्ध म्. इप्पडि नियताधिकारमाह भक्तिपॆ र्रसत्तिहळ् निकल्पित्तु निद्दिर निलै भक्ता ,सरम यावाफि प र)पत्यावा महामते,” “सित्यादिहळिले प्र सिद्धम्. आहै कजल् “सम्य ९56 जा न नेनवा मोक्षं गङ्गायाम् । प्रणानाग्यास सुकृ ताद्भक्षा मा लभते नरः ॥। इत्यादिहळिले साकादुन यत्कॊ €डे कॊड परम्परोपूयणज्ञ ळ्ळ ऎडुत्तदुवुवत् अनति नुडय प्राशस्ता तिशॆयं तोतु िहैक्साहवत्त न्व. द एक शब्दस्य उक्कार्थान् कारिकया सङ्गहाति ल ण प्राप्यस्येव प्रापकत्वं स्वप्राधान्य निवारणम् । करणमन्त्रवागि निल्लुवन्तॆयू ई स्रसत्तिशास्त्रवू, अधिकार निशेषत्तिले - भक्तियोगवन्नु अनुष्ठिसुव सकिञ्चननाद अधिकारिय विषयदल्लि भक्तिगॆ अङ्गवागियू, अधिकार्यन्तरत्तिले - अकिञ्चननाद अधिकारिय विषयदल्लि, स्वतन्त्रवागियू इरुवुदु वचनबलदिन्द सिद्ध. श्रीगीति यल्लि कर्मयोग ज्ञानयोग भक्तियोगगळन्नु हेळि, “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” ऎन्दु अवुगळिगॆ अङ्गवागि स्रुसक्तियन्नु विधिसिरुवुदरिन्द अङ्गत्ववू, “शरणन्त्वां प्रुपन्नायॆळ yh निनर्जिताः । ते$पिम त्युमति तॆ यान्ति तजि स्स वं पदम् ॥ ऎन्दु ध्यानं गोगशून्यरिगॆ. प्रसत्तियॆन्नु मोक्षसाधनवागि हेळिरुवुदरिन्द स स्वतन्त्रत्ववू वचन बलसिग्ध, अधिकारिभेधदिन्द : प्रन त्रिगॆ आं त्त भट 3त्वनन्नु हेळुवुदु विरुद्ध नल्लवॆन्द्कू एसाधिकारि विषयदल्लि अङ्गवागियू. स्वतन्त्र वागियू प्रपत्रियन्नु अनुष्कि सबहुदॆन्दरॆ विरुद्ध वागुत्तदॆयॆन्दू तात्पर्य. इप्पडि नियताधिकारमाह इत्यादि - हीगॆ नियताधिकारवागि भक्तिप्रपत्तिगळु व्यन स्कितवागि “कल्लि )सल्पट्टु, इरुव स्थितियु (1) भक्त्यापरमुयावाहि इत्यादिगळल्लि प्रसिद्ध- आहै याल् अन्दरॆ उत्कृष्टवाद “भक्ष यिन्दागलि, उत्सु ऎस्मवाद प्रपत्तियिन्दागल्लि स भगवन्तनु) इ प्रास्यनु. बेरॆ याव रीतियल्लियू नन्न कैङ्कर्य नन्नु माडलॆणिसुवनरु नन्नन्नु सडॆयलागुवुदिल्ल. आहैयाल् - आद्दरिन्द (2) सम्यक् ज्ञानेनवा मोक्षः इत्यादि वाक्यगळल्लि साग्णादुपायनाद भक्तियोग रूप सम्यक्ज्ञ्यानद जतॆगॆ गङ्गॆयल्लि मरणनन्नू, सुकृत प्रणामनन्नू सेरिसिहेळिरुवुदु, गङ्गामरण, सुकृतप्रणामगळु, परम्परॆयागि नोक्षकारणगळागु- त्तवॆ. साक्रूदुपायवाद भक्ति योगदॊडनॆ सेरिसि हेळिरुवुदु अवुगळ प्राशस्त्र्यनन्नु तिळिसलु A विस्तारवागि हेळिद . एकशब्दार्थवन्नु शिष्यबुद्धि सौकर्यक्कागि (।) प्राप्यस्यैव
- प्राप्कॊ ” ेीहं नान्यथा Ae प- ुपःमव स्रिपृःमम कैङ्कर्यलिप्सभि लिपु भिः । ॥ इदा ु उत्तरार्ध, राधि
- क्रीमद्रहस्यत्रयसाके प्रपत्तेः व्याजमात्रत्वं’ अन्योपाय्किरनन्वयः । तदङ्गैरपस्य सम्बन्धः सर्वसाभ्येष्ट भिन्नता । इत्समर्थाष्टडाचारैृः एकशब्दस्य दर्शिताः ॥ वासा इवना सगुन इदागि गवान् नना दग न्न मावन निवारणॆ (3) प्रपत्तियु व्याजमात्र (4) इतर उपायगळाद भक्तियोगादिगळॊडनॆ सहकारि” यागि अन्वयविल्लदिरुवुदु. . (5) भक्तिय अङ्गगळॊडनॆयू सम्बन्धवनिल्लदिरुवुदु.. (6) सर्व साध्य विषयगळल्लि निकोपायत्च्ह इत्न मथा९ः. इत्यादि - हीगॆ आरु अर्थगळु आचार्यरु गळिन्द एकशब्धक्कॆ तिळिसल्प ट्ववु. । प्रसत्तिकालदल्लि एकशब्धक्कॆ हेळिरुव आरु आर्थगळू आनुसन्धेयॆगळु ’ “मामेकं? ऎम्बल्लि उपायोपेयगळ. ऐक्यवू प्रनदनकालदल्लि भासनरानवागुत्तदॆ. स्तप्राधान्य निवा रणम् - इत्यादि स्वप्राधान्य निवारणवू भासवागुत्तदॆ. अदन्नु आचार्यरु न्यासॆदककदल्लि; “स्वामीस्तशेषं स्हनशं स्तभरक्वेन. निर्भरम् । स्वदत्तस्वधिया स्वार्थं स्पस्मिन्न्यस्यतिमां स्वयम् [। ऎन्दु अनुग्रहिसिरुत्तारॆ. आत्मसमर्नण दशॆयल्लि ई अंशवु अनुसन्धेयनॆन्दु सिजोपाय् शोधनाधिकारदल्लि हेळल्पट्टिदॆ. इदु साफ्टिकक्याग सरनल्ल.. सात्विक त्यागवु निवृत्ति धर्म गळॆल्लिल्ला अनुसन्धेयवाद्दरिन्द्क विशेषवागि हेळिरुव स्वप्राधान्य निवारणॆगॆ सार्थकत्वननुष हेळबेकादुदु अवश्य. अदु, भगवन्तनिगॆ, अनन्यार्हशेषत्ह पारतन्त्र कान्मॆयन्नु तन्नल्लि अनुसन्धानमाडि, हीगॆ अत्यन्त परतन्त्रनाद अकिञ्चननाद नन्न रक्षाभरण सर्वस्ववू, निरु पाधिक सर्वस्वानियाद निरङ्कुश स्टातॆन्त्र तशालियाद सर्वरक्षकनाद श्रीमुन्मारायॆणनिगे सेरि द्वुद, ननगल्ल ऎन्दु तन्न प्राधान्य निवृत्तिय अवश्यवागि भासमानवागबेकॆम्बुदु. इदन्नु अभिप्रायदल्लिट्टुकॊण्डे श्रीमुन्न्यासतिलकरल्लि आचार्यरु, आर्तेष्याशु फला तदन्यनिषये प्युच्छिन्न देहान्तरा नह्म्य्यादेरन पेक्षणात्रनु भृतां सत्यादिवद्वा ्यपिनी । श्रीरङ्गेश्वर यानदात्म्य नियतॆ त्वत्सारतन्त्रॊ सीचिता त्वय्येन त्वदुपायधीरपिहितॆस्टोपाय भावास्तुमे ॥. ऎन्दु अनुसन्धान माडिरुत्तारॆ. ई श्लोकदल्लि “यावदात्म्यसनियत त्वत्सारतन्त्योचिता,” ऎन्दु भगवत्पारतन्त्र नु न्यासविद्या विशेषणवागि हेळल्पडुत्तदॆ. सरतन्त्रुनिगॆ उचितनादद्दु पारतन्त्र्य स्वरूप ज्ञानद अनुसन्धान. इदु भक्तिनिस्ठनिगॆ इल्लवे ऎन्दरॆ भक्तिनिस्ठनिगू इद्दी इदॆ. अवनिगि ल्लवॆन्दु. हेळि भक्तियु स्वरूप निरुद्ध वॆम्बुदु ई श्लोकदिन्द द्योत्यवागुत्तदॆयिन्दु कॆल वरु हेळुवुदु असरामर्शमूल. भक्तियोग निष्कनिगॆ दहराद्युपासनगळल्लि आयाया विद्य गळिगॆ प्रतिनियॆतगळाद गुणानुसन्धानवु मुख्य. प्रपत्तिगॆ “एक? शब्ददल्लि हेळिरुवन्तॆ पार तन्त्र्यदकास्कॆयु शरणागतियल्लि विषयतया भासमानवागि अनुसन्थेयवु- इदन्नु उद्देश्य दल्लिट्टुकॊण्डु “यावादात्म्यसनियतत्वत्पार तन्त्रॊ ्येचिता’ ऎन्दु हेळल्पट्टिदॆ, त्वय्येवत्वद । पायधीरित्यादि - नीने उपायनॆम्ब बुद्धियू, निन्नल्लिडल्पट्टिदॆ - अनिहितस्रोपायभावा - ई प्रुपत्तियु साक्षादुपायवल्ल. परमकारुणिकनाद सर्वस्वतन्त्रॆनिन्द, अज्जनू अल्पशक्तियू, चरमश्लॊ इाधिकारः । 1124 प्रसत्तॆ राज मात्रत्व मन्योपाय्टॆ रनन्वयः तदजक्सैरप्य सम्बन्धः सर्रसाध्येख्सभिन्नता । इत्त मर्था स्पडाचारै क्कीक शब्दस्यदर्शिताः ॥ ल्ल आ ब « ई भक्तियोगवन्मनुषस्मिसलु अलसनू आद ननगॆ नन्न आधिकारक्कॆ तक्कन्तॆ यान ई प्रसत्तियु निन्निन्द सङ्कल्लिसल्पट्टितो, निन्नन्नु हॊन्दुवुदक्कॆ सहकारिभूतवागि, निन्नल्लिये रक्रूभर समर्पणवु माडिसल्पट्टितो, आ ई प्रुसत्तियु व्याजमात्र. अदन्नु प्रनत्तेः व्याज मात्रत्वं - ऎन्दु आचार्यरु अनुग्रहिसुत्तारॆ. स्रॆथानोपायवु स्वाभाविक परमकारुण्य निधियाद सर्वलोक शरण्यनाद नीने, ई अंशवू स्रसत्त किनुष्कानकालदल्लि भासमानवाग” त्रदॆयॆन्दु तात्पर्य. उपायॆत्वनॆन्दरॆ साधकतमत्वॆवु. अदु मेलॆ हेळिदन्तॆ भगवन्तनल्लि” अवगाह्यवु. ई अंशवु प्र्पदनाधिकारदल्लियू हेळल्पट्टिदॆ. अदागि “इवत्तिनुदैय रक्षणभ5 मुन्”, नहिपालन सामर्थ्यं खुते सर्वेश्वरं हरिम् । ऎन्मिरसडिये सर्वरक्षकनान अवनदे”, ऎन्दु हेळल्पट्टिदॆ. “सर्वरक्षकनान’ ऎम्बुदरिन्दल्कू “नहिपालन . सामथ्थ्य्यम ‘खुते सर्वेश्वरम्”: ऎम्बुदरिन्दलू, स्वरक्षण व्यापारदल्लि, तानु माडुव प्रसत्तियू अवनिन्द माडिसल्पट्टु, अवन सङ्कल्पविल्लदॆ तनगॆ सामर्थ्यविल्लनॆम्बुदू तोरुत्तदॆ, आद्दरिन्द मेलॆ हेळिदन्तॆ सर्ववू उसपसन्न. (&) अन्योषायैरसन्वयः (5; तदङ्गैरस्य सम्बन्धः, भक्त्य्याद्युपायगळूडसनॆ सहॆकारिभानदिन्दलू सम्बन्धविल्लदिरुवुदु. भक्तिय अङ्गगळॊडनॆयू सम्बन्धविल्लदिरुवुदु, ई ऎरडु पादगळिन्द प्रदर्शितवाद फिरसेक्षोपायत्चवु न्यासविद्यॆगॆ विशेषवाद वेद्याकार. इदु प्रपत्ति प्रयोगद अनुसन्धान रशॆयल्लि सेरिसिकॊडु. अनुसन्धान माडबेकॆम्बुदु निर्विवाद. “प्रस्त वशीकृतनाद नानॊरुवनुवॆंे अमैयुम्?, - प्रपत्ति वशीकृतनाद नानॊब्बने साकु, ऎन्दु आचार्यरु हिन्दॆये अनुग्रहिसिरुत्तारॆ. यदैेन काम कानेन न साध्य साधनान्तरै ! तेनते नास्यते तत्तन्न्य्यासे नैव महामुने ॥ परमात्माच तेनैन साध्यते पुरुषोत्तमः [। ऎम्ब वचनवु इल्लि प्रमाण. याव यान पुरुषार्थगळु उपायान्तॆरगळिन्द साध्यविल्लवो अववुगळु प्रसत्रियिन्द साध्यगळु. परमात्मनु आ प्रसत्ति नशीकृतनागि आ पुरुषार्थगळन्नु कॊडुत्तानॆन्दर्थ. इदरिन्द उपायान्तर स्थानदल्लि प्रसत्तियु विधिसल्प ट्टिजि. इल्लि “प्राधा नैेन शरण्यनै निशेसित्तुक्कॊण्डु निन्रालुम्, न्यासेन्सैन, ऎन्सिरपडिये प्रपत्र्रियॊन्रुमे सर्वधमान्तर स्मानत्तिलुम् विधिकृप्प डुहिरदॆन्रु फलिक्कुम्” ऎन्दु आचार्यरु ई शॊ कक्कॆ ताने व्याख्यान माडिरुत्तारॆ. हीगॆ वचनबलदिन्द उपायान्तर स्थानदल्लि, शरण्यनन्नु प्रपत्तियु निल्लिसु सजि, ऎन्दु हेळबहुदादरू शरणागतिये उपायान्तर स्थानदल्लि निधि सल्पडुत्तदॆ ऎम्बुदु प्रॆसत्तियॊन्रुमे सर्नधर्मान्तर स्कानत्रिलुम् विधिकृस्पुडु हिरजॆन्रु फलिक्कुव्” ऎम्ब श्रीसूक्तियिन्द स्पष्ट. अनन्तर श्रीसूक्तियल्लियू, “भक्ता 3 सरमयावानि स्रसत्ता वा महामते?” ऎम्ब 1125 श्री मद्रॆ हॆस्कत्रॆयघारी अथ लक्ष्म निशिष्टः एक एन शरण्यः इत्याहॆ ननभिर्कारिकैः केचत्विहै क शब्दार्थं शरण्यैक्यं प्रचक्षशे । निशिनस्टि तथापि (श्रीर्गुण निग्रहवत्रभुम् ॥ 1461 ईश्वरी सर्वभूताना नियं भगनतःप्रिया । संश्रित त्राणदीक्षायां सहधर्मचरी स्मृता ॥-91 पू… ऒड. ऒबाम 3.111… ।. थ । इइ.“ . ब्रज् सह ATES EE अं सभ अभा ०५ 2२2 2 ज80जज0ग शीसूक्तियन्नु उदाहरिसि, इदरिन्द भक्तिय हागॆ स्रसत्रियॊ समानवाद आ- पायॆनॆम्बरगु व्यक्त, कॆलवरु भक्तियु मुख्योपाय, प्रसत्तियु भक्तियन्नु उण्टुमाडुत्तदॆ, ऎन्दु ताशर्य वॆन्दु हेळि, अदक्कॆ दृष्टान्तवागि सम्यक् ज्ञानेनवा मोक्षो गङ्गायां मरणेनना - पूर्णज्ञ्यान(भक्ति)दिन्दलो. अथवा. गङ्गॆयल्लि बिद्दु प्राणवन्नु बिडुवुदरिन्दलो मोक्षवु लभिसुत्तदॆ, ऎन्दु साक्रादुसायनन्नू परम्परोपायनन्नूू (गङ्गॆयल्लि मरण) ऒन्द् गूडिसि हेळिरुवन्तॆ प्रसत्तियु भक्तियॆन्नुण्टु माडि, भक्तियिन्द मोक्षनॆन्दु हेळि, प्रपत्तिगॆ सरम्परोपायत्हनन्नु हेळुवुदु अनुचित. । (6) सर्वसाध्येष्व भिन्नता - सर्नसाध्य विषयगळल्लि एकोसायत्ववु - अन्दरॆ ऎल्ला प्रयोजनगळन्नू तानॊब्बने कॊडबल्ल स्वभान. इत्त मर्थाष्टडा चार्य; एकशब्दस्य दर्शिताः - हीगॆ एकशब्दक्कॆ. आरु अर्थगळु आचार्यरुगळिन्द उसदेशिसल्प ्टिवॆ. “मामेकं” ऎम्बल्लि लक्ष्मिगॆ उपायत्तपिल्लनॆम्ब मतद खण्डनॆ. इल्लि कॆलवरु. “मामेकं शरणं व्रज”, ऎन्दु भॆससन्तनॊब्बनन्ने उपायवनन्नागि आश्र यिसबेकॆन्दू लक्ष्मिगॆ ८. पायत्चदल्लि आन्वयन्नीवॆङ्गू हेळुत्तारॆ. आ पक्षनन्नु केचिति हैक शब्द्बार्थं ऎन्दु अनुवाद माडि निराकरिसुत्तारॆ- अदागि कॆलवरु इल्लि एकशब्दार्थवु शरण्य । कृवन्नु तिळिसुत्तदॆ ऎन्नुत्तारॆ. अन्दरॆ लक्ष्मिगॆ अन युनिल्लडॆ केवल नारायणने उपायवॆन्दकळि हेळुत्तारॆन्दर्थ. इदन्नु निराकरिसुत्तारॆ - निशिनष्टि तथासि श्रीः इत्यादि एकशब्बार्थक्कॆ शरण्यशब्ब्दवु विशेषणवागि तोरिदरू, एकशबार्थक्कॆ विशेष्यवाद"मां’ ऎम्ब अस्मच्छब्दव लक्ष्मी गुणविग्रह विशिष वाद्दरिन्द, गुणविग्रहगळ हागॆ लक्ष्मियू विशेषणवागि तोरुवुदरिन्द विशिष्टोपायतळ सिद्धिगॆ बाधकविल्लवॆन्दर्थ. हीगॆ सर्वदा अस्भथक् सिद्धनिशेषणळागि इरुवुदरिन्दलू सङ्कल्फार्ह चेतनळागिरुनुदरिन्दलू, विशिष्ट्रवु उपायवागिरुवाग विशेषणवू उपायनागिरत्तदॆ ऎम्बुदु सिद्धिसुत्तदॆ ऎन्दु तात्सृर्य. हीगॆ भगनन्तनिगॆ निशेषण भूतळागिरुव मात्रदिन्दले उपायत्वनु एर्पडुत्तदॆ ऎम्बु दल्लद्यॆ प्रमाणवनचनगळू लक्ष्मिय उपायत्वनन्नु “ईश्वरीग्ं सर्वभूतानां? इत्यादि ऎत्ति तोरिसुत्तॆनॆ. ईश्वरीग्ं सर्वभूतानां - गुणविग्रहादिगळ हागॆ निशेषण मात्रवल्लदॆ, अशेषलोकक्कू भगवन्तन . हागॆ नियन्ति)यागिरुवुदरिन्दलू इयं भगवतः प्रिया - “तदिङ्गित पराधीनो विधत्तेःखिलं ऎम्बन्तॆ लक्ष्मिय इङ्गि तक्ष सराधीननागि भगनन्तनु सकलवन्यापारगळन्नू माडुत्तानॆन्दु हेळिरुवुदरिन्द भगवन्त निगॆ प्रियतमॆयागिरुवुदरिन्दल्कू संश्रितश्राणदीक्षायां - आश्रितरक्षण विषयदल्लि भगवन्तनु 1126 चरमश्लोकाधिकारः एकं जगदुपादान विन्त्तुक्त्वेषपि प्रमाणतः । यथापेक्षित वैशिष्ट 3० तथात्रापि भनिष्यति I 159 11 एकोपास्ति निधानेपि गुणादीनां यथान्वयः । तथै कशरणं व्रज्या निधानेष्ट ;नुमन्यतावं् ll 15° यथा गुणादि वैशिष्टॆ ८ सिद्धोपायैळ्य मस्षतम् । एवं पत्मी निशिष्टत्तेनप्य भीष्टं शास्त्र चक्षुषानंर् ॥152॥ “मोक्षयिष्यानि” ऎन्दरि सङ्कल्प. माडिदरॆ, इनळू सहथधर्मचारिणि यागि कूड इद्दु “उपायोभवानि” ऎन्दु सङ्कल्पिसुत्ताळॆन्दू, “ल्ला ऒ8सहहैसीकेशः देव्या कारुण्यरूप या । रक्षकः”, इत्यादि प्रमाणगळल्लि भगवन्तन हागॆ लक्ष्मिगू उपायत्सवु स्कि तवॆन्दु तात्पर्य. इल्लि “सर्वभूतानामीश्वरी?, “भगनतः प्रिया” ऎम्ब ऎरडु विशेषणगळू हेतु गर्भ. भगनदनुरूपवाद ईश्वरत्ववु इवळल्लिरुवुदरिन्दलू, भगवदभिमतॆयागिरुवुदरिन्दलू सहधर्मचारिणियागि स्म तॆकाररुगळु हेळिरुत्तारॆ. “मामेकं शरणम्”, ऎन्दु भगवन्तनॊब्बनिगे उपायत्चवु तोरुवन्तॆ. इल्लवे; हागि रुनाग हेगॆ अवनिगॆ श्री विशिष्टश्ववन्नु हेळुनुदॆम्बुदन्नु विशेषणवु अपेक्षितवादरॆ, तद्विशिष्ट त्रवु अवश्य तोरुत्तदॆयॆन्दु, दृष्टान्तपूर्वकवागि, “एकं जगदुपादानं”, इत्यादि यागि समर्थिसुत्तारॆ. आदागि “एकमेवा द्वीयं ब्रह्म? ’ ऎम्ब श्रुतियल्लि एकनिगे जगदु पादानत्ववु हेळिद्दरू, यथाःपेक्षित वैशिष्ट्य्यं हेगॆ अपेक्षितगळाद सूक्ष्म चेतना चेतन वैशिष्ट वु अङ्गीकरिसल्पडुत्तदॆयो तथात्रापि भविष्यति हागॆये, . “मामेकं शरणं? ऎम्बल्लियू उपायनागि हेळल्पट्ट, भगवन्तनिगॆ मेलॆ हेळिद प्रमाण श्लोकानुसारवागि अपेक्षणीयवाद : श्री वैशिष्ट वु तोरुप्तैदॆ ऎन्दु भाव. मत्तॊन्दु दृष्टान्तवनु “विळोपास्तिनिधानेपि? ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्ताकि. “तमेवैकं जानथात्मानम्” - अननॊब्बनन्ने उपासनॆ माडि, “तमेव विदित्वाततिमृत्यु मेति? - अवनन्नु उपासनॆमाडि संसारवन्नु दाटुत्तानॆ, इत्यादिगळाद भगवदेकोपासन विधानस्मलगळल्लियू, हेगॆ सगुण ब्रह्मवादिगळाद नमगॆ गुणादीनां यथान्वयः - गुण वैशिष्ट्यवु तोरुवुदागि आङ्गीकरिसबेको तथैक शरणव्रज्या विधानेपि - हागॆये “भग वॆन्तनॊब्बनन्ने शरणवागि हॊन्दु. ऎन्दु विधिसुव स्मलदल्लियू, अनुमन्यताम् - लक्ष्मी वैशिष्ट्य वन्नु अङ्गीकरिसबेकु. हीगॆ लक्ष्मी वैशिष्ट्यवन्नु ऒप्पिदरॆ उसाय्किक्यक्कॆ भङ्गवु एर्पडुवुदिल्लवे ऎन्दरॆ यथा गुणादि नैशिष्टॆ 3८ ऎन्दारम्भिसि समाधानवन्नु अनुग्रहिसुत्तारॆ. - अदागि गुणविग्रह गळिन्दॆ कूडिद सिद्धोपाय्कैक्य मक्षतव् - सिद्धोपायनाद भगवन्तन एकत्वक्कॆ क्षति - नाशनिल्लवो, एवं पत्ति विशिष्टृत्वे;ह अभीष्टं शास्त्रचक्षुषाम् - हागॆये शास्त्र प्रमाणनन्नवलञ्जिसुवनरिगॆ पत्नियाद लक्ष्मिय विशेषण विशिष्टृत्ववु सम्मतॆवु. विशेषण वैशि ष्क्य्यवु विशेस्यॆ सत्वक्कॆ बाधकवागुनुदिल्ल ऎम्बुदन्नु शास्त्रज्ञरॆल्लरू अङ्गीकरिसिद्दारॆन्दु भाव. 1197 शीमुप्र्हॆस्क त्रयसारी प्रभाप्रभावतो र्यद्वदे कोक्ता वितरा न्वय; । एवमस्यतरोक्् स्कात्सहवृत्त भिधानतः ॥ 31 112… २ अर 4 ऒद इ अ Ld 8 हबा ता. लक्ष्मिगू शरण्यान्तर्भाववु एकशब्ददिन्द निनक्षित. इल्लि “मामेकं शरणं व्रज”. ऎन्दु भगवन्तनॊब्बनन्ने उपायवागि हेळिरुवाग लक्ष्मिगॆ हेळदे इरुव शरण्यान्तर्भाववु हेगॆ कूडुत्तदॆ ऎन्दरॆ प्रभा प्रभावतोर्य द्वत् ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तारॆ. अदागि प्रजॆगू, प्रभॆयिन्द कूडिद वस्तुनिगू, एको क्रानितरान्वयः - ऒन्दन्नु हेळिदरॆ मत्तॊन्दक्कॆ अन्वयविरुवन्तॆ आंरकॆ सहॆनृ ७त्वविरु वन्तॆ, भगवन्तनिगू लक्ष्मिगू सहनृत्तित्सनन्नु प्रमाणगळु हेळुवुदरिन्द. ई दृष्टान्तवन्ननुसरिसि भगवन्तनॊब्बनन्ने शरणवागि हेळिरुव स्थळगळल्लि ऒक्ष्मिगू शरण्मान्त र्भाववु कूडुत्तदॆ ऎन्दु सिद्धान्त. ग्गपयत्यातपः - बिसिलु सुडुत्तदॆ, आह्लादयतिज्यो ता - बॆळदिङ्गळु आह्मादवन्नुण्टु माडुत्तदॆ ऎन्दु प्रभॆय कार्यवु प्रभावानल्लियू अन्वयिसुत्तदॆयल्लवे, “सूर्यः शोसषयति” - सूर्यनु ‘ऒणगिसुत्तानैॆ, “चन्द्रः शीठतळयति? - चन्द्रनु शैत्यवन्नुण्टु माडुत्तानॆ ऎन्दु प्रभावान्गळ कार्यवु आतस्क ज्यॊत्सा दिगळिगू अन्वयिसुत्तॆदॆयल्लवे. इदे रीतियल्लि ई विशिष्ट दम्पतिगळल्लि ऒब्बनु शरण्यनॆन्दरॆ इतरळिगू शरण्यान्तर्भाववु सिद्धिसुत्तॆडॆ.. इदन्नु ऎनमन्यतरोकौ स्यात् सहवृत्त सभदानतः - ऒब्ब रन्नु शरण्यनॆन्दु हेळिदरॆ मत्तॊब्बरिगॆ अदु अन्वयिसुत्तदॆयॆन्दु ताश्टर्य. इदक्कॆ कारण सहवृत्त किबिधान. सिद्धान्तदल्लि परतत्ववु लक्ष्मि विशिष्ट नारायणनु. आ विशिष्ट तत्ववे ब्रह्मशब्दवाच्य, जग त्छारणवू, उपायवू, प्रास्यवू सह. ई अंशवु हेगॆ एर्पडुत्तदॆ? श्रुतिगळल्लि स्पष्टवागि हेळल्पट्टिदॆये ? “एकमेवान्द्वितीयं’ इत्यादि वाक्यगळल्लि ऎकशब्दक्कॆ लक्ष्म्मीविशिष्टनॆन्दु हेळु वुदु हेगॆ. समञ्जसनागुत्तदॆ इत्यादि पूर्न९पक्षगळन्नु मनस्सिनल्लिट्टुकॊण्डु अदक्कॆ समा धानवागि “प्रभा, प्रभानतो र्यद्वत्” ऎन्दारम्भिसुनॆ कारिकॆयन्नु आचार्यरु अनुग्रहि सिरुत्तारॆ. इदर तात्पर्यवन्नु करूरुस्वामिगळवरु तम्म “सारतान्पर्य कौमुदि” यल्लि 17- कारिकॆगळिन्द विवरिसुत्तारॆ. अदन्नु इल्लि अर्थदॊडन बरॆयलागिदॆ. । (1) प्रभाकरांशुनुत् भास्वद्धास्मरादि सदॆर्यॆथा ! प्रभा विशिष्टस,सन प्रोच्यते नतुकेवलः ॥ प्रभाकरः, अंशुमान्, भास्टान्, भास्करः, मॊदलाद पदगळिन्द प्रभॆयिन्द कूडिद सूर्यनु हेळल्पडुत्तानॆ, प्रभॆयिल्लद सूर्यनु हेळल्प्बडुवुदिल्ल. (2). एनं नारायणाद्यै श्च भगवान् दिन्यनामभिः । श्रियाविशिष्टो व्यावृत्तः प्रोच्यते देवतान्तरात् ॥ हीगॆ नारायण, विष्णु, वासुदेव मॊदलाद दिन्यनामगळिन्द लक्ष्मी विशिष्टनाद भगवन्तन जीनतान्तर व्यावृत्तनागि तिळिसल्पडुत्तानॆ. चरमश्कोकाधिकारः 11238 :. EN ना रा (3) सूर्यस श्र भादिशब्बेु स्वाश्रयेण निशेषिता । प्रभोच्यते ततो दीप स्रभादिभ्यो विभिद्यते ॥ सूर्यन प्रभॆ मॊदलाद शब्दगळल्लि स्वाश्रयदिन्द विशिष्टवाद प्रभॆयु हेळल्बट्टु, दीप प्रभॆ मॊदलादवुगळिन्द बेरॆयिन्दु हेळल्पडुत्तदॆ. (4) श्री लक्ष्म्मादि पद्दॆकेवं विष्णु सत्त्वी विशिष्नते । विष्णुन्सैन ततो. न्याभ्यः पत्याव्यावतण्यते स्वयम् ॥ हीगॆ, श्री, लक्ष्मी मॊदलाद पदगळिन्द विष्णुविन पत्नियु. निशेषणभूशळागि हेळ ल्रट्टु, विष्णुशब्द साहचर्यविन्द इतर पत्निगळाद भूमि नीळॆगळिगिन्त बेरॆयादवळु. ऎन्दु व्यावर्तिसल्पडुत्ताळॆ । (5 इत्कञ्च दिव्यदंसत्को रेकॊक्तावितरान्वयात् । महिमोक्तिस्तॆत्रतॆप्र द्वयोरपि समन्विता ॥ हीगॆ दिव्यरंसतिगळल्लि ऒब्बरन्नु हेळिदरॆ मत्तॊब्बरिगॆ अन्वयविरुवुदरिन्द, अल्लल्लि अनरनर महिमॆगळन्नु हेरुवुदु इब्बरल्लि समन्वयवागुत्तदॆ. (6) इदमित्कन्त्ववज्चॆ पत् दंसती साम्प्रदायिक्सः । एकयोक्त्या सिध्यत इत्युक्त मप्यत्र भाव्यताम् ॥ त्रीनराशर भट्टाचार्यरु तम्म त्रीगुण रत्न कोशदल्लि स्वरूसं स्वातन्त्र $४गवत इदं चन्द्रॆनदने त्वदाश्लॆ(सोतैर्षात् भवतिखलु निष्कर्षसमये । बऎमासीर्मातॆ-श्रीः कमितुरिदमित्कन्त्व विभवः तन्दन्तर्भावात्र्म्वां न सृथगभिधत्त्वे श्र्रतिरपि ॥ ऎन्दु साम्प्रदायिकवाद अर्थवन्नु विनरिसिद्दारॆ. अदागि, हे चन्द्रनदने - चन्द्रनन्तॆ आह्लादकरवाद मुखवन्नुळ्ळवळे, निष्कर्ष समुये - तत्वनिर्णयवन्नु माडुव समय भगवतः - भगवन्तन इदं स्वरूपं, - ई दिव्यात्म स्वरूपवू, स्वातन्त्र ं - निरं कुशवाद स्वतन्त्रत्ववू, त्वदाश्लेषसोत्कर्षात् - निन्न नित्यनाद संश्चेषद उत्कृष्ट तॆयिन्द स जा भवतिखलु - उम्बागुत्तदॆयॆषॆ च भगनन्तन स्वरूप स्वातन्त्र गु लक्ष्मिय नित्यसंश्ले(ष दिन्द उत्कृष्कगळागिवॆ. हे मात; ‘श्रीः - ऎल्लॆ तायियाद श्रीदेविये त्वं- नीनु कमितुः - निन्न स्रियनिगॆ, इदनित्कन्त्व विभनः आसीः - इदं शब्दवु इत्यन्त्व - ई प्रकार वादद्दु, ऎम्बन्तॆ भगवन्तनु लक्ष्मी प्रकारक वैभववन्नुळ्ळवनागिद्दानॆ, ऎम्बन्तॆ ह् तदन्तर्भावात् - भगवन्तनिगॆ अस्प थक् सिद्ध विशेषणळागि अडगिरुवुदरिन्द श्रुतिरनि - वेदवू, नसृथगभिधत्त्वे - निन्नन्नु प्रत्येकवागि हेळुवुदिल्ल. श्रुतियं “सदेन सोमैेदमग्र आसीत् एकनेवाद्वितीयम्ब्रह्म’, हिरण्यगर्भस्समवन र्तताग्रे, आत्माना इदमेकमेवाग्र आसीत्, ऎन्दु ब्रह्म, हिरण्य गर्भ,सत्, आत्मा ऎम्ब शब्दवाच्यनु एनमेन ऒब्बने, ऎन्दु हेळिरुत्तॆदॆ. ई स्कळगळल्लि ई शब्दगळिगॆ श्रीनिशिष्ट नॊब्बने ऎन्दु तिळियबेकु ऎम्बुदु साम्प्रदायिकवाद मातु. 1129 श्रीनुग्रहस्यत्रयसारे (7) “इदमस्तीत्यादि वाक्यात् सत्कोक्रिर्धर्नु धर्नीणोः ! यथ्सैनं कारणत्वादि सिद्धि ८्लक्ष्मीतदीशयोः ॥ “सदेव सोमैेदमग्र आसीत्’ ऎम्बल्लि इदम्, आसीत्, सच्छब्दवाच्यनु इद्दनु ऎम्ब वाक्य दिन्द. जगक्कारणत्ववु धर्नुनिशिष्ट धर्नियन्नु तिळिसुनन्त्कॆ, लक्ष्म्मीविशिष्टनाद भगवन्तन नः क्य तिळिसुत्तदॆ. (8) इदमेक मुपादेयं इत्याद्युक्ता निदन्तृनत् । “मानक”. मितिवाक्यात्स्यात् शरण्यत्वं ध्वयोरपि । ई ऒन्दु उपादेयवु ऎम्ब मातिनल्लि, इदं शब्दवु इदन्त्र निशिष्ट्रवागिरुवन्त्कॆ “मामेकं शरणं व्रज”, ऎम्ब वाक्यदल्लि शरण्यत्ववु लक्ष्मि"नारायणरिब्बरल्लियू अन्वयिसुत्तॆ (9) मामेकां शरणं प्रास्य तरेत् संसार सागरव । उपेयायास्तॆव प्रस्त त्वामुषायतशया वृणे ॥ (10) इत्येवम्भगवचास्त्रे निर्बाधा लक्ष्म्युपायता । प्रोक्ता सत्युरुपायत्वे तदन्तर्भाव भावतः ॥ नन्नन्ने (लक्ष्मियन्ने) ऊपायवागि आश्रयिसि संसारसागरनन्नु दाटिबेकु ऎन्दू पाञ्च रात्रसंहितॆयल्लि, उपेयभूतॆयाद निन्नन्नु पडॆयलु, निन्नन्ने उपायवागि वरिसुत्तेनॆ, ऎन्दू लक्ष्मिय उपायत्वव्र, याव आक्षेपवू इल्लदॆ हेळल्पट्टिदॆ. पतियु उपायवागि रुवाग, अवनल्लि विशेषण विशिस्टळागिरुवुदरिन्द लक्ष्मिगू उपायत्ववु निर्भाधवागि हेळिदॆ ऎन्दु ताश्सर्य. (11) प्रमाणन्याय सचिन सम्प्रदायानुसारतः । तुल्कैन दिन्यदम्पत्योः सरविद्या प्रसाश्यता । प्रमाणगळॊडनॆ साचिव्यनन्नु पडॆद सम्प्रदायानुसारवागि दिव्यदंसतिगळिब्बरिगू परविद्देै यिन्द प्रसन्नरागि उपायॆभूतरागुवुदु, सम. (12) सत्क्य्याः पुरुसकारत्वमसपि स्वेच्छा निभावितम् । ‘पतिपारार्थ्यवन्नित्यं न पारम्य विकोधितत् ॥ पक्किय (लक्ष्मिय) पुरुषकारत्ववु स्वेच्छॆयिन्द एर्पट्टिदॆ. नित्य सतिपारर्क्यवन्नु भाविसु नन्तॆ इदू सह. इदरिन्द अवळ पारम्युक्टॆ विरोधनेनू इल्ल. (13) आनयोरेतदखिल मिति लक्ष्मीतदीशयोः । सङ्कल्पाच्चैदचित्तश्वं सकलं शेषताङ्गतॆम् ॥ ई जेतॆना जेतनात्मकवाद प्रपञ्चवु ऎल्ला लक्ष्मिय मत्तु अनळिगॆ ईशनाद भगवन्तन “आवयोरेतदखिलं” ऎम्ब सङ्कल्पदिन्द, अवरुगळिगॆ शेषभूतवागिदॆ. । (14) मह्यं वस्तुभ्यमेवाहॆनिति सङ्कल्प तो&न्यतः । परस्परन्तयोरेकं शेष शेषित्व मिष्कृते ॥।.चरनुश्लोकाधिकारः 1130 स्मरन्ति चैनां मुनयः संसारार्जवतारिणीवु । चतु “सयन रष्य €तत्सात्व तादिषु तावुभौ ॥ [£4 नीनॆलरू ननगॆ शेषभूतरु ऎम्ब भगवत्सङ्कल्प दिन्दलू, नानु निमगॆ स्वच्छॆयिन्द शेष भूतळु ऎम्ब लक्ष्मिय सङ्कल्पदिन्दलू लक्षि नारायणरिब्बरिगू शेष शेसित्ववु सम्मतवागिदॆ. (15) नातः प सुचनक्तॆस्वा विभूतिषु निवेश्यता । नरशब्दो भगवति नारायण पदादिनत् ॥ प्रपञ्चवु भगवन्तनिगॆ विभूतियागिरुव रीतियल्लि, लक्ष्मियन्नु निभूतिकोटयल्लि सेरिसबा रदु; पुरुसकार भावदिन्द स्वेच्छॆयागि विभूव मध्यॆ, परिगणनॆयु बाधकविल्लनॆन्दु भाव. नरशब्धवु. हेगॆ विभूति मध्यॆ नारा- ऎणन अनतार विशेषवागि परिगणिसल्पडुत्तदॆयो हागॆ लक्ष्मियु Ls भानदिन्द विभूतिमथ्यॆ सरिगणिसल्पडुत्ताळॆयष्टे (16) नारक्वं नरसम्बन्धात्, निरुक्तन्तु श्रियोःपितत् । ब्र न्नारायणोदेपो भावो लक्ष्म्मीरहन्ततः ॥ (17) भवद्भावात्मकम्ब्रह्म लक्ष्मीनारायणान्वयन् । इत्यादि भगवच्छास्थॆ स्र्रं प्रमाणवाह ‘भ न्यताम् Il नरसम्बन्धियाद नारत्ववु. pe हागॆ आश्रयत्चवु. पुरुषकारत्ववु लक्ष्मिय विभूति नारायणनु, भवान्(सत्) शॆब्बनाच्यनु, लक्ष्मियु भानशब्ध वाच्यळु, भवद्गा नात्मकवाद ब्रह्म वु लक्ष्मी(नारायणात्मकवु, हॊं हगल. स्त्रवु “मामेकं” ऎम्बल्लि एकशब्दवु क्षि (वशिष्ट ‘नारायणवाचि ऎम्बुदन्नु प्रमाणीकरसुत्तॆ. लक्षि ऒगॆ उपाय श्वनन्नु न यहषिगळू हेळिद्दारॆन्दु स्मरन्ति चैनां मुनयः ल ऎ ry बन्दा तिळिसुति त्तारॆ अदागि, २म्भिसि सर्वकाव साप्रधांरान्यां- सुसारार्णवतारिणीम् प्र ऎ सुखनेमं त् रं हिगुणोदधिम् निस्करन्त्रॆ ैचिरेणैन न्यक्तध्यान सरायणाः ॥, ऎन्दु काश्यपस्म्मैतिकाररु संसारवन्नु दाहिसुववळु ऎन्दु स्ट स्टवागि लक्षि गॆ उसायतॆ वन्नु हेळिद्दारॆ. “तारिणीं? ऎन्दु “ताचि ्सेल्यैेणिनि? प्रत्यय, सानारुपायत्तॆ वन्नु Mi दॆ. ऊहतु स्वयमप्येतत इत्यादि - स्मृृतिकाररु हेळिरुवुदल्लदॆ सात्वॆतादि संहितॆगळल्लि ई दिन्यदम्पतिगळु तावे हेळिरुत्तारॆ. अदागि, लक्ष्मीं माञ्च सुकीशेचं द्वयेन शरणङ्गत्य । मल्लोक मचिराल्लब्मा य मत्सायुज्यं सगच्छति 1 मामेकां देव देवस्य महिहीं शरणं व्रजेत् ॥ ऎन्दु हेळिरुत्तारॆ. मामेकां ऎम्बुदु पत्र स्स् कतर व्यानृ त्रियन्न्नु तिळिसुत्त जॆ. श्लोकार्थवेनॆन्दक्कॆ लक्ष्म ीयन्नू सुरेशनाद नन्नन्नू द्वयमन्त्रदिन्द शरण हॊन्दि दवनु, शीघ्रदल्लिये नन्न लोकनन्नु पडॆदु. नन्न सायज्यवन्नु - समान भोगवन्नु 1181 श्रीमद्रहस्यत्रयसारे उपायो पेयदशयोद्द्व९येसि श्री स्पमन्सिता । इष्टाच शेषिणि द्वन्द्हेशेषवृक्कि रृथोजिता (1251 अतो-नन्य सरानेक श्रुतिस्म त्यनुसारतः । पत्तीनिशिस्ट एनै क8प्रपत्तव्य इहोदितः ॥ 156 । अथ शरण शब्दार्थमाह इज्नुत्तै “शरण” शब्दत्तु क्कुवक् द्वयताधॆश्वारत्रिकॆ न्भन्न पॊरुळ्ळि अनुसन्हित्तु क्कॊळ्ळदु इन्नशरणवरणम् अर्जुननैक्कुरित्तु उपदेशिक्कप्रट्टिदेयाहिलुवर् पडॆयुत्तानॆ. देन देवन महिसियाद नन्नन्नु (तर वंहिषिगळन्नॆल्ल) शरणं व्रजेत् - उपायवागि वरिसबेकु. इदरिन्द लक्ष्मिगू उपायत्चवु स्पष्ट. हॆच्चु हेळि एनु ?- द्वयनॆम्ब करणमन्त्ररक्किये उपायोनेय दशॆगळल्लि श्रीनैशिष्ट सनु स्पष्टनॆन्दु उपायोहेय दशयोः ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारि अदागि यथाक्रन् उपायत्व, उपेयत्व सप्रतिसादकगळाद द्वयमंश्रद पूर्वोत्तर खण्डगळल्लि लक्ष्मियु अपैथक् सिद्ध विशेषणळागि हेळल्पट्टिद्दाळॆ. इष्टाचशेसिणॆद्वन्द्वे इत्यादि - शेषिदम्पति गळल्लि शेषवृत्तियु - कैङ्कर्यवु..यथोचितॆवागि सम्मतवु. आग्बरिन्द उपाय दशॆयल्लियू _ श्री वैशिष्ट्य नन्नु आकानुनू- ऒस्स् बीकु. उर्क्ताथवन्नु अतॊट्टनन्य परानेक ऎन्दारम्भिसि निगमिसुत्तारॆ. आद कारण अनन्य सरगळाद नेक श्रुतिस्क्यृत्यनुसासनागि पत्ली विशिष्टनाद ऎकने - भगवन्तने प्रसॆत्तवैनु ८.पायभूतनु ऎम्बुदु “मामेकं” ऎम्बल्लि विनक्षिवु. अनन्य सरगळाद श्रुतिगळु यावुवु विरिदरॆ सष अं i) चन्द्रां स्रभासां यशसाज्वलन्तीं श्रियं लोकेदेनजुष्टामुदाराम् तांसद्मनेमीग्ं शरणनुहॆं प्रसद्येःलक्सि टनिर्मेनश्यतां तांवृणे i (इदु पुरुषकारत्व उपायसरत्व प्रतिपादकश्रुति) 1) कामनत्सा$मृतन्दुहाना - इष्टा र्धगळन्नु कॊडुववळु अमृतं - मोक्षनन्नु दुहाना - कॊडुववळु. 11) सानोलोक ममृतं दधातु- आ लक्ष्मियु नमगॆ नमोक्षलोकनन्नु कॊडलि. अदरल्लि आधिकारविरुवव ळन्नल्लवे प्रार्थिसुत्तेवॆ. आद्दरिन्द मोक्षस्रदत्ववु लक्ष्मिगू सिद्ध. ॥1/) श्रीयंवसाना अमृतत्व मायन् - इत्यादि. स्मृतिगळु - सॆंसारार्णनतारिणीं, (काश्यसस्म्मृति), विमुक्ति फलदायिनी (नि. पुराण) ई प्रमाणगळन्नु अनुसरिसि इहोदितः - गीतॆयल्लियू लक्ष्मी विशिष्टनु स्रपत्तव्यनागि हेळल्पट्टिद्दानॆ. शरण शब्दार्थ. अनन्तर “शरण? शब्मार्थनन्नु इङ्गुतॆ सै शरण शब्दत्तु कव् बन्दारम्भिसि विवरिस” त्तारॆ. अदागि इल्लि हेळिरुन “शरण” शब्दक्कू द्वयाधिकारदल्लि हेळिद अर्थवन्नु अन” सन्धान माडिकॊळ्ळतक्कद्दु. इल्लि शरणवरणवु अर्जुननन्नु कुरितु “मामेकं शरणं व्रज» ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द इदु ऎल्लरिगू हेगॆ अन्वयिसुत्तदॆ ऎम्ब शङ्कॆगॆ, इन्द शरणवरणम् ऎन्दारम्भिसि समाधानवन्नु आनुग्रहिसुत्ताकॆ- आदागि ई शरणवरणवु अर्जुननन्नु कुरितु ११ चरमश्लोकाधिकार 1132 (1) “अनालोचित निकीषाकेष लोकशरण्यग ऎन्लिरनडियी स्वविषय मॆनु निडम् श्वेताश्वतर श्रुति प्रसिद्धम् (2) “ कृस्णन्धर्मॆंसनातनम्”. 3) “शरण्यं शरणं चत्तान्? (4) “योगो योगविदान्नेता? 5) . अनुत्त साधनं साध्यम्स इत्यादिहळिलुम*् सजक्कोचमिल्लामैयाले सरृनिषयत्वं विवक्सितम्. इप्पडि इवन् शरणमाह वरणीयनाम्पोदैकु तान् अनन्य शरणन हैये वेण्णुवदु. अथ “व्रज” शब्दार्थमाह “व्रज? ऎन्निर शब्दवुमु्, “प्रपद्ये” ऎन्तिर विडत्तिल् अरुदियिट्टि सपरिकरात निश्चेपत्रैये लूल्लुहिरदु. अव्विडवत् अनुष्काताविनुडैय अनुसन्धान मानूडि » (1; अनालोचित विशीषाशीष लोकशरण्य - योग्यता योग्यतॆ यन्नु परामर्शिसदॆ सकल लोकक्कू शरण्यननि ऎन्दु हेळुवन्तॆ सर्वविषयवॆम्बुदु श्वेता श.तर श्रुति प्रुसिक्क. अल्लि “सर्वस्य शरणं सुहृत्” *मुमुक्चुर्वै शरणनुहं प्रसद्ये”, ऎन्दु सर्वरिगू उपायभूतनु, मोक्षवन्नु बयॆसुनननु शरणागतिगॆ अधिकारि, ऎन्दु एर्पडुस्तदॆय्लावे (2) कृष्णन्धर्मं सनातनम् ; - कृष्णनु सनातनधर्म, (3) शरण्यं शरणञ्चत्वां उपायवू प्रास्यवू नीने (4 योगो योगनिदान्नेता - मोक्षक्कॆ उपाय भूतन, भक्तियोगवनन्नु आनुस्मिसुववरिगॆ फलस्रदनु (न) अमृतं साधनं साध्यं- ऎन्दिगू नाशविल्लद उपायवु, फलवू आवने इत्यादिगळल्लि सङ्कोचवन्नु हेळदॆयिरुवुद ७०द,, भगवन्तनु. सर्वरिगू उपायभूतनु ऎम्बुदु विनक्षित.. भक्तियोग निष्कनू इल्लि विवक्षितने ऎन्दक्कॆ’ भक्तियोगवन्नु अवलम्बिसिरुवुदरिन्द अवनु अन्यशरणनु. इपृडियिवन् इत्यादि - हीगॆ भगवन्तनु. शरणवागि वरणीयनागुवुदक्कॆ तानु अनन्य शरणनागिरुवुजि” आसेस्पितवु. “व्रज’ शब्दार्थ. । “व्रज? ऎन्निर शब्दमुम् इत्यादि - “व्रज? ऎम्ब शब्दवू “प्रसज्यी? ऎम्बल्लि अरु दियिट्टि - व्यवस्थॆ गॊळिसिद, ससरिकरवाद आत्मनिक्षेसवन्नु तिळिसुत्तदॆ. अदागि व्रज धातुवु गत्यर्थवादरू, गत्यर्थक्कॆ बुग्म्य्यर्थत्ववु उण्टागिरुवुदरिन्द द्वयमन्त्रदल्लि “प्रॆपद्यी’ ऎम्ब शॆब्दद हागॆ “व्रज”, ऎम्ब शब्दक्कू, ससरिकारात्म निक्षेप बुद्धिनिशेषवु निवक्सितवॆन्दु तात्पर्य. अन्पिडवु् इत्यादि - द्वयमन्त्रदल्लि शरणागतियन्नु अनुष्मिसुवुदरिन्द्य «अहं प्रसड्यी” ऎन्दु उत्तमपुरुषवु हेळल्पट्टिदॆ. इव्पिडम् इत्यादि - चरमश्लोकदल्लि म चकक कटकाना सााातातातातासाताकाण साहाघ-/ू/गग/)/ घौ्षादाघळघाघा घ ररू ा घू घू घ9)डढशशशघौघ घ कथघथळ94ेीक पौ क्र घॊ घ्षकाथ 1). शरणागतिगद्य 2) भारत आरण्य पर्व 71-123 3) शरण्य शरणं, 5 त्वां आहुर्दिव्मा म नर्षया, रामायण युद्धकाण्ड 120-18 4) : विष्णु सहस्पनाम - योगो योगविदान्नेता प्रधान प्ररुषेश्वरः । नारसिंहवपुः श्री मान् केशवुः पुरुषोत्तमः ॥ 5) अमृतं साधनं साध्यं यं पश्शन्ति मनीषिणः 1 ीयाख्कं परमात्मानं विष्णुन्ध्कायन्न सीदति I विष्णुधर्म (32-4) 7 1133 श्रि ीमद्रहस्यत्रॆयसारे ऎ याले उत्तमनायित्तु. इव्विडं (।) “शिष्यस्तेहं शा धिमां” ऎन्रु अभिमुख नाह निन्र वनै क्कु रित्तु विधिकि रदाहैयाले मध्यनुनायित्तु. इव्ना नङ्कूल्य सङ्क ल्बाद्य ङ्गान्तकिज. फ् इचॆ *.ूचितनतानपडिय्यॆ द्वयति अ कोले उचित सडज ळिले कणि कॊळ्ळ] दु. “सक तृत श्शास्ट्रा र्थः ऎन्सिर निर्णयत्तु क्कु उपासनत्तिल् पोल् ४ इज्बु आवृत्ति वेण्णुमृडि असवाद मुल्प इव्वर्थं “सकृदेव प्रुसन्नांयं” इत्यादि वचनत्तालुम् प्रतिष्ठितम्. इफ्प्रडि महोदारनान सर्वशक्ति पक्कलिले भरन्यासं पण्णु मवनुक्का स्वाभिप्रा यविशेष मय फल निळम्बतु कु हेतुविल्लै. आहैयाले इन्ना क्रि विद्यैक्सु प्रात निवर्तकत्तं निशेष माहिरदु. । अत्यन्ह्नपारतन्त्र्य निषये शरणंव्रज इतिनिधिरनुस7न्न मित्याशङ्का मनूद्य परिहरति. इव्विडत्तिल् शिलर्स्वतन्त्रनैक्कुरित्तन्र ऒनॆ (1) “शिष्यस्ते’हं शाधिषां” ऎन्दु, “निन्न शिष्यनाद नन्नन्नु नियॆमिसु? ऎन्दु अभि ied वागि निन्त अर्जुननन्नु कुरतु विधिसुवुदाद्दरिन्द “व्रज? ऎन्दु मध्यम पुरुषवु हेळल्पट्टिदॆ. इव्वानुकूल्य सङ्कल्लादि इत्यादि - अनुकूल्य सङ्कल्पाद्यङ्गगळू ई चरम श्लोकदल्लि उचितवाद सदगळल्लि आनुसन्धेयगळु. हत - प्रथमपाददल्लि उपायां तरगळल्लि आशॆयन्नु बिडबेकॆन्दु `हेळिरुवु7रिन्द प्रा5कूल्य वर्जनवू अर्थात् आनुसूल्य सङ्कल्पवू, प्रजशब्ददल्लि महाविश्वासवू शरणशब्ददिन्द कूडिद प्रॆजशब्ददल्लि गोस्तत्ववरणवू, “माशुचः”, ऎम्बल्लि आकिञ्चन्यानु सन्धानरूस कार्सण्यवू अनुस सन्देयगळु. सक ऎत्छ्रतशा सस्त्रार्थः इत्यादि - ऒन्दु सल आनुष्मिसिदरॆ शास्त्रार्थवु नॆरवेरुत्तदॆ, ऎम्ब निर्णयक्कॆ, उपासनदन्तॆ, प्रसत्तिगॆ आवृत्तियु बेकॆम्ब असवादविल्ल. इव्वर्थम् इत्यादि - ई अर्थवु सकृ देव. प्रपन्नाय, Be वचनगळिन्द तीर्मानवादद्दु. इप्पडि इत्यादि - हीगॆ मो ाजार स र्वशक्तनाद भगवन्तनल्लि “भरन्यासवन्नु माडुववनिगॆ, स्वाभिप्राय विशेष ‘म्योय - “शानु गुरुतिसिद - काल निर्णयवे. हॊरतु फलनिळम्बक्कॆ :भगवन्तन औदार्यरल्लि न्यूनतॆयो, शक्तिय कॊरतॆयो, बेरॆ यान कारणवू इल्ल. आह्टॆयाल् इत्यादि. आद्दरिन्द ई -न्यासविद्यॆगॆ प्रारब्द निवर्तकत्ववु विशेषवाद आंश. । जीवन कत्र ९त्त समर्थनॆ; पारतन्त्र द स्वरूस. “शॆरणिंव्रज” ऎन्दु अत्यन्तॆ सरतन्त्रनाद जीवनन्नु कुरितु शरणनरणवन्नु विधिसबहुदे ऎन्दु केळिकॊण्डु समाधानवन्नु कु हिसुत्तारॆ अदागि, इनि, िडत्तिल् शिलर् इत्यादि - ई सन्दर्भदल्लि कॆलवरु स्व भो कुरितल्लवने ऒन्दु कॆलसवन्नु विधिसबेकु. अत्यन्त SE कोका कााजायायिसु बू पायु टु ॐ…
- गीतॆ. 2२]
चरनुश्चोकाधिकारः 1184 : अध्यात्म शास्त्रज्ञ ळिलुवर्, मूलमन्रा दिकळिलुम् शिक्षिनान अधिकारिय कर्फरितु, “व्रज? ऎन्रॊरु कर्र्तव्यत्तै विधिक्सु स शि औियॆन्नॆन्रु शॊल्लुनर्हळ्. इदु पारतन्त कष २ आय्क फॆरामर्शियानुल् कन्न सनि द
ऎजति नेऎन्निल् (1) *कर्ताशास्त्रार्थवत्त्वा यत्” (१) परात्तुतच्छ्चु ते? “ऎनु वेदान्तत्तिल् अरुदियिट्टि पडिये, इवनक्कु । कर्त त्र मुण्डागैयाले इवनैप्पत्त निधिक्कक्नुरैयिल्ल्लै.
त आचितु,कृळ् शब्दादिहळ्ळॆ ईश्वर सुण्डाक्क च्चुमक्किराप्पोले इव्वळवु स्वातन्त्र्यतै EEE SSE माद सुम ह यु परतन्त्र नाह इत्यादि - अत्य ०त सरतन्त्रनागि आधा, त्क शास्त्र गळल्लि, ब आत्मनि तिष्कन्. आत नो अन्तॆरः (।, यॆ आत्मानम्मन्तको यमुयति - आत्मनन्नु गथ) निष्ठ नागि भगवन्तनु ह मिसात्तानॆ. ऎन्दू, मूलनुन्त्रादिगळल्लियू “नमः” ऎम्ब fp, नमम स्वातॆन्त्र ्यं इत्यादियागियू, अत्यन्तॆपरतन्त्रनागि शिक्षितनाद अधिकारियन्नु कुरितु “व्रज” ऎन्दु शरण वनणवन्नु कर्तव्यवागि विधिसुवुदु हेगॆ ऎन्दु केळुत्तारॆ. इदु पारतन्त्र तकास्मैैय्यॆ इत्यादि - इदु पारतन्त्र $काष्कॆयन्नुु सरामर्शिसदॆ हेळुव मातु, ऎन्दु आचार्यरु अनु ग्रहिसि, ऎङ्गने ऎन्निल् - हेगॆन्दरॆ ऎन्दारम्भिसि (1) “कर्ताशास्सा प्रार्थवत्वा त्), (2) परा त्तुतच्छु ते ऎन्रु इत्यादि - विनरिसुत्तारॆ.
आदागि जीवनु कर्ता, ऎकॆन्दरॆ “यजेत स्वर्गकाम)? - स्वर्गदल्लि आसॆयुक्ळवनु याग माडबेकु,
“मुमुक्षुः ब्रह्मोपासीत” - मोक्षदल्लि आसॆयुळ्ळवनु परब्रह्मनन्नु उपासनॆ माडबेकु, इत्यादियाद शास्त्रगळु स्वर्गमोक्स्षादि फलगळन्नु अनुभनिसुवननन्ने कर्त्रत्वदल्लि नियोगिसुत्तवॆ. सन माडुवुदरिन्द शाश्र्रवॆन्दु हॆसरु. शासननॆन्दरि प्रुनर्तॆ कत्तवु. अद्दरिन्द शास्त्रगळिगॆ भोक्तावाद चेतननु कर्तावादरेने प्रयोजनत्तवु उण्टा गुत्तदॆ. “शास्त्रॆफलं प्रयोक्तरि” ऎन्दु हेळल्पट्टिदॆ. आदरॆ आ कर्तृत्वक्कॆ "सरात्' - पर मात्मा हेतु. “अन्तः प्रविष्ठः श्यास्त्रा सभ सवा क्य य आत्मनि तिष्ठन् --- य आत्मानमन्तरो यमयुत्ति, इत्यादियागि श्रुतिगळ्कू सर्वस्य चाहं हृदिसन्सि विष्टः मत्तः स्म ज्ञ्ञाननुपोहनञ्च', "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्धेशे8र्जुन तिस्कति ।. भान सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया” इत्यादियागि स्क्रैतिगळू, हेळुत्तनॆ. कतणृत्वक्कॆ £ कारणभूतनु. ई रीतियल्लि नेदान्तत्तिल् अरुदियिट्टि नडिये इत्यादि - - वेदान्तदल्लि हेळिरुव. प्रकार, जीवनिगॆ भगवदधीनवाद कतणृत्ववु Nk. आद्दरिन्द ई जीवनन्नु कुरितु विधिसुवुदक्कॆ याव आक्षेसवू इल्ल. जीविगॆ कर्तृत्ववन्नु ऒप्पि अदु इवन पारतन्त्र्य्यक्कॆ विरोधनागुवुदिल्लने ऎन्दकॆ, भगवन्तनु कॊट्ट कतण्यृत्ववन्नु हॊरु वुदे इवन सारतन्त्र्य क्कॆ अनुगुणवादद्दु. आ कत्यृत्वनन्नु वहिसदे इरुवुजी इवन भगव*क्पारतन्त्र क्कॆ निरोधवागुत्तदॆ. इदन्नु अचित्तुक्सळ् ह आरम्भिसि विवरिसुत्तारॆ. i 1) ब्रह्मसूत्र 2-3-33 2) ब्रह्मसूत्र 2-3-40 [7 ~ 1185 श्र्रीमद्रहस्यत्रॆयसाके यिडुत्तु च्चु मक्क $यॆम्म् इवनुका । भगवत्पा रतन्त्र स काष्ठ 4यिरुन्न पडि. इवनुक्कूरु व,थयालुनर् कर्त्यृत्वनिल्लृ एस्रिल्स् प्रकृत्यनिद्यादिहळुक्कु करत शॊल्लहिर सिद्धास्त तुल्कमाम्. कर्मृत्वं स्ताधीनमॆन्सि ८ सर्वात्म नियना,वूरु वनॆन्सिरवर्थं सिडैयामैयाले निरीश्वर सिद्धान्र स्पैडियाम्. ईश्वराधीन माहवरुम् कर्त त्वं तानुम्, ज्ञ्ञातृत्वनतात्रन्न्निल् पुरुषार्थ सम्पादनरुचियंवा्, तदुपायॆ प्रवृत्तियुवु् तनिरप्रसजं क्बुवर्. ज्ञानमुं आदिन् अवस्था विशेषमान इच्छॆ युनो उळ्ळद्दु, वेरूरु व्याखा रनिंलॆ “यॆन्रिलुं दृष्टादृष्ठा र्थजळान वॊरु उपायज ळैयुं स्वयम्प्रयोजन १ १ ग १ १२ मान- कैजृर्यज्न ळैयुवु*् अनुष्मिकविरगिल्लॆ ). आहैंयाले ज्ञान चिकीर्षा प्रयत्न जळ मून्रुवु् आत्मावुक्कु उण्डु, इदिल् चिकीर्षा प्रयत्सज्ञळ् ज्ञानत्तिनुडैय अदागि अजेतन पदार्थगळु शब्दादि विषयगळन्नु ईश्वरनु उण्टुमाडि धरिसिरुवन्त्क, इष्टु स्वातन्त्र्यवन्नु अङ्गीकरिसि धरिसुवुदू इवनिगॆ भगवत्सारत. त्र तसौस्कॆयु इरुव रीति. इव नुक्कु ऒरुवगियालुवु" इत्यादि - जीवनिगॆ कतणृत्वनन्नु ऒप्पि. अदु सराधीननॆन्दरि हेळुवुदक्किन्त, जीवनिगॆ यान रीतियल्लियू कतन्यत्ववे इल्लवॆन्दु हेळुवुदु युक्तवल्लवॆ ऎन्दकॆ, प्रकृति, अविद्यॆगळिगॆ कठ्यृत्वः न्नु हेळुव साङ्ख्य, अद्वैतमतगळिगॆ समानवागुत्तदॆ. कर्तृत्ववु् इत्यादि -. कतकृत्ववु स्वाधीनवॆन्दक्कॆ सिर्वात्मणगळिगू नियन्ता ऒब्बनॆम्ब अर्थवु “य इमुञ्च लोकं परञ्च लोकं सर्वाणिच भूतानि यो$न्तरो यमुयति” ऎन्दु हेळल्पडुन श्रुत्यर्थवु घटसदॆ निरीश्वर सिद्धान्तप्पडियानर् निरीश्वर नीमांसकर सिद्धा २ तक्कॆ सदृशवागुत्तदॆ. अनन्तर मेलॆ हेळिद पराधीन कर्त त्वनन्नु ईश्वराधीनमाहवरुं ल इत्यादि विचारिसुत्तारॆ. अदागि ज्ञ्यानचिकीर्षाप्रयत्नाश्रयत्ववु कर्तृत्व स्वरूपवागिरुवाग, भगवदधीनवागि बरुव कतृत्ववु केवल ज्ञ्यातृत्वमात्रनॆन्दरॆ, इज्छॆयिल्लदिरुवुदरिन्द पुरुषार्थ सम्पादन रुचियुम् इत्यादि - पुरुषार्थवन्नु सम्पादिसबेकॆम्ब आसॆयु, इल्लदॆ होगुत्तदॆ. प क्रयत्नृविल्लदिरुवुदरिन्द आ पुरुषार्थवन्नु साधिसिकॊडुव तदुपायप्रनत्तियू- उपायॆदल्लि प्रवृत्तियू इल्लदॆ होगुत्तदॆ. ज्ञानवुव् अदिन् अवस्था विशेषमान इत्यादि - ज्ञानवू आदर अवस्था विशेषवाद इच्छॆयु मात्र इदॆ. बेकॆ यान व्यापा रवू इल्लनॆन्दर, दृष्टादृष्टङ्गळान इत्यादि - कर्तृत्ववु प्रवृत्ति घटतवल्लदॆ इरुवुदरिन्द. यान बसवा उपायानुष्माननन्नू, स्वयॆं प्रयोजनवाद, (फलवाद) याव कैङ्कर्य गळन्नू अनुष्मिसलु विरहिल्लॆै - दारियिल्ल. आहैयाल् इत्यादि ज्ञान चिकीर्षा 'प्रयॆ त्रगळु मूरू आत्मानिगॆ उण्टु. । इदिल् चिकीर्षा प्रयत्न्नङ्गळ् - इत्यादि चिकिर्ना - कॆलस माडलु इच्छॆ, स्रयत्न- व्यापार, चिकिर्षा प्रयत्नगळु ननद अवस्था विशेषगळु ऎम्बुदन्नु वेदार्थ सङ्ग्रह चरमश्लोकाधिकारः 1136 अवस्थानिशेषज्ञळिन्बुनिण्डत्तॆ मेदार्थसञ्जब्ल )हत्तिल् अरुळिच्छॆय्द लाफॆवॊकियाले कॆण्डुकॊळ्तदु. । कग्र्यृत्वं द्विनिधम् क्रियाश्रयत्तरूप कर्त त्त तैं चेतनाचेतन साधरणमर्. प्रयत्काश्रयत वॆ रूपमान कर्रृत्वं चेतनैकान्तम्. प्रयत्नमावदु ? शरीरादिप्रेरण हेतुवान बुद्धि निशेषम्. ज्ञानमात्रत्तुक्कु आश्रयॆमानपोदुवष्, भोगमूत्रत्तुक्कु आश्रयमानपोदुम् क्रियाश्रयत्व मात्रमान सामान्यकर्तृत्वमे उळ्ळि दु ऒन्रैत्तन्पुद्धियाले उत्पादिक्कुम्पोदु प्रयत्ना श्रयत्वरूसमान कर्रत्वम्. उपायानुष्ठानेसि प्रयत्ना श्रयत्वरूपॆ कर त्ववंस्ति इप्पडि पट्टि कर्रृत्वं कैज्यरृनरात्रत्रिले यिन्नैेयुम् उचितमनु. अज्लुं दल्लि नगवद्भाष्यकाररु कृपॆमाडि हेळिरुव, लाघवोक्तियिन्द तिळिदुकॊळ्ळुवुदु. नैयायिकरु चिकिर्षा प्रयत्नगळन्नु पृथक् गुणगळन्नागि ऒप्पिरुवुदु अधिक. अवुगळन्नु अवस्थाविशेषा सन्नवाद ज्ञ्ञानवन्नागिये अङ्गीकरिसुवुदु. लाघवोक्ति. कर्तत्ववु ऎरडु विध. क्रिया श्रयॆत्वरूस कर्तृत्व. प्रयत्नाश्रयत्वरूप कतकृत्व. क्रियाश्रयत्वरूपमान इत्यादि - “रथोगच्छति” ऎम्बल्लि गमनरूपवाद क्रियॆगॆ आश्रयत्वरूसनाद कतॆनृत्ववु रथक्कॆ उण्टु. ई रीतियाद क्रियाश्रयत्वरॊस कठनृत्ववु चेतना चेतन साधारण. प्रयत्ना श्रयत्व इत्यादि - प्रयत्सक्कॆ आश्रयवाद ककणृत्ववु चीतननिगॆ मात्र उण्टु. प्रयत्ममावदु- स्रयत्सनवॆन्दरॆ शरीरादि प्रेरणक्कॆ कारणवाद बुद्धिनिशेष. अदागि शरीरेन्द्रियादि व्यापार जनकवाद ज्ञ्यानत्ववु प्रयत्नत्ववॆन्दर्थ. चेशननिगॆ सर्वत्र प्रयत्काश्रयत्वरूप व्यापारवे सम्भविसुवाग, क्रियाश्रयरूसप कतगृत्वक्कॆ आश्रयत्ववु हेगॆ ऎन्दरॆ ज्ञानमात्रत्तुक्सु इत्यादि - ज्ञान मात्रक्कॆ आश्रॆयवादागलू, भोगमात्रक्कॆ आश्रॆयवादागलू क्रियाश्र यत्ववाद सामान्य कतृत्व. भुङ्क्ते - "ऊट माडुत्तानॆ” ऎम्बल्लि भोगक्कॆ आश्रयवाद त्र. ऎरडु स्मलगळल्लियू आख्यातक्कॆ आश्रयत्नवन्ने अर्थवागि स्टीकरिसबेकाद्दरिन्द, आन्तह स्केगळल्लि धात्वर्थवाद ज्ञानादिरूप क्रियाश्रयत्चवन्नू अर्थवागि अङ्गीकरिसबेका द्वरिन्द क्रियाश्रयत्वरूप कतृत्ववे इरुत्तॆदॆ. अदागि जानाति - तिळियुत्तानॆ ज्ञानमात्रक्सॆ आश्रयॆनाद कन्यत्व, चेतननिगू उण्टु. अन्दरॆ चेतननिगॆ साधारणवादद्दु, प्रुयत्ना श्रैयॆश्वरूस चेतनैकान्त कत्ळृत्वनन्नु ऒन्रॆ ैत्तन् बुद्धियाले ऎन्दारम्भिसि विनरिसुत्तारॆ. आदागि ऒन्दु कार्यवन्नु तॆन्न बुद्धियिन्द - इच्छावस्था सन्न ज्ञानदिन्द, नॆरवेरिसुनाग प्रयत्ना श्रॆयॆत्वरूस कतग्यृत्ववु एर्सडुत्तिदॆ. इप्प डिप्पट्ट इत्यादि - इन्तह इच्छापूर्न्वक कतनृत्ववु फॆलरकॆयल्लि कैङ्कर्य विषयदल्लि मात्र स्वरूपानुगुणवागि उण्टागुत्तदॆ ऎम्बुदु उचितनल्ल अङ्गुवक् इत्यादि - अल्लियू भगनश्ट्रीति ऎम्ब ऒन्दु प्रयोजनवन्नु उद्देशिसि 1187 श्रीमद्रहस्यत्रॆयसारे भगवत्रीतियॆन्रॊरु प्रयोजनत्सै उड्डेशित्तु उसायानुष्कानं पण्णिना नायिरे यिरुप्पदु. प्रयत्ना श्रयत्वरूस कर्रृत्वं बन्ध हेतुत्ते सति त्याज्यम् अनसिन्सु कर्त ृत्वत्रिल् बन्धहेतुवासनाकारमे त्याज्यम्. अडु ऎदु ईश्वरन् कूडुत्त अवन् प्रेरकनुमाय् ज्ञा नशक्र्य्यादिहळ्ळॆ युवर् करण कळेबरादिसळ्ळॆयॆंवर् धारकनुमालयं्, फलियु पाय् क्कू ण्डु सहकरिक्क ऎन्निल् कनि प्रव कर तन्नॆ इदुक्क निपषेतमाह अनंसन्धित्तिरुक्कॆ पयम्म्, इन्वनु सन्धानत्तिल् तिरुत्त मुण्णेयाहिलुनु, इदिले प्लैयोजसून्तरतॆ यिडुक्ळि अनुषि स्र सयनिम् बन्धकनु्. इरुप्पदु. भक्तिस्रपत्तिहळ् आहैयाल* तानुवं् प्रय €ब; सान्तर परनुक्सु बन्धकमालय रे स्वाभाविक कैङ्करा बर्थियाय् अनन्यप्रयोजननायिरुक्ळु मवनुक्कुम्, फलदशैयिल् कर्त त्वैम्पोले, उपायदशैयिल् कल्त त्ववंष्् विरुद्धमन्रु. फलदशा संसिइरडशा कर्त ह त्वयोः तारतन्युकथनवर् फलदक्कि यिल् विविध विचित्र कैङ्कर्य कन्न त्वम् केवलं ईश्वरे च्छा नैचित्रियोडे पॊरुन्निन षु स्तेच्चैयाले सि यसायिरु नॆ मं ज् R क्डॆ ऎह् सार दशैयिलुळ्ळॆ SR कर्त "टु जाल ब कॆ उपायानुष्मा नवन्नु माडिदवनागियॆल्लने इरुवुदु. आन्दरॆ कैङ्कर्यवू भगवत्तीति हेतु वाद्दरिन्द उपायवागि पर्य ;वसानवागुस्त बॆयाद्बरिन्द उपाय कतणृत्ववु स्वरूप निरुद्ध वॆन्दु हेळुववरिगॆ कैङ्कर्यवू लभिसुवुदिल्ल. अनिहिनॆ्बु इत्यादि हीगॆ उपाय कर्तत त्ववु इवन. पारकन्त्र ्य. स्वरूपक्कॆ अनुगुणवाद्दरिन्द, कर्त दल्लि बन्धहेतुनाद आकारवे त्याज्य वादद्दु... 'अदेदॆन्नि ल् - आ बन्धहेतुवाद आकारवु यावुदॆन्दरॆ, ईश्वरन् कॊडुत्त इत्यादि - ईश रनु. कॊट्टि ज्ञ्यानशक्त्या दिगळन्नू *रण कळेबरगळन्नू उपयोगिसिकॊण्डु, अवनु प्रेरकनागियू धारकनागियॊ. फलियागियू इदु कॊण्डु सहकरिसलु प्रवर्तिसुव तन्नन्नु इदक्कॆ विसरीशनागि नानु स्पतन्त्रनु, ऎन्दु अनु सन्धान : माडुवुदू, ई अनु सन्धानदल्लि तिरुत्तव् ऎ. नैशद्यवु उण्टागिद्दरू अन्दरॆ भगवं तन २ प्रेरकनागि प्रनर्तिस-” व्रदागि अनुष्ठिसुवुदू तिळिदिद्दरू, बन्धक. : इदरल्लि भक्ति ऐश्वर्य प्रपत्तिहळ कैनल्यादि तानुमः् स्रयोजनान्तरगळ इत्यादि - स्थॆ भक्तिस्रपत्तिग ल इडुक २ तरगळन्नु अपेक्षिसि, अनुष्ठिसुवननिगॆ बन्धकगणु अस्टयाल् इत्यादि... प्रयोजनान्तर वाद . कर्तृत्ववे न ता ुवाग, रिन्द, सान कैङ्कर्यार्थियागि अनन्य प्रयो कर्तृत्व जननायिरुक्टुमन द हागॆ निगू, बात दश्रयिल् सळव कर्तत्वन 326. पफोले- स स्वरूप निरुद्द नल्ल इत्यादि कैङ्कर दशॆयल्लि स्वरूपक्कॆ अनुसुणनादद्दे, केवल भगवन्तन . मैचिप्रियॊडनॆ कूडिद स्वेज्छि यिन्द मडतॆ द्दु. त्त चरमश्नॊ काधिकारः 1188 : करा नुरूपमाह ईश्वरन् सरिणमिस्पि त्त सत्वरजस्त मस्सु क्र ळै उपाधियाहक्कॊण्डु बहुविधमायिरुक्सम्. संसा *रदशायाङ्कर्तृत्वं कदा बन्धकं, कदामनोक्षहेतुकम् ? इदिल् रजस्सालुम्, तमस्सालुम्, प्रयोजनान्तर सङ्गहेतुवान सत्वत्ता लुम्, वरुम् कठ्त तॆ वक् बन्धकनमु्. भगवत्तास्ति यिले सङ्गत्तॆ पुणर्भुवु् प्र क्स ष्ट सत्वनिशेष Sea वरुम् कर्त तै मोक्षकारणम्. इगुण त्रयत्तोडु तवक गॆ 3 रुक्कुम् मुक क्द्ळै यिल् कर्त 3 म्. । ई कर्त तॆ स्स भावाभाव बोधक प प्रमाणा नां निरोधोनासि, इप्प डि इरुक्कॆ 4याले आता नक्कु कर्त त्रॆ मिल्लॆ ऎन्निर. वाक्कज कुक्कुवर्, कर्रॆ त्व ” मुण्डॆन्सि र वाक्य ज्न ळुक्तु न्् निषयॆव्य वस युण्डाहै याले निरोध निं” ज् अदेज्ञ ने ऎन्नि ह ? कण त निल्लॆ नन्नि र वात ४5 ईश राधीनमायुवर्, तदा यत्त प्रक 'शिगुणाधीनवतायुव्, वकाम् कर्रृत्वत्तै, निम्पेक्षमॆन्रु निनॆ क्स् लाहादॆन्सिरसॆ कर्र तॆ ैवुण्णिन्लिर वाक्य ज्लळ् ईश रेच्छादिहळ् अडियाहवे वष ज्ञानत्तुक्कुम् oy “अश्रयॆनॆन्रु नडतॆ. a) चॊ िल्लंहिरन. rm दश्रॆ यिलुळ्ळॆ इत्यादि - संसार रशॆयॆल्लि एर्पडतक्क सांसारिक व्यापार कतणृत्ववू उपाया सनुषा न कॆश्सन्ववू कर्मानुगुणवागि ईश्वरनु परिणमिसिद सत्त रजस्तमनो गुणगळन्नु कारणवागि कॊण्डु पुरुसभेददिन्द En SNES विचित्रवागिरुत्तदॆ ऎन्दर्थ. इदिल्.. इत्यादि . ई सांसारिक रशॆयल्लि रजस्तनो गुणगळिन्द प्रयोजनान्तर सङ्गहेतुवाद सत्व गुणदिन्द उण्टागुव कठ्शात्वैव्र बन्धक. भगनत्पा प्लियिलेे इत्यादि - भगवन्तन प्रास्तियल्लि सङ्गवन्मु प्रणक्तु ९म् - उण्टु माडुव प्रस्तद सत्व गुणद दसॆयिन्द एर्पडुव कतगृत्ववु मोक्रक्कॆ कारणवागुत्तदॆ. इग्गुणत्रयत्तोडु इत्यादि - ई सत्वरजस्तमनो गुणगळॊडनॆ तुवक्कु - सम्बन्ध, पडॆयदॆ इरुवुदु. मुक्त दशॆयल्लिय कर्तृत्व. ह न इप्प डिइरुक्स हीगॆ जीनन कत्यृत्ववु “कर्ताभोक्ता विज्ञा िनात्माडुीरन ।" नन्दु बहु विधवागि “सि सल्प ्रिट्टिरुवुदरिन्द, “न कतगृत्वं नकर्माणि लोकस्य. सृजतिप्प श्रभुः” ऎन्दु जीवनिगॆ कश्य्छत्वविल्लवॆम्ब वाक्यगळिगू, कतणृत्ववु ह ऎन्दु हेळुव वाक्यगळिगू निषय व्यवस्थ यिन्द विरोधविल्ल. अदॆङ्गने ऎन्निल् jr हेगॆन्दरॆ जीवनिगॆ कतण्यत्ववु इल्लवॆम्ब वाक्यगळु, जीवनिगॆ कर्तृत्व सामान्य निषेध परवल्ल. बेरियेनॆन्दरॆ ईत्टराधीनवागियू तरधीननाद; प्रकृति गुणाधीननागियू एस र्सडुव जीवकतैत्ववु, निरपेक्ष कतृत्व निषेधसर, अन्दरॆ जीवन सै 'जैयिन्द माडतक्क ैवुगळल्लनॆन्दर्थ-. कर्तॆ त्व मुण्डॆन्सिर इत्यादि - जीवनिगॆ कतणृत्ववु उण्टु "ऎन्दु हेळुव नाळगळु ईश्वरन इच्छा खा निनित्तवागिये एर्पट्ट ज्ञा > नक्टू pe रूप विशेषवाद चिकीर्षा प्रयत्न] गळिगू ई जीवने आश्रय भूतन ऎम्बुदन्नु तिळिसुत्तवॆ. 1139 त्रीनुद्र्रहसत्रयसारे इन्निष्टर्ह प्रकारत्तै, (1) “शरीरवाज सोभिरैत्” ऎन्रुतुडज्नगीताचार्यन् ताने अनुडियिट्टान्. असि _डत्तिल् “दै वञ्चै वात्र सञ्चममवमु्” ऎन्रु पुरुषोत्तमन च्चॊल्लुहिरदु. कारयितृत्व, सहकारित्रादिनुुखेन, कर्तृत्व, परम ल उसेस्सकत्व, अनुनुन्तृत्व, पुरुषस्य कर्त तॆं Se इवन*्जीवनैयॊरुकार्यत्तिल ल् प्रवर्तिक्षुन न्नोडु. त्रैप्स त्रकारयितावॆनु शॊल्लप्पडुम्. ताने प्रवृति श्रि क्सु वर् फलप्रदान मान्, ह सडहॆळॆलुव्, कर्मा नॆन्रुशॊल्लपृडुम्. ब्रो प नै प्रनान चेतननै निलक्सा दवळनिल्" उपेक्ष्सकन*्. अस्ट्रोडु dd इन्निष्टर्षप्रकारत्तै इत्यादि ई निस्तर्षद प्रकारवन्नु (1) शरीगमाज्मनोभिर्यत्? ऎन्दु आरम्भिसि गीताचार्यनु . ताने अरुदियिट्टान् व्यवस्थॆ गॊळिसिद्दानॆ. आंरैॆ, *अधिष्का नं तथाकर्ता” ऎन्दारम्भिसि, शरीर, जीव इन्द्रियगळु, प्राण, दैव, ऎन्दु ऐदु प्रकार वागि कतनृत्ववु निरूनिसल्पट्टिजि. जीवनु कन्न शरीरेन्द्रियगळन्नु अधिष्कानमाडि माडुव प्राणाधीन विवध व्यापारगळन्नु ईश्वरनु कर्माधीनवागि प्रेरेपिसलु माडुत्तानॆन्दर्थ, दैवं चैवात्र सञ्चमं ऎन्दु ईश (रन्नु ऐदनॆय स्का नदल्लि हेळिरुवुदरिन्द पुण्य पापरूप कर्मकर्तत्ववु जीवनन्ने यरग कॊण्डिदॆ ऎन्दु ‘ात्बर्य. “दैवं चैवात्र शर देवशब्बवुु “नद्दॆनं केशवात्परङ्ग, “दैवाधीनं जगश्सर्वं” इत्यादिगळल्लि सेरुवन्तॆ पुरुषोत्तमुनन्नु तिळिसुत्तदॆ. परम वुरुषन कर्तत्ववु ऐदु विध. । प्रसङ्गात् ईश्वर कतणृत्वनन्नु ऐणु प्रकारवागि निरूपिसुत्तारॆ. अदागि इवन् जीवनै इत्यादि - (1) ई ईश्वरनु जीवनन्नु ऒन्दु कार्यदल्लि प्रवर्तिसुवाग ई कार्यक्कॆ “कारयिता” माडिसुववनु. ऎन्दु हेळल्बडुश्तानॆ. (11) ताने स ))नर्तिक्कु म् इत्यादि ताने प्रवर्तिसुव फलप्रदानादिगळल्लियू, सृष्टा ्यदिव्यापारगळल्लियू “कर्ता?वॆन्दु हेळल्पडुत्ता, नॆ. (iii) ऒन्सि)ल्ले प्रवृत्तनान इत्यादि स 1 थम प्रवृत्तियागि ऒन्द. कार्यदल्लि तॊडगिद जेतननन्नु तडॆयदॆ सहिनैनन्द उपेककनु (1४) अप्रोदिशैस्सिरु क्फैयाले इत्यादि - आकार्यवन्नु माडुवन्तॆ होद ऎ ASRS STE Ge AES - अधिष्कानं तथा कर्ता करणञ्च पृथग्हिधम् । विविधाच पृथक्चेप्टा दैवं चैवात्रपञ्चमर्म् ॥ शरीरवाज्म नोर्थिर्यत, र्म प्राम्भतॆ न्याय्कं वा विपरीतंवा पञ्चैते तस्कहेतऐः ॥ । गीतॆ (18-14, 15) -अधिष्कानं - शरीर, कर्ता - जीव, पृथग्विधम् करणं - वाक् स्थरूप ऐ ऐदुकर्मेंस्रियगळू मनस्सिनॊडनॆ कूडिरुवुव, नाना विधवाद कर्मनि पाणिपाद पायु उप प्प त्तियिन्द प्रथग्वा हार गळिन्द कूडिरुवुवु. विवधाच : सरा नेष्टा - प्राणापान व्यानोदान समानवॆम्ब पञ्चप्राणगळू आवुगळ विविधवाद व्यापारगळू, दैवि च वात्र षञ्चमम् - अन्तरा मियाद परमात्मा ऐदनॆयवनु. शरीर वाक् मनस्सुगळन्नु ऒडगूढिसि जीवनु माडुव शास्त्रीयवाद मत प अशास्त्रीयवाद सर्व कर्म गळिगू ई ऐदू कारणगळु,चरमश्लोकाधिकारः 1140 इकैॆन्दिरुक्कॆ,याले अनुमन्ता. इळन्नलै :रिमक्ळुमवसुक्टु. प्रबलन् सॆरुस्त लै शुमुक्कमापॊ बि €ले कूड पैनरिकॆ EP अज् इत्त - ज.2] ,याल् सहकारि ईश्वरस्य क कर्रैत्ताक , बोधक प्रवळाणेषु नविरोधः सृष्टा दिहळिल् भा वैषम्यम् जीवकर्म निशेषोषाधिकमाहै याले 1, “चातुर्वण्यं मया सषं ब गुजकर्म निभागशः । तस्न स क कर्तारमहि मां विद कर्ता कि । A लि त्व निषेधम् पण्णुहिरदु. ७ प्रिसुवुदरिन्द द्वीयक्षणदल्लि अनुमन्ता - अनुमति दान माडुववनु (४) इळिन्तलैशु मक्ळु सुवनक्कु इत्यादि अडिभागवु दप्पनागि. भारवागिद्दु तरिदभागवु. सण्णदागि, भारविल्लदॆ इरुव मरद कुदिभागवन्नु हॊरुव बालकनिगॆ, बलिष्कनादननु भारवाद अडिभागवन्नु हॊत्तु सहकरिसुवन्तॆ, ऒन्दु क कार्यदल्लि तॊडगिसिद जीवनिगॆ सहकरिसुव ईश्वरनु “सहकारि, इल्लि जीवनु प्रॆनर्तिसुव कार्यदल्लि ईश्व ओरनि प्रवृत्तियु जीवन स्रवृत्तिगिन्त आधिकवादद्दु ऎन्दु तिळिसलु इळॆन्तलॆ भारविल्लद तुदिभाग, सॆरुन्तलै - भारवाद अडिभागवॆम्ब दृष्टान्तवन्नु आचार्यरु अनुग्रहिसिरुत्तारॆ. । कॆलव गळल्लि ईश्वरसिगॆ कर्त त्वविल्लवॆ वॆन्दु हेळुव वचनगळिगॆ तात्पर्यवन्नु सृष्ट्वादिहळिल् ऎन्दारम्भिसि ET अदागि देव मनुष्य तिर्यक् स्थावरगळॆम्ब चतुर्विध सृष्टिगळल्लि, देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यक्त्याद्रि (1) चातुर्वर्ण्यं मुयासृष्टं वैषन्युगळिगॆ जीवनकर्म विशेषने कारणवाद्दरिन्द, ऎन्दु अवरवर पुण ण्यपास रूप कर्म मूलकवागि चतुर्विध सृष्टि हं एप र्पट्ट रुव दरिन्द ईश ऎरसिगॆ स्रधान सत्कृत्य वन्नु ऒसडिन. ई अंशवु विष कि पुराणरल्लयखू, निमित्त मात्रमेवासौ सृज्यानां सर्गकर्मणि । प्रध्धानकारणी भूतायकोवै सृज्यशक्कयः । सृज्यसदार्थगळ शक्टयॆ– सृष्टियु पुण्य ४ भगवन्तनिन्द पाप सृष्टि कार्यदल्लि रूस p) भगवन्तनु अस्रधान कारण. आ सृज्य पदार्थगळ (जीवरुगळ) कर्मगळु प्रधानकारणगळा. अदक्कनुगुणवागि देव ’ मनुष्यादि माडल्पडुत्तदॆयाद्दरिन्द भगवन्तनु अस्पधानकारणनॆन्दु तात्पर्य
- गीतॆ. 4-13 चातुर्वण्मं - ब्राह्मण, कत्तिय, वैश्य, शूद्र नॆम्ब नाल्कु जातिगळु स स्तमोगुणगळ मत्तु वर शव दमादि कर्मगळ विभागदिन्द सृष्ठि सल्पट्टिवॆ. आ वर्ण विभागगळन्नु नानु माडिद्द रू तळ कर्मानुगुणवागि माडिरुवुदरिन्द, सुनु कर्तावल्ल. आवरवबर पुण्मपाप रूपि कर्म गळे कारण,
अवर
1141 श्रीमद्रहस्य त्रयसारे
व्रज शब्धेन, मुमुंस्लोः निधियोग्यत्वं सिद्धनिन्ति निगमयति.
इप्सडि सर्रनिसय साधारण कर्रृत्वमुडैय ईश्वरनडियाह जीवनुक्कु स्वबुद्धि पूर्त प्रवृत्ति शक्तिरूपमान नियोग योग्यत्ववर् सिद्धम्, आहैयाले इजिं “व्रज? ऎन्रु निधिकृक्कुरैयिल्लॆ
श्री पिळ्ळान्वार्रायाः निश्चास जननद्वारा पराधीन कर्रृक्रेशात्सर्यनर्
इप्पडि भक्त्वादिहळ् सोले शरणागतिधर्ममंवर् कल्रव्यमाह विधिकृप्पुडुगैयाल् तन्नाल् वरुवा् नन्मै निलैस्पाल् पोले, ईश्वरनाल् वरुम् नन्नॆ मुलैस्पाल् . पोले? ऎन्रु हिळ्ळान् वार्तॆ क्सु भक्ति प्रपत्ता ,दिहळिल्लाम् अननाले वरुहिरननॆन्रु फिन्फकृवेण्णुमॆन्रु, तन्नुडैैय पराधीनकर, त्वत्तिले तात्सर्यम्,
अन्यविश्वाससिद्ध र्थं भक्तु पाय विधिं वदन् । सर्वशास्त्रेष्वनिश्चास माधत्ते मुखभेदत; ॥ 157/
इप्पडि सर्व विषय इत्यादि - हीगॆ सर्व विषयगळल्लियू साधारण कत्तृत्ववन्नुळ्ळ ईश्वरन मूलक जीवनिगॆ स्वबुद्धि पूर्वकवाद प्रवृत्ति शक्तियु कूडल्बट्टु इरुवुदरिन्द, नियोग योग्यत्वम् - ऒन्दु कार्यदल्लि प्रवर्तिसलु योग्यतॆयु जीवनिगॆ इद्दे इदॆ. अदरिन्दागि आननन्नु कुरितु इल्लि “व्रज” - शरणागतिमाडु, ऎन्दु विधिसलु आक्षेपविल्ल. . इप्पडि इत्यादि हीगॆ - भक्त्यादिगळ हागॆ शरणागति धर्मवू कर्तव्यवागि विधिसल्पडुवुदरिन्द» तॆन्हाल्वरुम्नन्मॆ x इत्यादि - तानु अनुष्ठिसि आदरिन्द बरुव क्षेमवु क्रयॆक्रीतवाद हालिनन्तॆ ईश्वरनाल् वरुव५्नन्मै इत्यादि - ईश्वरन मूलकवागि बरुव क्षेमगळु तायिय स्तन्यदन्तॆ, ऎन्दु निळ्ळान् अवरु अनुग्रहिसिरुव मातगॆ, भक्तिप्रपत्तिहळ् इत्यादि- भक्ति प्रपत्यादि कतनृत्ववू भगवन्तनिन्दले एर्पट्टवु ऎन्दु नॆनॆदरॆ, तन्न कत्कृत्ववू आदर मूलकवागि एर्पडुव कार्यगळू, ईश्वरनिन्द एर्पट्ट क्लेमवागिये परिणमिसुवुदरिन्द
मातृस्तन्य तुल्यवॆन्दु एर्पट्टु तन्न पराधीन कतणृत्वदल्लि तात्सृर्य. इष्टल्लदॆ अत्यन्त परतन्त्रनाद जीवनिगॆ कर्तृत्वविल्लवॆन्दु तात्पर्यवल्ल. ।
कॆलवरु प्रुपत्तियल्लि विश्वासनन्नुण्टु माडलु शास्त्रदल्लि भक्तियु विधिसल्पट्ट दॆये, हॊरतु, भक्तियोगवन्नु विधिसुवुदरल्लि शास्त्रक्कॆ तात्सुर्यविल्लनॆन्नु प्रा ई पक्षवन्नु अन्यविश्वाससिध्यर्थं ऎन्दारम्भिसुव कारिकॆयिन्द निराकरिसु त्तारॆ. अदागि अन्यशब्दवु प्रसत्मिसर. शास्त्रवु, लघुवाद प पत्ति शास्त्रदल्लि निश्वासवुन्नुण्टु माडलु गुरुवाद भक्तियन्नु अशक्तनिगॆ विधिसुत्तदॆ. ऎन्दु हेळुवुदरिन्द ‘सर्वशास्त्रगळल्लियू प्रकार भेददिन्द अनिश्वासनन्नु हेळिदन्तागुत्तदॆ. आदागि मॊदलु भक्तियोग वन्नु विधिसिअदनु माडुवुदक्कॆ शक्तियिल्लनॆन्दु तोरिसि, सुलभवाद प्रसत्तियल्लि निश्लासननु ०ट६ माडलु भक्तियन्नु विधिसिदॆयी हॊरतु, आ भक्तियोगवु साक्षान्मोक्षोपायवल्लवॆन्दु तिळिसुवुदे शास्त्र तात्सर्यवॆम्बुदु पूर्वपक्षिय मातु. हागादरॆ लघुवाद अग्निहोत्रदल्लि निश्चासन्मुण्टु माडलु, ज्योतिस्टोम निधानवॆञ्जू, लघुनाद नाम सङ्कीर्तॆनदल्लि निश्वास सिध्यर्थवागि
चरमश्लोकाधिकारः 1142
। मद्योसहत पात्र स्थ तीर्थदृ षान्त नर्णनम् ।
अहङ्कारा न्हयीतु pa त्रपत्त् वसि भक्ति पत् 1 158 Il
आळनन्दार् श्री सूक्ति तात्पर्य कथनम् आहॆ याले “प्रसीद मद्व त त मॆजिन्तायित्ना % इत्यादिहळ् मुन्पुताम् पण्णिन प्र पत्ति क क्षम कॊळ्ळु हिरपडि’
ऎन्रु शिलर् 'शॊल्लुवदुम्, अहङ्कार सृ र्या © शाकै य्य प्प त्रवाम् अत्र कै; अल्लदु ह *शास्त्रमनुष्ठि त्त प्रपत्ति RN a] अदुक्कु "्रम्मकॊळ्ळु हिर पडियन्रु. अप्पडियाहिल् “पितामहं नाथमन्निन्निलोक्क प्र सीद” ऎन्नि र पूर्ता चाज्य पुरस्थारादिहळुव् ताम् कय् हिन्दाज्यियालेयदुक्सुवु? नन कॊळ्ळॆ नेण्णि अनवसॆ याम. इदु स्वपर निर्वाहकमाहिल् इदुपॊले मुन्नु पण्णि न प्र षन” मूव् स्वपर निर्दा हकनॊन्न लाम्. इज्बुशॊल्लुवु् hs 'सत्तियन्नु विधिसिदॆयॆन्दू हेळि ई रीतियागि विहितगळाद सर्नशास ्रैगळॆल्लियॊ अविश्वासवन्नु क्लियु उण्टु माडिदन्तागुत्तदॆयुदु प्रतिबन्धियागि प आ टॆ पक्षवन्नु निराकरिसुत्तारॆ. ुद्योपहतसात्रस्म इत्यादि - ऒन्दु पाप्रद नीरिनल्लि मद्यद बिन्दुवन्नु सेरिसिद भक्तियोगवु अहङ्कार गर्भितवागि अन्दरॆ नानु कर्ता” ऎम्ब अनुसन्धान गर्भितवाद्द रन्द, अदु स्वरूप विरुद्ध, त्याज्यवु” ऎन्दु हेळुवुदु अनुससन्नवु. भक्तियोगवन्नू सात्विक त्याग पुरस्स्र नागल वी माडबेकाद्दरिन्द इदरल्लि अहङ्कार स्पर्शविल्ल. अहङ्कार गर्भितवॆन्दरॆ प्रपत्ति यन्नू “अहङ्करोविरि? नानु माडुत्तेनॆन्दु. हेळिदरॆ अदू स्वरूप विरुद्धवागुत्तदॆ. अल्लियू सात्विक त्याग पुरस्सरवागि अनुष्ठानवन्नु हेळिरुवुदरिन्द अहङ्कार गर्भत्वविल्ल. आग्दरिन्द जीवन पारतन्त्र न 4 कर्कत्वक्कॆ भङ्गविल्लनॆन्दु तात्सृर्य. आळवन्दार् अवरु तावु माडिद प्रपत्तिगॆ क्षमॆ बेडिदरॆम्ब वाद खण्डनॆ कॆलवरु “पितामहं नाथमुनिं विलोक्य द मद्वृत्तमचिन्तयित्वा” इत्यादिगळु तानु माडिद प्रपत्तिगॆ आळनन्दारवरु प्रायक्चित्तवागि ल (३६ भगनन्तनल्लि क्षमासणॆयन्नु याचिसिदन्दागि ST इदु तावु माडिद स्रसत्तिगॆ अहङ्कार स्पर्शवे मॊदलादवु विर्नट्मवो ऎम्ब शङ्कॆयन्नु कुरितु माडिद कमासणॆयिी,, अल्लदु-हॊरतु यथाशास्त्र म् शास्त्रवन्नु अनुसरिसि माडिद प्रपत्तियु असराधवागि परिणमिसि अदक्कॆ क्षमापणॆयन्नु बेडुत्तारिन्दल्ल. अप्पडियाहिल् इत्यादि-तावु माडिद प्रपत्तिगॆ प्रायक्चि त्रवे इदु ऎन्दु हॆ-ळिदक्कि पूर्वाचार्य 'फ्ररस्का रादिगळू अस्वतन्त्रनाद तानु माडुव व्यापारनाद्द रिन्द इदक्कू क्षमॆयन्नु याचिसबेकागि' अनवस्थॆयु एर्पडुत्तदॆ. इदु स्वपर निर्वाहकमाहिल्, ई क्षमासणवु स्वानुष्ठानदिन्द एर्सडुव अपराधक्कू परवाद प्रपत्तियिन्द एर्पडुव असराधक्ळू टं कि ऎन्दक्कॆ प्रसत्तियू स्वपर निर्वाहकवॆन्दु हेळबहुदु. अन्दरॆ सर्वपास प्रायश्चित्तवा मॊदलु माडिद प्रसत्तिये स्वानुष्ठानदिन्द एर्पट्ट दोषक्कू sig ee. इतइहतॆ ऎन्दु तात्सरै., इङ्गु शॊल्लुव्् कुतर्क्यङ्गळाले इत्यागि - हीगॆ यथाशास्त्रानुस्कितनाद स्रसत्तियन्नू कुतर्कगळिन्द दोषनवन्नागि हेळिदक्कि 1142 । श्री मद्रहस्यत्रयसारे पूर्व र्हळ् पण्णि नप थ्र पदनमुन् अपराधमाय* अरुहैयाले पूर्वर् हळ्ळॆ मुन्निड वुव् वॊण्णा ज्यॊंयुम्. “अचार्यानुज्ञयाकुर्यात्” इति तत्पुरस्कारः प्रपत्त 3५ सेक्तित- इतिनिगॆमुयति. आह्टॆयाल् इस्रोत्रत्तिल् आद्यन्त ळिल् पण्णिन पूर्वाचार्य पुंस्कारवर् इजब्बु अरुळिच्छै यर् हिर प्रपत्तिक्ळु अपेस्ततमायादल्, नृक (परिहसरार्थमायादल् उप यङ्क्कमाय् वन्द दित्तनै. इव्वाचार पुरस्था र ८5 पोले प्रपत्यादिगळिलुम् पराधीनक्त्यृत्वम् दोषमन्रु. पराधीनकर्त त्व स्वातन्त्र्याभावात् निषिद्ध कर्माणामु् अलेपसस्सनिरासः इप्पडि सराधीनकर्तृत्व त्तम प्रामाचकमाण्ट यताले आत -्मवुक्टु कर, तमिला मै याले मुमंस्सुवुक्कु 'स्वरूप मर् तिळिन वनै निषिद्ध कर्म जि नु च्चॊन बाल्डं बालक तज्ञ स मुळ कामुचारादिहळन आे नियादॆन्सिसप रः कम- प, ऎर् निरस्तम्., साध पूर्वा चार्यरुगळु अनुष्ठिसिद स्रसत्तियॊ दोषदिन्द कूडिदुदागि एर्नडुवुदरिन्द आवरन्नु मुन्दिट्टुकॊण्डु होगुवुदे दोषवागि, अनरन्नु- मुन्दिड कूडॆदागि सर्यवसानवागुत्तदॆ. आद्दरिन्द ई प्रसदनन्र अपराध रूसवागलारणु. आदक्कागि क्रमापणवू बेकिल्ल. हागादरॆ स्कोत्ररत्नदल्लि आद्यन्तगळल्लि माडिरुव आचार्य पुरुस्थारक्कॆ न प्रॆयोजनवॆ!नॆन्दरॆ, आहैया इल्: इत्यादि अनुग्रहिसुत्तारॆ. आहैयाल् - आहॆङ्कार स्पर्शॆविल्लद प्रसदनवु अपराधनागुनदिल्ल वाद्दरिन्द, ई स्तोत्रदल्लि आद्यन्तगळल्लि माडिद आबार्य पुरस्कारवु इल कृसॆमाडि हेळुव प्रपत्तिगॆ अपेक्षतवागियागबहुदु. “गुरं स्रसद्य सथन) अद्दु रूंश्टै त तोर इत्यादि गळल्लि हेळिरुवन्तॆ भगवत्प्रसत्तिगॆ मॊदलु आचार्य स्ररस्थारवु असा? वैकल्यपरिहार मायादल् इत्यादि - फ्रातिकूल्य न सम्भनिसबहुपाद वैकल्य परिहारार्थ वागि उपयुक्तवागि विर्सडुत्तदॆयष्टे. इव्वाजइ ; पुरस्कारत्तिर् पोले इत्यादि - ई अचार्य पुरस्कारदल्लिरुवन्तॆ न्रसत्यादिगळल्लियू पराधीनवाद कत९ृत्तवु दोषवल्ल, . "आदि? शब्ददिन्द भक्कियोगवु. हेळल्पडुत्तदॆ. जीवनिगॆ कर्तृत्वनिल्ल ल्लवाद्दरिन्द निहिद्धकर्मुगळु लेसिसुवुदिल्लनॆम्ब मुत खण्डनॆ. इस्पडि पराधीन Mak म् इत्यादि - हीगॆ पराधीन कतृत्ववु प्रामाणिकवाद्द कर्नुगळॊन्दू “पाण्डित्यन्निवि रिन्द “आत्माविगॆ र्निब्य नजग्बत्वनि! लॆकिसुवुदिल्लवॆम्ब बाल्केन लवाद्दरिन्द तिष्ठासेत्? पक्षवू पारतन्त्र्र ऎन्दु रस- उपनिषत्तिनल्लि रूप स्वरूपवन्नु मुमुक्षुनन्नु बालन आहार. विहारगळन्नु माडिकॊण्डिरबहुदु ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द, कर्मानुष्मूनवु लेसिसुवुदिल्लनॆंरा हेळुव पक्षवू निरस्त. हेगॆन्दकॆ च्चॊ न्न इत्यादि - मुमुक्षुविगॆ हेळिद बाल्यवु बालक्क गळाद कामचार तिळिदवनिगॆ निषिद्ध कुरितु, सागॆ स्वेच्छॆयागि प्रसन्ननिगॆ निषिद मुमुस्षुवुक्कु - स्वेच्छानिहारा ie चरमश्लोकाधिकारः 1144 विष्कार मात्रमॆन्रुनिडम्, "अनाविष्टुर्वन ऒस्वयात्” ऎस्सि रसूत्रत्ति ले समुर्थितम्. 1) “अनिष्ट मिष्टं मिश्रञ्च? (2) "यस्य नाहङ्क ! तोभावः' इत ,दिवचनङ्गळ् बुद्धि सूर्वोत्त वध विषय ळन्रॆन्रुनिडं, बहुशास्त्र “निकोधन् ऎ नट काह भाष्यादि गळिले समर्थिकृप्पट्टदु. डॆ पि?” ऎन क्र दुवुम् धर्मयुद्ध Ppl pe दिगळल्ल. मत्तेनॆन्दरि स्वमाहात्म्यवनन्नु आनिष्टरिसडॆ इरुवुदु, ऎम्बुदु, न र्व न्हन्वयात्” - ब्रह्म सूत्र (3-3-49). ऎम्ब सूत्रदल्लि सर्मथसल्पट्ट अन्दरॆ “नाःविरतोदुश्चरितात् ना$शान्तो नाःसमाहितः । ना शान्तमानसो वासि प्रज्ञानेनैन माप्लुयात् ॥ ऎम्ब वचनद प्रकार निषिद्भानुष्ठाननन्नु माडुवननु ब्रह्म स्पा्रात्कारवन्नु सडॆयलारन ऎन्दु जय निषिग्भगळाद कानुचार कामभक्षणगळु इल्लि विधिसल्पडुवुदिल्ल. मत्ते नॆन्दकि तन्नॆ वूाहात्म्य्यवन्नु आविस्टरिसदे इरुवुदे इल्लि हेळिरुत्तदॆ. (1)अनिष्टृ निंस्टृं मिश्रञ्च, (2) यॆस्यनाहं क्रतोभावः इत्यादि वचनगळु प्रपन्ननिगॆ (सन्यासिगॆ) बुद्धि पूर्मो्तरॆ पासवु लेपिसुवुदिल्लनॆन्दु गीताचार्यन अभिप्रायवल्ल. हीगॆ हेळिदरॆ बहुशास्त्र विपॊ?धपु ऒरुवुदरिन्द आ विरोधवु बरदॆ इरलु गीता भाष्यादिगळल्लि बुद्धि पूर्वोत्तराघ विसयॆगनन्त. मत्तेनॆन्दरॆ, कर्मगळिगॆ नरकवु. फल स्वर्गवु फल्क पुत्र सश्चन्नादिगळु फल वॆन्दु मूरु विधवागि विभागवु ऎर्नट्टिवॆ. ई मूरु विधवाद फलगळु, कर्तृत्व. , मनुत्त्का फलत्याग माडदॆ. इरुवनरिगॆ आयाया फलगळु एर्पडुत्तवॆ. नरकफलक कम्म प्रामा दिकवागि माडुव पास कर्मगळु. अल्लदॆ तप्पुकार्यगळन्नु बुद्धिपूर्वकवागि माडि, फल सङ्ग कतृत्व मनुता त्यागमाडिदरॆ आ पाप फलगळु होगुत्तवॆ ऎन्दल्ल. फलसङ्गळकतृत्व ममता, त्याग पुरस्सर माडुव कर्मगळु - सन्यासिगळिगॆ अन्दरॆ आ फलसङ्गादिगळल्लि आसॆयिल्लदॆ केवल भगवफ्री-यिन्द माडुवनरिगॆ लेपिसुवुदिल्ल. नानु कर्तावॆम्ब भावनॆयिल्लदॆ परमपुरुष कतनृित्त भावनॆयिन्दलू ममता त्यागदिन्दलू फलत्याग पुरस्सरवागियू माडुव युद्धादि (1) अष्ट मिष्टं मिश्रञ्च त्रिनधं कर्मणः फलव ट ट भवत्यत्कागिनां प्रेत्य नत सन्म्यासिनां क्वचित् ॥ गीतॆ (18 -:12) कर्मगळिगॆ अनिस्ट्र - नरक, फट्ट स्वर्ग, मिश्र - पुत्रपश्वादिगळु, फल, आयाया घॆ लऎन्नु अपेक्लिसि माडुववरिगॆ अनन्तर ई फलवु लभिसु स नरक फलकवाद कर्म - प्रामादिकवादद्दु, सन्ना सिगळिगॆ अन्दरॆ फलसङ्ग कर्तृत्व ममता त्काग माडुववरिगॆ इवुगळु लभिसुवुदिल्ल. भगवत्सिीतिये अवरिगॆ फल, (2) यस्कनाहं तो भामो बुद्धिर्यस्क नलिप्यते ॥ ना हत्वाप्किस इमान् लोकान् न हन्ति न निबद्ध्यते ॥ परमपुरुष कतृत्वानु सन्धानदिन्द, नानु माडुत्तेनॆण्ट बुद्धियु यारिगिल्लवो, नानु कर्तावल्ल ७ रुवुदरिन्द फलवू ननगॆ सम्बन्धिसुवुदिल्लवॆम्ब भावनॆयू यारिगिदॆयो, अवनु ई धर्मयुद्धदल्लि ई बु धु मित्ररुगळन्नु कॊन्दरू, तानु कॊल्लुवुदिल्ल. कॊल्लुवुदरिन्द उण्टागुव फलवन्नु अन इ ई द व इ ऒब], . 1145 श्रीमद्रहॆस्यत्रयसारे का॥ उपॆभुकौ न षसधन्यायादुत्त, रापथ्यमुर्दनवर् । अनन्यपर निर्बाध श्रुति. स्म ऎतिशत्सैर्हतम् ॥ ॥ 159 मन्वादिहळुव5् (1) “जीनिता नित्यय नापक्नॊ € योनन्नमत्तियतस्ततः। : आकाश इव हङ्केन न स पाहेन शिष्य ते! (2) “प्राणसंशयॆमापन्नॊ € योन्न मुत्ति यतस्वतः । लिप्य ते नस पाहेन पद्म। हॆत 5 मिवाम्भसा॥निनु नियमित्ता र्हळ6॥ इदु ब्रह्मनित्तुक्कुवम् तुल्यनॆन्नु निडवर्, 3 “सर्राना सुमतिश्चष्टा णात्यये तद्दर्शनाश्” ऎ ऎन्सि र सूत्रति त्रिले दृष्टा ०तरूसेण रसन आहैयाल्, कर Fe नुकि ळ्सृ ऎन्रा दल्, पारतन्त त्र ज्ञान मात्रत्सै बं जि कॊण्डादल्, बुद्धि पूर्वॊ (त्र न ऒरपडिक्कुवु 55 DEAT यरव ब फा ह याक वासर सु मप डि कर्मगळल्लि बन्धुमित्ररनन्नु निरसन माडिदरू- अदरिन्द उण्टाद पापवु इवनिगॆ लेपिसुवुदिल्ल ऎन्दु हेळिरुवुदू धर्मयुद्ध विषय. आल्लदॆ बुद्धि प्रर्पो्रराघवु लेपिसुवुदॆन्दल्ल. उपभुक्कौषदन्यायात् इत्यादि - ऒब्बनु ऒन्दु सिद्ध षधवन्नु सेविसिदरॆ अदु तन्न माहात्म्म्यदिन्द उत्तरकालदल्लि एर्पडुव अपथ्यवनॆल्ला होगलाडिसुवुदिल्लने.. आ रीतियल्लि ऒब्बनु प्रपत्तियनन्नु आनुष्मिसिदरॆ अदु तन्न माहाक्म्यदिन्द उत्तरकालिक बुद्धि पूवॊन त्क राघनन्नू होगलाडिसुत्तदॆ. इत्यादि चोद्यगळॆल्ला प्रसन्मनन्नु .कुरितु हेळिरुव “अष्टॆ नेषां केचिदुस क्लेशा भवन्ति, खञ्जा भवन्ति, काणा भवन्ति” “अपाय संस्थृवेसद्यः प्राय श्चित्तं समाचरेत्”, प्रायश्चि त्रिरियं सात्र यत्टुन शृरणं व्रजेत्?” इत्यादि बहु प्रमाणगळिगॆ विरोधवु एर्नडुत्तदॆयाद्दरिन्द, अन्तह कुतर्कगळॆल्ला निर्मूलितवु. मन्वादिहळुवु् इत्यादि - मनु मॊदलाद स्म ृतिकाररुग गू. (1) : जीवितात्यय मापन्नः (2) प्राजसंशयमापन्नः इत्यादियागि प्राणसंशय कालदल्लि सिक्किद आहार वन्नु तिन्दरू आकाशव्र कॆसरिनल्लि बळियल्पडलागद रीतियल्लियू, तावरॆ ऎलॆयल्लि नीरु अण्टिदिरु वन्तॆयू, पापगळु अवरिगॆ लेपिसुवुदिल्ल ऎन्दु व्यवस्थॆ गॊळिसिद्दारॆ. इदु ब ब्रह्मवित्तु क्कुम् इत्यादि - ई प्राणापद्दशॆयल्लि सिक्कद आहारवन्नु तिन्नबहुदॆम्बुद्कु म वित्तुगळिगू समानवागि अन्वयिसुत्तदॆ ऎम्बुदु (3 सर्वान्ना नुमतिश्च प्राणात्यये. तद्धर९नात्- प्राणसंशय कालदल्लि जाति मॊदलाद व्यत्यासविल्लदॆ ऎल्लि बेकादरॆ अल्लि लभिसुव अन्नवन्नु ऊटि माडबहुदु ऎम्बुदन्नु दृष्ट्वान्तपूर्वक सूत्रकाररु तिळिसिरुत्तारॆ- -अदागि “उषस्ति” ऎम्ब प्राण विद्योपासकरु तमगॆ ऎल्लियू आहार सिगदॆ इरतक्क कामकालदल्लि ऒब्ब आनॆ. पोषकन हत्तिर होगि अननु तिन्दु मिक्कु ऎञ्जलु कुल्मासगळन्नु (बेयिसिद हा यन्नु) केळि WS तिन्दरु. प्राणधारणनायितु. नन्तॆर अवनु कॊट्टि नीरन्नु तिन्न कूडदु, उच्छिष्टवन्नु तिन्दन्तॆ यागुत्तदॆ. ऎन्दु तिरस्करिसिदरु. आहै i स आत्मानिगॆ ह कतॆनैत्ववु उण्टॆन्दु फिरूपिसल्प ट्टिरुवुदरिन्दलू, निषेध शास्त्रवु कर्त वन्नु. अवलम्बिसिये- इरुवुदरिन्दलू, आत्मानिगॆ कतनृत्ववु इल्ल ऎन्दागलि, पारतन्त्र क्र ह (1) मनुस्मृति ऐ 194, (2) PPPS 3) ब्रह्मस बात्र (3 स 4 ई 21) चरनुश्चोकाधिकारः 1140 इत्तैप्पत्त पुनः प्रपदनर्मनेण्डा ऎन्नै युवर् परपक्षमाम्. “व्रज” इतिननिधि-- किन्तु सम्बन्ध ज्ञाने तात्सर्यनिन्ति वादस्य खण्डनम्. इव्हिडत्तिले शिलर् “व्रज” इत्यादि 'निधिहळ्ळॆ अन्यपरज क्क (1) योन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा ह क्र? पद्यते । किन्तेन न क्ट तं पापं चोरेणात्मापहाणा ॥ £2) “यमोवैवस्ट तो राजायस्त नैष हृदिस्सि तः तेन चेद विवादस्ते मा गङ्गां मा कुरून् सरु ॥» (3) “आत्मदास्यं हरे8स्हाम्यं स्वभावञ्च सदास्मर” इत्यादिहळिल् तात्पर्य गतिहळ्ळॆ युव् पंामर्शियादे इवत्तैळ्ळॊण्डु, शास्त्र इ सम्बन्ध ज्ञा नर्न्कॊय वेरु मुुमश्चुवुक्ळु अनुष्ठेयनाय् मुण्डॆ उपायविंल्लॆ, ैयॆन्बर्हळ्, इदु भक्तिप्रपत्ता दि निधि स्वारस्य निरुद्धन्. राग प्राप्त श्रवण मननज ळले सिद्धमान ु माप्रै्वन्नु आङ्गीकरिसियागलिि, ऒद्दि पूर्वोत्तिराघव याव रीतियल्लू लेपिसुवुदिल्लवॊदू दॆक न बत स्पपत्तियु बेडनॆन्दू हेळुन पक्षगळिल्ला परसक्षमाम् - भाष्यकार “व्रज? डि निधियल्लि तात ैग्यविल्ल - सम्बन्ध ज्ञा न विनह बेरॆ याव उषायवन्नू अननिसि सबेकिल्लनॆम्ब मतद. खण्डन. इद्दिडत्तिल् शिलर् इत्यादि - इल्लि कॆलनरु “ जौ शरणागतियन्नु अनुस्मिसु, इत्यादि । नि. वाक्यगळन्नु, अन्यपरङ्गळाक्रि - “ई अर्थवन्नु तिळिदुको”, ऎम्बन्तॆ नन्नन्नु उपाय A वागि तिळिगुको ऎन्दु भगवन्तने उपायनॆम्ब ज्ञानमात्र बोधन परवागि, हेळुत्तारॆ. । (1) यो न्यथा सन्तमतात्मानं, (2. यॆनोवैवस्व तो (3) आत दास्यं हरेःसा हम्यं इत्यादि वचनगळ आधारद मेलॆ सम्बन्ध ज्ञा श्ल नवे मोक्षसाधकवॆन्दु आपाततः ग्रहणमाडि ताः क्य गतियन्नु अन्दरॆ प्रसत्तिगॆ मूलवाद सम्बन्ध ज्ञा नद प्राशस्त वन्नु सरामर्शिसुवुदिल्ल, पू स्रमाणनचनगळन्नु कूडु शास्त्रजन्य ज्गा न विरह बेरॆ मुमुकुनिगॆ अनुष्यॆ €यवनाद उपायवु यावुदू इल्लवॆन्नुत्तारॆ. इदु भक्तिप्रसत्ता दि इत्यादि - हीगॆ हेळुवुदु भक्ति सत्तिगळन्नु निधिसुव, ध्यायीत, उपासीत तनेनशरणुगच्छ, व्रज, इत्यादि निधिस्वारस्यक्कॆ 1 भारत उद्योग पर्व 47) - 30. भगवेतनिगॆ शेषभू तवाद आत्मवस्तुवन्नु स स्वतन्त्रनॆन्दु तिळियुववनु महा पाहि. आत्मापहाठ चौर्य ऎन्नु वुडिदवन- (2) विल्लदिद्दरॆ अन्दरॆ निन्न्न ४” आत्मा हृदयदल्लिरुव णि अवनिगॆ भगवन्तनू शेषभूतनल्ल सर्वरन्नू ऎम्ब नियवि-सुववनु. सर्वप्रकाशकनु, विवादविल्लदॆ इद्दरॆ साकु. अवनॊडनॆ विवाद गङ्गॆगू कुरुक्षेत्रक्कू पाप [ne] ऎ 8 वन्नु कळॆयलु होगबेकाद अवश्यकविल्ल - मनुस्मृति - (8 - 92) (3) ऎष्टु तत्व «“ भगवन्तनु स्मामि, क ता नानु कॆ दासनु न्न सिकॆ हत्रॆ ऎम्ब se स्वभाव ह् ज्ञानवन्नु अळि अट्टॆ ऎळॆ र सदा अनुसन्धान इ माडु. 1 147 श्रीमद्रहस्य त्रयसारे शास्त्र जन्यज्ञा नत्तैनिधिक्कवुवं् नेण्णा. अनिधेयज्ञानत्नैनोक्स साधनमाहच्चॊल्लुनारु ज् विधनिरोधादिदोषज ळुम् वरुमॆन्रुसाधित्तॆदिरे केवल सम्बन्ध ज्वाननेन नो क्षहेतुरितिवाद निरासनम् निगमयति आनपिन्टु सर । निद्यानिष्न रान मुनमुङ्क्सुक्स टु ऎत पॊदुवाय्, पगम्र रया उपका रळवान जीन परमात ऒ सन्पुन्न ज्ञा, सन शास्त्यत्ताले हिरन्न वनुक्सु नम्न डैय स्वानियाय निरतिशय भोग्यनन्न श्रि श्रियःपतिय्य प पिकॆ , कृुविरणेदॆन्न कसा काङ्क्सै पिरन्नॆवळविल् अज अव्चोअधिकारि विशेष 3 विधिक्सस्पृडुक-र ज्ञान) न्हरज्लु फि भक प्रपत्तिहळळ, अवत्तिल् प्रॆ पत्तियावदु? ( ) “यत्न रक्षतया र्य ते इत्या निहळिर्पदियी सपरिकरमान स्त रक्ताभ समर्प्हणवु्. इदु निम्बन्धा नु सन्धान गर्भमाह वेण्डुमॆ क्साह सम्बन्धज्ञा नवर् प्रपत्ति ऎन्रु शॊन्नार” हळत्त नृ - इच्चर न्यासरूप प्र पृपत्ति यिन् स्परूस सरिकर धिकारादिहळ्ळॆ मुन्न ( रक्त चॊ नॆ म. एिकशब्दू र्थं द्रामिडगाधया सङ्ग्म ह्ला ति शादनमम्म् नर्बयनुन न नातेयाावन्, इदकनुनुन् वशमायॆनॆ खसुतॆहिवर् शादनमुुवत् शरणनॆरियनु श्रिनक्कु । च्च्रा दनज्स ळिन्नि ल्लॆ क्स ीरिडै यल् निल्ल । विरुद्धवादद्दु शास्त्र जन्मवा सम्बन्ध ज्ञानवन्ने स इरलि, ऎन्दरॆ- ‘रागप्रा प्र श्रन मननङ्गळाले इत्यादि - राग -. इवन आसॆयिन्द स्राप्तवाद श्रवण Mon सिद्दवाद 2 जन्य सम्बन्ध ज्ञानवन्नु. विधिसॆबेकिल्ल. अनिधेयज्ञानक्सै इत्यादि - सम्बन्धज्ञा नवु अ ह निधिजल्ल ’ अन्तह… अविढेयुन्पान . ५ौस्ट्र जन्य ज्ञानवन्नु मशक 35137121313. विधिनिरोधादि दोषगळु बरुत्तवॆ. ऎम्बुदन्नु हिन्दॆये स्थापिसिदॆ. इदु अद्वैतिगळु हेळुव वाक्यार्थज्वानदिन्द मोक्तनॆम्ब सिद्धा न्तक्कै तुल्य. जॆन्नड्ति द सम्बन्ध ज्ञानवु परम्परॆयागि ल सकारकवु. अनसिन्फु इत्यादि - आनिजीयनाद सम्बन्ध ज्लननात्र. मोक्ष साढनवल्लवाद्द रन्द, सर्वनिन्यानिस्कराद मुमुक्षुगळिगू सामान्यवा गि, परम्परॆयागि उपकारकवाद जीव सरमात्म सम्बन्ध ज्ञानवु शास्त्रदिन्द एर्पट्टु नम्म स्वामियागि निरतिशय भोग्यनाद त्रियः सतियन्नु प्रापिसलु ‘क्यापायवु यावुदु ऎम्ब आकाङ्क्षॆयु. उण्टाद समयदल्लि इल्लि आयाया अधिकारि. विशेष क्व अनुनूपनागि निधिसल्पडुन ज्ञा ) नान्तरगळु भक्ति प्रपत्तिगळु, अवट्रल् इत्यादि - आ भक्तिप्रनत्तिगळ मध्यॆ, (1), यत् स ” रक्षतयार्प्य ते - रक्षिसल्प डलु यावुदु समर्निसल्पडुस्तदॆयो. अदु प्रपत्ति इत्यादिगळल्लि हेळिरुवन्तॆ स्वरक्स्सा भर समर्सणवु. प्रपत्ति शब वाच्यवु. इदु सम्बन्धानुसन्धानगर्भवत५् इत्यादि - इद” सम्बन्ध ज्ञ्य्ञानानुसन्धान गर्भवाग बेकॆम्बुदक्कागि, सम्बन्ध ज्ञानवु प्रसकश्तियॆन्दु हेळिरु. त्तारॆयष्टे इभृरन्या सरूप इत्यादि - ई भरन्यास रूपवाद. प्रपत्रिय स्वरूह्म परिकर आङ्गगळु, अधिकारवे मॊदलादवुगळन्नु , प्रसक्तियोग्याधिकार, सरिकर विभागाधिकार, साङ्ग प्रनदनाधिकारगळल्लि हिन्दॆये सरक्क - निस्त परवागि हेळिरुवुदागि आचार्यरु फिगमिसुत्तारॆ. एक” शब र्थ सङ्ग्र ह शादनमुम् नर्फयनुवं् इत्यादियागि आज आरु अर्थगळन्नु सङ्ग्रहिसुत्ताकॆ. आदागि. शादनमुवर् - साध्धवू, प्रापकनवु ऎन्दर्थ, नर्रयसुवम् - ऒळ्ळॆय फलवू; चरनुश्चोकाधिकारः 1148 वेवनैशेर् हूव मेरज्ञनिदनिल् नेण्डा, वेरॆल्लू निरु ) वर् निल्वै नाने निर्बन्, मानादनुवह मॆन्नैप्पत्तिच्छॊ सकन्तीरॆन उरृत्तान् श्फूहिन्राने ॥ इप्प डि पूर्हुर्धत्ताले ओरधिका रविशेषत्तु क्ट द्वयत्तिल् पूर्टखण्डत्तिले अनु सन्धेयमाय्, सर ैधरैज्नळुक्सु मुळ्ळ प्र भा फतॆ क्र यम्, अवत्तिकिल्लाद स्वासाधारण स्रजावत्त याम्, उडैत्तान सकुत्पर्रव्यो- सायविशेषत्तै अधिकारनैरपेक्स्यादि म्म डड ताडि. इह… प्रास्यवॆन्दर्थ, नानेयावन* - नानॊब्बने आगिद्देनॆ. . इदरिन्द, “प्रास्यस्सैन प्रासकक्व’ वॆम्ब अर्थवु हेळल्पट्टतु. सारे. ऎनि् वकमाण्टज् ऎन्न्टैप त्रुव - सप्रपति साधिसुव कर्तावाद जीननू, नानु कॊट्टि शरीकीन्द्रियॆगळनन्नि उपयोगिसि स्वतन्त “_नल्लदॆ ननगॆ ( भगवन्तसिगॆ) परवशनायौ, नन नन्नि आश्रयिसुत्तानॆ. . इदरिन्द “स्वप्राधान्य 6 निवारणम्’ ऎम्बुद? तिळिस लृट्टितु नलं… शरणागति मार्गवू, उमक्कुच्चा दनमं वक् अन्रु -निमगॆ (स्रपित्सुविगॆ), प्रधानसाधनवल्ल, ग्य कालुष्य निनृत्ति पूर्नक फय ० माडुव व्याजमात्र. इदरिन्द ‘प्रसक्रेर्व्याजमात्रत्वं’ - ऎम्बुदु विनरिसल्पट्टितु. ओरिडैयिल्निल्ला शादनङ्गळ् । - कर्मयोग - ऒन्दु सहकारि ज्ञानयोग इ भक्तियोगगळु, स्थानदल्लि निल्लुवुदिल्ल इदरिन्द इन्ल्निलॆक्लु- जगळ “अन्योपायैैरनन्तय? ई त शरणागतिगॆ ऎम्बुदर अर्थवु तिळिसल्पट्टितु. वेदनैशेर् - दुःखदिन्द कूडिद, मेरङ्गम् - अनुशूल्य संसल्फाद्यतिरिकगळाद कष्टसाध्यगळाद बेरॆयाव अङ्गगळू, इदनिल्नेण्डा - प्रपत्ति बेकिल्ल वेरॆल्लावक् निर्ळुम् - प्रपत्ति व्यतिरिक्तगळाद उपायगळॆल्ला इरुव, निकि द स्वभावदल्लि, अन्दरॆ. आ इतर उपायगळिन्द साधिसल्पडुव पुरुषार्थ स्थानदल्लि, नानेनिर्षन् - नानॊब्बने इरुत्तेनॆ. इदरिन्द “सर्वसाध्येष्वभिन्नता” - ऎम्बुदु व्याख्यातवु. इद्ळ :.पूयदल्लियू शोक निवृत्तियल्लियू उपयोग पडुश्तदॆ तूदनुमा नादनुनतामॆन्नॆु कृत्वा दूतनॆम्बुदरिन्द सौलभ्य सौतील्यगळु द्योतित. नादनु ऎम्बुदरिन्द स्वामित्व सरत्वादिगळु हेळल्बट्टिवु - इदरिन्द सुलभनु सुशीलनू, स्वामियू सर्वस्मात्ररनू आद नन्नन्नु आश्रयिसि ऎन्दर्थ, शोकन्तीर् - निनगॆ सम्भावितगळाद दुःखगळन्नॆ ल्ला बिट्टु बिडु ऎनउरै त्तान् - ऎन्दु लोकोज्जेीननार्थवागि अर्जुननन्नु व्याजवागिट्टुकॊण्डु उपदेशिसिद सुत्तिकॊण्डु त्री बरुत्ताकॆ. “कृष्ण [20] परमात्मनु अन्दरॆ श्यहिन्रा जीवरुगळ ने… ईगलू स्ट्वोज्जीनन नन्मुन्नु तन्न नशसडिसिकॊळ्ळलु : व्यापारक्कागि तानागिये प्रर्व्सुत्ताकॆ. चरमश्लोकद उत्तरार्ध व्याख्यानउत्तरा र्धक्कॆ पूव्वार्थदॊडनॆ सङ्गति, हीगॆ चरमुश्लोकद पूनार्थक्कॆ व्याख्यानवन्नु अनुग्रहिसि, उत्त त्ररार्थक्कॆ व्याख्यानवन्नु आचार्यरु अनुग्रहिसलु उसक्रमिसुत्तारॆ. इप्पडि पूर्नार्थश्ता ले इत्यादि - हीगॆ चरम श्लोकद पूर्वार्धदिन्द, हर् अधिकारि विशीषत्तुक्कु - अकिञ्चननाद अधिकारिगॆ द्वय मन्त्रदल्लि पूर्वखण्डदल्लि अनुसन्धेयवागि सर्वधर्मगळिगू इरुव. प्रॆभावनन्नू अवुगळिगॆ 1149 । श्रीीमद्रहॆस्कश्रयॆसारे विवरण पूर्वकमाह निधित्तु, उत्तरार्धत्ताले द्वयत्ति, लुत्त सखिण्डत्तिले फलश्रैनमशृब्द संस्रिप्तानिष्ट निवृत्ति निनरण मुखत्ताले अरुळचॆ कय् गिरान् इब पूर्वार्थत्ता ले अधिकारकृ त त्रै अरुळिच्छॆय्दान् उत्त रार्धत्ता, ले शरण्यनाय् स्वीकृ तभरणा न । तन् कृत त्र अरुळिचॆय्दु कृतक तृनान निनन त्तेतु, हिरान्. उत्त रार्धे अहवाति प्रथमपदस्य प्रैयोजनमाह इन्निडत्तिल् मोक्षयष्ठानिु ऎन्लिर उत्तमनाले नानॆनु तोत्ता निर्व मिहुदि यान अहं ऎन्सिरपदमु, अर्थस्पभावत्ता ले स्दपाप निमोचनत्तुक्ळुरुष्पासॆ अफ्टतफटिना शक्ता )दिहळ्ळॆ निवश्रितु, सप्रयोजनमाहिरदु. आहु.इधं पच्चि सवनै निलजु ट्रुनैत्त समाधिकदरिद्रना न नान्, ऒरु म्लाजत्ताले ८ ल्लसितकारुण्य नाय् अ सराधतैैप्पॊरुत्तुविडुम्बोदु निलक्स नल्ला कल्लै. नेरॊरु वुवक् ऒण्णा दॆन्रु इज्लुतात्सर्यवर्. । "वृथ वा् (1) ननाले मोक्षदो इननै भगवान् मुक्त निष्णु नाक इ pe इल्लदॆ तनगे असाधारणवाद प्रभाववन्नू उळ्ळ सॆलॆ pe पः र्तन्यनार, उपाय निशेसत्तॆ ह प्रसत्तिरूप उपायॆवन्न्नु आधिकार नैरपेक्सा 3र विवरण च् कवागि, “शरणं व रज” ऎन्दु कृष्ण परमात्मनु विधिसिद्दानॆ... उत्तरार्धत्ताले pe चरमश्क्टोकद उत्तरार्धदिन्द द्वयमन्त्रद उत्तर खुडॆदल्लि फलनन्नु नमशृब्दगल्लि ह अनिष्ट निन्निपि निवरण पूर्वक 6 अहन्त्वासर्वपासेभ्यो मोक्षयिष्कानि”. ऎंरं कृपॆमाडि त इङ्गु पूर्वार्थ त्ताले इत्यादि - पूर्वार्धदल्लि आकिञ्चननु माडबे काद प्रप्त्प रूप कृत्यवन्नु हेळिरुत्तानॆ. उत्तरार्थत्ताले इत्यादि - उत्तरार्धदिन्द शॆरण्यनागि स्वीकृत भरनाद तन्न कृत्यतन्न्नु कृपॆयिन्द हेळि कृतकृत्यनाद आर्जुनन्नु तेट्रु हिरान् २ शोक निवृत्ति पूर्वक समाधान पडिसुत्तारॆ. pe “अहं? शब्दार्थ इङ्गु मोक्षयिष्यामि इत्यादि - इल्लि "मोक्षयिष्यानि” ऎम्बल्लिय उत्तनु पुरुष दिन्दले नानु ऎन्दु. “अहं” शब्दवु ना अहं शब्दवन्नु सृथक्कागि हेळ बेकादद्देनिद्कॆ, ऎन्दक ई "अहं' शब अर्थस्वभावदिन्द, सव पास विमोचनॆगॆ कारणवाद अघटत घटना सामर्थ्य, सार्वज्ञा अपराधं पणि ननन्नै इत्यादि - चहा गुणगळन्नु विवक्षिसि प्र योजननुळ्ळ द्वागुत्तदॆ. माडिद ईवतु. आफ घटना सामशण्यदिन्द विलङ्गिट्टुवैत्त - बेडिहाकिट्टि, समाधिक दरिद नृनान इत्यादि - ननगॆ इल्लदे ' इरुव, नानॊब्बने गि त डि ऒन्दु व्याजदिन्द, करुणॆयु हॆच्चागि अपराधवन्नु क्षमिसि बिडुवाग, अदन्नु तॆगॆयलु इल्ल. नेरॊरुननालुवर् इत्यादि - बेरॊब्बनिन्द ई संसारि जॆेतनन्नु साध्यविल्लवॆन्दु ई "आहं? शब्दक्कॆ तात्सर्य. इन्वर्थॆम् इ इत्यादि - ई समुरो, मेल्पट्ट 3, वरो उल्लसितकारुण्यनाय् - स सानुथण्यवुळ्ळनरु यारू मुक्तनागि माडलू अर्थवु, 1) मोक्षदो 1); पु.ति. नो. लारा नारावि यवनन रानाचरमश्लोकाधिकारः 1150 (2) “पॆशव-पाशिताः पूर्वं परमेण स लीलया । तेनै ननोचनीयासॆ, € नान्यॆ घर्मोचयितुं क्षमाः ॥: इत्यादिहळिले प प्रसिद्धम्, इव्वहं ऎस्सिरसदत्तिल् वन्द प्रसाद विशीषं सहजकारुण्यादिहळ् पेरणियाय् प्रपत्तियडियाह इळवणियां निरङ्कुशमान स्वातन्त्र वक् सरृनिरोधि Es 'मुनॆ दु अदु ऎऐ नेयॆन्सि ल ? सहजका ऎरुण्य मल्प क क्कॊ ण्णु अनन्ताप धज्स ळ्ळ आनादरिक्ळुम्टु डियान प स्रसादक्तै उणा कुहिरनरु स्रसादनिकॆ कीषम् रो स मायन् क्कॊ णु निरज्मु शस्वातन्त्र्यत्सैॆ आश्रितरु ० सर्वनिरोधि च्! बा कु जरदु अहं शब्देन निनपेक्स कर्रृत्वम् अनधारणमहिफलितवु् इप्पडि सर्रपाप निनोचनत्तुकुु आपेस्टतवळान सर्वाकारत्तालुवम् विशिष्टनान, नीश्वरनुडैय निरपेश्सकर्क त्व तत्परमान “अहं* शब्दत्तिले अवधारणं फलितम्. भगवान्विष्टुः (2) पशवः पाशिताःपूर्वं, इत्यादि प्रमाण वाक्यगळिन्द भगवद्दिष्टुवे मोक्षनन्नु कॊडुववनु, परमनु तन्नॆ लीलार्थवागि कट्टिहाकिरुव पशुगळन्नु (बद्ध जीविगळन्नु) ताने बिडिसबल्लनु इतररिन्द साध्यविल्ल, - ऎन्दु स्रसिद्धनु. इव्वहं ऎन्निर सदत्तिल् इत्यादि - ई अहं ऎम्ब पददल्लि सहज कारुण्यादिगळु पेरणियाय् - प्रबल सहकारियाद, मूलबलनवागि, प्रसत्तियॆ कारणवागि एर्पट्ट प्रसाद विशेषवु इळॆनणियांयक् - आगन्तुक सहकारियागि, निरङ्कुशवाद स्वातन्त्र्यवु, सर्वविरोधि निराकरणार्थवागि, मुन्दॆ निल्लुत्तदॆ. इदन्नु विवरिसुत्तारॆ. अदॆङ्गनेयॆन्सि ल् - अदागि - सहजकासुण्यम् इत्यादि - सहॆजकारुण्यवु - तनगॆ ऒन्दु कारणान्तॆरवन्नु अपेक्रिसदे सहजवागि प्रधान कारणवागिद्दुकॊन्दु. कर्तानिगॆ तिळियद यादृच्छिक सुकृतादिगळन्नु बळसि भक्ति स्रसत्तिरूप. उपायादिगळल्लि मूडिसि. भगवन्तन अनुग्रहनन्नुण्टु माडुवुदरिन्द मूल बल. इदु भक्तिप्रपत्तिरूह उपायादिगळन्न्नु व्याजनागिट्टु कॊण्डु अनन्तासराधगळन्नु अनुदरिसुव प्रसन्म्नतॆयन्नुण्टु माडुत्तदॆ. इस्ट् साद विशेषन् इत्यादि - उसायानुस्मानदिन्द एर्पट्ट ई अनुग्रह विशेषव्रु कारुण्यदिन्द कूडि, भगनन्तॆन निरङ्कुश स्वातन्त्र 3नन्न्नि आश्रितर सर्व विरोधिगळन्नु होगलाडिसलु, कारणवन्मागि माडुत्तदॆ. इस्पडि इत्यादि - हीगॆ सर्व पास निमोचनक्कॆ असेक्सितवाद सर्वाकारदिन्दलू विशिष्टनाद ईश्वरन निरपेक्ष कतृत्व तत्सरनाद अहं शब्ददल्लि आहॆमेव- नाने ऎन्दु अवधारणवु फलित. अन्द हागॆ “मामेकं शरणं. व्रज” ऎम्बल्लि - कट्टब्पट्टिद्दारॆ. ))वि, तत्वम् (1-2-10) पशुगळन्तॆ इरुव बद्ध आ इवरुगळु आ भगवन्तनिन्द दले संसारबन्धदिन्द परम द जडसल्बडबेकु. लीलार्थवागि 1% संसारदल्लि 19
इतररिन्द बिडसलु साध्य
18 3
12151 श्रीमद हॆस्कत्रॆयसाके
अथ त्ता? शबार्थमाह व 6
“त्वा? ऎन्रुदु, “नत्तेवाहं” मुदलान उपदेशसरम्परैयाले चिदचिदीश्वर तत्त त्र यु विवेकं हिरन्नु, ऐश्वर्यादि पुरुषार्थज्ञ ४िनुडै यवल्ब त्वा स्स रता दि दोषं गळॆ. 3 शै ळिन्नु . मत्ता पि, रूपनान परमपुगुषार्थतॆ ह न नेणु सुन भिनिविष्ठ साय्, इदुक्ळु उपदिष्ट ज् दुष्करोपायास्तरत्तिल् तुवक्क 5 महा ब पैनय् सर निरोधि NAGS ऎन्पक्क लिशे भरन्यास. पण्णि कृ तक नाय् कोलिन फल “लाभत्रै पृत्त इनियॊरु कठ्तव्यान्तरत्तिल् प्राप्तियिल्ला “द स्स २ निन्रसॆडि. A
हु
मां - नन्नन्नु निरपेक्षोपायत्वनन्नागि अध्यवसाय माडि भरन्यासवन्नु माडॆम्ब विधिबलदिन्द,
भरवन्नुु स्वीकरिसु ऎन्दु निरसेक्षोपायितवू सिद्धवागि अकिञ्चननिगॆ सक्ळृस्प्रैसदनक्किन्त अधिकवाद याव प्रयत्ननन्नू माडबेकिल्लनॆन्दु तात्सक्य. अदरिन्दागि प्रनन्ननिगॆ प्रयत्नान्तर वन्नु अफेक्सिसदेनॆ “अहमेव मो क्षयिष्याविु? नाने सॆंसार बन्धदिन्द बिडिसुत्तेनॆ. ऎम्बुदु आवधारणदिन्द फलितवु, ऎन्दु अनुग्रहिसल्प ट्टत-
इल्लि “मोक्षयिष्यामि” ऎम्बल्लि नैरपेक्ष्यवु गर्भितनागि व्याख्यान माडिरुवुदरिन्द- “भर
स्वीकारात्मकनाद अनुग्रहवु मॊदलु उण्टागुप्त्कदॆ नन्तर मोक्ष हेतुवाद अनुग्रहवु २ उण्टागुत्तदॆ, ऎन्दु
कॆलनरु. कल्पिसिरुवुदु निरनकाशीकृतवु. शरणंव्रुज, pe ऎम्बुदरिन्द साक्सात्सल हेतु भूत सप्रसागने स्रसत्तियिन्दॆ उण्टागुत्तदॆ ऎन्दु स्वरसतॆरवा तिळियल्पडुत्तदॆ. अदरिन्द व्यवधान कल्बनवु आना, “त्वा? ऎन्रदु इत्यादि - "त्वा? ऎम्बुदु, “नत्वेवाहॆं”? मॊदलाद उपदेश परम्परॆयिन्द चिदचिदीश्चर ' तत्तत्रय विवेकवु उण्टागि ऐश्चर्यादि पुरुषार्थगळ अल्पत्वास्थि रत्वादि दोषगळन्नु तॆळुवागि तिळिदु, मत्भ्रास्तिरूपवाद परमपुरुषार्थनन्नु हॊन्दबेकॆन्दु अभिनिवेशवुळ्ळ वनागि इदुक्ळु पदिष्टमान दुष्करोपायत्ति ल्तुवक्क ट्रु - इदक्कागि उपदेशिसल्पट्ट कष्टसाध्य वाद भक्क्य्युपायदल्लि सम्बन्धवन्नु बिट्टु. सव विनोधिगळन्नू होगलाडिसलु शक्तनाद, ऎन् पक्कलिले इत्यादि - नन्नल्लि (भगवन्तनल्लि) भरन्यासवन्नु माडि कृतकृत्यनागि तानु अपेक्षिसिद फल लाभक्कागि बेकॆ याव कर्तव्यदल्लियू प्रवेशिसदॆ इरुव निन्नन्नु” ऎन्दर्थ. अदागि गीतॆयल्लि “नत्तेवाहं” ऎन्दारम्भिसि मॊदलु चेतननु अजेतनक्किन्तलू, ईश्वरनिगिन्तलू बेकॆ ऎम्बुदाद चिदचिदीश्वर विवेकवन्नु पडॆद्कु “ज्ञा सफीत्वात्म मन मेनुतम्”, “बहूनां जन्मनामन्ते ज्गा सि नवान्माम्प्रुसद्य ते । वासुदेवस्सर्वमा*, इत्याद्यु पदेशदिन्द ऐश्वर्यादिगळल्लि एरक्तॆनागि भगवत्पासि,यल्लि टकिय ऎननाग्कि, अदक्कॆ उपायवाद “मनॆ ऒनाभवमदृक्तः 1, ऎन्दु हेळिद भक्क्य्युपायदल्लि अशक्तनागि प्रास्यनू समर्थनू आद भगवन्तनल्लि “शरणंव्रज” ऎन्दु हेळिदन्तॆ शरणागतियन्नु माडि, “सर्वधर्मान् सरित्यज्य” ऎन्दु कर्तव्यान्तर शून्यनाद चरमस्लॊ साधिकारः 1152 सर्वसाप्येभ्यः इत्यस्यार्थमाह इप्पडि बन्धमोक्षशक्त नान नोक्षप्रदनॆ, युव्, अशक्कनायवन् पक्कलिले न्यस्त भरनान मुमंस्सुवै युवर् शॊल्लि, मेल् “सर्व पासेभ्य $> ऎन्रु बन्धकज च्चॊ ल्लुहिरदु. पापमानदु ? शास्त्र नेदृ मान Sg. अनर्थमानदु ? प्र तिकॊलप्रा न्लियुम्, अनुकूल इष त्रियुम्. इजु “पाप शब्दम् मुमुक्षु नैप्सॆत्त अनिष्ट फलज्गळान सांसारिक पुण्यङ्गळ्ळॆयुवर् शॊल्लुहिरडु. अभिमुख चेतननाद अर्जुनन व्याजदिन्द प्रसन्ननन्नु कुरितु “त्वा” ऎन्दु कृष्ण सरमात्मनु हेळुत्ता निनदु ताश्सॆ 3र स “सर्वपापेभ्यः” शब्दार्थ इस्सडि बन्धनोक्ष शक्तनान इत्यादि - हीगॆ संसारदल्लि बन्धिसलू, अदरिन्द बिडिसॆल शक्तॆनाद मोक्ष प्रननन्मू “आशक्तनागि अवनल्लि न्यस्तभरनाद मुमुक्षुनन्नू हेळि, अनन्तर, “सर्वपाषेभ स्य” ऎन्दन बन्धकगळन्नु तिळिसुत्तारॆ. पापमावदु इत्यादि - पासनॆन्दरॆ शास्त्र दिन तिळियब्बडुन अनर्थ साधन. अनर्थनानदु - अनर्थवॆन्दकॆ प्रतिकूल प्रास्ति मत्तु अनुकूल निवृत्ति. इङ्गु पापशब्नम इत्यादि - इल्लि “पान” शब्दवु मुमुक्षुवन्नु न्नेतिसि अनिष्ट फॆलगळाद सांसारिक पुण्यगळन्नू हेळुत्तदॆ. मुमुक्षुविगॆ पासगळु हेगॆ. मोक्ष प्रतिबन्धकगळागि संसारदल्ले इरिसुप्तनॆयो हागॆ पुण्यगळू स्वर्गादि सुखगळल्ले इसि मोक्षसृतिबन्धकगळागु्तनॆ si रिन्द पासशब्दवु ई प्रकरणदल्लि “पुण्य पास”गळरडन्नूू विक्सिसुत्तदॆ. इदक्कॆ अनुगुणवाद लक्षणनन्नु पासशब्दक्कॆ आचार्यरु अनुग्रहिसिद्दारॆ. “मु ह प्रास्ति - अनिष्टद प्राप्ति, अनुकूल नि- वृत्ति - इष्ट वाद सांसारिक सुखादिगळ निवृ “फासवॆन्दरॆ नावु माडिद शास्त्र विरोधवाद तप्पु कॆलसदिन्द एर्पट्ट कोप. ई कोपवु लक्षि गॆ उण्टागुवुदे इल्ल. एकॆन्दरॆ अवळु “नित्यनुज्ञा त फिग्रिहानफ- ऎन्दु कोसवॆ (तॊटुदत्ली तिळियदवळु. आद्दरिन्द अवळु पापगळिन्द बिडिसुत्ताळॆम्ब प्रसक्तिये इल्लनागि “मोक्षयिष्यावि” ऎम्ब सङ्कल्पनन्न्नु भगनन्तनॊब्बने माडुत्तानॆ. लक्ष्मियु “mi इदरिञ्जागि मोक्ष प्रदत्वरूप उपायत्ववु लक्षि ऒगॆ इल्ल, ऎन्दु कॆलवर चोद्य माडुत्तारॆ. इदु सरियल्ल. हेगॆन्दरॆ “पास” शब्ददिन्द पुण्यगळू विवक्षितगळु, जीवनु माडिरुव सुकृत विशेषगळिगॆ अनुग्रह पूर्वकवागि ऎकॆ रै कैनल्यगळन्नु लक्कि यू कॊडुत्ताळॆम्बुदु “विश्व मक्षरगति” ऎम्ब श्लोकदल्लि पराशरभट्टरु अनुग्र हसिरुत्तारॆ. ई पुण्यगळू मोक्ष निकोधियाद्दरिन्द “मोक्षयिष्यावि?” ऎम्ब सङ्कल्पवन्नु लक्ष्मि यू माडि पुण्यगळन्नैॆ ल्ला निवर्तिसुत्ताळॆयाद्दरिन्द, लक्ष्मि गू मोक्ष प्रदत्व रूप सूत वु सिद्दिसुव्मदॆ, आद्द रिन्द श-ण्य दम्पतिगळिब्ब रू rs “मो क्षयिष्याविु” ऎन्दु सङ्कल्पि (क —d सुत, निम्बुऐ२ निर्बा धवाद शास्त्र तात्पर्य. 1153 श्रीमद्रहॆसत्रयसारे - “एकेनैनिरयास्तात स्थानस्क परमात्मनः” ऎन्नॆ तयाले, स्वर्गादिहळुनु् मुमुक्षुनुक्कु नरकमाहैयाल्, इननुक्कु स्वर्गहेतुवोडु नरकॆहेतुनोडुवाशि इल्लै. आहैयालिरे मुमुस्षुवुक्कु हापज्बळ्ळॆ विडच्चूल्लुहिराप्पोले,(2) त्रै ैवर्गि कांस्क्यजेद्भर्र्मा?ऎन्रुविधिक्किरदु. (3) “इरुवल विनृहळुम् शरित्तु”ऎन्सिरपडिये सा दुष क्रतज्गळिरण्णुवु् मम्मंस्थुवुक्तु निराकरणीयजब्छळइह निरे श्रुतिस्म ऎतिहळ् शॊल्लु हिरन. “पुडि पुण्यपापरूपमान बन्धकारणत्तॆ छाप” शब्दत्ताले शॊल्लि, बहुवचन तले पुण्यसापज्पळिनुडैय मानन्त्यत्तैै विनक्षिक्किरदु. पापेभ्स ४ इति बहुवचनेन “सर्व? शब्दस्य किं प्रयोजनवु ? इनि सर्वशब्दत्ताले निकेषक्सिरदॆन्नॆन्निल् ? प्राप्ति विरोधियान कर्मत्तुक्तु काण मायुव् कार्यमायुवर् वरुहिर अनिद्यॆयॆ [8 युवर्, गॆ वपरीतनासन्विय्रा युवर् 1) एतैवैनिरयास्तात इत्यादि - सम्मात्मन स्थानवाद सरमपदक्कॆ होलिसि नोडिदकि, स्वर्गलोकादिगळू नरकतुल्यगळागिनॆ, ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द, स्वर्गादिगळू मुमुक्सुनिगॆ नरकवार्नरिन्द, इवनिगॆ स्वर्गक्कॆ कारणवाद पुण्यगळिगू, नरकक्टॆ कारणवाद पापगळिगू याव व्यत्यासवू इल्ल. आहैयाले इरे इत्यादि - आद कारणदिन्दले अल्लवे नुमुक्स्पुविगॆ पापगळन्नु बिडहेळुवन्त्रॆ, (2) त्रैवर्गिकांस्त ्रजेद्धर्बान् ऎन्द थमार्ककामुरूस त्रिनर्गपुरुषार्थ साधनगळन्नू, बन्धसेतुगळाद्दरिन्द बिडुवन्तॆ विधिसुत्तदॆ. (3: “इरुवल्निन्सॆहळुं शरित्तु”, इतादि - पुण्य सान रूप ऎरडु प्रबल कर्मगळन्नू होगलाडिसि, ऎन्दु हेळिरुनन्तॆ सुकृतदुष्टृतगळॆरडू मुमुन्सुनिगॆ निराकरणीयगळागयल्लने श्रुति स्मृतिगळु हेळिरुत्तनॆ. अदागि “तत्सुकृत दुष्कृते धूनुते” ऎम्ब श्रुतिगळु अवु. अनन्तर बहुनचनक्कॆ अर्थवन्नु तिळिसुत्तारॆ. इप्पडि पुण्यसाप रूसनतान वित्यादि- हीगॆ- पुण्यपाप रूपवाद बन्ध कारणवन्नु पाप शब्ददिन्द हेळि, बहुवचनदिन्द पण्यपासगळॆ आनन्त्यवन्नु विनक्सिसुत्तानॆ. . इनिसर्वशब्दत्ता ले इत्यादि - अनन्तर सर्व शब्ददिन्द विशेषिसि
- भारत शान्ति पर्व, 2) विष्णुपुराण
- शार्न्न्व इरुवल् विनैहळुंशरित्तु मूयप्पत्वरुत्तु तीर्न्टुतन्बाल् मनं वैक्कत्तिरुत्तिवीडुतिरुत्तुवास् । आर्न्वज्ञा नच्चु डराहि अहलङ्की()मेलळविरन्नु नेर्न्वउरुवाय् अरुवाहुम् इवत्तिनु- यिराम् नॆडुमाले नम्मन्मु - अण्टिकॊण्डिरुव प्रणपाप रूपगळाद ऎरडु बलिष्ठगळाद रूप प्राकृत विषयगळल्लिरुव आसॆयन्नू छेविसि तीर्नानवागि तन्नल्लि प पक्ववागि माडि, श्री वैकुण्ठवन्न अलङ्कार पडिसुत्तानॆ. अवनुयारॆन्दरॆ, स्मूलसूक्ष, पदार्थगळिगॆल्ला अन्तरात्मनागि, आश्रितर 36 । 4 91 त ॥ तिरुवाय्म्कॊगि, 1-5-10) कर्मगळन्नु छेधिसि, कर्म पाशॆ मनस्सन्नु इडुवन्तॆ नन्न बुदि यनु सित्तज्ञानानन्त स्वरूपनागि स J, स्वत त द 1 १1 त] «8. 1 2 © चनमश्लोकाधिकारः 1154 विपत रुजिलीयखम्, सू लसूक्ष्मरूप प्रकृतिसम्बन्धक्कैयुम्, पासराशियिले इप्पडि “सर्व षापेभ्यः” ऎन्निर विरोधि वर्गत्रैयॆल्लावा् (1) “मनोवाक्कायैैः? ऎन्रु तुडजू मून्र्रु चूर्णिकैयाले शाब्दमाहॆवुम” अर्थमाहनुम् अरुळि चॆर् दार्. उं (1) क्रपयित्वाधिकारान् स्वान् शश्वत्सालेन भूयसा । वेधसोयत्र वोदन्ने शॆजृरास्सपुरन्दराः ।» ऎन्रुम् (2) यावदधिकार मनस्थिति राधिकारिकाणाम्” ऎन्रुनत् शॊल्लुहिर पडिये शिलर्रु अधिकारानसासत्ति ले मोक्षमायिरुन्नदु. अधिकारिहळॆल्लादार्बुवण् (3) “अनारब्धकारैे हेळुवुदु. यावुदॆन्दरॆ प्राप्तिनिरोधियान इत्यादि - प्राप्ति विरोधियाद कर्मक्कॆ कारणवागिरुव देहात्मभ्र्रमादिरूप अविद्यॆयू, अविद्या कार्यवागिरुव, विपरीत शब्दादि विषय वासनॆयू, शब्दादि विषयगळल्लिरुव विपरीत रुचियू, स्थ ल सूक्षरूप प्रकृति सम्बन्धतैैयुवु् इत्यादि - सूक्ष प्रकृति - सूक्ष शरीर, स्कूल प्रकृति - स्कूल शरीर, इवुगळ सम्बन्धवन्नू पासराशियल्लि सेरिसुवुदक्टोस्सर “सर्व? शब्दवन्नु हेळिरुवुदु. इप्पडि “सर्वपापेभ्यः’ ऎन्लिर इत्यादि - हीगॆ सर्वपापगळिन्दलू ऎन्दु हेळिरुव विरोधि वर्गवन्नॆल्ला (1) “मनोवाक्काय्कैः” ऎन्दारम्भिसि मूरु चूर्णिकॆगळिन्द शाब्दवागियू, आर्थवागियू - अदागि (1) “मनोवाक्काय्कॆः” ऎन्दारम्भिसुव चूर्णिकॆयिन्द कर्मरूस पापगळू, (2) अनादि कालप्रवृत्तं, निपरीतज्ञानं ऎन्दारम्भिसुव चूर्णिकॆ यिन्द ज्ञान रूसपासवू (3) “मदीयानादिकर्म प्रवाह प्रवृत्तां” ऎम्ब चूर्णिकॆ यिन्द प्रकृति रूपपासवू शाब्दवागि हेळल्पट्टु, आर्थवागि वासनारुच्छादिगळु हेळल्पट्टु इरुत्तवॆ. “क्षसयित्वाधिकारान्स्टान्’ इत्यादियागियू अनारब्दकाक्केएन, इत्यादि प्रमाणगळल्लि आरब्दकार्यगळाद पापगळु अनुभनैकनाश्यगळागि तोरुवाग, शरणागति गद्यदल्लि भगवद्भाष्य काररु, “आरब्दकार्यान्” ऎन्दारम्भिसि, सलनन्नु कॊडलु आरम्भिसिरुव कर्मगळन्नू सर्वपाप गळल्लि सेरिसि अवन्नू कमिसबेकॆन्दु प्रार्थिसिरुवुदु सरिये ऎन्दु शङ्किसि, स्वतन्त्र प्रसत्ति निष्कन विषयदल्लि अदु सॆरि, ऎन्दु (1) श्लषयित्वाधिकारान् ऎन्दारम्भिसि समाधान पडिसुत्तारॆ अदागि वेधसो, शङ्करास्सपुरन्दराः - चतुर्मुख ब्रह्मा, शिन, इन्द्ररुगळु अधिकारन् . अधिकार हेतुगळाद, स्वान् - स्वकीयगळाद कर्मगळन्नु, शॆश्वत् कालेन भूयॆसा - बहळ कालानन्तर, क्षपॆयित्ता - भोगदिन्द होगलाडिसि, यॆत्रनोदन्ते - याव सरम पददल्लि सन्तोषसडुत्तारो, आ विष्णुस्थान ऎन्दू, (2) यावदधिकार मन 1). 2), 3) शरणागतिगद 1) लक्ष्मीतन्त्र 17-18 2) ब्रह्मसूत्र 3-3-31 1155 श्रीमद्रहस्यत्रयसाके एवतुपूक्तेतदनधेः” ऎन्सिरपडिये प्रारब्धकर्क भोग- वसानत्ति लेयायिरन्नु दु. इप्पडियिरुक्क, इन्विडत्तिल् आरब्दकार्यत्सैक्सनिक्स यानदॆन्नॆन्निल् ; फलप्रधान प्रनृत्तमान कर्कत्तिलुव्् जन्मान्तर, दिवसान्तर स्थित्यादिहळुक्क्ळु आरम्भकमान : अंशमुवम् इ स्वतन्त्र प्रपत्तिनिष्ठनुक्ळु अनिस्टमाय्, अत्तॆ, युम् पत्त इनन* शोकिक्सिल्, अप्पं शतॆ यम् ईश्वरन् क्षनिङ्क्टुम्. अप्रोदे मोक्सम् सॆत्तन्रि धरिकृमाट्टाद आर्त्यतिशय मडॆ यार्कु अक्षणत्ति के प्रारब्धकार्यनान कर्मत्तै निश्शेषमाह स्हनिक्कुप्. आह्टॆयाल्, आरब्ब कासि कनिक्कवेणन्नॆन्न्रु अपेक्रिक्क कुरैयिल्लै. इन्विडत्तिल् प्रपत्तिकालुत्तुक्ळु मुन्नुळ्ळवत्तै कृतानॆस्रॆडुत्तु हिन्बुळ्ळवत्तै करिस्कमाणानॆन्रु शॆ.ल्लानिन्रम- प्रपत्ति कालत्तिले पण्णुवन शिलपाषज्गळ* काणि रिलोम्. इप्पडि इरुक्क क्रियमाणज्नळ्ळॆ क्षमिक्ळै यानदॆन्नॆन्निल्? (’) “प्रारब्लोपरिसमासप्त्रक्स स्थितिराधिकारिकाणावंर - वसिष्ठादि अधिकार पुरुषरिगॆ तन्मु अधिकारवु मुगियुव पठ्यन्त आयाया स्थानदल्लिद्दु कर्मक्षयवु, निर्पट्टि नन्तर. हरमसद- पास्तीयु निर्नडुत्तडॆ, ऎन्दु हेळिरुवन्तॆ कॆलवरिगॆ अधिकारद. कॊनॆयल्लि मोक्षवु. एर्पदुस्तदॆ (3) अनारब्दकार्रे इत्यादि- अधिकारिगळल्लिद्दनरिगू आनारब्दकाक्ये - ऎम्बन्तॆ, प्रारब्द कर्म भोगानसानदल्लिये मोक्षवु । सप प्रास्तवु. इदरिन्द आरब्बकार्यगळाद पुण्यपापगळु नशिसुवुदिल्लवॆन्दु. एर्पडुत्तदॆ. इप्पडि यिरुक्ळ इत्यादि - हीगिरुवाग . इल्लि आरब्द कार्यवन्नु क्षमिसुवुदेनॆन्दक्कॆ फलप्रधान प्रवृस्त वाद कर्मदल्लियू,” जन्मान्तर, दिवसान्तर स्थि त्यादिगळगॆ आरम्भकनाद पुण्यसपापद भागवू ई स्वतन्त्र प्रसत, निष्कनिगॆ अनिष्कवागि अदन्नु कुरितु इवनु शोशिसिदरॆ आ अंशनन्नू ईश्वरनु क्षनिसुत्तानॆ. अप्पोदेनोक्षवत् इत्यादि - आगले मोक्षवन्नु हडॆयदिद्दरॆ धरिसलागद आता तिशयनन्नुळ्ळनरिगॆ आक्षणदल्लिये पा ्रिरब्द्ब कार्यवाद कर्मवन्नु निश्शेषवागि क्षमिसुत्तानॆ. आहैयाल् इत्यादि - आद्दरिन्द स्वतन्त्र प्रसक्कि निन्ननु आरब्द कार्यवन्नु क्षमिसबेकॆन्दु असेक्षिसुवुदक्कॆ एनू बाधकविल्ल. ॥ इव्विडत्तिले इत्यादि - ई सन्दर्भदल्लि प्रसत्त्यनुष्कान कालक्कॆ पूर्वभानिगळाद कर्म गळन्नु “कृतान्” ऎन्दु हेळि, पश्म्याद्सानिगळाद कर्मगळन्नु “करिष्यवळाणान्” ऎन्दु हेळिरुत्तारॆ. प्रपत्ति कालदल्लि माडुव पापगळु यावुवु ऎन्दु. तिळियिवु. इप्प डियिरुक्क- हीगिरुवाग क्रियनताण पापगळन्नु क्षनिसुवुडॆन्दकॆ यावुदू ऎन्दरॆ (1) प्रारब्लोपरि
- ब्रह्मसूत्र 4-1-15
- काशिक 3-2-123 चरमश्लॊ (काधिकारः 1156 वरॆ मान् ऎन्लिर प्रक्रियैयाले प्रशत्ति मुन्सेतॊडज हिन्फेतल्पॆक्टट्टि वेण्णुव्रडि, चिरकाल साध्यमायिरुक्कु मवत्तॆ युष् तत् कणति ल् स नादिकण्ण क्रयवु, इज्बुक्रियमाण मॆन्सि स करिष्य मण जावा हिन्फु तुडजु मनॆ वै. इप्पडि युवा णै क शेक छा यम्, करिष्यमाणण ४ छा युवि । त्रराघःत्रिल् बुदि पूर्व 5 कमल्ला दन्न ईश्व रन् क्रमिक्स, श्लेषियादे पोनु. बुद्धि पः 5 ५ ळानॆन्सॆ प्रपन । सुक्कु ।) प्रा यं शि Hy नियं सात त्रयत्पुन शृरणंव्रजेत्?” ऎन्नॆ ‘याले पुनः स प्रस चत्तयारे शनिकुुवमु्. ‘सर्वेगरन् तान् मोक्षन्नर निनै कुम्फोदु पातकज ळुवत् विलक्का इदॆन्रु मत् वारॆ हयनु बुद्धि सूर्वोत्तराघत्रिल् निग्रहमुम् मारादु, षा युक्ति त्र, त् वेण्ना वॆन्रसडियन्रु. प्र सादनत्ता ल् घा प्रसन्न नानाल् मोक्षमनक भा नि ऎन्र पडि ; इदुक्कि प्र डि ईश्वरन् क्र यज्ञ- त्तत्तिले मूबट्टुहिरदुवुम् कमन द. स्रियतमै युडॆम्बिल् अङ्कु म्, वत्स त्रि व् प ब्रमु्रनॆ नॊ «ले प्लसन नुडय स्रिनन ट् मार्रॆ युव् दुष्ट रुदर् शरणा गळय नाल् फॆ रन् कृनिडादे तिरुत्तु समाप्तश्चॆवर्र मानक - ऎम्ब प्रक्रियॆयिन्द प्रसत्ति माडुवुदक्कॆ पूर्वदल्लिये आरम्भिसि प्रॆसत्त्य्यनन्तरवे तलैकृट्टनेण्डुम्पडि - मुगियुनन्तह चिरकाल साध्यवाद कर्मगळन्नू तत्त्पणत्ति ल् प्रामादिकङ्गळ्ळॆयुवु् - स्रपत्त्यनुष्ठान कालदल्लि अननधानतॆयिन्द मशकगळ मर्दन, अथोवायु विसर्जनादि पासगळन्नू इल्लि कॆ 8 यमताणगळॆन्नु त्तारॆ. करिष्यमाणं गळावन इत्यादि - भविष्यदल्लि माडतक्क पापगळु इप्पडिक्रि यमाण्यॆ कदेशङ्गळायुवमु् इत्यादि - हीगॆ क्रियमाण पापगळल्लि जॆलवू, कंस्कमादॆगळुद उ त्तरकालिक पासगळल्लि बुद्धि पूर्वकनल्लदॆ माडुववू ईश्वरनु कमिसलु, लेपिसदॆ. कळॆयुत्त बुद्धि पूर्वङ्गळानवै इत्यादि बुद्धि पूर्वपापगळु स्र्पन्ननिगॆ,. (1) ज्रायशि त्रिरियंसात्र ऎम्ब वचनदन्तॆ, प्रायश्चित्त रूसवाद पुनः स्रसत्रियिन्द कळॆयुत्तवॆ. सर्नेश्वरनतान् इत्यादि - सर्वेश्वरनु मोक्षनन्नु कॊडलु सङ्कल्पिसुवाग्र पासगळू तडॆयलारवु ऎम्ब मातु, बुद्धि पूर्पोक्त कैराघदल्लि (अघ-पाप) ईश्वरनिगॆ . निग्रहवु उण्टागु वुदिल्ल प्रायत्चित्तवू बेडनॆन्दल्ल. बुद्धि पूर्वगळाद पापगळिगॆ प्रसादनत्ताले इत्यादि- प्रायश्चित्तैनन्नु सि सुवुदरिन्द, अननु प्रसन्ननागुत्तानॆ. प्रायश्चित्तवन्नु अनुष्ठिसदननिगॆ शिक्षॆयन्नु कॊट्टु, आ पेक्षिसिद कालदल्लि मोक्षनन्नु 8 अवश्य वागि कॊडुत्तानॆयॆन्दर्थ. इदुक्किप्पडि इत्यादि - हीगॆ Bk पुनः : प्रसत्तियाद प्रायत्नि तदल्लि मूडिसुवुदू क्लमाफल, दोषभोग्यनॆम्बुदक्कॆ शात्स र्य. प्रियतनैयण्डम्बिल् इत्यादि - तॆनगॆ बहळ प्रियळाद हॆङ्गसिन मैय्यल्लिरुव कॊळॆयू, व तिसुजैय’ इत्यादि - तत्काल प्रसूतवाद करुविन मैयल्लिरुव वळुम्बुवु् ऎ कॊळॆयू कसुविगॆ प्रियवागिरुवन्तॆ, स 4 नन्नन दोषवू भगवन्तनिगॆ प्रियनॆम्ब मातू, ’ दुस्करू शरणागतरादरि, ईश्वरनु कैबिडदॆ तिरुत्तु सॆ ऎ स्ट स्वभाववन्नु होगलाडिसि रक्षिसुत्ता, ५.५ जा . 1) लक्ष्मी तन्त्र 17-92 मॆन्रपडि,. इज नन्रिक्के बन्दि हो राघुवमुवं् pps भोग्यवतामॆन्रु विव क्लितमाहिल् भु इस् दुने यथाशक्ति सम्पाद्यमाम्. । प्र कृति निशेष स्वभावत्ताले अपराधज्ञळ् बुद्धि पूर्वक माहवन्नलुनु् पुनः प्र पत्रि सण्ण दार् नकुलिलुम्, I) ‘नेवं शाज्न ९धरं विष्णु म् ये प्रपन्नाः प स सरायणवः । न तेषां यम सालोक्य ०न च तेनरकौकसः!? 2) यस्मिन् कस्मिन् कुले जाता यत्रकुत्र निवासिन॥ । वासुदेवरता नित्यं यम लोकं नयास्तिते । इत्यादिहळिर् सडिये नरकादिहळ् वाराद पडि पण्णि रा जपुत्राद्यपराध 3 र्पोले लघु प्रत्यवायत्ताले क 2 िक्किरदुवुनु् क्षमा विश्रीस सम्. पापज्गळुक्कु दृष्टप्रत्यवाय नॆन्दर्थ. इङ्गनश्रिक्के इत्यादि - हीगल्लदे, बुद्धि ER: राघवु ईश्वरनिगॆ भोग्यवॆन्दु विवकिसिदकॆ प्रसन्ननिगॆ इदे यथाशक्ति सम्पादिसल्प डजेकशुत्तदॆ. इदु इष्टा सत्ति, ऎन्दरॆ पुनः प्रसत्तिविधायक शास्त्रवु न्यर्थवागुत्तदॆ. इन्थहनरनन्टु कुरतु अहोबत महनृष्टं विसरीतविरिदं जगत् । येनासत्रसते साधुः असाधुस्तेन तुस्यति । ऎन्द व्यासमहर्षियु निर्मेदपॆट्टिरु आदागि “आय्यो बहॆळ कष्ट. ई कलियुगदल्लि जनरु धर्मगळनन्नु बिट्टु विसरीताचरणॆयॆन्नु माडुत्तारॆ. सत्पुरुषरु माडलु हॆदरुव दुष्कार्य गळन्नु आयोग्य नु माडि सन्तोष सडुत्तानॆ, ऎन्दु व्यासमहर्षिगळु निर्मेदसॆट्टिरुवुदे हीगॆ शास्त्रोलम्फकॆ माडि अदन्ने सरि ऎन्दु हेळुवव रगॆ प्रत्युत्तर. प्रपन्न निगॆ याव कारणदिन्दलू यम लोकगमननिल्ल. प्रकृति विशेष स स्पभावता, ले इत्यादि-प्रकृत विशेषद स्वभावदिन्द बुद्धि पूर्वकवाद @ सराधगळु निर्पट्टरू आ अपराधगळिगॆ निर्वेदपट्टु यथोक्त प्रायश्चित्तवन्नागलि अदक्कॆ शक्तियिल्लदवरु प्रायश्चित्त ह माडिकॊळ्ळदे इद्दरू 1) देवं शार्जधरं ₹२ ष्लुं इत्यादियागियू 2) यस्मिन् कस्मिन् कुलेजाताः इत्यादियागियू हेळिरुवन्तॆ, प्रपन्ननिगॆ नरकादिगळु बारदन्तॆ, स पुता ‘पराथ न्यायदन्तॆ लघुवाद शिक्षॆयनु स कॊट्टु कण्ण 0क्किरदुवुमु्- बुद्धि सूवोत्तर पापगळन्नु होगलाडिसुवुदू क्षमा निशेषम्- क्षमागुण कार्य,
- देवंशार्ज्सधथरं विष्णुं ये प्रपन्नाः परायणम् / न तेषां यम सालोक्कं न च ते नरकौकसः ॥ । सा शाज नव वन्नु हंस दु- लक्मीपतियाद प विस्सुवन्नु “ नु प्राप्य पाप प्रापकनन्नागि शरण हॊन्दिदवरु ॥ यम लोकक्कॆ होगुवुदिल्ल. अल्लि वासवन्नू माडुवुदिल्ल. वामन प्रराण (94-43) 2) यस्मिन् PB, जा कस्मिन् नग् कुले जाताः ke वासुदेवनल्लि भक्तियिट्टवसु” यम इत्यादि- याव कुलदल्लि लो कक्कॆ होगुवुदिल्ल. हुट्टिद्दरू ऎल्लियादरू वासवागिरुववरादरू, चरम श्ल्रीकाधिकारः 1158 ज्लळम्, नरकादि प्रत मायज्ञ ळुं उणा यिरुक्य नरकादिहळ् इननुकैलॆ ट्ट ऎन्नु विशेषवचनज्ग लॆ शॊन्ना ल्. द ष्टप्रत्य वांसुजळुक्टु बन्धकरिल्लॆ पी वचन निरोधत्ति ल् न्यायम् प्र पॆ वर्ति यादु. साफराधरुमाय- चन हि । पुनः प्रपत्ति यं पण्णा दे इरुष्टा र् शिलप पन्न र्क्सु उपक्षॆ (शज्ञळाह च्चॊ काणत्वा दि सा प्रत्यवा यज्ञ छ्, काणदिरा निन्रॊ मनॆ नुन _जोद्यम्. अवर हळुक्कु म् ई सहक- तारतम्म तु िक्कीडाह’ नाना 3 कार ह त्रयानुभनम्, उनयुक्त स ्लिनमान्द्यवर् इजाळॆ , भॆगवदनुभव रस सवा- निच्छॆ (दष्ट छ्, भगवद्भा गनत क्लं तर्यरस विच्छॆ €दव, भगवदल चार भागवतापचारादिहळ्, शिष्न बहिष्टारा दिहळ्, सुक्र त निशेषनाशन््, साति कानादरम;, मनोरथ भङ्ग केशम्, ऎस्रिप्प पु डैहळल् एडेनुनॊरु उसक्गेश कॊप” न नृत्य वायवन्त् काणलाम्. ————————————————————————— वप बुद्धि पूर्वोत्तर पापगळिगॆ लघु दण्डनॆयुण्टु. । प्रपन्ननिगॆ यम लोकगमनविल्लदिद्दकॆ, अदे न्यायवन्नवलम्बिसि दृष्ट प्रत्य वायगळू इल्लनॆन्दु हेळबहुदे ऎन्दरॆ, हागॆ हेळिदरॆ बुद्धि पूर्वापराधगळिगॆ प्रायस्सिक्तवू बेडवॆन्दु एर्पडुत्त दॆयाद्द रिन्द ई मतननु व्हि पाहङ्गळक्कु..ऎन्दारम्भिसि निराकरिसुत्तारॆ. अदागि प्रुसन्ननु माडुन पापगळिगॆ दृष्ट प्र त्यवायगळू, नरकादिगळू विर्सट्विरुवाग नरकादिगळिल्ल वॆन्दु विशेष वचनगळु हेळिदरॆ जन प्रत्यवायगळिगॆ बाधकरिल्ल. इहैनेषाङ्केटिदुनक्कॆ (शाभवन्ति, खञ्जाभवन्ति, काणा भवनन्ति, अविधेयपुता ्रभवन्त्यि अविभेय भार्याभवन्ति - इहलोकदल्लिये बुद्धि पूर्वापराधगळिगॆ दृष्ट प्रॆत्यनायगळु-_्रत्यक्षनाद शिक्षॆगळु काणल्बडुत्तवॆ.’ अदागि कुण्टरागुत्तारॆ, कुरुडरागुत्तारॆ. भार्या प्रश्ररुगळु अविजेयरागुत्ता, कि. वचननिरोधत्ति ले इत्यादि-हीगॆ दृष्ट प्रत्यवायग 4न्नु हेळुव नचनगळिगॆ विरोधवागि न्यायवु प प्रवर्तिसुवुदिल्ल. अन्दरॆ “नतेषां यनु सालोक्यं नचते नरकौकसः” ऎन्दु स्प थ्र सन्म्ननिगॆ यमलोकनिल्लनॆन्दु विशेष वचनवु हेळिद मात्रक्कॆ, “इहैनेषां केचिदुसक्लेशा भवन्ति” ऎम्बन्तॆ इहलोकदल्लि शिक्षॆगळु इल्लवॆन्दिल्ल… बुद्धि पूर्वकवागि पापगळन्नु स्रसत्र, नन्तर माडुव कॆलवु प्रसन्न रगॆ कुण्टुतन कुरुडुतन मॊदलाद शिक्षॆगळु गोचरनागलिल्लनल्ला ऎन्दरॆ सापराथरुमाय् ऎशिदारम्भिसि उत्तरिसुत्तारॆ. अदागि अपराधवन्नु माडि अनुतापवू इल्लदॆ पुनः प्रसतियन्नू माडदॆ इरुव कॆलवु प्रसन्मरिगॆ उपक्गेशङ्गळाहच्चॊन्न - शिक्षॆगळागि श्रुतियल्लि हेळल्पट्ट काणत्टादि - कुरुडुतन मॊदलाद दृष्टप क्रत्यवायङ्गळ् - प्र त्यक्षनाद शिक्षॆगळु, काणल्बड रिलनॆम्बुदु मन्दचोद्यम् - पूर्नपक्षियु हेळुव बल्भ्रजनाद चोद्य. अनर्हळुक्कु वर् इत्यादि - अव वरुगळिगू अपराध तारतम्यक्कॆ ईडाह - अनुगुणवागि नाना प्रकारवाद ओट त्रयगळ अनुभववू उत्तर कैङ्कर्यक्कॆ उसयुक्तवाद ज्ञा नवु नान्दवागिरुनिकॆ-कडिमॆयागिरुनिकॆ ऎन्दर्थ, इङ्गुळ्ळि इत्यादि - ई लोकरल्लिरुन भगवदनुभन रसद सङ्कोच निच्छेदगळु, भगवद्भागनतॆ कैःकर्यरसक्कॆ विच्छीद, भगनदसचार, भागवतासचारादिगळु, शिष्ट ु गर्जिसि बहिष्कार माडुवुदे मॊदलादवु. सुकृतॆ निशेषनाश, सात्विकरु अनादरिसुवुदु, मनोरथ भङ्गरूपवादक्केश, ऎन्दु ई रीतियाद यावुदादरॊन्दु उपक्केश रूपवाद स्रत्यनाय- शिक्षॆयन्नु नोडबहुदु, 1159 श्री नुग्रहॆस्यत्रयसारे अक त्नॆकरण क्र त्याकरणादि रूपज्गळान नाना विध साहज ळिक्किप्पडि नानाविध दृ ष प्रत्य वाय करत्त मॆन्, शुतिहळिलुम् मन्सा दि धर्मशास्त्र च ळिलुवक्, इतिहास, घम जू सा दिहळिलुम् प्रसिद्ध दम्. आहै जाट् काणता द्युप केश निशीसोदाहरणं उपलक्षणमॆन्नु निडवर् “ नाक्योपक्रमत्ति ल् समुदाय निर्देशादिहळाले सिद्धवं्, वचन बलसिद्द वताय् बुद्धि पूर्टॊ त्रराघ फेलमान उपक्लेश वर्गत्तै) प्रा रब्ध कर्म निशेष फलमॆस्रु निष्क र्षीक्स विरहिल्लै इनॆ, यथासम्भनं उभयविध. कर्मत्ता लुम् वरुम्. अहैयातेयिरे बुद्धि सूर्सोत्तराघत्तु कु सात्विकर्र अञ्जिप्पॊरुहिरदु. 2 ऎ उत्तराघु प्रत्यवायानङ्गीकारे बाधकमाह इच नल्लादपोडु पुनः प्रपत्ति निधायॆक् शास्त्रमुम्म्, अप्पडिक्कु शिष्कानुष्मान अकृत्यकरणकृत्याकरणादि रूपङ्गळान इत्यादि - शास्त्र निषिद्ध कार्यगळन्नु स इ धिसिद कर्मगळन्नु माडदॆ. -इरुवुदु. मॊदलाद नाना विधगळाद पापगळिगॆ जग नाना निधनाद दृष्ट प्रत्यवाय - प्रत्यक्षवाद शिक्पादिगळु, श्रुति गळल्लियू मन्रादि धर्म शास्त्रॆगळल्लियू, इतिहास पुराण भगवच्छास्ट्रादिगळल्लियू प्रसिद्ध. आहैयाल् इत्यादि आद्द नप कणणत्वादि - कुरुडु मॊदलाद उसक्केश विशेषगळन्नु श्रुतियु उदाहॆरिस४िरुवुदु. ऊपलक्षण - उदाहरण रूसवादद्दु ऎम्बुवु, “इहैवेषां केचिदुसक्केशाभनन्ति” -ऎम्ब वाक्यद तः उसक्लेशत्व रूपवाद सामान्य निर्देशदिन्द “सिद्ध. ऎल्ला उसक्केशगळन्नू समुदायवागि उसक्क्लेर क्डॆ दिन्द निर्देशिसिरुवुदरिन्द उदा हॆरणॆगागि खञ्जत्तादि कॆल नन्नु ऎत्ति हेळिदॆ ऎन्दु ताश्सर्य. ’ । लॆ ळॆ जि ९ © प्रारि बक कर्न फलनॆन्दु हेळलिक्किल्ल. बुद्धि पूर्वोत्तराघक्कॆ कॊडुव शिक्षॆयन्नु वचनबलसिद्ध माय इत्यादि - : “इहैनेषाङ्केचिदुन क्लेशाभवन्ति” ऎन्दु बुद्धि पूर्वकवागि. पासगळन्नॆ माडुववरन्नु . कुरितु “एषां” ऎन्दु ‘निर्देशमाडि उपक्लेशगळु न कष्टगळु स निन्दु वचनवु. हेळिरुवुदरिन्द . नयदनन्तर” न्यायदिन्द, बुद्धि पूर्वकवागि माडिद पापगळिगॆ अनन्तर उसक्केशगळु सम्भविसुवुदरिन्द, आ बुद्धि पूर्वक पापगळ फलवागियी BE उण्टागिरुवुदागि तीर्मान माडबेके हॊरतु ई उप क्लेशगळु प्रागब्द कर्म फलवॆन्दु हेळलिक्किल्ल. हागॆ aA - प्रारब्धकर्म फल वॆन्दु निर्षृर्षिसलु दारियिल्ल. इवैयथासम्भववु् इत्यादि - ्रसन्ननिगॆ उत्तर कालदल्लि सम्भविसुव. उपक्क्लेशादिगळु उभयवनिधकर्मत्तालुवं् अभ्युसगत । कर्म फॆलवागियू बुद्धि पूर्वकवाद पापगळिगॆ शिका रूप फलवागियू यथासम्भव उण्टागुत्तवॆ. आहॆ याल्ले इरे. इत्यादि - आद्दरिन्दले अ जे साफ्विकरु. बुद्धिपूर्वोत्तराघगळिगॆ अञ्जिपॊ (कुहरद ७ भयसट्टु आह बुद्धि पूर्वक 2६. न नडदु बरुत्तिद्दारॆ. इङ्गनला दपोदु ११ इत्याद-हीग बुद्धि पूर्वोत्तराभघक्कॆ प्रत्यवायविल्लवॆन्दकॆ पुनः प्रसत्तिनिधायक शास्त्रवू,न? चरमश्लोकाधिकारः 1160 मुम्म्, पूर्तसम्प्रदायमुम्, निरोधिक्टुवत्. “असराधानन्तरवम् अनुतापं निरन्न दिल्लॆ फयखाहिल् ज्ञानम् पिरन्नदिल्लॆ याहक्कडवदॆ?न्हिर नञ्जीयॆर् वार्रैक्सुम् अनुता पम् पिरवादारुडैय ज्ञानमान्द्यत्तिले शुत्पर्यम्. धीपॊक्रोत्तराघविषये उपपादितार्थान् निगमयुति. सोपाधिकज्गळान ’ भगवदभिस्राय भेदङ्गळुक्कीडाह वरुम् बुद्धि सूर्या )पचारव् शिलर्रु प्रिरवादु, शिलर्कु न्पिरन्नु अनै अनुतापादिहळाले कृ[गियुवु*्. कठिन प्रक्सतिह ळुक्सु अनुतासमुवत् हिरवादु. आहैयाल् बुद्धि पॊर्रोत्तराघं हिरन्हाल् अनुतप्त नाय” पुनः प्रपत्ति सण्णाद पोदु उसक्लेशं शॊल्लुहिर श्रुत्यादिहळिन् कब्बिळ्ळॆयिले लघुप्रत्यवायत्ताले तीरुवर्, निवेकिनां प्रपन्नानां धीपूर्वागस्यनुद्यम; । मध्याना मनुशापादि शिक्ताकठिन चेतसाम् ॥ राग इं इउ इळि. आ री-य्लि शिष्टानुष्ठानवू पूर्वरुगळ सम्प्रदायवू विरोधिसुत्तदॆ… अपचारानन्तरं इत्यादि - अपचारनट्टि अनन्तर अनुतापवु `उण्टागदिद्दकॆ ज्ञानवु उम्बागलिल्लवॆन्दु हेळिद नञ्जीयरवर मातिगॆ अनुतास उण्टागदे इरुनवर ज्ञ्ञानमान्द्यदल्लि तात्पर्य. अष्टे विनह प्रपत्तिरूप ज्ञानवे उण्टागलिल्लनॆङ्गु तात्पर्यवल्ल. अदागि अनुतापोपरमात् प्रायॆश्चितॊोन्मखत्वतः । तत्पूरणाच्च्रानचारास्सर्वे नश्यन्ति पादशः । ऎं” हेळिरुनन्तॆ, अनुतास्क, अनन्तर असचार निनैत्ति, अनन्तर प्रायश्चित्तदल्लि उन्मुखतॆ, अनन्तर अदन्नु पूर्तिगॊळिसुवुदु, ऎम्ब ज्ञान पूर्तिय अभाववु नञ्जीयर् वाक्यदिन्द ४ळिसल्बडतित्तदॆये विनह प्रसत्तिरूप ज्ञ्ञानाभाववु हेळल्पडलिल्ल. सोपाधिकङ्गळान इत्यादि- आयाया अपराधगळन्नु कारणवागि कॊण्ड भगनदभिप्रायभेदङ्गळुक्कु भगवन्तन सङ्कल्प बभेदगळिगॆ ईडाह - अनुगुणनागि वरुवत् - उम्बागुन बुद्धि सूर्वापचारवमु् इत्यादि - बुद्धि पूर्वासराधवु कॆलवरिगॆ उण्टागुवुदिल्ल. शिलर्क्टु इत्यादि - कॆलनरिगॆ उण्टादवु अनुतापादिगळिन्द कळॆदु होगुत्तनॆ. कठिन प्रकृतिहळुक्कु इत्यादि - कठिन- प्रश्कुतिगळगॆ अनुतासवू उण्टागुवुदिल्ल. आहैयाल्. इत्यादि-आद्दरिन्द बुद्धि पूर्वोत्तराघवु उण्टादरॆ अनुतसिसि पुनः प्रसत्ति पण्णादपोदु उनक्सेशवन्नु हेळुव श्रुत्यादिगळ कब्बळ्ळॆयिले - रीतियल्लि, आ उत्तराघगळु लघुप्रत्यवायताले -“लघुर्दण्ड; स्रसन्मस्य”, ऎम्बन्तॆ लघुवाद शिक्षॆयिन्द, ।. तीरुवं् - कळॆयुत्तवॆ. मेलॆ हेळिद अर्थगळन्नु कारिकॆय मूलक सङ्ग्रहिसुत्ताकि,: : निम्नेकिनाम्प्रॆपन्नानां इत्यादि विवेकिगळाद प्रपन्नरिगॆ बुद्धि पूर्वगळाद पापगळल्लि अनुद्यवंः-स्रवृत्तियु उण्टागुवुदिल्ल मध्यानामनसुशापादि - निवेकविल्लदॆ कठिण बुद्धियिल्लदॆ मध्यस्थॆरागिरुवनरिगॆ, अनुताप, आवि शब्ददिन्द आन्तह पापगळल्लि उपरति एर्पट्टु प्रायश्चित्तदल्लि प्रवृत्तियु एर्पडुत्तदॆ. कठिनचेतसां शिक्ला- कठिन बुद्धियुळ्ळवरिगॆ अन्दरॆ बुद्धि पूर्वापराधगळन्नु माडि प्रायॆश्ट्रित्तगळन्नू माडिकॊळ्ळदनरिगॆ शिक्षॆयु एर्पडुत्त जॆ 1161 -. श्रीनुद्रहसृत्र्रयसारे आन सिन्नु ऒरुपडियालुव् भगवन्निग्रहम् वा रामॆ क्ळाह बुद्धि पूर्वापराथवम् परिहरणीयवर्, प्रीतिमेव समन्द्दि श्य स्वतन्तस्रु ज्हानंसालिन । निग ग्रहानुदयेप्यस्थ्य नान्तरीय नेव वाट इस्पडि यथाशक्ति अपराधज ळै प्र पृरिहरित्तुक्कॊण्डु पोरु निन्राल् भागनतासचार वण्डर् “अदुडै यारोडु संसर्गविवं् पोरस्प न उक र्थान्कारिकॆयासङ्गृह्ञाति ब्रह पितु पवर्गाणा मनन्तानां महीयसाव ! 3जि हि सङ्क्रमं जानन् त्रस्येत्रद सराधतः ॥ सापराजीषु इंसर्गेप्यसराधान् वहत्यस् । मोढुमीश्वर कृत्यानि तद्विरोधादभीपृति ॥ आनपिन्सू इत्यादि - बुद्धि पूर्वासराधक्कॆ अनुतसिसि प्रायश्चि त्रवन्नु माडिकॊळ्ळ जि इरुव प्रुसन्मनिगॆ, स शिक्षॆयु अनश्य उण्टागुत्त दॆयॆन्दु तीर्मानवाद नन्तर, भ्य शिक्षा रूपवागियागलि याव “रीतियल्लियू भगनन्निग्रहॆनु उम्बाङ्गदिरलु बुद्धि पूर्वासराधवु अनश्य परिहरणीय. २ प्रीतिमेन समुद्द्धिश्य इत्यादि - शेषियाद भगवन्तन प्रीतियन्ने मुख्य फलवागि उद्देशिसि, स्वतन्त्रवाद अनन आज्ञॆयन्नु परिपालनॆ माडुवुदरिन्द फिग्रहवु उण्टागवुदिल्ल. अवन कृङ्कर्यगळिगॆ अडचणॆयू एर्सडुवुदिल्ल स भागवतापचार मत्तु तत शंसर्गिगळॊडनॆ सम्बन्धवु अवश्य सरिहरणीय इप्पडि यथाशक्ति इत्यादि- हीगॆ यथाशक्ति असराधगळन्नु परिहरिसिकॊण्डु पोरानिनि ला कालवन्नू कळॆयु, दर्वरॆ, भागनतापचारवू अदन्नु माडुवनरॊडनॆ संसर्गवू, पोर - अनश्य, परिहरणेयुवु. ; ॥ ब्रह्मनित् पापनर्गाणां इत्यादि-ब्रह्मनित्रुगळु माडिरुव अनन्तानाम्महीयसावन्त्- ऎस मत्तु महिष्कगळाद पासगळु तॆ ’ ेसिसङ्क्र मञ्जानन् - आ ब्रह्मनित्तुगळन्नु द्वेषिसुवनरुगळिगॆ सङ्क्रमिसुत्तवॆ ऎम्बुदन्नु “द्वि सन्तः पासकृत्याम्” ऎम्ब श्रुति वाक्यदिन्द तिळिदु, त्रस्केत्तदसराधतः - ब्रह्मनित्लुगळल्लि टा. 1 माडलु हॆदरबेकु. सासराधेषु . संसर्गेसि इत्यादि - आ ब्रह्मनित्तुगळल्लि असचारनन्नु पडुववरॊडनॆ संसर्गवन्नु माडुववनू, अन्दरॆ अवरुगळॊडनॆ सेरुनननू, असराधान्वहत्यसौ - भगवद सचारवन्नु हॊरुत्ताकॆ. . अन्दरॆ ब्रह्म निदसचारि संसर्गवू पासकर. वोडुमीश्वर कृत्यानि इत्यादि आ ब्रह्मनिदसराधिगळन्नू, तत्संसर्गिगळन्नू शिक्षिसुवुदु. ईश्वर कृत्यवाद्द रिन्द, इतरनु आ कार्यक्कॆ प्रवे. सज हागॆ प्रवेशिसिदरॆ ईश्वर कृत्यवन्नु इतरनु चरमश्लोकाधिकारः 1162 2 मोक्षयिस्कानिु शब्दार्थमाह तन्निनॆ निल् विलक्किनि त्तन्नॆ नण्णा र् निनैवनैत्तु म् ई व्य म् निलक क्बुनादन् । ऎनि वै वॆ यिसप रैवत्तलिस्रु माति त’यिणै 3यडिक्टी. ड्रैक लमॆन्रॆ क वॆ त्तु ॥ मुन्नि स नाल् यान् मंयॆस्र निन्फयाल् वन्न न EC गट्ट ठि मन्त्रि तॆकमुन्नैॆ कोसि । नस्निसै वालनाविसिक्ट युवर् कालनिन्रोनाळैयोनॆन्रु नहैशॆय्हिन्राने । 1 “मोक्सयिष्यामि? ऎन्रदु उनक्किष्ट मान पोदु मुक्तनाकु ) वन् ऎन्रपडि. शिलर् पासज्लळ्ळ “नक्षमानि” ऎन्नै युन, अज “सर्रषा पेभॆ्यी मोक्षयिष्कानि?, माडलु आसॆसट्टिन्तॆ आगि अदू भगवदपचारवागुत्तदॆ. आद्दरिन्द ब्रह्मॆनिषसराधि निषयरल्लि आनुसूल्याचरणवू प्रातिकूल्याचरणवू इल्लदॆ. उदासीननागि वर्षिसबेकॆन्दु आचार्यर हृदय “मोक्षयिष्यानि? ऎम्बुदर अर्थ “नोक्षयिष्यामि” ऎन्दरु गीताचार्यनु “लृ ट्” प्रयोगवन्नु माडिरुवुदक्कॆ भावनन्नु तन्नि नैनिल् ऎन्दारम्भिसि पाशुरद मूलक आचार्यरु तिळिसुत्तारॆ. तन्निनैनिल् तन्न सङ्कल्प दल्लि, निलक्कस्रि - तडॆयिल्लदॆ. अप्र हत -सङ्कल्पनागि तन्नैनण्णा र् ऎ तन्नन्नु. आश्रयिसजॆ इरुववर, निन्फैनन्सॆत्तुवर् -सांसारिक भोग विषयवाद सङ्कल्पगळॆल्लनन्नू तान्निळ्ळॆत्तुवु्- ताने उण्टुमाडि, निलक्कुनादन् - होगलाडिसुव स्वामि, आ ह भोगगळल्लि अवरिगिरुव आसॆयन्नु होगलाडिसुव स्वामि, यिस्र वत्ति ल् ऎन्नि नै वै - ई संसारदल्लि नन्न आसॆयन्नु , इनु मात्रि यागृच्छिक सुक्क तादि मूलकवागि, सनेफोपायदल्लि आसॆयुम्बा गुनन्तॆ, ईग सॆ भोगगळल्लि हीन, होगलाडिसि, इणै यडिक्कि € अड्सॆक्टलनर् ऎन्रॆ न्न्न नै त्तु - तन्न ऎरडु पादगळल्लि रक्ष वस्तुवागि नन्नन्नु सनेशिसि” pp नै माल् पूर्वि “नगॆ उबागिद्द अज्ञान बभ्रान्तिगळिन्द यान्मुयन्र - नानु स्वच्छियत्न दिन्द माडिद विन्टॆयाल् वन्न - रद एर ४, वरिनिवु - निग्रहसङ्कल्पवु, अयर्नल्ब - “नग बिट्टुबिट्टु ऎन्दु अर्थ, मुत्तितर मुन्न ीतोन्रि - मोक्षनन्नु कॊडलु, निभवानतारदल्लि’ ननगॆ ऎदुरिनल्लि आनिर्भनिसि, नन्नि नैवाल् सामिस्ययॆम्म् कालन - ऒळ्ळॆय सङ्कल्प दिन्द नावु नोक्षवन्नु सडॆयलु सॆ सम्मतिसुव कालवु, इन्रोना ळॆयोनॆन्रु आजा कन- नाळॆयो ऎन्दि नहैकियक् हिन्राने - मन्दहास सदिन्द कूडि सव Ru नावु “एतद्देहानसाने मां त्वत्बादं प्रा -स्यसि” ऎन्दु ई जीहानसानदल्लि मोक्षनन्नु कॊडुनन्तॆ प्रार्थिसिदरू, आ कालवु कईनकत्तो नाळॆयो ऎन्दु नगुत्तिरुत्तानॆन्दर्थ. “मोक्ष्सयिष्यानि’ ऎन्रदु इत्यादि - मोक्षनन्नु कॊडुत्तेनॆ ऎन्दु हेळुवुदु, उनक्किष्टनतानपोदु - निनगॆ इष्टवाद समयदल्लि मुक्तनाक्ळुवन् ऎन्रपडि - मुक्तनन्नागि माडुत्तेनॆ, ऎन्दु हेळिदन्तायितु. इदरिन्द प्रारब्ध कर्मानसानदल्लि भक्तियोग निष्कनिगॆ 1168 श्रीमद्रहपस्यत्रॆयसाके. ऎन्नॆ यम् विरुद्धमुन्रो ? आहैयाल् इदु उपच्छन्दनमामत्तनैयन्रो? नॆन्निल्, इनैइरण्ण्नुवम् भिन्ननिनयमाहैयाले निरोधनिल्ल्लै. “नश्समामि”ऎन्रदु 1) “पद्मपत्रशतेनापि सक्षमानि वसुन्धरे । उपचारशतेनापि नक्षनाविं वसुं धरॆ ऎन्नार्पोले शॊल्लुहिर पोलियान प्रायश्चित्तान्तरब्जळाल् क्लनिियोम् ऎन्र पडि. इज्लु सर्वषाप प्रायश्चित्तमायिरुप्पदॊरु उपाय विशेषत्ताले ऎल्लात्मै यम् क्पनिप्पेनॆन्सिरदु.2) “ंयदिना रंवणस्सयं? ऎन्रिरे शरण्याभिप्राय मिरुप्पदु. इप्पडि व्यवस्थित निषयमाह वचनज्नळ् तानी काट्ट्रुहैयाले विरोधनिल्लाम्फौयाल् मोक्षवु लभिसिदरू, प्रसन्ननिगॆ ऊ शि) इवनु. निर्देश माडि हेळिद कालदल्लि नृ मोक्षवु अनश्य . लभिसुत्तदॆयॆन्दर्थ. इदरिन्द प्रारब्द कम्मावसानदप्लि मोक्षवन्नु सडॆयुन भक्तियोग निस्मनिगिन्तलू तनगॆ इष्टवाद कालदल्लि. मोक्षनन्नु पडॆयुव प्रपन्ननिगॆ व्यत्यासवु : ६सद्म पत्रशतेनानि नूरु तावरॆ दळगळिन्द नक्षमामि वसुन्धरे?, अर्चनॆ माडिदरू, नूरु. . “उपचारशतेनापि उपचारगळन्नु नक्षमानि समर्पिसिदरू, वसुन्धरे?, ऎलै - भूदेविये, मनुष्यनु माडिद कॆलवु तीक्ष्णवाद पापगळन्नु क्षमिसुवुदिल्ल. नूरु ऎम्बुदु उपलक्षण, आन्दरॆ लक्षार्चनॆ कोट्यर्चनॆ माडिदरू कॆलवु क्रूरगळाद पासगळॆन्नु भगवन्तनु क्षमिसुन्पदिल्लवॆन्दु हेळिरुवाग “सर्वपासेभ्यो मो क्षयिष्याविं” सर्वपापगळिन्दलू बिडिसुत्तेनॆन्दु हेळिरुवुदु केवल उसच्छन्दनवल्लने. अन्दरॆ प्रपत्रियु भगनन्तन प्रीति यन्नु सम्पादिसिकॊडुत्तदॆयस्टैॆ, सर्वपापगळिन्द. जीवनन्नु बिडिसुवुदिल्लवॆम्ब शङ्कॆयन्नु होगलाडिसलु शिलपापङ्गळ्ळॆ ऎन्दारम्भिसि आचार्यरु शङ्कानिवारणॆ माडुत्तारॆ. आदागि कॆलवु पासगळन्नु क्षमिसुवुदिल्लवॆम्बुदू, इल्लि सर्व पासगळन्नू होगलाडिसुत्तेनॆम्बुदू परस्पर निरुद्धनल्लवे. आद्दरिन्द सर्नपान निवारण वाक्यवु उपच्छन्दनवल्लवे ऎन्दक्कॆ इन्फॆयिरण्डुवम् इत्यादि - इवॆरडू भिन्न निषयगळाद्धरिन्द विरोधविल्ल. नक्षमानि - कनिसुवुदिल्लनॆम्बुदु 1) पद्मपत्रशतेनापि, उपचारकतेनापि -ऎन्दु नूरु अर्चनॆ उपचार समर्सणॆ, इत्यादि हेळुव पोलियान -अल्बप्रभावगळन्नुळ्ळि प्रायत्चित्तान्तरगळिन्द क्षमिसुवुदिल्लवॆन्दु तात्पर्य. इङ्गु - चरम श्लोकदल्लि सर्वषासप्रायश्चित्तमाह इत्यादि - सर्वपापगळिगॆ प्रायश्चित्तवागि इरुव उपाय विशेषदिन्द ऎल्ला पासगळन्नू क्षमिसुत्तेनॆन्दु हेळिरुत्तदॆ. इदरिन्द सर्वपास प्रायश्चित्त रूपवाद महाप्रभावनत्ताद प्रसत्रिगू, कॆलवु पापगळन्नु मात्र “सर्वपाषे होगलाडिसुव भ्यो मोक्षयिस्यानि”, अल्प प्रभावनन्मुळ्ळ ऎम्ब सद सत्रार्चनादिगळिगू बहळ व्यत्का सविरुवुदरिन्द वचनवु उपच्छन्दनवल्ल. ॥ 2) “यदिनारावणस्स ऎयॆवं्? ऎन्दु रानणने शरणागतनागि बन्दरू नानु अनन सर्व व्यवस्थित पासषगळन्नू निषयमाह क्षनिससि अङ्गीकरिसुत्तेनॆ इत्यादि - हीगॆ भिन्न ऎन्दल्लवे भिन्न विषयगळन्नु शरण्यन अभिप्रायविरुत्तदॆ, वचनगळु कोरिसिकॊडुवुद इपडि रिन्द परस्प र विरोधविल्लवागि ई “सर्व पाप निमोक्षण” वचनवु उपच्छन्दनवागुवुदिल्ल. स्रासुवनननाण 1) वावनपुराण ना पु.ति, सररारर्माणाणा नो, र्म् र्याश् 44 ड्् सा चरमश्लोकाधिकारः 1164 इदु उपच्छन्दन मात्रमुन्रु. इज्ज्लनल्लादपोदु भक्ति सृसत्तिरून नोश्सोपाय ज्लळ्ळॆ निधिक्किर शास्त्रज्ञळॆल्लाम् व्याकुलज ळाम्. ह का इपमोसक्षण शब्दार्थं तत्पृकारांश्चाह इज्ल पापज्ञ ळिल् निन्रु मत् विडुनिक्टॆ यावदु ? अनादियान निषरीतानुष्का न त्राले पिरन्न निग्र हाभिपा ्रयत्नै ईश्वरन् तान् निडुहै. इनि गुह निवृ त्तियाले निग्र ह कार्यज्ग छान अनिद्यादिहळॆल्ला मक् निवृ त्तॆ ज्ञळावमर्. र्ति रस ड्रै यु निग्र ह निवृ त्तियावदु 1) “मत्र सादात्? ऎन्सिर अभिस्राय निकीषम्. जीनसुक्कु “आनिद्यादिहळुडैॆय निवृत्तियावदु ज्ञाननिकासादिहळ्, इङ्गनल्लादपोदु - हीगॆ सान विमोचन वचनगळु भिन्न भिन्न विषयगळल्लवॆन्दरॆ, भक्ति प्रपत्तिरूप इत्यादि - भक्ति प्रसत्ति रूस मोक्षोपायगळन्नु विधिसुव शास्त्रगळॆल्ला आत्यन्त व्याकुलगळागुत्तनॆ. चि नः पुदूयन्ते. पापॆ विमोचन शब्दार्थ पास शब्दवु जीननु माडुव निसरीतानुष्मान रूप क्रिया निशेषनादकि आ- क्रियॆयु क्षणभङ्गुरवाद्दरिन्द अदन्नु होगलाडिसबेकॆम्ब “स्रसक्ति कियॆल्लि. जीननु माडुव पासगळिन्द उण्टाद भगनन्निग्रहॆ सङ्कल्पवॆन्दकॆ. अदु जीवगतनल्लवाद्द रिन्द “त्वा सर्न्वपानेभ्यो मोक्त्षयिस्यानि? ऎम्बुदु हेगॆ सङ्गतवागुत्तदॆ ऎन्दरॆ इङ्गु पाहङ्गळिनिन्रु म् विडुनिक्कै यावदु. ऎन्दारम्भिसि शङ्कापरिहार माडुत्तारॆ. आदागि ई चरम श्लोकदल्लि. सर्व पानगळिन्दलू बिडिसुत्तेनॆन्दु हेळिरुवुदु, ’ जीवनु अनादियागि माडिरुव विपरीतानुष्ठान दिङ्गॆ उण्टाद निग्रहाभिसॆन्धियन्नु भक्ति अथना प्रसत्ति वशीकृतनाद ईश्वरनु ताने बिडुवुदु. चीवरुगळु माडिद विसरीतानुष्ठानदिन्द उण्टाद ईश्वरन निग्रहाभिसन्धिये पास शब्दवाच्य वाद्दरिन्द अदु अपृथक्सिद्ध रूप सम्बन्धदिन्द ईश्चरगॆतवागये इरुत्तदॆ. आदरू ई निग्रहाभिसन्धियू विसरीतानुष्माननन्नु माडिरुव जीवरुगळल्लि विषयतासम्बन्धदिन्द इरुत्तदॆ याद्दरिन्द, इदन्नु जीवरुगळ पापवॆन्दु. व्यनहरिसुत्तीवॆ. ई जीव विषयकवाद निग्रहाभि प्रायवनु ईश्वरनु बिट्टु बिट्टि क्रि आ निग्रह सङ्कल्परूस अभिप्रायॆवु विषयता सम्बन्धदिन्द ळ्ळ चि रतिगळन्नु पितर, “जीवनन्नु पासदिन्द बिडिसुत्तेनॆन्दु हेळुवुदु सॆङ्गतवागुत्तदॆ. ईश्वरनु जीन विषयक निग्रहनन्नु बिट्टिरू अविद्यादिगळु बन्धकगळागुवुदिल्लवे ऎम्ब शङ्कॆगॆ ’ इन्निग्रॆहनिवृत्ति याले ऎन्दारम्भिसि स माधानवन्नु हेळुत्तारॆ. भगवन्तन ई जीवगत निग्रह निवृत्तियिन्द ग्र ह कार्य गळाद अविद्यादिगळल्ला निवृ त्रगळागुत्तवॆ, ऎन्दु तात्सृर्य. ईश्वरनुडै य निग्रह निवृत्ति यावदु इत्यादि - ईश्वरन इग हवु होगुत्तदॆ ऎन्दरॆ एनु ऎन्दरि, (1) मुत्तॆ सादात् इत्यादि - निग्र हनॆम्बुदु. जीवन विसरीतानुष्कानदिन्द उण्टाद जरदा गाजा तरा. इला इडल्-आ. हाहा जटक च डिसि हन 2) अनय्यैनं हरिश्रॆ ष्ठ दत्तम स्काःभयं मया । तॆ. बफॆ १ ू Tar ( lk poe विभीषणोवा सुग्रि व यदिवार,वण स्ल्वयम् ॥ रामा. युद्धकाण्ड 15-34 1) पु.ति.नॊ 1165 । श्रीमद्रहॆस्यत्रयसारे इवनुक्किपडि उपाय निशनिधिहळ् निरोधज ळाहनल्ल, पुण्यपाप कूपमान संसार कारणनक् मुन्सॆ « स्वहेतुक्क ळाले कन्काल्, पूर पुण्य साहब छ5 क सपायारम्भत्ति क,थयॆंवर् क्र क्रममेदॆन्नि ल्, प्रारब्लॆ तरथ, ळाय् प्राप्ति, ले नोडाण क्ट स टियुवु्. उत्तरज्नळान पापॆज्ञळिल् बुद्धिसूग्यृमल्लादनैयखन्नु् देशकाल वैगुण्यादिहळाल् आ. दण्डनॆगॆ हेतुवाद सङ्कल्परूप कोप. चिद सनि यावुदॆन्दरॆ ई भक्ति अथवा प्रसत्तिरून उपायवन्नु ई जीवनु अनुस्किसि रुवुदरिन्द, ननन्नु इन्नु मेलॆ दण्डिसुवुदिल्ल नॆम्ब प्रसन्नता रूपवाद अभिप्राय वशेष अनन्तर अनिव्यासि निनै त्रि स्वरूपवेनॆम्बुदन्नु जीवसुक्कु अनिद्यादिहळुडैय ऎन्दारम्भिसि विनरिसुत्तारॆ. बा जीवनिगॆ अविद्या, आदि शब्ददिन्द कर्मवासना, रुचि, प्रकृति सम्बन्धगळु निवृत्तन नागुत्तवॆ ऎन्दरॆ ज्ञ्यानविका आदिशब्द धीर देशविकेष प्रास, ५ वैकुण्ठ लोक प्राप्ति सरज्योतिस्सा द भगवन्तन प्राप्ति गळु… “सरञ्ज्योतिरुपसंसद्य स्वेन रूसेणाभिनिष्स र र्यते” ऎन्दु श्री वैकुण्ठ लोकदल्लि सरञ्ज्योतिश्यब्द वाच्य नाद भगवन्तनन्नु सनीनिसि अवनॊडनॆ सम्बन्धव- : एर्पट्ट नन्तर जीवनिगॆ परिपूर्ण ज्ञ्यान निकासवु एर्सडुत्तदॆ. आग सूक्ष्मगळाद अविद्या कर्मवा सनॆग ळु निश्शेषवागि निवृत्तवागुत्तवॆ. । प्रपन्ननिगॆ सर्वपासॆगळु फिपृत्तगळागुव क्रम सर्वपाप निमोचन क्रुमनन्नु स्पन्नि पूर्वकवागि इवनुक्किप्पडि इत्यादि आरम्भिसि तिळिसुत्तारॆ. अदागि जीवनिगॆ. पापगळु उपाय विवोधिगळॆन्दू : प्रास्ति विठरोधिगळॆन्दू ऎरडु विध. हीगॆ पुण्य पास रूपवाद संसार कारणवु कळॆयुव. क्रमवु यावुदॆन्दरॆ उपाय निरोधिहळ् सरत उपाय विरोधि सापगळु मॊदले यादृच्छिक सुकृतादि पूर्वकवाद आचार्य प्रास्प्युप देशादिगळिन्द निवृत्तगळागिरुवुद्कु मोक्षोपायवाद प्रपत्तिगळ त्पत्तियिन्द अनुमेय, ४९ सायोत्तर कालिकवाद पासनिमोचन भक्ति क्रमवु “मोक्षयिष्यामि? ऎम्बल्लि निरूसणी-सिवागिसवुदरिन्द, उपाय विरोधि पास कथनन्र प्रसङ्गार्त सङ्गतवु. प्रारज्जॆ सतरङ्गळाय् इवि -ह्राब्केतर पासगळु फलस्रदाननन्नु माडलारम्भिसदे इरुव पुण्यपास रूप कर्मगळु. इवु सञ्चित कर्मगळु. ई सञ्चित रम्भदल्लि “प्रारब्धेतॆर दल्लि हेळिरुवन्तॆ कर्मगळु अन्दरॆ प्राप्ति विकोधिगळाग तॆक्कु पूर्व पुण्य पापगळु उपाया पूर्व उपायारम्भदल्लि पासनुखिलं” ऎन्दु निक्केषवागि कळॆदु “अपराध होगुत्तवॆ. \ सरिहाराधिकारद” उत्तरकङ्गळान अन्तिम इत्यादि शॊ गि क - साबा) ;) अगा /गौृ्धृ्य्र्थ्र)्छह्शाळाघागघू टि 1) . सर्वकर्माण्यपि मत्चसादादवाप्नोति सदाकुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः । शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ ऎल्ला कर्मगळन्नू नन हॊन्दुत्तानॆ, प्रीत्यर्थवागि माडुववनु, गीतॆ 18-56 नन्न अनुग्रहदिन्द शाश्वतवाद परमपदवनु चरनश्लोकाधिकारः 1466 वरुमवै युर्वा ऒन्रुम् लेपियादु. अनापत्तिल् बुदि पूर्रोत्तराघङ्गळ् सा धिकारानुगुण प्रायॆशि त्त त्त निशेषत्ताले यादल्,शिक्लार्थमाह लघु फा निकीषत्ता ले यादल् तीरुम्. प ्र पन्न नक्कु प्रा रब्यत्ति त्रिल् इशै नृकालत्तु कुळ्ळे विपक माम् करा ०िशॆव् अनुभवत्ता लुम् अवान्त द्य प्रा यश त्तत्ता सास नाश्यव्. नेलुळ म आ CS त्ता के कणयुवु् । कु पुण्यस्य निवृ त्ति प्रकारमाह उभय भावना क कैमत्ता ले वन्द बुद्धि पूर्रोत्तर पुण्य ज्न ळिल्, प्रतिबन्धकनिं ल्लाद मैयुम् उपासकनुत्सु निद्यानुगुण पूर्वॊ (त्र क पुण्य जळुम्, फः प्र दान त्ता ग ‘कनियुवर्: विदॆ स कन्य अनुपयुक्त बुद्धि पूतू क्वोत्तर पुण ण्यज्य ळिल् प तिप्प हा वां स्रसत्त्य्युत्तर कालदल्लि माडुव पासगळल्लि बुद्धि पूर्वगळल्लदवूू, देशकाल वैगुण्यादिगळिन्द उण्टागुववू यावुवू लेपिसुवुदिल्ल. आदिशब्ददिन्द अवस्था वैगुण्यगळु - व्याध्यादि अवस्थॆगळल्लि एर्पडुनुवु. देशकाल अवस्थ्यावैगुण्यदिन्द निर्पडुव पापगळू प्रामादिक पासतुल्यगळागि लेपिसुनदिल्ल. अनापत्तिल् इत्यादि - रोगाद्यासद्द्धशॆयल्लि माडुव बुद्धि पूर्वक पापगळु प्रानूदिक पापतुल्यगळागि निवृत्तवागुवॆन्दु हेळ्रि आपद्दशॆयल्लद कालदल्लि आ पासगळे बुद्धि पूर्व पासगळागुत्तवॆ. आद्दरिन्द अनापद्दशॆयल्लि बुद्धि पूर्वकवागि माडुव पापगळु मृदु प्रकृतिगळिगॆ स्वाधिकारानुगुणवाद प्रायश्चित्त विशेषदिन्दागलि, कठिन प्रकृतिगळिगॆ शिक्षारूसवाद लघुवाद फलविशेषदिन्दागलि निन्नत्तनागुत्तनॆ. प्र पन नकु इत्यादि - प्रसन्ननिगॆ. प्रारब्ध पासदल्लि अभ्युपगतवाद पासवु आनुभनदिन्दलू - i प्रायश्चित्त - प्रायश्चित्त प्रपत्ति यिन्दलू नाशवागुत्तदॆ अभ्युपगतवल्लर उत्तर भाग पानगळू उपायमाहात्म्म्यदिन्द निनृत्तवागुत्त वॆ. पारब्बॆ (तर पूर्वपास नाशवू, प्रामादिकनाद उत्तर पापगळ अक्कॆ ेषवू भक्तप्रपन्न साधारण. “प्रसन्न निगॆ प्रसत्त्य्युत्तर कालदल्लि अभ्युसगतवल्लद, अन्दरॆ नेहावसान सर्यन्त इत्यादि रीतियल्लि कालवन्नु व्यवस्थॆमाडिरुवुदरिन्द्र तदुत्तरकालिक पापांशवू प्रसत्रिय माहात्म्र्यदिन्द कळॆदु होगुत्तदॆ ऎम्बुदु विशेष. भक्तनिगॆ प्रारब्द कर्मान सानदल्लि मोक्ष. ई व्यत्यासवन्नु तिळिसलु इल्लि “प्रसन नुक्कु” ऎन्दु आचार्यरु विशेषिसि हेळिरुत्तारॆम्बुदु गमनार्ह, मेलुळृ दुम् इत्यादि - प प्रपन्ननिगॆ अभ्युसगतेतर प्रारब्द कर्मांशवू, भक्तनिगॆ प्रारब्ध कर्नुक्कॆ अनन्तर फास्त्रवागुव पासगळू, उपाय माहात्म्य दिन्द कळॆयुत्तदॆ. हीगॆ पापांशद निवृत्ति प्रकारवन्नु तिळिसि “इतरस्यासैेवमुसंश्सेषः पातेतु” - [ब्रह्मसूत्र सतश्ट्यंः ऎम्ब सूत्रद प्रकार पुण्यांश निवृत्ति प्रकारवन्नु उभयभावना कृमत्ता ले “ब्रह्म कनकुर्यां” - ब्रह्मध्यानवन्ने माडुत्तेनॆम्बादु ब्रह्मभावनॆ. इदुसनकादि गळिगॆ एस इ श्य “कमॆण्णवकुर्यां” ऎम्बुदु कर्मभावनॆ इदु संसारिगळिगॆ एर्पडुत्तदॆ. ब्रह्मचकुरा ०, कर्मचकुर्यां, ऎम्बुदु उभयॆ भावनॆ. ब्रह्मध्याननन्नू सृष्ट्ट्यादि व्यापारवन्नू माडुत्तेनॆम्बुदु. इदु ब्रह्मदेवनिगॆ’ उण्टु. हीगॆ उभय भानना 1160 ’ श्रीमग्रहस्यत्रयसारे फलज्ञळुम्, निद्योसपयुक्त पूक्लोत्तर पुण्यज्गळिल् अनुकूल प्रतिकूल प्रबल कर्मान, र फलज ळाले निरुद्धा वसरज्ग ळाय् फलव कॊडुक्कप्पॆरा देमिहुदियांयश् निन्रनैयम्म् अस्ति म कलकि. ले कैगियुम्. इनर्थन् 1) “इतगस्यापेवनु सङ्क श्य पाकेकु” ऎन्स्टिर सूत्र त्रि ले अभिप्रेतम्. भगवति (तिमात्र मे फलमाह अनु सत्त केनल कैज्यर्य रूप सु तण ४” अप्टोदे दत्त sn! हॆ ाले यनत्तुकु, अश्लेषम् कॊळ्लिनेण्ना. लोशसज हार्थ. निधियाल् असुष्कि कु. ) मवैयॆंवर् तनक अप्पृडिये भगवदाज्ञा सिद्धज्गळाहैयाले, अवैयुम् इवनुक्कु केवल क्सैजृर्यज, ळाय् दत्त फलज्लळ्. इनत्ति ल् तसनत ले सिाइत्तिकत्यागळहितमाह अनुष्मितब्ल्दळ् उण्डाहिल् अनैयुव २वरि् ऎल्ला म् 2) “तान्येव भावोपहतासिकल्ल$” ऎन्स्टि रपडिये पतुल्यच्ल्ञळायर् नोस्षॆयिस्यानिङ्क्कु विषयमाषर्. ANETTA र्ग रर ATTTOR TOT BINNS ” 3590472 420-3244 2 SALSA den eG ळा क्रमदिन्द एर्पट्ट बुद्धि पूर्वोश्तर पुण्यगळल्लि प्रकिबन्धकविल्लदवू, उपासकनिगॆ निद्यानुगुण पूर्वोत्तर जि फॆलस्पदानदिन्द कळॆयुत्तवॆ. विद्यॆगॆ उप सयुक्तनल्लद बुद्धि पूर्वोत्तर प्रण्यगळल्लिप्रतिबद्द फलगळू विद्योसयुक्त पूर्वोत्तर प्रण्यगळल्लि अनुकूल प्रतिकूल प्रबल कर्मान्तर फलगळिन्द, . निरुद्धा वसरङ्गळांरश् - फलनन्नु कॊडलु तडॆयल्प टैवुगळागि, फलवन्नु. कॊडलु आवसर - अवकाशविल्ल डॆ बाकियागिरुव कर्मगळू अन्तिम कालदल्लि कळॆदु होगुत्तवॆ. ई अर्थवु (1) * इतरस्यापॆ ेषमसङ्क्लेषः पातेतु? ऎम्ब सूत्रदल्लि अभिप्रेतवु. हीगॆ फलवनक्नि कॊडलु अनकाशविल्लद प्रण्यगळु अन्तिम कालरल्लि कळॆदु होदरॆ, नित्यन्सैमित्तिक कर्मगळू फलदल्लि असॆयॆल्लदॆ लोक सङ्ग्रहार्थवागि माडुव कर्मगळू फल प्रदानक्कॆ अवकाशविल्लदॆ अन्तिम कालदल्लि कळॆदु. होगुस्पवॆये ऎन्दरॆ भगवत्र्रीतिमात्रनॆरी ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्ता अदागि भगवप्रीतियन्हे फलवन्नागि अभिसन्धान माडि अनुष्ठिसिद केवलक्कैङ्कर्य रूपसुक्र जन नित्यन्सैनिक्रिक कर्मगळु आवागले दत्त फलगळाद्दरिन्द अवुगळिगॆ अश्लेषवन्नु हेळबेकाद अवश्यकतॆयिल्ल. लोकसङ्ग्रहार्थनिधियाले इत्यादि - इवट्रिल् इत्यादि ई नित्यनैनित्तक लोकसङ्ग्रहार्थ कर्मगळल्लि वरा जः - अजागरूकतॆ यिन्द सात्टिकत्यागरहितवागि अनुस्किसल्पडुववु, उण्टादरॆ अवॆल्लवू, (2) “तानैेनभावोपह
- ब्रह्मसूत्र (1-1-14) भक्तियोगारम्भक्कॆ मॊदलु माडिद प्रण, कर्मवू पापद हागॆ, नशिसि होगु त्तदॆ. अनन्तर माडुव प्रण्म कर्मवू भक्तनल्लि पापद हागॆ सम्पर्किसुवुदिल्ल आदरॆ भक्तियोगवु अनुष्ठिस बरुवुदक्कॆ बेकाद शरीरधारणक्कॆ अवश्यवाद, मळॆ, बॆळॆ, आरोग्य, अन्न मॊदलाद फलगळन्नु कॊडुव प्रण कर्मवु मात्र शरीरवु इरुव पर्यन्त इद्दु, इवनु मृतनागुवाग नाश हॊन्दुत्तवॆ,
- तपो नकलॊ बीध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेद विधिर्न कल्कः । . प्रसह्यवित्ता हरणं न कल्मः तान्क्मेव भावोपहतानि कल्कः ॥ ल तपस्सु पापवल्ल, वेदाध्ययनवु पापवल्ल. अवरवरिगॆ- विधिसल्पट्टि कर्मगळू पापवल्ल. आ कर्मानुष्ठान [07 १ णि क्कागि कष पट्टु हणवन्नु सम्पादिसुवुदू त्त आदरॆ” मेलॆ हेळिद कर्मानुष्कानगळन्नु विपरीतवाद अभिसन्धियिन्द अन्दर “नानी माडुत्तेनॆ ननगोस्करवे’ माडुत्तेनॆ इदु ननगे सेरिदुद्दु ऎम्ब भावनॆ यिन्द माडिदरॆ ‘आदु पापवागुत्तदॆ . महाविश्चासदिन्द कूडि अनुस्मिसिद पूर्व चरनुश्लॊकाधिकारः 1168 फलान्ररार्थमाह प्पण्णॆन प्रसत्य्यन्तरज्नळुवु् दत्तफल्लू ळाय् पोम्. पूर्व प्रसत्तिक्टु क्कोलिन फलत्तॆ पस्पृत्तॆ पुनः प्रपत्ति सण्णुणै महानिश्चासत्तोडे कूड आनु स्ठित्तॆ पूर्व प्रसत्ति प्रति सन्धानत्ताले कूडादु. _- अनेक प,पति नृपत्तिहळ् कूड एकफल साधनमन्रुनिनैत्तु अनुष्ठित्ता ल् ऊषायास्तरच्छायै यावा. अक्लेष विनाश शख्लयोरर्थनाह. निद्या माहात्म्यत्ताले इक्सर्मज्ञळुक्ळु विनाश मावदु, ईश्वरन् इवत्तुक्कु प्राप्त मान फलप्रदनाभिसन्धिय्छ निडुहै. अक्लीषमावडु ? इव्वाश्रितर तिरत्तिल्.. इळ व फॆलप्रदानाभिसन्धि उदियाद्दोूह्टॆ. । इप्पडि सर्वकर्मज्ञळुज्छियानिर्न सुहैत्तुक्कळुम् द्विषत्तक्कळुम् कूरिट्टु तानिकल्पः” - नानु माडुत्तेनॆ, नन्न स्त्रयोजनक्कॆ माडुत्तेनॆयॆम्ब भावनॆयिन्द कूडिद. कर्मगळन्तॆ पापतुल्यगळागि “मोक्षयिष्यामि’ ऎम्ब भगनत्सङ्कल्पक्कॆ विषयगळागुत्तवॆ. फलान्तरार्थमाह इत्यादि - मोक्बार्थ स्पसत्त्यनन्तर इतर फलगळिगागि माडिद प्रसत्त्यन्तरगळू आयाया फलवन्नु कॊट्टु कळॆदु होगुत्तॆवॆ. पूर्वप्रसत्तिक्टु इत्यादि- पूर्वदल्लि माडिद प्रहत्तिगॆ अनेक्षितवाद फॆलनन्नु उद्देशिसि पुनः प्रसत्रियन्नु माडुवुदु, स्रसक्मय प्रतिसन्धानदिन्द कूडदु. महाविश्चास दिन्द कूडि अनुष्ठिसिद पूर्व प्रस्त्तिये फॆलनन्नु कॊडुत्तदॆयॆम्ब प्रतिसन्धानवु इद्दक्कॆ “सकृदेव” विम्ब शास्त्रक्कॆ विरोधवागुवुदरिन्द. पुनः प्रसत्रियु कूडॆदु ऎन्दु तात्पर्य, अनी कप्रपत्तिहळ् कूड इत्यादि - अनेक प्रसश्तिगळू सिह ऒन्दे फलक्कॆ साधनगळागुत्तनॆ ऎन्दु नॆनॆसिकॊण्डु अनुष्ठिसिदरू उपायान्तरवन्नु सहायार्थवागि अनुष्ठिसुव दोषवु एर्पडुत्तदॆ. अन्दरॆ मोक्सार्थनागि प्रसत्तियन्नु अनुस्थिसि अदक्कॆ सहायकवागि भक्तियोग वन्नु अनुष्मिसिदरॆ अदु हेगॆ पासवागि परिणमिसि प्रायत्चित्तवन्नु अपेक्षिसुत्तदॆयो हागॆ मोक्सार्थवागि माडिद प्रसत्तिगॆ सहायनागि मत्तॊन्दु प्रसत्रियन्नु माडिदरू अदू पापवागि अदक्कॆ प्रायश्चिस्तनन्नु अपेक्षिसुत्तदॆ. निद्यामाहात्म्यत्ताले इत्यादि आरम्भिसि अश्लेष विनाश शब्दगळिगॆ अर्थनन्नु तिळिसुत्तारॆ. अदागि विद्यामाहात्म सिदिन्द ई कर्नुगळिगॆ विनाशवु हेगॆ ऎन्दरॆ - ईश्वरनु इदक्कॆ प्रास्तवाद फलवन्नु कॊडुव अभिसन्धिय्फै - सङ्कल्पवन्नु बिडुवुदु. अश्लेषमावदु अश्लेषनॆन्दरि ई आश्रितर विषयदल्लि ई कर्म फल प्रधाननन्नु माडुव सङ्कल्पवु उण्टागदिरुवुदंु. सुकृत दुष्कतगळ सङ्कृमण इस्पडि सर्वकवू९ङ्गळुं कथ यानिर्स इत्यादि - हीगॆ प्रपन्ननिगॆ पूर्वोत्तर पुण्य पापगळॆल्ला कळॆदुहोगुत्तवॆ :ऎन्दु हेळिदकि, “सुहृदस्साधुकृत्यां, द्विषन्तः पासकृत्याम्? 1169 श्री मद्रहस्थप्रयसारे बि क्ळॊळ्ळुमनै, ऎवै ऎप्रिल् अश्लेषनिनाश निषयज्लळुनु् बुद्धि पूक्चोत्तर पुण्यज्गळिल् कर्मान्रर प्रतिबद्ध फलज ळुम्; इवत्तै ईश्वरन् उपायारम्भत्तिल् सुहृत्तु कृळ् पक्कलिलुम् द्विषत्तुक्टळ् पक्कलिलुवं् सङ्क्रमिप्पियादे अनििमदकॆ यळवुवु् पार् ०२ बॆ 2 ऎ R त्रिरुक्टनेण्ल्णुनानेन् ऎन्निल्, इव्वाश्रितर् पक्कल् पण्णन अनुकूल्यत्तुक्सु मेल् विप रीतम् शॆय्यिल्, इस्सुकृतज्गळ्ळॆ सङ्क्रम, यादॊ(णैक्याहवुम्, आश्रितर् पक्कलिल् पण्चिन प्रातिकॊल्यत्तुक्कु मेल् क्लनॆद कॊळ्ळॆ अवसरॆव् कॊडुक्कॆकाहवुम्, इव्वाश्रित रुडैय अन्तिम शरीर निश्लेषत्तळवुमु् इवर्हळुडैय पुण्यपापज्गळ्ळॆ अशल् पिळन्नॆरि यादॊगिहिरान्.स्वर्लाद्यर्थसुकृतवर् मुवमङ्क्सुवुक्कु पाप समान माहैया ले, अदु वुम् मुनंस्सुवान सुशृत्तिन् पक्कल् सङ्कृनियादु. आरेनुवर् पण्णिन कर्मब्लळ् मेरे शिलर् सक्कलिले सङ्क्रमिक्कैयावदॆन्सॆन्निल् कर्रानैप्पत्तॆ ईश्वरनुक्ळुवरुवु् निग्र हानुग्रहज्ञ ळोडु. समाननाह इवनुडैय शत्रुमित्रर्हळ् पक्कलिले निग्रहानु ग्रहङ्गळ् उदिक्कै. ऎन्दु प्रसन्नन स्नेहितिरू, शन्रुगळू स्रसन्नन’ अन्तिम कालदल्लि विभागमाडिकॊळ्ळुव प्रण्य पापगळु यावुवु ऎन्दरॆ अश्लेषनिनाश निषयङ्गळुवं् ऎन्दारम्भिसि विवरिसुत्तारॆ, आदागि आश्लेष .. प्रामादिक पापगळु. * अण्टिदॆ इरुवुवु, प्रारब्बेतरगळाद सञ्चित पापगळु विनाश वागुववु. हीगॆ आश्लेष विनाशगळिगॆ विषयगळाद प्रामादिक मत्तु प्रारब्भेतर सञ्चितॆ फापगळू, बन्द्धि पूर्वोत्तर पुण्यङ्गळिल् इतादि - बुद्धि पूर्वकवाद प्रसत्युत्तरकालिक प्र गळल्लि कर्मान्तर स्रतिब ऎ फलगळु सुक्क न2,गळल्लियू द्वि त्हुगळिल्लियॊ सङ्क्रमिसुत्तवॆ. इवट्रै ईश्वरन् इत्यादि - ई अश्लेष विनाश विषयगळाद पुण्यपासगळन्नु ईश्वरनु उपायारम्भदल्लि उपाय निष्कन सुहृत्तुगळ पक्कदल्लिय द्विषत्तु (शत्रु) गळ पक्कदल्लियू सङ्क्रमिसदॆ (सेरिसदॆ) अन्तिम दशॆयॆ पर्यन्त नोडिकॊण्डिर बेकाददु एशक्कॆन्दक्कॆ इव्वाश्रितर् पक्कल् इत्यादि.ई आश्रितर विषयदल्लि, माडिद आअनुकूल्यक्कॆ मुन्दॆ विसरीताचरणॆयन्नु माडिदरॆ ई सुकृतगळनन्नु अवरॊडनॆ सेरिसदॆ इरुवुदक्कागियू, आश्रितर विषयदल्लि माडिद प्रातिकूल्यगळिगॆ अनन्तर अपचार क्षमासणॆयन्नु माडिकॊळ्ळलु अवसरम् - अवकाशवनु कॊडुवुदक्कागियू ई आश्रितर अन्तिम शरीर विश्लेष पर्यन्त इवरुगळ पुण्य पासगळनु* अशल् हिळन्देरिडार्डो हिर.न् - सुहृत् गृष्ट्रुत्तुगळ हत्तिर आरोपिसिदॆ इरुत्तानॆ. (आशल् - अन्यत्र, निळन्दु - कप्प), एरिडादु-. आरोपिसदॆ, ऒ्रिहिरान् - इरुत्तानॆ.) स्वर्गा दृर्थ सुकृतम् इत्यादि - स्वर्गफलक्कागि माडुव सुकृतवू मुमुकुनिगॆ पासवाद्दरिन्द अदु मुमुक्षुवाद सुहृत्तिनॊडॆनॆ सङ्क्रनिसुनुदिल. आरेनुम् इत्यादि - यारादरू माडिद कर्मगळु बेरॆ कॆलवरल्लि सङ्क्रमिसुनुदु हेगॆ. अदागि पुण्यपासगळु क्रियारूप गळाद्दरिन्द कर्ताविनलिये इरतक्कवल्लने. मेलू ई क्रियॆगळु, माडिद क्षणदल्लिये भङ्गुर गळाग्दरिन्द इतररल्लि सङ्क्रमिसुव बगॆ हेगॆ ऎम्बुदु प्रश्नॆ. इदक्कॆ उत्तरवागि इकृर्तावैप्पट्र ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ अदागि ई पुण्यसानगळन्नु माडुव कर्ताविन विषयदल्लि ईश्वरनिगॆ उण्टागुव निग्रहानुग्रहगळिगॆ समानवागि इवन शत्रुगळल्लि निग्रह २ कोपवू, विन्त्रॆरुगळल्लि अनुग्रह - कृपॆयॊ उण्टागुविकॆ सिद्धान्तदल्लि ऒब्बनु विसरीतानुष्मानवन्नु९ ह्या A उमा तु टट चरमशक्लोकाधिकारः 1170 माडिदरॆ अदर निमित्तवागि, अवन विषयदल्लि भगवन्तनिगॆ उण्टागुव निग्रहने पासनॆन्दू, ऒब्बनु. सॆदनुष्ठानवन्नु माडिदरॆ आदरिन्द अवन विषयरल्लि भगनन्तनिगॆ उण्टागुव अनुग्रहॆने पुण्यवॆन्दू इवुगळु धर्म भूत ज्ञा कफद. अनस्का विशेषगळागि द्रव्यगळॆन्दू विषयॆता सम्बन्धदिन्द आयाया कर्ताविन हर po सु फलप्रदान पर्यन्त आयाया कर्तागळल्लिये इरुत्तवनॆयॆन्दू ऒस्सल्प ट्टिनॆ, इदरिन्द विद्यानिष्ठरुगळु माडिद सद्दिसरीतानु ष्मानॆगळिन्द अवरुगळ विषयदल्लि ऒन्दु रीतिय अनुग्रहवू निग्रहवू, भगवन्तनिगॆ उण्टागिरुस्तदॆ, आ विद्यानिष्ठन अन्तिम कालदलि अवन स्टेहितरुगळल्लियू, शप्रुगळॆल्लियॊ, अवन (विद्या निष्कन) सद्विपरीतानुष्कानगळिन्द उण्टाद अनुग्रह निग्रह सॆङ्कल्पगळिगॆ समानवाद अनुग्रह निग्रह सङ्कल्पगळन्नु भगवन्तनु विषयता सम्बन्धदिन्द उण्टु माडिकॊळ्ळुत्तानॆ ऎम्बदे सङ्क्रमण शब्बार्थवाद्दरिन्द याव चोद्यक्कू अवकाशविल्ल. सरि हागादक्कॆ “शास्त्रफलं प्रयोक्षारि” ऎम्ब न्यायदन्तॆ शास्त्रानुष्ठानद फलवु आ अनुष्काताविगॆ ताने सेरुत्तदॆ. हागिरुवाग इदक्कॆ विनरीतवागि ब्रह्मॆ वित्तुगळ सद्विसरितानु ष्ठानगळ फॆलनन्नु अवर सुहैत्तुगळल्लियू द्विषत्तु(शत्रु)गळल्लियू सङ्क्रमिसुवुदु हेगॆ न्यायनॆम्बुदु पुनःश्टोद्य. इदन्नु आरेसुवत् ऎन्दारम्भिसि केळिकॊण्डु इदुवुवमु् मुमुक्षु विषयत्तिल् ऎन्दारम्भिसि समाधान माडुत्तारॆ… आदागि यारादरू माडिद कर्मगळिगॆ चेरि यारादवर हॆक्तिर निग्रहानुग्रहॆगळु उण्टादरॆ अतिप्रसङ्ग दोषवु उण्टागुवुदिल्लवे ऎन्दरॆ, इदु मुमुक्षु विषयदल्लि अनुकूल प्रतिकूलरिगॆ उण्टागुवुद रिन्द अतिप्रसङ्गविल्ल. . “शास्त्रफलं प्रयोक्तरि’ ऎम्ब न्यायक्कॆ याव बाधकवू इल्लवॆन्दर्थ. आरेनुम् अनुस्ठित्त त कर NA गळुक्तु आरेनुम्सक्क लिले निग्र हानुग्र हङ्गळ निरन्हा ल् अतिप्रसङ्गम् वाराजोवस्रि ल्, -दुवुम् मम्मुसु निषयत्ति ल् अनुकूल प्र तिकू लरु. उपचारापचार रूपमान करन नुडियाह्टॆया ले अतिप्रस ङ्गमिल्लै. आहॆ यारे यिरे उदासीनर रैक्कल् सुकृ त दुस तङ्गळिरण्णु म् सुक्रमिक्कु मन्नाद्यॊ नहिरदु. फल. सारूप्य मात्रत्ताले इब सङ्क ? मणोपचा रम्. इस्टु कृत दुष्प त सङ्क्राति शॊल्लु म्ल बिदिरिन य् ई अर्थवन्नु व्यतिकीक प्रदर्शन पूर्वकवागि आहै याले इरे ऎन्दारम्भिसि दृढी करिसुत्तारॆ. आद्दरिन्दले अल्लवे उदासीनरागिरुववरिगॆ “ब्रह्मनित्तिन सुकृत दुसैतगळॆरॆडू सङ्क्रमिसुत्तनॆ ऎन्दु हेळदे इरुवुदु. अन्दरॆ उदासीनरु ब्रह्मनिद्दि सयदल्लि अनुकूला च-णॆयन्नागलि, प्रतिकूलाचरणॆयन्नागलि माडिल्लनाद्दरिन्द, ब्रह्मनिद्विषयॆकवाद भगवन्तन अनुग्रह निग्रह सङ्कल्पगळिगॆ समानगळाद सङ्कल्पगळु उदासीनर विषयदल्लि भगवन्तनिगॆ उण्टागुवुदिल्ल. हीगॆ ब्रह्मनित्तिन सुकृत दुष्कृतगळ निमित्त भगवन्तनिगॆ उण्टागुव अनुग्रह निग्रहगळिगॆ, समानवाद अनुग्रह निग्रह संरल्पगळु आ ब्रह्मनित्तिन सुहृद्धुष्ट्रत्तुगळ विषयदल्लि उण्टादक्कॆ इदन्नु ब्रह्मनित्तिन पुण्यपास सङ्क्रमणनॆन्दु. हेळलागुत्तदॆये ऎन्दरॆ फलसारूपैमात्रत्ताले ऎन्दारम्भिसि इदु औसचारिकनॆन्नुत्तारॆ. अदागि फलवु समानवागिरुवुदरिन्द इल्लि पुण्य पापगळु सङ्कृमिसुत्तदॆयॆम्बुदु औपचारिक. 02 रलि स आन क क्क ई इस्सुकृ त दुष्भृत सङ्क्रा ति इत्यादि - ई सुकृत दु स्भृ तगळु ब्रह्मनिःन सृहृत्तुगळ मत्तु 1171 त्रीवुद्रहसत्रयसारे अत्यर्थस्रियनान ज्ञा फ्सि निषयत्तिर ण्ण न उपचाराहचारॆ हिरॆ श्रुतियाले ईश्वरनुक्ळु कॆ प िनुडै यु तीव्र तमुत्व 0 सूचित. नायित्तु. ज्गळाल् वरुम् पि) तिक RE इति प्रयोग सक्वशब्दार्थमाह “सुदुष्टरेण शोचीद्यः? ऎन्स्टिरशॆ श्लॊ च र् चॊन्न योजनै यल् 4सग ‘पापेभ्य्यः” ऎन्रदु अधिकारियु डैय आसेस्ट्यैकि डा प्राप्ति निलोधिहळ्ळि युव वन् पुषायविकोधि हळ्ळियुव् प्र प्रतिकॊला नुभव हेतुक्कळ्ळॆयुमः, सज्ज ्रहिक्ळै रद. इबु प्राप्ति विरोधिया वदु सापराधनान इवन् नन्नु ‘अनुभनिक निकृडॆन नल्लन्, ऎन्सिर स फै जृल्पवर्. उपाय विरोधियावुदु, नम्म न ळिन्नु वशीकरिक्स , डवनल्लनॆस्मिर सज्वल्पवर्. स प्रतिकूलानुभव जेतुवावुदु ? अव्वो न कूलासुस्मान नब ळाले नन्न अव्रो फल क्रदान सज्कल्पम्. मुमुन्सुवैन त्र सर्व निन हज्जळुम् निन त्व ज छानल्, निग्रहकार्य ज्गळान अचित्सम्बन्धादिहळ* निग्रहनिस्बित्तिरूप प्रसाडक्काचि! निव त्रज छाम”. हिन्फु कारणा भावत्ताले कार्यमान प्रतिकूलजब ळिल् ऒनु)वं् मारादु. इदु “अ इवृत्ति शृब्धात् A ER SN NN यं (ऐ्द्र गृस्टृत्तुगळल्लि सङ्क्रनिसुत्तनॆ ऎन्दु. हेळिरुव श्रुतियिन्द ईश _रथिगॆ अत्यर्थ प्रियनाद ज्ञानि विषयदल्लि माडिद खसचारगळिन्दॆ ऊम्बागुन प्रीति कोनगळ तीव्र. तमत्ववु सूचिसल्पट्टितु. आद्दरिन्द ब्रह्मनिदपचारवु अत्यन्त परिहरणीय. हागॆ ब्रह्मनित्तुगळल्लि उपचारगळु अत्यॆन्त श्लाघनीय. ई रीतियागि ब्रह्मनि,न पुण्य न पगळन्नु अन्यरल्लि सङ्क्रमिसुवुदु भगवन्तनिगॆ 3 वैषव्यु नैर्फ्यण्यगळन्नु ८-०टु माडुवुदिल्लवॆं३ निगू जु आचार्यर अभिप्राय. सर्व पानशब्ददल्लि अडगिरुव अंशगळु - अवुगळ एिनर “सुदुष्करेणकोबजेदृ8’ ऎम्ब श्लोकरल्लि हेळिद योजनॆयल्लि, “सर्वपापेभ्य? ऎम्बुदु. आधिकारिय असेक्षॆयन्ननुसरसि मॊक्षवन्न्नु. कुरितु. प्रपत्ति माडिदवरिगॆ प्राप्ति विरोधिगळन्नू . पायवन्नुु उद्देशिसि प्रपत्ति माडिणवरिगॆ, उपाय निरोधिगळन्नू प्रति कूलानुभव हेतुगळन्नू सं ग्रहिसुत्तदॆ. इङ्गुह ्राप्लि निरोधियानदु इत्यादि - बरा प्लिगॆ विरोधियु यावुदॆन्दक्कॆ- सासराधनाद ई स्य नन्मुन्न्सु अनुभविसलु योग्यनल्लनॆम्ब भगवत्सङ्कल्प.. भगनरनुभनने भगनश्चास्ति. षाय रज । इत्यादि - उपाय निरोधियु यावुदॆन्दरॆ, नन्मुन्नु इदवु इत — कूलङ्कषवागि तिळिदुकॊण्डु वशीकरिक कृडवनल्लन्. वशीकारवे - उपाय, आ उपायवन्नु अनुष्ठिसलु योग्यवल्लवॆम्ब सङ्कल्प. प्रतिकूलानुभवणेतुवावदु - सभ कारणवु यावुदॆन्दरॆ - आयाया स्रतिकूल कर्मानुष्ठानगळिन्द एर्पट्ट आयाया. फल प्रनान सङ्कल्प. मुमुस्सुवैप्पट्ट इत्यादि- मुनमुकुनन्नु कुरितु सनशॊग हगळू निनृत्तगळादरॆ निग्रह कार्यगळाद आचित्सम्बन्धादिगळु निग्रह निनृत्ति रूप प्रसन्नतॆयिन्द निनृत्तगळागुत्तनॆ. हिस्बु इत्यादि - अनन्तर “कारणाभावात् तॆ भावः” ऎम्ब न्यायदन्तॆ आचित्सम्बन्धक्कॆ र भगवन्निग्रहॆन्र शरणागतियिन्द निव त्रवादक्कॆ कार्यगळाद सप्रतिकूलगळॆन्दू ४ म्बागुवुडिल्ल. ई अर्थनु (1) अनाव्सत्ति त्रिश्यब्दात् चरमश्लोकाधिकारः 1179 ऎन्सिर कूड सूत्रत्तिले विवक्षितव्. इन्न निष्कर्षज्गळॆल्लाम् चिरपरिचयम् पण्णिन महास्टा ज्ञ रुकु po भाष्यत्तिले सत्सम्प्रदायत्तॊडे “इप्पडि “सर्रपापेभो नॆ मोक्षयिष्यामि” ऎन्नु कार्यकारण रूप समस्त प्रतिबन्धक प्रवाह निवृति, यै च्ह्लॊल्ल स्वतःप्राप्रनाान प रिपूर्ज ais Ne शॊल्लि त्तायित्तु. 1) “यथानक्रियते ज्योत्स मंलप्रश्षळनान्मणेः । ; दोषप्र हा णान्स ज्ञान मात सः क क्रियते सथ USS षकरॆणात् क्रियतॆ ५ बीय जॆ सदेव नीयन्ते व्यक्तिं ननॆ सृम्भवः कुतः- तथा हेयॆगुणध्वंसात् अनभोधादयो गुणाः । प्रकाश्यन्ते न जन्यन्ते नित्या ऎवा आत्मनो हि ते । का ऎम्ब सूत्रदल्लि विवक्षितवु. इन्द निष्पर्षङ्गळॆल्लाव् इत्यादि - मेलॆ हेळिद निष्लषा ष्टार्थगळॆल्ला श्री भाष्य गीताभाष्यादिगळल्लि सत रस्रजा बु ीडेकूड अळ्वारवरुगळ श्री सूक्ति गळॊडनॆ सदाचार्य सन्निधियल्लि कालक्षेप पूर्वक चि रपरिषयवु- - चिरकाल परिचय माडिद महा प्राज्ञरुक्प - विष्णु चित्तॆ वा pus a वरदाचार्यादिगळ हागॆ इरुव महाप्राज्ञरु गळिगॆ निलमायिरुक्कुवु् - सम्यक् ग्गा )हैगळागुत्तनॆ. इल्लि “सत्? पदवु भाषा कारेतर सम्प्रदायवन्नु व्यवच्छेदिसुत्तदॆ. प्राज्ञ शब्दवु. मन्द बुद्धिगळन्नु व्यवच्छेदिसुत्तदॆ. चिसशब्बवु अल्पकाल परिचयवन्नु व्यनच्छेदिसुत्तदॆ. महच्छब्दवु प्राज्ञरल्लियू विशेष प्राज्ञराद निष्णुचित्त, वरदाचार्यादिगळनत्ति तिळिसुत्तदॆ. प्रतिबन्धक निवृति श्रियन्नु “सर्वपापेभ्यॊ ९ मोक्षयिष्यानि? ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द इष्ट प्रास्ति यू हेळिदन्तॆ, प्रतिबन्धकवाद सर्वपास निवृत्तियु एस रट्ट नन्तर, परिपूर्ण ब्रह्मानुभव रूप इष्ट ल उसपादिसुता, ्रिप्तियू हेळिदन्तॆयायितॆन्दु रि. *इप्पडि सर्वसासेभ्यो मोक्षयिस्यामि? ऎसि अदागि हीगॆ सर्व साकू निन्नन्नु बिडिसुत्तेनॆन्दु कार्यकारणरूप मस्त प्रतिबन्धक प्रवाह निनृत्तियन्नु हेळलु, स्वतः प्राप्तवाद परिपूर्ण भगवदनुभनद G र्भाववु - प्रकाश्यत्ववु हेळल्पट्टिन्तॆ आयितु. (1 यथानक्रियते ज्सोत्सा इत्यादि शौनक भगवान” कृपॆमाडि हेळिदन्तॆ रत्नद कॊळॆयु नीगिदरॆ स्वतः प्रास्तवाद रत्नद कान्तियु प्रकाशिसुवन्तॆ आत्मन ज्ञानवु स्वयं प्रकाशवागुत्तदॆ. हॊसदागि ज्ञानवु उण्टु माडल्प्बडुवुदिल्ल. भावियनन्न्नु तोडिदरॆ हेगॆ नीरू, नीरिल्लदिद्दरॆ अनकाशवू स्वयमागिये उद्भविसुत्तवॆयो हॊसदागि माडल्पडुवुदिल्लवपो, हागॆ हेय गुणगळु नाशगळादरॆ अनबोध - ज्ञान, मॊदलाद गुणगळु स्वयमागिये प्रकाशिसुत्तवॆ. हॊसदागि उण्टु
- विष्णु धर्म 105-55-57
1178 श्रीमद्रहॆस्यत्रयसारे
ऎन्रु निकासतु अनिर्भान ल्पादिहळुम् पाधिकज्गळाहैयाराले र्मवम सैरूपॆयोग्य भगवद्विभूतियान पाप्तमाहैयाले, पाहपेभ्यो उपाय माह (शी च्लॊल्लित्ताम्. नु सहज क्सु फलैक्यमर् शौनक शब्दम् मोक्षयिष्याविं” स्परूसयोग्यतारूप्टॆयान त्वत्ताले कैङ्कर्यङ्गळुवु् कङ्कर्यविधयः? भगवान् वस्तुक्कळुक्कु मुख्यम्. पॊरुळान अदिलुव् मेल् कर्कोपाधिकमान अरुळिच्चॆ ऎन्र 5 मुक्क ेडु, अनिर्भाव सरृनिषय अगन्तुकज्गळायिरुक्क, मेलॆल्लाम् इत्यादिहळाले इव्वनुकूलावस्था य्दान्. इव्विष्ट नडक्ळुम्सडि बहुनिधरूप- शब्दत्तुक्कु निकासमुम्म् शक्षियु ज्ञानद्रव्यवुुमु् नोक्षदशैयिल् प्राप्तियुम् “आविर्भाव” ०तरम् वर् तोत्तुहैक्याह विरोधनिल्लै. आअनुकूल्य इवै दुःखनिवृत्ता नित्यब्गळाहैयाले सिद्ध शब्दनर् निनृत्तप्रतिबन्ध मायित्तु.एकशब्द इ अनुकूल्यमे प्रातिकूल्यज्ञळ” इदिनुडैय श्लोकत्ति प्रयुक्तमाहिरडु. आहैयाले इवत्तिल् $दिहळुम् ले सर्वनिषय स्वरूप्रॆे अवत्तिल् “अविस्कु सुव्यक्त स्वरूप तुक्कु नडन्न “सर्व सङ्क ज्ञान माडल्पडुवुदिल्ल. रिन्द विकासवू कारणवागि. तोरुवुदक्कागि विधिगळु त्ताले कूल्यगळु स्वरूपतःप्पास्तवाद्दरिन्द याल् ’ अनुकूलवाद हेळल्पट्टु, वागिये तिळिसुत्तारॆ. ऎरडू ; जि जाय) अवुगळल्लि सेरि द्रव्यवू इत्यादि ननगॆ इत्यादि “एक” दुःख एर्पट्ट अर्थवादाग, आगन्तुकङ्गळायिरुक्क प्रधानवाद अदागि अवस्थान्तरवु स्रकाशिसलि, आहैयाल् - -“सर्वपापेज्यो अविर्भाव शब्ददल्लि इवुगळल्लि निनैत्त्यादिगळू अदर. स्वरूप . भगनद्वि ज्ञानादि एकशब्दक्कॆ सर्व अदरल्लू
शब्दवु इष्टप्राप्तियु हेळल्पट्टिदैॆ' (2) योग्यत्वदिन्द 'ई भूतियाद सिद्धवायितु... “मामेनैष्यसि”, इत्यादि विषय गुणगळु इस उपाय आनिस्युः टु आविर्भाव मुख्य. सङ्कल्पादिगळू नोक्षयिष्यामि”ऎन्दु प्रास्तियू - आविर्भाव विकासक्कॆ वस्तुगळिगॆ, बन्दवुगळागि, आत्मानिगॆ ऎन्दु अर्थात् कर्नॊोपाधिकवागि मनु फलगळ शब्दवन्नु हीगॆ सर्वनिषय स्वरूसयोग्यता इत्यादि- शब्दवुई सहज आचार्यरु अप्रधानवाद कैङ्कर्यगळू ऐक्यवु नित्यगळु. मुन्दि प्रास्तवायितल्ला चरमश्लोकदल्लि प्रयोगिसुवुदु मुञ्जि प्रयुक्तवागिदॆ. कैङ्कर्य विकासमुम् आनिष्य आन्दरॆ मोक्ष बहु “एशशब्दत्तु ज्ञानॆद्रव्यमुम् प्रतिबन्ध निनर्शननन्नु रूपवाद अनिष्ट यानत्काल. विधयः प्राक्यने विधवाद दशॆयल्लिल्ला, सुन्यक्तनागि बाभकनागलारदु. ऎन्दरॆ ` निनृत्तियु इत्यादि स्वरूपगळ -सहॆजगळाद क्कु? शक्तियू स्वरूप प्रासकनु हेळिदुदरिन्द आनुकूल्य नणॆगु अदू हेळल्पट्टिदॆ, - आनुकूल्यवे ऎन्दारम्भिसि सर्व स्पष्टवागि फिन्नत्तिये योग्यत्त फित्यगळाद्द इत्यादि बरुवन्तॆ कैङ्कर्य ऎन्दु. निषय शाब्द प्राति आहॆ ई - 2) अकारार्थयॆ यमाहास्मॆ । अष सै श्लोकी क व समरण ऒडुसव थमह्कं कालं सकलव. पि सर्वत्र स इण्डि न निवहा नरुणां नित्काना सकला न ऒप वज छु इल्लल न मयन मिति नुर्पे्ेमदॆ ममहज नारायण पदम् । कैङ्कर्य विधयः ॥ चरनुश्लोकाधिकारः 1174 चरम श्लोकोयं’ अङ्गप्र सत्तिनिधायकः किन्न स्यादितृत्राह. आहै याल् “मामेनैष्यसि’ निनु कल् शोकत्तिले निशदमाह च्चॊ न्न्न अर्थवु इज्लु क् निरोधियॆ क्स् क्ट यालुवर्, एक शब ति त्रिल् निवक्ना निशेषत्ता लुम् शॊल्लि त्रा म् आनपिन्सु इदु सा सेक्लॆमाय्क्लॊ ण्डु की “ल् शॊ (कत्तु क्सु शेषमाहिरदन्नु. कैनल्ये सरैपास निवृत्तिस्तु सुष्ट ह “सर्वॆ पापॆ, ब्योमोस्षयॆष्यानविं” ऎन्रु इन _ळवाल मामेवैस्य सि” ऎनु शॊन्न भगवत्प्रा त निदि कुमो? सर_पाप निवृत्ति म ये pi हि यस्रिक्टे स्वात्म माता“ १ ल् व मास “इ वल्य पत् i मिल्लि यो ? भॆगनता.पि यिल द् काट” सषिसष्ट. इद बॆ पट्ट कैनल्यन म् 1) बहलौकिक मै श्वर्यं सग्गाद ० पार लौकिकवर् । कैवल्यम्भगवन्तं च मन्म्रोंयं साधयिष्यति ॥ । कॆलवरु चरमश्लोकदल्लि अनिष्ट निनृत्ति ‘मात्रवे “बोक्षयिष्याविं’ ऎम्ब ‘वनचनदिन्द हेळल्पडुवुदरिन्द “मामेवैष्यसि’ ऎन्दु इष्ट प्राप्तियन्नु हेळुव भक्तिनिधायक वाक्यवाद “मन्मनाभव’ ऎम्ब पूर्व श्लोकदॊडनॆ साकाङ्क्षवागि, सर्वधर्मान् सरित्यज्य वॆम्ब तॊ ीकवु आङ्ग gE विधायकवॆन्दु हेळुत्तारॆ. इदु सरियल्ल. ’ एकॆन्दरॆ चरमश्लोकदल्लिये, “मो क्षयिष्यामि” ऎन्दू आर्थिकॆनागियू. ऎक” शब्ददिन्द शाब्दवागियू इष्ट प्राप्तियु हेळल्प ट्विरुपुदरिन्द पूर्व श्लोकद साकाङ्क्षतॆयु सङ्गतवल्लनॆॊदु, आह्टॆयाल् “वामे वैष्यसि? ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि पूर्न श्लोकद साकाङ्क्षतॆयु ई चरनुश्लोकक्कॆ बेकिल्लवाद्दरिन्द, मामेवैष्यसि ऎन्दु पूर्व क्नोकर्ल विशरवागि हेळिद : अर्थवु; इल्लि प्राप्ति विरोधियन्नु निवृत्तिसुवुदरिन्दलू, ऎक शब्ददल्लि विना विशेषदिन्दलू हेळल्पट्टतु. आनहिन्सु इत्यादि - हीगॆ एर्पट्ट मेलॆ ई चमक स कवु “सापेक्षवागि पूर्व श्लोकक्कॆ शेष भूतवागुवुदिल्ल. कैनल्य निषयकवाद चर्चॆ “सर्वपापेभ्यो मोस्तयिष्कानि? इत्यादि - “सर्वपापगळिन्दलू बिडिसुत्तेनॆ’ ऎन्दु हेळुव मात्र क्रै “मामेवैष्यसि’ - नन्नन्नु सडॆयुत्तीया, ऎन्दु हेळिद भगनत्लानप्तियु सिद्धिसुत्तदॆये , सर्वपास निवृत्तियुण्टागिये, भगवत्प्रास्त्रियु एर्सडदॆ, स्वात्म मात्रानु भव रूसवाद कैवल्यवन्नु सडॆयुववरू इद्दारॆयल्लवे? भगनत्सा प्लियिल् कास्ट ल् इत्यादि- (1) ऐहलौकिक मैश्वर्यं, इत्यादियागि ई मन्तॆ वु इहॆटोकदल्लि ऐश्वर्यवन्नू ‘सरलोकदल्लि स्वर्गादि फलगळन्नू, कैनल्यनन्न्यू भगवत्पासि,यन्नूू साधिसि “कॊडुत्त, नॆयॆन्दु भगवता प्ति गिन्त कैवल्यवु बेकियादद्दॆन्दु सारणितदिगळु हेळिद्दा कियल्लने. आळॆनन्दारुम् इत्यादि 1175 त्रीमद्रहस्यत्रयसारे ऎनु नारदादिहळाले शॊल्लस्पट्टिदिरी. आळवन्दारुम् 2: बश्व र्याक्सर याथात्म भगव च्हरणार्थिनाम् 3) संस त्यन्षॆर “नैष्ण वाध्वसु ऎन्रुम् अरुळच्छॆ य् दार्, गद्यत्ति लुम् 4) “सर्वकामांश्च सुक्षरान् ऎनि नि रवाक्यम् उपात त्र मायेत्तु. (शी गीता भाष्यादिहळिलुम् इव्वृर्थं प्र पञ्चितम्. आहैया ले «सरॆ, पापेभॊ , मोक्षयिस्यू नि? ऎन्सिर सर्वपाप निवृति ब कृवल्यत्तु कम् भगवता ्रिप्तिक्कुम् फॊडुवस्रॊ € नॆन्नॆ मन्द चोद्यम्. ऎल्ल ने यन्न ल्-सर्व सापज्ज ळुम् कन्ना ल्स ओतःप्राप्त मान “भॆगवडनुभनत्तै इन्दु किडृक्कॆ कु क्यारण मिल्लानॆ याले, अपस्पोदु भगवदनाभवरहितमान वात्म आळवन्दारवरू (2) ऐश्वर्याक्षर याथात्म्य भगवच्च जा - ऐश्वर्य, अक्षर याथात्म्य- कैनल्य, भगनच्चरण प्रास्ति ऎङ्गू, (3) संस्कृत्यक्ष क्षर वैष्ण्य नाध्वसु - संसार, अक्षर-कैनलै, परम पदमॆजू. कैनल्यनन्नूू भगनता न्रिप्रियन्नू बेकॆ बेकॆयागि हेळिरुत्तारॆयल्लवे ? गद्यत्ति लुमः्इत्यादि-गद्यदल्लियू भगवद्भाष्यकाररु, (4) सर्वकामांश्चसाक्षरान् ऎम्ब विहगेश्वर संहिता वाक्यवन्नु ऎत्ति हेळिरुत्तारॆ. श्री गीताभाष्यादिसळिलुम् इत्यादि -श्रीमद्दीतॆय यस्ससर्नेषु भूतेषु नश्यत्सुनविश्यति । अन्यक्कोक्षर इत्युक्तः, (गीतॆ 8-20) इत्यादि श्लोक भाष्यदल्लियू ई अर्थवु प्रपञ्चितवु. अदागि कैनल्य लोकवु सरम पदक्किन्त बेरॆ. ई लोकवु प्रकृति मण्डलदॊळगॆ ध्रुन मण्डलक्कॆ मेलॆ इदॆ. आद्दरिन्द कैवल्य पुरुषार्थवु प्रकृति मण्डलक्किन्त मेलॆ इरुव परम पददल्लि एर्पडुव भगनत्रा ब्रिगिन्त बेकॆयादद्दु. तग इत्यादि - आद्दरिन्द «सर्व पासेज्यो मोक्षयिष्टामि” ऎम्ब सर्वपाप निनृहियु कैनल्यक्कू ‘भगनता निगू ‘पॊदुवन्रो - समानवल्लवे ऎम्बुदु मन्दचोद्यम् - बल्बजवाद आक्षेप. समीचीनवाद “आक्षेपवल्लवॆन्दु तात्पर्य… इदन्नु ऎङ्गनेयॆन्नि ल् सु उपपादिसुत्तारॆ- - अदागि सर्वपापङ्गळुवम्त् क0न्दाल् इत्यादि - सर्वपापगळू तॊलगिदरॆ भगनदनुभननन्नु पडॆयदॆ इरुवुदक्कॆ कारणविल्लदिरुवुदरिन्द आग भगवदनुभव रहितवाद आत्ममात्रानुभववु घटसुवुदिल्ल. । 2) वेद्योपादेय भावानां अष्टमे भेदउच्कते ॥ ऎम्बुदु उत्तरार्ध . गीतार्थ सङ्ग्रह (12) - ईषत्व्वृत्करुणा निरीक्षण सुधासन्धुक्षणाद्द क्ष्यते नष्ट ठम्प्राक्तदलाभतस्ति भुवनं सम्प्र त्य नन्तोदयम् । श्रेयोन हर विन्दलोचन मनः कान्ताप्प सादादृते R संस्कृत्यक्षर वैष्णवाध्वसु नृणां सम्भाव्यते कर्हिचित् ॥ (चतुश्लोकि-3)
- सर्वधर्मांश्च सन्त्यज्य, सर्वकामांश्च साक्षरान् । लोक विक्रान्त चरणौ शरणं तेंव्रजं विभो ॥ कर्म योगादि सिर्व धर्मगळन्नू बिट्टु. ऐश्वर्य कैवल्यादिगळल्लि आसॆयन्नु बिट्टु मूरु लोकगळन्नू अळॆद निन्न चरण द्वन्द्वगळन्नु ऎलै विभुवे शरण हॊन्दिद्देनॆ. (विहगेश्वर, संहितॆ) चरमश्लोकाधिकारः मात्रासुभनम्, घटयादु. आहैॆयाल् अव्रनसॆ वनस्मृ्ययिल् हादि मःखङ्गळुवु् वरुहै क €डान कर ज्नळ् कनु ऐश्वर्यमुवर् जरामर भनन भगवदनुभवत्तूक्कु प्रतिबन्धकमान कर ऎिकटगयादे किडकि “आवळिनिले ।: “यं. मन्यते नाधिकं ततः” ऎन्नु म्रु डियिरुप्पदू इरु सा ठा नु स इनम्पविशेष-र्. लबा ऎव _चापरं 2) लाभं “आता र्थीचेत् त त्रयोप्येते इरुस्प दॊरु उपाय ततॆ पल्यस क इरर क शॊल्लुहिरपॆडिये :तनक्कु शक्य माय् निशेष त्राले सिद्धित्त ना अचिदनुभवक्कॊोडुवर् ; तुवक्क ल्लाद पडियाले कॆ नल्यमॆन्सु पेरि टा 5५४९. स 1176 “क भ गनठा तॆ नि रॆ यिल् Ko कॆ फ् न’लशब ल्यशब्दनं न् इरॊ सर्फोषपु हानि धनि वृ श्र्रिं” ध्र निन्फक्किरदं. आत्ममात्रा इ ऎण इ . रा ऎ ्स (। आहैयाल् इ इत्यादि - आद्द रन्द आ अवनॆ यल्लि ऐश्वर्य वू जरामुरणादि दुःखगळू इम्बागुवुदक्कॆ कारणगळाद करुगळु निवर्तगळागि नरिपू र्ण भगव नुभ वक्कै प्ल प्रतिबन्धकवाद कर्मगळु होगदे इरुव सन्दर्भदल्लि, 1) “यंलब्भा -जिाम्परंलाभं इत्यादि - याव कैवल्य पुरुसार्थवन्नु पडॆदकि इदक्कॆ जीरॆयाद मत्तु अधिकवाद पुरुषार्थवु इल्लवॆन्दु तिळियुत्तानॆयो, इत्यादि हेळिरुवुदॆल्ला प्राकृत ब्रह्मादि पदिवी रूपवाद ऐश्वर्यक्किन्त मेलॆन्दु हेळल्पडुव स्वात्मानन्द विशेष. इष्टे विनह शाश्वतवाद भगवत्प्राः गॆ सदृशवल्ल. (2) आत्मार्थीचेत् इत्यादि हेळुवन्तॆ तनगॆ शक्यवागिरुव , ऒन्दु षस विशेषदिन्द सिद्धिसिद ई अनुभववु अचिदनुभनदॊडनॆयॊू भगवदनुभवजॊडनॆयू तुवक्कु - सम्बन्धविल्लदिरुव्रदरिन्द, इदन्नु कैनल्यनॆन्दु हॆसरिट्टरु. इदु भगनत्प्राप्तिगिन्त बेरॆयाद प्रकृति मुण्डॆलदॊळगॆ लभिसुव आनन्द. इदू नश्वरवे. आवत क्त कैनल्य शब्ददिन्द व्यवहरिसुवुदर शात्रर्य. कैनल्य शब्दवु योगव्रुत्पत्तियिन्दल्ल. मत्तीनॆन्दरॆ परिभाषॆ. “यदास केनलीभूतः” इत्यादिगळल्लि भगवश्छास्तियल्लि कैनल्य शब्दक्कॆ मुख्य वृत्तियाद्दरिन्द, इदु सर्वपास निवृत्ति यन्नु ज्ञा फिसुत्त निम्मदु भॆगनतसप्ति यल् ऎन्दारम्भिसि तिळिसुत्तारॆ. अदागि भगवत्प्रान्तियल्लि कैनल्य शब्द प्रयोगवु सर्व पास निवृत्तियन्नु तिळिसुत्तदॆ. आत मात्रानुभव निषय
- यंलब्य्याचा$परं लाभं मन्यते नाधिकन्ततः । यस्मिन् स्थितो नदुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ भगवद्गीतॆ 6-22 वः कैवल्य प्ररुषार्थवन्नु पडॆदवनु इदक्कॆ मेलाद आनन्दविल्लवॆन्दू, ई कैवल्मानन्दानुभवदल्लि इरुववनिगॆ. सत्बुत्र मरण शोकवु एर्पट्टरू मनस्सु चलिसुवुदिल्ल. 2) भक्तियोगस्तदर्थीचेत् समग्रैश्वर्य साधकः । आत्मूर्थीचेत् त्र योप्येते तत्कॆ,वल्यस्य साधकाः ॥ गीतार्थ सङ्ग्रहॆ (27) पूर्णवाद ऐश्व रृदल्लि आसॆ युळ्ळ वनिगॆ भक्तियोगवु आ ऐश्वर्यवन; ह साधिसिकॊडुत्तदॆ, कर्मज्ञान भक्तियोगगळु, स्वात्मानुभवदल्लि ~ 6 आसॆयुळ्ळॆ ळॆ मैन वनिगॆ. आ जीव जीवात्मानुभववाद कैवल्कवन लव- 2 3 साधिसि ग कॊड ळि «ऎडॆ ४, 1177 श्री मद्रहस्यत्रयसाके नुभन निषयनमाह 3 उ"स्वात्मानुभूति`ति याकिल मुक्तिरुक्ता? इत्यादिहळिल् प्रयक्क मान मुक्तिशब्दवंवम् 4) “निगतेच्छाभयक्ट्पोधोयनस्सदा मुक्त एनसः?इत्यादि हळिर्पोले निर्काह्यैम्. 5) “जरावारण मोक्नाय? ऎन्रदुवुन् देनर्हळुडैय अमरत्वव्यपदेशम्रोले आसेक्षिकम्. क्रमेण मुक्तिसरृन्तमाम् विषयुत्तॆ ैस्पृत्त, च्हॊल्लंहिरदाहवुवराव् .इप्पडि निभनव्यूह सालोक्यादि मात्रत्तिल् मुक्ति शब्दमुम् निर्वाह्यवर्, ET LB BE लात वव माह इत्यादि - आत्म मात्रद आनुभव विषयवागि, (3) “सात्मानुभूतिरितियाकिलमङ्क्ति, रुक्ता” इत्यादिगळल्लि प्रयुक्तवार मुक्तिशब्दवू, (4) विगतेच्छाभॆयक्रोधो यस्सदा मुक्तएवसः? इत्यादिगळल्लि प्रयोगिसिरुनेतॆ निर्वहिसबेकु. आ स्थळदल्लि मुक्त शब्दक्कॆ कॆलवु पासगळन्नु मात्र होग खूडिसुत्तदॆ ऎङ्गु अर्थ माडुवन्तॆ आत्मानुभूतियॆन्नु मुक्ति शब्ददिन्द वृवहरिसिरुवुदू अदे अर्थदल्लि ऎङ्गु तात्पर्य. (5) “जरामरण मोक्षाय’- मुदितन, मरण इवुगळ मोक्षक्कागि अन्दरॆ इवु उम्बागदिरलु, ऎम्बल्लि मोक्ष- शब्दवु देवतॆगळ अमरत्वद हागॆ आसेक्षिकवागि निर्वाह्यवु. “क्रमेणमुक्तिपॆर्यन्तमाम् इत्यादि - क्रमवागि मुक्ति पर्यन्तवागि उण्टागुव विषयॆननन्नु कुरितु हेळुवुदागियू अर्थ माड बहुदु. इप्पडि इत्यादि - हीगॆ निभन व्यूह सालोक्कादि मात्रदल्लियू मुक्ति शब्दवु घर राजारायर अपार्
- भोगा इमे विधििवादि पदञ्च किञ्च स्वात्मानुभूतिरिति या किल मुक्तिरुक्ता । सर्वं तदूप जलजोष महं जुषेय हस्त्यद्रिनाथ तव दास्य महा रसज्ञः ॥ वरदराजस्तव. (81) - चितुर्मुख ब्रह्मदेव, ’ परमशिव, महेन्द्र मॊदलादवर ऐश्वर्यरूप भोगवू, जन्म… जरा, : मरणगळिन्द मुक्तवाद केवल स्वात्मानुभव रूपवाद मुक्तियू (कैवल्यवू) सह ऎलै हस्त्यद्धिनाथ निन्न रृकंर्श रूप महारसवन्नु रुचि नोडिद नानु, ऊषजलजोषं - उप्प नीरन्नु. रुचि नोडिदन्तॆ, :जुषेय - असारवागि : तिळियु इनॆ-
- यतेन्द्रिय मनोबुद्दिः’ मुनिर्मोक्स परायणः ट विगतेच्छाभय क्रोधो यस्सदा मुक्त एवसः ॥ इन्द्रियगळु, मनस्सु, बुद्धि मॊदलादवुगळन्नु `अडगिसिकॊण्ड्कु, मनन शीलनागि स्वात्मानुभव रूप मोक्ष परायणनागि, इच्छुभय क्रोधगळिल्लदॆ इरुववनु प्राप्य दशॆयुल्लल्लदॆ, उपाय ,दशॆयल्लियू मुक तुल्कनागुत्तानॆ.
- जरामरण मोक्षाय मामाश्रित्य यतन्तिये । ते ब्रह्म तद्विदुःकृत्स्नं आध्यात्मं’ कर्मचाखिलम् ॥ द्रॆ रणमरणगॆबी दॆ ऎ ps पि- खरिरुनिष प गीतॆ (7-29) जरामरणगळिल्लदॆ आन्दरॆ प्रकृति वियुक्त आत्म स्वरूपवन्नु साक्षात्करिसलु नन्नन्नु यारु उपासनॆ माडुत्तारॆयो अवरु आ ब्रह्म - शुद्ध जीव स्वरूपवन्नू, प्रकृति स्वरू वन्नू, शरीरोत्पत्तिगॆ तिळिदवरु. डि ‘चरमक्कॊ काधिकारः 1178 1) लोकेषुनिष्टॊ ेर्निनसस्ति केचि अन्येतुरूपं ‘सदृ शं ‘भजन्रे नियनिक्क स स रट्ट दिरे.इदिल् कॊस्न सायुद्यर्म्न केवल भवन म् नित्य मन्रॆ नु) निडमुवमा्, 2) चतुरि धा मवञ्जना भक्ता एवहिसे तृनीप मृच्चनिि च केचिदन्ने । सायुज्यन र्य सतुत “तुनॆ अध्यअत्पक्कि » ५ ऎनु रमहपद किल वनुडॆ स यभोगसाम्युवर् साकण नॊ हन सत्रॆक्तु २. नण्डमम्म्, श्रु ताः । न स्न मेक्ानि निष श्रेष्ट सॆ- च्छैवानः देवताः । अहमोव गस स निराशीः कर्म ढि । येतु शिष्टास्त्रयो भक्ताः फरक् इमा हि शे मताः । सर्वॆ € च्यवन “स्या प्र तिबुद्ध स्तु वॆ गीक्षभाक* ऎन्नि वचनत्ता प सिद्ध ज् कैनल्य निष्ठॊ पिक क्रमेण नूुकॊ 2 भवतीत्काह. 3) “मुच्येतार्रस्तथा रोगा त् कुत्त € मा मादितः कथाम् । जिज्ञासुर्ललभते भक्तिं भक्को भॆक्तगतिं लभेत् । निर्नाह्यम् - निर्वहिसतक कद्दु. (1) लोकेषु विष्णो र्निवसन्तिकेचित् इत्यादि - नलनरु विष्णु लोकदल्लि वासवागिद्दाकॆ, कॆलवरु विष्णुलो कक सनमीसदल्लिद्दारॆ, मत्तॆ कॆलवरु “*गॆनॆन्तनिगॆ सद वशवाद रूपवन्नु हॊन्दिद्दारॆ. ई सालॆ लोक्य, सामीप्य सादृश्यादिगळॆल्ला सायुज्य शब्दा र् सायुुज्यमन्ये ‘सतुमोक्षउक- - मत्तॆ कॆलवरु सायुज्यवन्नु पडॆदिद्दा स सयुजोभानः सायुज्यर्म - समान भोगनत्त. इदे मोक्तवॆन्दर्थनागि नियमिक्क सट्टिदिरे व्यवस्थॆ गॊळिसल्पट्ट जि. इदिल् शॊन्न सायु जृवर् इत्यादि - इल्लि हेळिद सायज्यवु सरम’ पदवन्नु हॊन्दिदवनु. भगवन्तनिगॆ भत स औ भोगसान्यु वन्नु सडॆयुवु जॆन्दर्थ. केनलात्मानुभवम् इत्यादि-केवलात्मुनुभववु नित्यनल्लवॆ हट साक्षान्मोक्षवल्ल नॆम्बुदू, (2) चतुर्निधाभजन्तेमाम् इत्यादियागि हेळुव वचनदल्लि च्यनन ‘धर्नु न्न्लुळ्ळवरु - अन्दरॆ आयाया स्थानदिन्द जारिकॊळ्ळतळ्ळवरु ऎन्दु हेळिरुव वचनदिन्द सिद्ध. केवलात्मानुभववु अनित्य - शाश्वतवादद्दल्ल. सर्वेच वन धर्नाणः ऎन्दु हेळिरुत्तदॆ. इवरुगळ मध्यॆ नगळ भनवतनक्कॆ € उपायवन्नागियू पा प्रास्यनन्ना गियू निश्च यिसिरुववरु. वरङ्गळति अनन्यदै वतकरु. बेकॆयॊब्ब नन्नु सरजीवतॆयन्ना गि भानिसरनरु. नहि- कर्म 55S - प्रयोजनान्तरदल्लि असॆयिल्लदॆ कैङ्कर्यवन्नु माडुव इवरिगॆ अहमेवगतिः - नाने गति. येतुशिष्टाः इत्यादि - उळिद मूवरु भक्तरु नूतन ऐश्वर्य, भ्रष्ट्टैश्चर्य, कैवल्य गळल्लि आसॆ सॆयुळ्ळ ई प्र तिबुद्ध स्तु - भगवन्तने उपाय उपेयनॆम्ब बुद्धियुळ्ळॆ विलक्षणा धिकारियो, मोक्षभाक् - नोक्षनन्नु पडॆयतक्कवनु. इदरिन्द जिज्ञा खक फलवागि हेळल्पट्ट, कैनल्यवु मोक्षवल्लनॆन्दु हेळिदन्तायितु. (3) मञ्च्छेतार्तस्मथारोगात् इत्यादि - आर्तः - नष्टवाद द्रन्यदल्लि अभिलाषॆयुळ्ळॆ ननु रोगात् - ऐश्वर्यवु ध्वंसवायितल्ला ऎम्ब रोगदिन्द, श्रुत्वेमामादितः कथान् - नक - बिडल्पडुत्तानॆ. नस्कैश्वरैनवु लभिसुत्तदॆ ई महाभारत कथॆयन्नु मॊदलिनिन्द केळिदरॆ जिज्ञासुः - कैनल्य निष्ठनु, भक्तिं
- शि भा गवत 2) भारत शान्ति पर्व 3२0- ६२.23२ त) भारत श.0ति पर्व 348-8! 1179 श्रीमुद्रहस्कत्रयसारे ऎन्नैयाले फी गीतॆयिल् “जिज्ञासुः? ऎन्सिर आत्मनिस्मनुम् क्रमेण ज्ञानिया मॆन्रु उक्तवतायित्तु. भगनदनुभनं नित्यम्, घॆ वल्य मनित्यमिति नम्माळ्वार् पाशुर मुदाहरति.
- मन्नुरिल्? ऎन्रु भगवदनुभवत्तॆ 2 नित्यमॆन्नॆ यालुम् बदुकु व्यनच्छै “द्य माहच्छॊ अम् आत मात्रानुभनम् नित्य मन्रैन्नु डं व्यञ्जितम्. इदुक्कु 5) आ ऎरु दिकूडा” इत्यादिहळिल् नाशमिल्लॆ ऎन्नि ET सकस चातुर्मास्यादि कर्म फल विशेषज्गळिल् अस्षय्यत्तोक्तिपोले ओक योगि” ऎन्लिर अतिचिरळालस्था यन्ता” भिप्रायम्. लभते - क्रमेण भगवन्तनल्लि सरभक्तियन्नु हॊण्ड, भक्तगतिंलभेत् - भक्तरुगळिगॆ पा ))स्यवाद मोक्षवन्नु सडॆयुत्तानॆ, ऎन्हैयाले इत्यादि - ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द श्री गीतॆयल्लि “जिज्ञ्ञासुः? ऎम्ब आत्म निष्कनू क्रमेण ज्ञ्यानियागुत्तानॆन्दु हेळल्पट्कतु. (4) मन्न्नुरिल् - नित्यवागिरलु आसॆसट्टक्कॆ ऎन्दु भगवदनुभननन्नु सित्यवॆन्दु हेळुवुदरिन्दल्कू इदुक्कु व्यवच्छेद्य माहच्चॊल्लुव् इत्यादि - इदक्किन्त बेरॆयागि हेळल्पडुव आत्ममात्रानुभनवु नित्य वल्लिवॆम्बुदु व्यञ्जितम् - प्रशाशितवु. इषुक्कु (5) इरुदिकूडा इत्यादि - ई आत्मानु भवक्कॆ नाशविल्लवॆन्दु हेळुव पाशुरवू चातुर्मास्यादि इत्यादि - “अक्षय्यं हनै चातुर्मास्य याजिनः सुकृतम्भवति”, ऎन्दु चातुर्मास्यादि कर्मगळिगॆ विशेषवाद फलवन्नु हेळुवाग “अक्षय्यम्? - क्षयविल्लदुदु. ऎम्ब उक्तिय हागॆ ऎनैय्यखूगि - बहळ कल्पगळु. ऎन्दनु हेळिरुवुदु ई स्वात्मानुभव रूप कैनल्यानन्दन्र चिरकाल स्थायि - बहळ कालनिरुत्तदॆ ऎम्ब अभिप्रायदिन्द हेळल्पट्टिदॆये हॊरतु इदु नित्यनल्लवॆन्दु तात्पर्य.
- अत्तदु पत्तॆनिल्, उट्टदु वीडुयिर् शॆट्रदु मन्नुरिल् अट्ररै पश्ते ॥ तिरुमाय् वॆ मॊट (11278) विषय सुखगळल्लि आसयमन्नु बिट्टवनन्तर शरीरक्किन्त बेरॆयाद सुख रूपवाद अता नुभव रूप कैवल्यानन्दवन्नु पडॆ. नित्यवाद भगवत्ता _प्तियन्नु पडॆयलु अपेक्षिसिदरॆ आ कैवल्यदल्लि आसॆयन्नु बिट्टु, भगवन्तनन्नु आश्रयिसु. ह
- कुरुहानीळा इरुदिकूडा ऎन्नॆयूट्ञि शिरुहा पॆहा अळविलिन्फम् शेर्हालुम् । मरुहालिन्सि मायोन् उनक्कॆ € याळाहुम् शिरुकालत्तॆ यूरुमो य तॆरियिले ॥ तिरुवाय् म्मूऔ (6-9-10) स्वरूपदल्लि सङ्कोच विकाशविल्लदॆ, बहळ काल नाशविल्लद अन्दरॆ चिरकाल स्मायियाद, स्वल्प, अधिकवॆम्ब व्य त्यासविल्लदॆ अळतॆयिल्लद स्वात्मानुभव रूप आनन्दवन्न्न पडॆदरू, आश्चर गुणचेष्मितनाद भगवन्तने [ तॆरियिल् - निरूपिसि नोडिदरॆ, मरुकालिन्रि - ऎरडने सलवॆन्दु हेळदॆ, क्षणमात ६ ऎद्दरू, निनगॆ दासनागिद्दु आनुभविसुव कृङ्कर्य रसद आत्मल्प कालक्कॆ कैवल्मानन्दवु समवागुत्तदॆये, इल्लवॆन्दं हेळबेकु. ।चरमश्लोकाधिकार-ः 1180 केवलानां स्थानात् ब्र हॊ बनौहासकानां स्थानं भिन्न मिति प्रमाणं दर्शयति
- योगिना ममृ तंसा नं स्वात सन्तोष कारिणाम् .ऎन्रु इव्वाता नुभवस्था ननिकीष मुम्कॊल्लप्प ट्र “स इस्लान ऐशेषमुम् परमुद म सक निडम् इ प्रकरणन्तन्न्न ले 2) विकास्ति न स्सदा ब्रह्मध्यायिनो योगिनो हि ये तेषां तत्परमं स्थानं यद्वॆ पश्यन्तिसूरयः ।” ऎन्रु भगवत्पा स्ति कामनान परमैॆ कान्ति क्कु सूरिद ृशैषळान स्था इन्नरव् शॊल्लुहैयाले सिद वर्. कैवल्य लोकवु प प्रकृति मण्डलदॊळगॆ ध्रुव मण्डलक्कॆ मेलॆ इरु स्थान निशेष स्वात्मानुभवस्था नवु परमसददल्लि ऒन्दु मूलॆ ऎन्दु कॆलनरु हेळुत्तारॆयॆल्ला. परम पदवु नित्य स्था नवाद्दरिन्द, व्र कैनल्य स्मानवू नित्यवाद स्थानवे? ऎम्ब आक्षेपक्कॆ समाधानवागि योगिनामुम्बुतं स्कानवं् ऎन्दारम्भिसि आनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि स्वात्मानु भव रूस अनॆन्दनन्नुळ्ळ योगिगळिगॆ “अन्भुतं स्थानं?” ऎन्दु स्थान विशेषवु हेळल्पट्टिदॆ. “अमृ तंस्का नं. ऎम्बुदु नवनु. ‘अस्नान विशेषम् ऎन्दारम्भिसि विवरिसुत्तारॆ. प्र स्का न ‘निशीष सरमसदवल्लवॆम्बुदु ई प्रकरणदल्लि ( ) एकान्तिनस्स दा ब्रह्मध्यायिनॊ इत्यादि - भगवत्भ्रास्ति कामनाद परमै कान्तिगॆ अन्दरॆ सदा परब्रह्मध्यान माडुव योगिगळिगॆ, नित्यसूरिगळु साक्षात्यरिसि कॊण्डिरुव आ परमस्कानवॆन्दु प्रतैैेकवागि ऒन्दु स्थान विशेषवु हेळल्पट्टिरुवुदरिन्द, कैवल्य निष्कनिगॆ ई परम स्म्यानक्किन्त बेकॆयाद स्थाननॆम्बुदु सिद्ध. मेलू ई प्रकरणदल्लि “प्र्राजासत्यं ब्राह्मणानां” ऎन्दारम्भिसि अर्वाचीनवाद स्थान विशेषगळन्नु हेळि बरुत्ता, ई श्लोक व्याख्यानदल्लि विष्णु चित्तीयदल्लि, “योगिनामिति आश्रमिष्टेव येप्रतीकोपासकाः योगिनः तेषां अमृत मिति, विष्णु सद्याख्यं, ध्रुवा दुपरिस्कानं, यतोगङ्गा प्रनहतीति नक्ष्यमाणं”, ऎन्दु, केवल जीवनन्नु स्वरूप दि-दलो ब्रह्मदृष्टियिन्दरो उपासनॆ माडुव प्राण विद्या निष्कनाद प्रतीकोपासकनिगॆ सा ननॆद्यू. kl धु व मण्डलक्कॆ मेलॆ गङ्गॆयु प्रवहिसि बरुव स्थानवॆन्दू " हेळिरुवुद व्य प्रकृति मण्डलदॊळगिरुव ई कैनल्य लोकवु, परमसदनागलारदु. ई कैवल्य लोकवु अनित्य. परमसददन्तॆ शाश्वतवल्ल.
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- एष्टु पुराण 1-6-39 सदा परब्रह्मनन्नु ध्यान माडुव योगिगळिगॆ आ “परमंस्का नं” ऎन्दु हेळल्पडुव परमपद स्थानवु लभिसुत्तदॆ, आ परमपदवु सूरि दृश्यवाद स्थान वि विशेष. अन्दरॆ नित्यसूरिगळु सदा आल्लि वास माडुत्ता भगवन्तनन्नु साक्षात्य रिसिकॊण्डु सामगान माडुत्तिरुव स्थान विशेषवु अदु, प्ररुष सूक्तदल्लि ई स्थान वि विशेषवु “नाकं महिमन” ऎन्दु हेळल्पट ट्टु “यत्रपूर्वे साभ्याः सन्तिदेवाः” ऎन्दु नित्यसूरिगळु अल्लि वासमाडुत्तिद्दारॆयॆन्दु हेळल्पट्टिदॆ. 1181 । श्री मुद्रॆहस्यत्रयसारे पञ्चाग्नि निद्यादिहळिर् चॊन्न ब्रह्मात्मक स्वात्मानुसन्धाननु् पण्णुवारुु भाष्यादि हळिले अर्चिरादिगतियुव् ब्रह्मष्पापि,युर्म कॆॊल्लप्पट्टिदु. आहैयाल् इप्पञ्चाग्नि निद्यानिष्मर्कु आत्ममात्रानुभवरूपमान अवान्तर फलम् वन्नालुम् मधु विद्या न्यायत्ताले ब्रह्मष्राप्ति पर्यन्त वाय् विडुवम्. केनलजीवात्मोषासकानां न ब्रह साहि प्रकृति संसृष्टनायादल्, प्रकृतिनियुक्त मायादल्, इरुक्कुम् इव्वात्मवस्तुवै स रूपेणवादल् ब्रह्मदृषि याले ादल् पणुवर् अनुसन्धानङ्गळ् नालुक्कुवर् नामाद्युषासनज्गळुक्ळुप्पोले आर्चॆरादिगतियुवं् ब्रह्मप्रास्तियखवनं इल्लैयॆनु मिडतॆ “अस्रतीकालंएनासन्न यतीति बादरायणः उभयधाच दोषात् तत्सृ EY TEESE TEE. पञ्चाग्नि सञ्च द्मु विद्यानिष्मनिगि इदा. निह निगॆ कृनल्ल हॆ ब्रप्ति म् इ पूर्वक मोक्ष प्राप्ति. हागादरॆ ब्रह्मात्मक स्वात्मानु सन्धान रूपवाद पञ्चाग्मि’ विद्यानिस्कनिगॆ विघ्नवागि बरुव स्वात्मानुभनवु “योगिनाममृतंस्क्यानं” ऎन्दु हेळल्पट्ट ई कैनल्य लोकदल्लियॆः एर्पडुत्तदॆ ऎन्दु हेळबेकल्लवे. ई लोकवु अनिश्यनॆन्दरॆ सञ्चाग्नि विद्यानिस्मनिगॆ बरुवॆ फलवु निक्यवॆन्दु हेळिरुवुदु विरोधिसुत्तदॆयॆल्ला ऎन्दु आक्षेप. माडिकोडु इदक्कॆ- पञ्जणग्नि विद्यादिहळिल् शॊन्न ऎन्दारम्भिसि समाधानवन्नु हेळुत्तारॆ. अदागि सञ्चाग्लि विद्यॆ मॊदलारवुगळल्लि हेळल्पट्ट ब्रह्मात्मक स्वात्मानु सन्धाननन्नु माडुनवनरिगॆ भाष्यादि गळल्लि अर्चिरादिगळीयू ब्रह्मप्राप्तियू हेळल्पट्टिदॆ. आहैयॊाल* इत्यादि - आग्चरिन्द पञ्चाग विद्यानिष्ठरिगॆ आत्ममात्रानुभनरूस अवान्तर फलवु र्पट्टरू, मध- विद्या न्यायदन्तॆ, पञ्चाग्मि विद्यॆयल्लि हेळिरानन्तॆ “अर्चिसमेव तेसर्वेगच्छन्ति $y. स बनान “ब्रह्म गमयति”, ऎन्दु हेळिद ब्रह्म प्रासि रूप नित्यफलनु सिद्धि सुवुदरिन्द यान विरोधवू इल्ल. मधु निद्यान्यायवु यावुदॆन्दरॆ, “आसौना आदित्यो देव ुधा ॐदु सूर्यनन्नु “मध्यु?वन्नागि : ८ पासनॆ माडुव मधुविद्यानिस्मनिगॆ नस्वादिसद पापि, -रूस अवान्तॆक फलवु अनित्यवागि एर्पट्टु, अनन्तर, “अथतत एत्य सैनोदेता नास्तमेत्य एकल एव मध्येस्थाता” ऎन्दु हेळल्पट्ट ब्रह्मप्रासि,रूप नित्य फल सिद्धियुउण्टागुत्तदॆ ऎं-निनु अदेरीतियल्लि सञ्चाग्नि निद्यानिष्कनिगू आनित्यवाद कैनल्य लोक प्रास्त्रिय एर्पट्टु स्वात्मानुभव रूप आनन्दवु लभिसि, अनन्तर सरमॆ पद प्रास्त्रिय लभिसुत्तदॆ. आग्बरिन्द कैवल्य स्थानवू कैनल्यानु भववू अनिक्यवॆम्ब सिद्धान्तक्कॆ याव भङ्गवू इल्लनॆन्दु तात्सर्य. ` मील ऎ केवल जीवनन्नु उपासनॆ माडुववनिगॆ ब्रह फि हेळिदन्त नलि गडॆ विष्णु pus सधनॆम्ब कैनल्य इ स्थानदल्लि स्तात्मानुभननन्नु ज्या LT ५ ल) ट् माडुव केवलरु गळल्लि इं पञ्चाग्लि विद्या च्या सिष्कनाद क्ट का केवलनिगॆ ई 3 खि “आ अनुभववु A , मुक्ति सर्मन्तनॆन्दरॆ, । 9 प्राण विद्या निस्मरुगळागि स इल्लवॆन्दु स्टात्मानुभवनन्न्ट्नु ms es माडुव. ज् केवलरिगॆ फे सिद्धान्तवन्नु प्रकृति संस्पपनरनायादल् NA आ ग् सिह्म ड् प्राप्तियु इल्लवे ि बन्दरॆ, ऎन्दारम्भिसि हेळुत्तारॆ. श्र ४ ष्ट इरम्भिसि आचार्यरु. कृषॆमाडि अदागि ०६ ड् प्रकृति २ संस्कृष्ट pe इ इल्ल तां प्रसृतियू. द जा यं घन ग नॆ. कूडिदवनागियागल्लि 4 4 ME e pe, प्रकृति ह sf सम्बन्धविल्लदॆ x चरमकॊ ज् x. 162 तुश्च ५ ऎन्नि र सूत्र त्रि लेयुरुळिच्छॆ यत् दार्. “श्रु तोपनिषत्क गत भिदानाज्म’ ऎस्पि रसूत्र त्रिलुम् ऒरुविद्या विशेष ई उपास्यनॆ बडु नॆन क्कु अर्चि be नस. हेतुवाहक्कॊण्डु साधिक्सै याले जीवमातॊ ब्रीसासनतु, कु ‘अर्चॆरादिगॆतियिल्लॆ -ऎन्रु मिडम् सिद्ध मायित्तु,. आहैयाल् ब्रह्मप्राप्तियिल्लादार्गु इश्लोकत्तिल् च्लॊल्लुहिर सर्वपाप निवृत्ति पतसरग शुद्धनागियागलि इरुव आत्मॆ वस्तुवन्नु स्वरूसदिन्दागलि ब्रह्म- दृष्ठि यिन्दागलि माडुव नाल्कु विध अनुसन्धानगळिगू, “जानुब्र हेतु पासीत” ऎम्ब टा ४- नामवन्नु ब्रह्म वॆन्दु उपासनॆ माडुव रीतियल्लि आटहधिसंयू ब्रह्म प्रास्तियू इल्लनॆम्बुदन्नु सूत्र काररु “अप्रतिकालम्ब नान्नयतीति” ऎम्ब सूत्रदल्लि हेळिरुत्तारॆ. अदागि आत्मोपासनॆयन्नु माड ववरु ऐदु विध. स्वात्म विशेष्यक ब्रह्मात्मः क्वि प्रकारकनु पञ्चाग्नि निद्यानिष्ठनु. ई सञ्चाग्लि विद्यॆयल्लि सरिस पूर्णवःज ब्रह्मने स्पात्काविगॆ सक् तोरुवुदरिन्द. इदू ब्रह्मोपास de वेदान्त सारदल्लि भाष्यकाररु, उभयेनिहि परिपूर्ण ब्रह्मो पासते मुखभेदेन” ऎन्दु हेळिरुत्तारॆ. अदागि ब्रह्म विशेष्यक अहॆमर्थ प्रकारकनाद “ब्रह्माहॆम स्थि ऎन्दु उपासनॆ माडुन ब्रह्म विद्या निस्मनिगॊ, स्वात्म विशेष्यक ब्रह्म प्रकारकवाद “अहम्ब्रह्मास्मि’ ऎन्दु उपासनॆ माडुव सञ्चाग्गि विद्याहिस्ठनिगू उपासनदल्लि विशेष्य प्रकारगळ व्यत्यासविग्स्रू आ इब्बरू परिपूर्ण ब्रह्मवन्ने उपासनॆ माडुत्तारॆम्बुदु अदर अर्थ. इदरिन्दागि सञ्चाग्गि “विद्यानिष्यनू ब्रह्मो पासकनाद्दरिन्द अवनिगॆ स्वात्मानुभन रूप कैनल्यवु भगवदनुभव पर्यन्तवागुत्तदॆ. प्राण विद्या निष्ठराद केवलरु ऎरडु विध. आनरुगळु प्रकृति विशिष्ट जे ब्रह दृष्टियिन्दलो, ग उपासनॆ माडुवनरु. हागॆये प कति नियुक्त (ननन्नु ब्रह्म दृष्टियिन्दलो स्नरूपदिन्दरो उपासनॆ माडुननरु इब्बरु. ई नाल्कु बसन ब्रह्मक्कॆ “सॆकीकवाद - हू जीन मात्रोपासकरुगळाद्द हथ नामाद्युपासकरुगळ हागॆ प्रतिकोपासकरुगळु. “अप्रतीकालम्बनान्नयतीतिबादरायणः इ उभयथाचजोषात, त्त्र्रतुश्च्र, ऎम्ब ब्रह्म सूत्रद (4-8-14) प्रकार, प्रतिकोपासननल्लदॆ, ब्रह्मनन्नु साक्टात्तागियो, प्रकृति नियुक्तात्मनन्नु ब्रह्मात्मकवागियॊ उपासनॆ माडुवनरन्नु मात्र अर्चिराद्याति वाहकरु मोक्षक्कॆ करॆदॊय्युत्तारॆ. बारॆ प्रतीकोपासकरगळन्नु मोक्षक्कॆ करॆडॊय्युवुदिल्ल. आद्दरिन्द इनरुगळिगॆ स्वात्मानुभववु अर्चिरादि मार्गदिन्द ब्रह्म प्रास्ति सर्यन्तनागुवुदिल्ल. शु २) तोपनिषत्य गत्यभिधानाच्ह (ब्रह्म सूत्र 1-2-17) ऎम्ब सूत्रॆदल्लियू ऒरुनिद्यानिशेसषत्ति, ला - उपास्यनु परमात्मा- नॆन्दु साधिसुवुदक्कॆ आ विद्यॆयल्लि अर्चिरादि मार्गवन्नु हेतुवागिकॊण्डु साधिसिरुवुदरिन्द चीन मात नासकल! अर्चिरादिगतियिल्लवॆम्बुदु सिद्दवायितु. आहै यल् इत्यादि - आद्द रिन्द ब्रह्म इ तह ई चरमश्लोकदल्ल हेळुन सर्व पान. निवृत्तियिल्ल. अन्दरि कैवल्यद ल्लि सर्व पास निन्नत्तियिल्लदॆ इरुवुदरिन्द केनलात्मानुभववुळ्ळवनिगॆ ब्रह्म प्रासियिल. कतल पुरुषार्थवू अनित्यनॆन्दु अर्थ,
- श्रीमद्रहसत्र्रयसारे यिल्ल. सर साप निवृत्तियुडैयार्कु ब्रह्मानुभव संहोचनिंल्लॆ 2 अनिष्ट निवृत्ता ) इष्टप्राप्रि सिद्धिरिति उससंहारः इप्पडि इण्लु सर्वपाप निवृत्तिय्सॆ ज्हॊल्लुकैयाले केवलात्थानुभवत्तिर्कु क्यारण माय् परिपूर्णब्रह्मानुभवत्तु क्सु स्रतिबन्धकमान कर्मनिशेषवंिव् क[१हैयाले आमामेनैष्यसि” ऎन्रु कल्ट् श्लोकत्तिल् चॊन्न अर्थवु इङ्गुवु् सिद्धमायित्तु “मामेवैष्यसि” ऎन्निर प्राप्ति यावुदु, पंसूर्जानुभववर् इस्ट डि सॆरिपूर्णानुभव सिद्दिक्काह अर्चिरादिगतियु व् देशनिकीष प्राप्तियुमुण्णाहिरदु. इक्कॆ २मत्तिले इव्वनुभननर् कॊडुस्पदाह स्वतन्त्रन् अनादियाह नियमित्तु वैत्तानन्रुवमिण्डवं्, इग्गशि; शीषादिहळ्ळि प्रतिसादिक्कर शास्त्रज्ञळाले सिद्धम्. इग तिनिशेषत्तुक , मुनु शास्थ्यत्काले बृह्मस्नरूपतॆ यरिहिरपोदुम्, योग १ २ 1 तॆ ब el; इवि BE व ल श्ताले साक्तात्करिकैरपफोदुम्, निभनलोकादिहळिल् प्रापिक्टुम् पोदुम्, निरक्ळुं जन मू सर्व पाह निवृत्तियुडैयार्कु इत्यादि - सर्नपास नितृत्तियुळ्ळनङ्गॆ ब्रस्मानुभव सङ्कोचनिल्ल. : प्रडि इङ्गु इत्यादि - हीगॆ ई चरमश्लोकदल्लि सर्व, पाप निवृत्तियन्नु हेळुवुदरिन्द केनलात्मानुभवक्कॆ कारणवागि परिपूर्ण ब्रह्मानुभवक्कॆ प्रकिबन्धकवाद कर्म विशेषवु कळॆयुवुदरिन्द, “मामे वैष्यसि” ऎन्दु हेळुव प्राप्तियु सरिपूर्ण ब्रह्मानुभववु. ब्रह्म स्वरूपवु विभुवाद्मरिन्द इल्लिये परिपूर्ण ब्रह्मानुभववु. सिद्धि सबहुदे ऎन्दरॆ इप्परिपूर्ण ब्रह्मानुभव सिद्धिक्ळाह ऎन्दु आरम्भिसि उत्तरिसुत्तारॆ… ई परिपूर्णब्रह्मानु भव सिद्धिगोस्करवे अर्चिरादि मार्गवू देश विशेष प्राप्तियू उण्टागुत्तदॆ. इक्रमत्तिले इत्यादि - ई अर्चिरादि मार्गवागि होगि देश विशेष” प्राप्तियु उण्टाद मेलॆ ई सरिपूर्ण ब्रह्मानुभननन्नु कॊडलु स्वतन्त्रनु आन-दियागि . सङ्कल्पवन्नु : माडिद्दानॆम्बुदु, ई गति विशेषगळन्नु प्रतिपादिसुव, “ते र्चिषमभि सम्भवन्ति … सनिनान् ब्रह्मगमयति, सर्वंह सश्यः पश्यति, मनसैतान्कामान् सैन् रनुते स एते ब्रह्म लोके? इत्यादि शास्त्रगळिन्द सिण्म. ॥ मुक्त दकॆयल्लि उण्टागुव परिपूर्ण ब्रह्मानुभव रूप ज्ञा सनिकासक्कू बद्ध दशॆयल्लि योगाभ्यासदिन्द एर्पडुन साक्षात्कार रूप ज्ञान निकासक्कू इरुव व्यत्यास, । इग्गति निशेषत्तु क्कु सखन्सु इत्यादि - ई अर्चिरादि मार्ग निशेषदल्लि प्रवेशिसि मोक्षदल्लि ल्लि सस्सरिसु; » विभनलॊ ल्लि भगनन्तनन्नु आनुभनिसुवागलू सिरक्ळुवु् प्रकाशम् - “ण्टागुव भगनदनुळन रूप ज्ञान प्रुक-शवु सुकृतारीसिवाय् न 4 चरमत्लोकाधिकानः 1184 शम सुकृताधीनमाय् करणायत्तमाय्, वरुहिरदाहृयाले सरिनितमुमाय् विच्छेदवत्तुमाय् इरुक्तुम्; मुक्तदश्टयिल् पिरक्सिर प्रकाशन् सङ्कोच विच्छ” दज्गळुक्कु कारणमॊन्रु मिल्लामैेयाले परिसूर्णनिषयनूुुमाय्, पुनर्विच्छेद 9) रहितमूवमांय् इरुक्कुम्. इव्वनुभवपरीवाहमाय् 1], “क्रियतामितिवान्नद ऎन्सिरपडिये शेषियंहन्न परिपूर्णक्सैङ्कर्यषर् वरुहिरदु. 2) “पारमार्थिक” ऎफिर ०० गद्यवाकृत्तिर्कॊन्न फलपर्वपरम्परैयॆल्लानु् इजक्लीयथाप्रवताणवु् विवक्षिक्कप्पडुहिरन इवनु माडिरुव सुकृतक्कॆ अधीनवागि, करणायत्तमाय् इत्यादि - इन्द्रियगळिगॆ गोचर वागि तदधीनवागि, उण्टागुवुदाग्दरिन्द्र परिमितवागियू मध्यॆ मध्यॆ विच्छेद - बिट्टु होगुवुदागियू, इरुत्तदॆ. मङ्क्तिदकॆयिल् इत्यादि- मोक्ष दशॆयल्लि उण्टागुव ब्रह्मानुभव रूप प्रकाशवु सङ्कोच विज्छेदगळिगॆ याव कारणवू इल्लजॆयिरुवुदरिन्द परिपूर्ण ब्रह्म विषयवागि पुनः विच्छेदविल्लदॆ इरुवुदागि इरुत्तदॆ इव्वनुभन परीवाहमा यं इत्यादि ई अनुभवद सरीवाहनागि, (1) “क्रियतामितिमांवद” निनगॆ इष्टवाद कैङ्कर्यवन्नु माडु ऎम्बन्तॆ, शेषियाद भगवन्तनु उहन्द सन्तोष पट्टि सरिपूर्ण कैङ्कर्यवु एर्पडु त्रजि. “सारमार्थिक’ इत्यादि - “पारमार्थिक भगनच्चरणाविन्द” ऎन्दारम्भिसि शरणागति गद्यदल्लि भगवद्भाष्याकाररु हेळिरुव परभक्ति सरज्ञान, परमभक्ति रूप फलसर्वद परंसरिगळॆल्ला इल्लि प्रमाणानुसारवागि विनक्षिसल्पडुत्तवॆ.. आदागि (2) पारमार्थिक भगव रणारविन्द युगळ्ळै कान्तिकात्यन्तिक परभक्र्म्यादि कृतत्व - परम प्रयोजनवाद भगवन्तन चरणारनिन्दगळल्ली नॆट्टि मनस्फवाद अन्त्यविल्लदॆ इरुव उश्भ्रष्टवाद भक्ति, तदनन्तर साक्सात्सार, तदनन्तर मेलॆ मेलॆ ई साक्सात्थारवु विच्छेदनद. निर्पडबेकॆम्ब परमभक्ति कृतत्व, परिपूर्णत्व, अननरतत्व, रित्यत्व, विशदतमत्व, अनन्य प्रयोजनत्च, अनवधिकातिशय न्रियत्व, विशिष्ट भगवदनुभव जनितत्वॆ, अनवधिकातिशय प्रीतिकारितत्व, अशेषानस्मॊ चितत्व, अशेष शेष तैकरति रूसत्व, नित्यत्व विशिस्टगळाद कैङ्कर्यगळु विवक्षिसल्पडुत्तनॆ ऎन्दर्थ.
- परवानस्मि काकुत्त त्वयि वर्षशतं स्थिते । स्वयन्तु रुचिरे देशे क्रियतामिति मांवद ॥ रामायण 3-15-7 ऎलै काकुत्स्मने नीनु नूरारु वरुष काल अन्दरॆ अनेकानेक वर्षकाल इरुव पर्मन्त निनगॆ नानु परतन्त्रनु. निनगॆ इष्टवाद स्थळदल्लि पर्णशालॆयन्नु कट्टॆन्दु आज्ञापिसु. नन्नल्लि प्रीति पुरस्कृतनागि नानु कैङ्कर्य माडलॆणिसुत्तेनॆन्दु तात्पर्य.
- पारमार्थिक भगवच्चरणारविन्द युगळ्ळॆकान्तिकात्मन्तिक परभक्ति परज्ञा न परमभक्ति कृत परिपूर्णानवरत नित्यविशदतमान न्य प्रयोजन, अनवधिकातिशय प्रियभगवदनुभवजनितानवधि कातिश२”» प्रीतिकारिता शेषावस्थोचित, अशेष शेषतैकरति रूप नित्य कैङ्कर्य प्राप्त, पेक्षया पारमार्थिकी भगवच्चॆरणारविन्द शरणागति र्यथावस्मिता$विरतास्तुमे ॥। शरणागतिगद्क “माशुचः? इतिवाक्यस्थ अर्थ निशेषाः इनिमेोल्“माशुच” ऎन्सिरनित्ताले F आरुळिच्छॆ यद अर्थत्रिल् तीर्वु प्रकाशित माहिरदु. शिलर् “माशुचः” ऎन्सि “कविदु निधियाहै याले प र्रपन्न “नान निन्बु शोकिक्कॆ यत्त इवनै उपायभूतनान शरण्य न् नहनु. तन्कार्य त्र क्सु त्ता kT कडवनाह्टं-ाहिर प्रतैवायवमण्डा इमॆन्रु शॊन्न निदं बुद्धि पूर्वोत्त क फयर् “सर्फ्व पापेभ्य ४ ऎन्सिरविडत्तिले कूट्टत्ताज्नळे सण्णि न वाख्यानत्तु क्सु म्, पन्न नै कण्णन् ES कैनिडानॆन्सि रॆ “वाक्य त्तु क्सु म् विरुद्ध माम् आणॆ यालॆ व्रुसायत्तिल्लिन युमवनुक्कु कोळडेतुळ्ळळळ म् क[0हैया साले “शोकिक्क नेण्णा चा मिडत्तैच्लॊल्लि ल्लिक्टॊ डु विश्वास । दृढीकरिक्कॆ 4यॊले ग श्र र्यम्. । स नाशानयेपु इवल्ल कव व (क हेतनः । तत्तत्स मुचित्रै स्पम्य गुपदेशै रप्रॆ “दिता सुदुष्य रत्वाद्धर्माणा महार ता द्रिरोधिनाम् । सिद्ध- पर खा * शोकोद्य निफिवार्यते । “माशुचः? ऎम्ब वाक्यकॆ न अर्थ निशेषगळु इनिमेल् “माशुचः? इत्यादि - अनन्तर, सहस - दुःखिसबेड ऎन्दु हेळुवुदिराद मॊदलु हेळिद आनिष्ट निवृत्ति पूर्नक इष्ट प्राप्तियिम्ब : अर्थदल्लि तीर्पु - तीर्मानवु अन्दकॆ मोक्सार्थ शरणागतियन्नु माडिद्दरिन्द, सर पास निवृत्तियु. नएिर्पट्टु भगवत्भ्राप्तियु एर्पडुवुदरिन्द, नीनु शोकिसबेकॆल्लनॆन्दु तीर्मानवु स्न प्रकाश हडिसण्ण इतु. शिलर् -इत्या ऐ कॆलवरु, माशुचः - दुःखिसबेड ऎन्दु विधिसुवुदरिन्द. प्रपत्रियन्नु माडिद नन्तर शोकिसिदरॆ तन्न कार्यक्कॆ ताने निर्नाहकनागुन्रदॆं ब दोषवु उण्टागुत्तदॆयिन्दु हेळिरुवुदु, बुद्धि पूर्वोत्तराघनन्नू “सर्वपापेभ्यः” ऎम्बल्लि सेरिसि तावे व्याख्यान माडिणुदळ्कू, प्रसन्न नन्नि; शरण्यनु यान विधदल्लियू कैबिडुवुदिल्लनॆम्ब वाक्यगळिगू विरुद्ध वागुत्तदॆ. आहैयाल् इत्यादि - आद्दरिन्द ई उपायदल्लि इनियुमवनु कु ट्र तॊडगुवननिगॆ जळ हेतुगळॆल्ला कळॆयुवुदरिन्द शोकिसबेडनॆन्दु हेळिकॊण्डु महा विश्वासवन्नु दृढीकरिसुवुदर तात्पर्य. “माशुजः” ऎम्बुदरिन्द निनर्तिसल्पडुव शोकवु यावुदु ऎम्बुदर विवेचनॆ बन्धुनाशादयः इत्यादि - बन्धुगळ नाशवे मॊदलाद आनेक दुख हेतुगळॆला त “अशोच्छ्यानन्व शोचस्त्यं, आकॆ ब पब्बिं मास्क गमः पार्थ”, “माशुचः सम्पदन्दैवीं? , इत्यादि समुचितगळाद उसदेशगळिन्द पूर्वदल्लिये होगलाडिसल्प ट्टिवु. इल्लि हेळिरुव “माशुचः” ऎम्बुदु बेरॆ विधवाद शोक हेतुनन्नु थिवर्तिसुवुदरिण्ड पुनमिक्षॆ बस 24 य ऎन्दु भाव. अदागि सुदुष्य रत्ताति* धर्माणा ० इत्यादि कर्म योग ज्ञा न योग- भक्तियोग रूस धर्मगळन्नु अनुस्सि सुवुदु बहळ कष्ट साध्यवाद्दरिन्दलू, निकोधि पाहगळु अनन्त गळाद्धरिन्दलू फलवु निळम्बिसुवुदरिन्दलू, म्बागुव शोकवु इल्लि शिवर्तिस 1 इकि ऎन्दु द जा . चरमश्लोकाधिकारः 1186 अभिमत फलत्तुक्ळु दुष्टर सा *धनमुमन्रि क्के सर BNR वतन १६. इत” क्लमुमां् फलविळम्भ मुमसन्रि क्के इरुक्किर इवु ऎसाय विशेष् सुजन ष्हमाब सि सिन्नु उपाय दौष, सिर्यादि Hse उनक्नु. शोकिक्स स्राप्तियिल्लॆ प ईव्रु ता वंसनुषि AE शि ल् उन् कार्य 0 ऎनॆक्टु भरमायश्, नाने Joos: खन्न्सैकक्लिं् या यिरुक्कवर् दक्कॆ यिलुम् धनादिशुल्यनान वुनक पोदु न तोसिक्स ऎनक्के अवद घमाम्पुडि प्राप्त्रियुण्णॊ €नॆनु तिरुवुळ्ळ नर्. इब्नु शोकवश् यथावस्थि तातॆॊ नपदेका ओहळाले कन्न बन्धु वधादि निनौित्तमान प यॆ कोकमन्रु .प्र कौरणानुगु “7 मास कोकान्करमः; 1) “दै वीसंसद्दिनोक्लाय Sp क्] मता” ऎनु ्रपिरित्तु च्हॊन्न’ ऎजु 1) नेयन्नि ८् वारे स् आसुर प्रकृ तिहळाहिर् जॆय वदॆ नि शोकित्त अर्जुनन्यस्त रृत्त माशुचस्स पदं दैवी ME Sd पाण्डव? ऎन् चन इज, शीरिय सति ल् तीव्र Rf नडवा निर चिरकाल सेव्यमांर्, अन्तराय बहुळमाया्, अत्यरतसावऒतरुं, कृछ्छ न्र साध्य ५०% उपा २यशैैयुमु् तन्न ळनॆ युव् कण्णु नमक्सिवु _पायमः तलॆ कट्ट जी हेळुखॆदु युक्तनादद्दु. . इदु हेगॆंरकॆ, अभिमत फलत्तुक्कुु इत त्यादि निवरिसुत्ताकॆ. : अदागि तनगॆ अभिमतवाद फलक्कॆ माडलशक्यवाद. उपायनल्लदॆ. सुलभवा द उपायवागि “सर्व पापेजभ्यो मोक्षयिष्यामि? ऎन्दु सर्व विरोधि निवर्तन क्षमवागि, “अहं” ऎन्दु सर्वज्ञ सर्व शक्तनाद नानु फलप्रदनाद्दरिन्द्र फल विळम्बवू इल्लदे इरुव ई उपाय दौष्टर्यने मॊदलादवुगळु कारणवागि नीनु शोकिसलु प्रास्तियिल्ल. इव्सुसायमनुष्ठि त्ताल् इत्यादि ई उपायवन्नु अनुस्मिसिदरॆ निन्न कार्यवु ननगॆ भरवागि नाने फलियागि निन्नन्नु रक्षिसदॆ इद्दरॆ ननगॆ अवद्यवागिरुव दशॆयल्लियॊ धनादि तुल्यनाद निनगॆ- शोकिस बेकाद अवश्यकवेनिदॆ ऎन्दु अभिप्राय. इङ्गंर्कैक्रिर शोकमु इत्त्यादि - इल्लि निवर्तिसल्पडुव शोकवु ह नस कना आत्मोपसदेशादिगळिन्द. कळॆयल्पट्ट्ट बन्धुनध निमित्तवाद हळॆय शोकवल्ल. प्रकरणानु गुणवाद शोकान्तर. ऎङ्गनेयॆन्नि ल् हेगॆन्दक्कॆ 1) दैनीसम्पद्धि मोक्ताय इत्यादियागि दैनिक संसत्तु अन्दरॆ भगनदाज्ञा रिपालन रूस सम्पत्तु, संसार बन्धदिन्द बिडुगडॆयागलु कारणवागुत्तदॆ… आसुरी - भगवदाज्ञॆ यन्नु अतिक्रमिसि नडॆदु कॊळ्ळुव सम्पत्तु, अथोगति प्राप्तिगॆ कारणवागुत्तदॆ, ऎन्दु दैन- सम्पत्तन्नू आसुर - सम्पत्तन्नू विभाग माडि गीताचार्यनु हेळिदाग, अर्जुननिगॆ तानु आसुर प्रकृतियागिद्दकॆ एनु- माडुवुदु ऎन्द शोकिसलु,. अवनन्नु. : कुरितु : “नीनु- दुःखिसबेड, नीनु आ भिजात्य - कुलदल्लि हुट्टद्दीयू, दैवी संसत्तन्मुळ्ळननु”, ऎन्दु हेळिदनु. हीगिरुवाग उत्तम फॆलदल्लि तीव्र सङ्गवु. उण्टागि, चिरकाल सेव्यवागि, अन्तराय - विघ्नगळु, अधिकवागि, अत्यंशावहि तर्ळु व् - बहळ सानधानवागिरुववरिगू कृ चै - कष्टदिन्द साधिसल्पड तक्क भक्षियोग रूप उसायनन्नू तन्न अळवु ज्ञान शक्तिगळ मोल नन्नू नोडिकॊण्डु, . नमगॆ ई उपायवु तलैकृट्टि - निस्पत्तियागि, हेगॆ फलसिद्धियु उऊटागत्तु दॆयिन्दु शोकिसिद अर्जुननिगॆ, क्षण CA 1) Ua “माशुचः सम्पदं Aaah दैवीं अभिजातॊ”$सिप इण्डव” ऎरा जा बागा ऎम्बन्दु जाग = ह ग उत्तरार्ध ऎलै अर्जुनने गीतॆ 16.5 नीनु सत्कुल प्रसूतनु. आळ” दैवी सम्पत्तन्नुळ्ळवनु शै. ोकिसबेड, 1187 शीमुद्रहॆस्क त्रयसारे इप्पल सिद्धियुण्डाह प्पेहिरदॆन्रुशोकित्त वर्जुननक्कु, क्षणकाल साध्यमाय्, सर्वा न्र्य राय रहितमाय्, सुकरवरान उपायत्रॆ क्या ट्ट क्कॊ डुतु, अम्मिखत्ता ले फं सिद्धि यिले निर्भरनुमाय् निस्प ंशंयनुमानू डि ज्ज सरु च ऎन्रु शॊन्ना ८ बु उपायतान्तर दौष ।र्यादिहळ् अडियाह बर्स शोकक्तॆ ळॆ कृ सरू त्र स्वैयिगी. इभ गवदि तै यिल् मङ्क ड प्र क्र । त्यात्म विनेकत्सैयण्डाक्कि पिन्फु परम्परया मोक्षकारणज्ग गळन कर्क योग” ज्ञा - सहोग ळैयुम्, साक्तानू Wk साधनमाह वेदान्त विहितमान भकि योगत्तॆ यरन्नु, नॆपॆरिकरन काह उपदेशित्तु 1) इतिते ज्ञान माख्यातं गुक्यात्सु ह्यतरं नुया । निम्म शै त दशेषेण यथे च्छ सि तथा कुरु ।» ऎनु अरुळॆटिय्द मारे अर्जुननुडैय मुखत्तिलुरावुतलै कृण्ण रुळियिरुक्क च्चॆ यॆ्दे कडुह अघूपायक्तॆ, 4 यरुळिज्छ्रिय्यादे 1) “परीक्षाञ्च जगन्नाथः कथोत्य दृढ कालसाध्यवागि, सर्वान्तराय रहितमायक् - सर्व निघ्नरहितवागि सुकरवतान - सुलभवागि अनुष्मिसल्पडतॆक्ट प्रसक्रिरूस उपायनन्नु तोरिसि कॊट्टु अम्मुखत्ताले - अदर मुखवागि फलसिद्धियल्लि निर्भरनन्नागियू, निस्संशयनन्न्मागियॊ ह द. अनन्तर माशुचः - दुखिसजीड ऎन्दु हेळिदरॆ इदु भक्ति रूप उपायान्तरनन्नु दौष्टर्यादिगळडि याह - माडलसाध्यनॆम्ब निमित्तवागि, उण्टाद शोकवन्नु निवर्तिसुत्तदॆयल्लवे. इब्स गवद्गीतॆयिल् मुर्रड इत्यादि - ई भगवद्गीतॆयल्लि, मुर्टड - आरम्भदल्लि ऎरडने अध्या यदल्लि, आजीतनवाद स्रश्धतिगिन्त चीतननाद जीवनु बेकि ऎम्ब ज्ञ्ञानवन उण्टु मा आनन्तर मूरनॆ अध्यायदिन्द जयार अध्याय सर्यन्त म मोक्ष कारणगळाद कर्न योग ज्ञान योगगळन्नू साक्षान्मोक्स साधनवागि वेदान्त (उपनिषत्तु) गळल्लि निधिसल्पट्टि भकि र. सपरिकरनागि उपदेशिसि, (1) “इतिते ज्ञान माख्यातॆं” ऎन्दारम्भिसि, निनगॆ हीगॆ सरमु गुह्यवाद भक्तियोग रूसवाद ज्ञानवु उप देशिसल्पट्टि तु, इदन्नु पूर्णवागि विमर्शिसि निनगॆ कर्मयोगदल्लियागलि, ज्ञा न “योगदल्लि यागलि, भक्तियॊगदल्लियागलि, यावुदरल्लि अधिकारवो अदन्नु विमर्शिसि अनुष्ठिसु, ऎन्दु गीताचार्यनु कृपॆ माडि हेळलु, अर्जुनन मुखदल्लि उरावुदलै - दैन्यवन्नु नोडिकॊण्डु (अन्दरॆ दुष्करवाद कर्म योगादिगळन्नु माडॆन्दु निर्बन्धिसुत्तानॆयल्ला ऎम्ब दैन्यतॆ) कडुहलघूसायुत्तॆ ४. इत्यादि - शीघ्रवागि लघूपायनन्नु उसदेशिसडॆ (1) परीक्षा, पच - जगना घः इत्यादि धृढवाद मनसि ल्लदवरन्नु भगवन्तनु सरीक्षिसुत्तानॆन्दु हेळुव रीतियन्नु
- भगवद्गीतॆ (18. 63) 1) परीक्षाञ्च जगस्ना थः करोत्थ दृढ चेतसाम् । नराणामर्थ विध्वंस निकषेषु जनार्दनः र्दनः ॥ विष्णुधर्म (74-89) भगवन्तनु तन्नल्लि पूर्ण भक्ति यिल्लदवर हणकासुगळन्नु . ध्वंस. माडि, हागॆयू अवरु तन्नल्लि भक्ति यिन्द कूडिदा रॆये ऎम्बुदनु परीक्षॆ माडुत्तानॆ. ॥ स चरमश्लोकाधिकारः 1188 चेतसाम्*», ऎन्नि र कट MAN कण्डरुळि, नाम् इन्नदुनकु साक्सानॊ (क्ष साधनमान सरमहितम्, इत्तॆ प्रधानमाह कृणिशित्तु, इदक्कु अनुरूपमाह वर्ति ऎनु निगमि यादे 2) सना विदर्भाणामेष यास्य्कतिकोसलान्? ऎनु माप्टोले, उपेक्षकत्त शङ्कॆ सण्णि लाम्बुडि, “यथेच्छ सि तॆथाकुरु” ऎसन्रु कॊल्लित त्रलै कृट्ट नोम् ऎन्रु इदु व्याबमाह शॊोतिता त्र नॆन्रु ऒह् इन्नु नॊरुनिल, प्रधानमान भक्ति योगतॆ निष्कर्हित्तु उपदेशित्तु. पा िर्फोमॆन्रु इदॊरु निनोदतॆ” क्र सषिशित्त रुळि, पण उपदेशित्त भक्ति योगवु तनॆ ये *सर गुह्यतमव म् भूय बन्रि तुडज्लू इरणु श्लॊ (कत्त ले “अत्यादरं तोत्त सस स्रत्यभिज्ञ माम्प डि निष्कर्षित्तु निगमित अव्व ळनिलुम् इवन्कोकम् इरट्टत्तु तोत्ति न पडियै क ग णा’रुळिन स रूसनान सक्फेश रन्, इनि इवन् सरम रहस्यैमाय् अति स्यान्न ननीत्षॊिपायत, उपदेशिक्क शक्य पूर्णपात्र मानानन्रु तिरुवुळ्ळम्पत्ति अरुळिच्चॆय्य प्रोहिर शीरिय लघूस यतु क्सु प्र न भग इ ऒरुकालक्षेपं’ पण्णा दे कडुह सकल फलसाधनमान स्वनिषय जत 1 उपदेशित्तु इननुडै यॆ मनोरथत्तु क्सु म् च जं सर्व कोतत्तॆ $यॆम्म् क्य तिळिदु, नावु “निनगॆ इदु परमहितवाद मोक्ष साधन, इदन्नु प्रधानवागि .तिळिदु इदक्कॆ अनुगतिणनागि वर्तिसु”, ऎन्दु निगमियादे - हेळि मुगिसदे (2) एषपन्थानिदर्भाणां इत्यादि - इदु विदर्भ देशक्कॆ होगुव मार्ग, इदु. कोसल देशक्कॆ होगुव मार्ग, ऎन्दु हेळुवन्तॆ उपेक्षकत्व शङ्कॆयन्नु माडुवन्तॆ यथेच्छसि तथाकुरु - कर्म योग ज्ञा नलळोग भक्तियोगगळल्लि यावुदरल्लि निनगॆ अधिकारवो अदन्नु माडु ऎन्दु हेळि मॆगिसिजॆवु, ऎन्रु इदुव्याजमाह - ऎन्दु इदन्नु व्याजवागिट्टुकॊण्डु शोकिसुत्तानॆन्दु भाविसि, इन्न्ननॊरुनिलै इत्यादि इन्नू ऒन्दु सल प्रधानवाद भक्तियोगनन्नु निर्ष्यर्षिसि उपरॆश माडि नोडोण ऎन्दु ई ऒन्दु विनोदवन्नु गणनॆ माडि, पूर्वदल्लि उपदेशिसिद भक्षियोगवन्ने “सर्वगुह्यतवुम्भूयः? ऎन्दारम्भिसि ऎरडु श्लोकगळिन्द अत्यादरवु आ.म्बागुवन्तॆ, मॊदलु 9ने अध्यायदल्लि हेळल्पट्ट भक्तियोगवे इदु ऎन्दु जा > पकक्कॆ बरुवॆन्तॆ निष्कर्षिसि निगमिसिदनु. अव्व ळनिलु मिवन् शोकवम् इत्यादि - आगलू. इवन शोकवु द्विगुणी भूतवागि तोरिद “रीतियन्नु नोडिद सारथि रूपियाद सर्वेश्वरनु, इन्नु इवनु परम रहस्यवागि अतिलघुवाद मोक्षोपायनन्नु उपदेशिसलु पूर्णषात्छ नागिद्दानॆन्दु भाविसि, तानु कृपॆमाडि हेळुव उत्कृष्ठ वाद लघूपायवाद स्वतन्त्र प्रपत्तिगॆ, प्रशंसा रूसनाद ऒन्दु कालक्षेसनन्नु माडदॆ शीघ्रदल्लिये सकल फल साधनवाद स्वविषयकवाद स्वतन्त्र शरणागतियन्नु उपदेशिसि, इवन मनोरथक्कॆ सारथियाय् -
- एष पन्था विदर्भाणां एषयास्कति कोसलान् टॆ अतः परञ्च देशो6$यं दक्षिणो दक्षिणा पथः है वनपर्व (50-48) इदु विदर्भ देशक्कॆ होगुव मार्ग, इदु कोसल देशक्कॆ होगुव मार्ग, इदक्किन्तलू बेरॆयादद* दक्षिण देशवु. इदु दक्षिण मार्गदन्निदॆ नळनु दमयन्तिगॆ हेळुव मातु इदु, 1189 श्रिसुदक्श्यत्रयनसारे किरानाहैयाले, इज्दु निवारिक्किर शोकम्, पट्य य मिडम् तॆ करण परामर्शत्ता ले सुव्यक्तनर्. शोकज्ग ळिल् नेरुसट्चिदॆन्रु 9 चरमश्लोके निर्भरत्व, निर्भयत्त. निस्संशयत्पादिः फलितम् उपायान्तर रहितनानवनैक्ळुरित्तु “मानिनीकं शरणंव्रज? ऎन्रु निधित्तकट्टक्ळि यिले अशक्कना नवन् शक्तन्कृयिले भरसमर्सणं पण्णुहैयालुवमा्, स्वतन्त्र कौरुणिकनान शेषि भरसि ऎकारं गस सुष्ट इप्र पन गग इश्लॊ 26 ई पूर्वार्थत्तिले निर्भरत्चवुुवर्, सरृशक्तियाय् सि आक तभकनाय् आ श्रितनिषयत्ति, श्र ल् सत्यवादियान शेषि “अहन्त्वा सरृसापेभ्यो नोक्ष उष्यानिं ऎन्रु अरुळिच्चॆय*् गै याले न्यस्त स्लभरनान इवनुक्ळि नि आगामि RE पॆ गैत्यनाय शङ्का प्रसङ्ग निल्लाम्रॆ यारे निर्भयत्वनखम्, इकॊ (कम् (1) शॆम्मुयुडैय तिरुवरङ्गर्ताव्् पणित्त मॆय्कै प्ररुवार *कैयाजैयाले निस शय त्वमुम् फलितम्. प्र्रनर्तकनागि (लघूपायनन्न्नु माडुनन्तॆ) सर्वशोकवन्नू निर्नेसुत्तानॆयाद्मरिन्द, इल्लि निवर्तिसुव शोकवु पूर्वदल्लि उण्टाद शोकगळि गिन्त बेरॆयादुदु ऎम्बुदु प्रकरण सरामर्शदिन्द सुव्यक्त. 1 । चरमक्लॊ (कदल्लि निभगत्वागळु फलित. उपायान्तर रहितनिा नवन्यि कुरितु), इत्यादि- भक्ति रूस उपायान्तर रहितॆनादवनन्नु कुरितु “मामेकं शरणं व्रज”, ऎन्दु वरिसिद रीतियल्लि अशक्तनाद अधिकारियु शक्तनादवनल्लि भरसनुर्पणवन्नु माडुवुदरिन्दलू, स्वकम्प्रकाुणिकनार. शेषि - स्वामियु भरस्वीकारवन्नुु माडुवुदरिन्दलू ई प्रसन्मनिगॆ ई श्लोकद. पूर्वार्ध ल्लि निर्भ त्वपू, : सर्वशक्तियागि आश्रित विषयदल्लि Scena शेसियु “अहॆन्त्सा सर्वहा पेभ्यो नोक्षयिष्याविु, ना निन्नन्नु- सर्व पापगळिन्दलू बिडुसुत्तेनैॆ, ऎन्दु हौळकुवुद इड न्यस्त, भरनाद ई प र) सन्ननि इन्नु हलि आगामि नरकादि स्रक्यवाय’ शङ्का स्रसॆङ्गवु इल्लदॆ घि निर्भयत्ववू एर्पडुत्तदॆ. इश्लोकवं् (1) शॆम्मैयण्डैय इत्यादि - ई श्लोकवु :खॊटु निस्संशयत्हवू स्वभाववुळ्ळ फलित. श्रीरङ्गनाथनु :.: ताने हेळिद, ब. याथार्थ्यवाद वा ’ . दॊड्डमाताद्दरिन्द RT ंयुण्ड्गॆ य तिरुवरङ्गर्ताम् पणित मिय्मै प्रॆ रुवार्तॆ विष्णु चॆत्तर् केट्टिर-प्रर् । तम्मैयुहस्सारि ळ्र त्रामुहप्परॆन्नु म् शॊल् तम्मि डै ये पॊय्मा नाल् शादि प्पारारिनिये ॥ " नाग ई चरमश्लोकवु युजुवा.: कपट स्वभावविल्लद श्रीरङ्गनाथनु ताने हेळिद सत्यवाद, श्लाघ्यवाद मातु, इदन्नु विष्णु चित्तरु केळि तिळिदिद्दारॆ, ऎ तन्नन्नु प्रीतिस हुववरन्नु, तानू सुळ्ळादरॆ, इन्नु मेलॆ हेळुवुदेनिदॆ, ई मातु सुळा गु वुदिलवॆन्दु भाव, स्रीतिसुतु ऎडि नॆम्ब मात्तु तन्नलिये इमा हवि चरमुश्लोकाधिकारः 1190 शोकानिष्टनु प्रपत्तिगॆ अधिकारि ऎन्दु हेळुवाग, भयवुळ्ळ वनू प्रपत्तिगॆ अधिकारि ऎन्दु हेळुवुदर तात्पर्य अन्ट्यलिण- उपाय विशेष श्रवणानुष्मानज्ल्ञळ् वन्हाल् उपायानु बन्धिया युम् फलानुबन्धियायुम् वरुम शोकत्तिल् प्राप्तियिल्लॆ । यॆन्सिरदु. 4 “लु य प्रपदने शोको भीतिश्च अधिकार; इत्ताले शोकविशेषानिर्ष्ट प्रपत्तिक्ळु अधिकारियॆन्रु तोत्तानिर्न “अहं भीतोस्मि” ऎन्रुव्, पानी त(नॆन मॊगिवदर्स इक्कि नम्बनेवन्नुन् तिरुवडि यडैॆन्हेन्? ऎस्रुम्. भीतनानवन् प्रपत्तिक्कु अधिकारि ऎन्रु शॊल्लुहिरपडि ऎन्नॆ न्निल्? की अभिमतम् सिद्धियादे निप्रनिलैय्कैॆप्टार्तु शोकमुनम्, मेलभिमतत्तुक्कु प्रति बन्धकज ळान प्रबल निरोधिहळ्ळ प्पार्त्तु भयॆमुम्, नडैयाडुहिगदाणैयाले मुमुश्सुवुक्ळ्द अनिष्ट निनृत्तियिलुव् इष्टप्राप्तियिलुम् ऒन्नैज्जॊल्ल इरण्ण्नुवु् वरुमाप्सोले अधिकारत्तिलुवर्,ऒन्नॆ 4ट्कॊल्लइरण्णुम्सिद्दि कुमर्. अत्यन्ताकिञ्चननुक्कु भयशोकज्ल ळिरण्णुव् विञ्जि इरुक्तुम्. आहैयाल् इब अतिशयितॆ शोकानिष्टनान आह्टैयनालिङ्गु इत्यादि - आद्दरिन्द इल्लि चरमश्लोकदल्लि हेळिरुव उपाय विशेष श्रनणवु अनुष्कानान्तवागि पर्यवसानवादक्कॆ उपायानु बन्धियागियू, चकारदिन्द, फलानुऒन्धियागियू बरुव शोकदल्लि प्राप्तियिल्लवॆन्दु तिळिसुत्तदॆ. इत्ताले इत्यादि - इदरिन्द शोक विशेषदिन्द कूडिदवनु प्रपत्तिगॆ अधिकारि ऎन्दु तोचुवाग, “अहम्भीतो स्म? - नानु हॆदरिदननु ऎन्दू पावीत्यवॆनन्मॊ0वदरृञ्जि इत्यादि - ऎल्लॆ सरदारगनुननन्नु माडिद पानि ई आग्लियिन्द ज्वलिसुव स्त्रीरूपवाद ताम्र जॊन्मॆयन्नु कट्टिको ऎन्दु यम भटरु हेळुव मातिगॆ अञ्जि, नन्न स्वानिये ! निन्न श्री पादगळन्नु शरण हॊन्दिद्देनॆ ऎन्दू, हॆदरिदननु प्रसत्तिगॆ अधिसारियॆन्दं हेळुवुदर आर्थनेनॆन्दक्कॆ की अभिमतम् सिद्धियादे निन्र इत्यादि - पूर्वदल्लि अभिमतवु सिद्धिसदॆ इरुव कारणवाद उपाय दौष्ठर्यदिन्द एर्सट्ट तन्न स्थितियन्नु नोडि शोकवू, प्रपत्र नन्तर अभिमतक्कॆ प्रतिबन्धकगळाद प्रबल विरोधिगळन्नु नोडि भयवू उण्टागुत्तदॆयाद्दरिन्द व मुमुक्सुविगॆ अनिष्ट निनृत्रियल्लू इष्ट प्रास्त्रियल्लू ऒन्दन्नु हेळिदरॆ शोक भयगळॆरडू बरुवन्त, अधिकारदल्लियू भय शोकगळल्लि ऒन्दन्नु हेळिदरॆ ऎरडू सिद्धिसुत्तवॆ, - अत्यन्ता कञ्चननुक्कु इत्यादि -उपायान्तर शक्तनिगॆ विघ्नगळु अनेकवागिद्दु, बह्वायास साध्यवाद्दरिन्द ‘ई फलवु. हेगॆ सिद्धिसुत्तदॆयॆम्ब शोकवू भयवू स्वल्पवागियादरू बरलु साध्य उपायान्त. शक्तनाद अत्यन्ताकिञ्चननिगॆ, उपायान्तरवाद भक्तियोगवु तन्निन्द अनुस्मिसलु साध्यविल्लवॆन्दु निश्चय निरुवाग शोक भीतिगळु अधिकवागि इरुवुदरिंलग, ई kr शोक भीतिये अधिकारवाद्दरिन्द अदन्नु विशेहिसि प्रसत्त्य्यधिकारनॆन्दु हेळबहुदॆङ्गु तात्पर्य. आक्ट्यूालिङ्गु इत्यादि - आर ७न्दॆ इल्लि अतिशयित शोशकाविष्टनाद ई विशेषाधिकारिगॆ इ कू [ae 1191 श्रीनुग्रॆकसैत्रॆयॆसारे 6 अधिकारि विशेषत्तुक्टु असुगुणमान उपायनिशेषत्रैक्ळाट्सि, इवनै निस्स ङ्कॆयनुमाय । निर्भकनुमाय्य निर्भयसुमाय्, हृष्टमनावु माक्कित्त लैकु हिरदु. इव्वतिशयितभयत्तॆ पुत्त “अञ्जिन नीयिन्नैयडै ऎन्रार् वन्मार्”, ऎन्रुम् शॊन्नोम्. इस्पडि कृ तकृत्यनान इवनुक्कु (1) *तत्तुकर समाचरेत्” ऎन्रु विहितमान कर्रव्यान्तरमौ कङ्कर्यानु प्रनिष्ट सद- चार विशेष “नुन्रु निण्डम् ऐ र्वापर ग्रन्थ इ ळालुम् इश्लोकन्” तन्नि स “क्र यावदनर्थियॆ? ऎन्लैयालुनर् सिद्धम््. प्रसन्नस्य हृस्ट्यमुनस्मृत्वमन कथमितिशङ्कापरिहारः आह्टेयाल् मोल् फलसिद्दियिल् संशंयिमिल्ला नुयालुवु् नोसक्रोपायॆमाह जॆ अनुगुणवाद उपाय विशेषनन्न्मु तोरिसि इननन्नु सनिस्संशयनन्नागियू निर्भरनन्नागियू, निर्भयनन्नागियॊ, हृष्णमनावुमाक्सि - सन्तोषदिन्द कूडिद मुनस्सुळ्ळवनन्नागि तल्पॆ कृट्टुहिरदु - “माशुचः दुःखिसबेडवॆन्दु हेळि पूर्तिगॊळिसुत्तारॆ. आ सरसर ऎम्ब श्लोकद पूर्वार्धदिन्द निर्भरत्ववू, उत्तरार्धदिन्द सिर्भयत्ववू श्लोकद समुदायार्थवागि निस्संशयत्तवू, सलिसुवन्तॆ “माशुचः”: ऎम्बुदरिन्द फलवु अवश्य सिद्धिसुत्तदॆ ऎम्ब मनस्सन्तोषवू सलिसुस्तदॆरन्दु तात्सर्य इव्वतिशयत्तैप्रट्र इत्यादि. ई आतिशयवन्नु कुरितु, “अञ्जिननीयॆन्सॆ J pS र्र्: वन्द गं भीतनाद नीनु. नन्नन्न कुरितु शरणनागु ऎन्दु आच” त्रि तिरुच्चै न्न] मा स 8ने पाशुरदल्लि हेळिरुवुदागि, ळिसुत्त्यारॆ. । 4 प्रपन्ननिगॆ शोक निवृत्तियू, निरेदनवू परस्पर विरोधवल्ल. इप्पडि कृतकृत्यनान विवनुक्कु इत्यादि - हीगॆ कृतकृत्यनाद इवनिगॆ (1) “तत्तु कर्म समाचरेत्? ऎन्दु विहितवाद साधाकर्म, - कैङ्कर्य रूपवाद नित्यन्सैनित्तिक वर्णा श्रम धर्मगळु, ऎन्नु मिडव् इत्यादि - ऎम्बुदु. पूर्वापरग्रन्थगळिन्दलू, ई श्लोकदल्लि “अक्रियावदनर्थ९य” . माडदॆ होदरॆ अनर्थवु एर्पडुत्तदॆ, ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द सिद्ध. अह्मयाल् इत्यादि अद्दरिन्द मुन्दॆ फलसिद्दियल्लि संशयविल्लदिरुवुदरिन्दल्क इवनु माडबेकाद कर्तव्यवु आज्ञानुपालन रूपवाद स्वयं प्रुयोजननाद्दरिन्दलू, अपराधगळु
- “क्रियमाणं न कस्मै चित् यदर्थाय प कल्पते । अक्रियावदनर्थाय तत्तुकर्म समाचरेत् ॥” लक्ष्मीतन्त्र (17-88) यावकर्मवु अनुष्ठिसल्पट्टदागि फलवन्नु कॊडुवुदिलवो, माडदे इरॆ अनर्धवन्नुण्टु माडुत्तदॆयो अन्थह नित्यकर्मवन्नु प्रपन्न-. कैङ्कर्य बुद्धिं यिन्द माडतक्कवनु. ह वार स अत च जा त 5.४ चरमश्लोकाधिकारः त 1192. ऒरुकर्त व्य शेषमिल्ला स [यम्प्रयोजनमाध्ययालुव कट्टि ळॆ यिले “अनन्तापादिहळाले यिलॆ” पी इन्नहर्नव् क्रिर ‘निवनुक्टु’ निर्रेद मॆ ल यालुम्, इवनुक्टु 4 कर्त व्यम् अज्जा सुपालनगूपवमान र्, अपराभम् प क माना ल् आधिकारान्त्र रति र् चॊन्न सुपरिहरमाहैयालुम् इवनि” ह ैष्टमुनावाहॆक्ळुक्क मिश्रमांय् विवेकियाय् नडन्हदे हेयॆ£ळान याहिखुम्, शरीरादिहळोडे इन्निक्रेदमुम् तुनक्कुण्णि इतो रु सन्नति त्तियुवा् भिन्न पटु ळाहैयाले ‘निकोनमिलॆ ि 3 : “वताकुच्य( ऎनि रनिदुने शोशनिमित त्रमाननैयॆल्ला म् मोच ऊटल नीयमाहॆ क्सु नियामक माहैयाले हा प्रारब्ध कर्मत्ति त्रिलुम् शोक निमित्तांशमॆल्लाम् कणगैयाले अर्भृतिशय मुड्टियवनुक्कु. अस्टॊ डे मोक्षं सिद्दि ज् 1) “मरणमानाल् वैहुन्दं कॊडुक्कुं हिरान्*इता न्यनिहळिम्पडियॆ « प्रागब्ध्बकरृत्तिलुवु् नुलुळ्ळदॆ दॆल्ल्यावु् कगन्नु शरीरावसानत्तिले मोस्तनॆस्रि श्रेय नेण ‘यषा ल, ; शरीरम् `तन्नि उम् आयुशैेषम् अनिष्ट “मानपॊ दु इदुवुम् प्र पत्ति वशीकृत सर्वशक्ति सज्जल्पत्ताले कनयक्कुरैयिल्लै हक प्रसक्तवारकॆ असराध परिहारवॆम्ब अधिकारदल्लि हेळिद रीतियल्लि अनुतापादिगळुम्बागि प्रायश्चित्त गळन्नु माडिकॊण्डरॆ सुलभवागि परिकृतगळागुवुदरिन्दलू, इननु. सन्तोषदिन्द. कूडिरुवन नागलु यान अड्डियू इल्ल. इन्दहर९नु् ह ष्ट ई हर्षवु विवेकियागिय्कू हेयवाद वर्तमान शरीरेन्द्रियगळॊडनॆ. सम्बन्ध स ट्टरुन इनरिगॆ निर्मेद मिश्रनागि नडॆदु बन्दरू, ई निर्वेदवू ई शोक निनृहियॊ भन विरोधविल्ल. आर्त दृप्त प्रसन्न निभागः “माशुचः वॆन्सिर विदुने इत्यादि - “मारुचः” ऎम्ब ई माते शोकक्कॆ कारणगळादवु गळॆल्ला. बिडल्पडलु नियामकवाद्दरिन्द प्रार्मि कर्नुदिन्दल्कू शोक निमित्तांशगळॆल्ला कळॆयुवुदाद्वरिन्द आर्त्यतिशयवुळ्ळवनिगॆ आवागले मोक्षवु सिद्धिसुत्तदॆ. . (1) .“मुरणमानाल् वैहुन्दं कॊडुक्कुं हिरान्’ इत्यादिगळल्लि हेळिरुवन्तॆ प्रा रब्दकर्मुत्तिल् . फलवन्नु कॊडलु आरम्भिसिद कर्नदल्लि मुन्दॆ बरुव -भागगळॆल्ला कळॆदु $ BSE मोक्षवॊणु अङ्गीकरिसबेकाद्दरिन्द ई ‘शरीरदल्लियू आयुशैषवु अनिष्टवादक्कॆ इदू प्रपत्तिवशीकृतनाद सर्वशक्तिय सङ्कल्पदिन्द कळॆदु होगुवुदरल्लि सति बाधकवू इल्ल. « सोक ााताााससगसागघ)ौूौ/;उकगबासागघ)ू ोाण/)/गण/णं णक्र क
- शरणमाहुम* तनदाळ् आडैन्दार्कल्लाम्, मरणमानाल् वैहुन्दम् कॊडुक्कुं पिरान् अरण मै ०द मदिळ् शू तिरुक्क ण्ण प्रर त्तरणियाळन् तनदन्सर्मन्साहुमे ॥ तिरुवाय्म्मो (9-10-6) श्री वैकुण्ठवन्नु भगवन्तनु तन्न प्रापिसुव पादवन्नु. परमोपकारकनु, शरणु हॊन्दिदवरिगॆल्ला प्राकारगॊन्द रक्षकनागुत्तानॆ, सुत्तुवरियल्पट्ट शरीरावस-नदल्लि तिरु कृण्ण मरणवु पुरक्कॆ वु स्वामियादवनु एर्पट्ट अनन्तर तन्न भक्तरल्लि प्रीतियुळ्ळ वनागिदा नॆ, 1193 ; श्रीनु” हस्यत्रॆयसारे “प्रा यश्नित्त निशेषेषु सर्वस्वारादि केसुच । नात हिंसन दोषोस्ति तथार्र शरणागता । दृ प सतु यथाशास्त्रं जिरञ्जीनितु निञ्च्छ तः । प्राणिरक्षण शास्ता ्रर्थलङ्घनं त सराधनवु l योगिहळ् योगि कना ले देहन्मा सव” पण ) माप्टॊ (ले. अर्वतिशय मण्डैयॆवन् प्र पत्तियाले देहना ;सम्पु णर्लि हॆ क्कु तीर्थप्र कानि Fe यङ्गॆ NES. SUNN NMS SLRS LE SEES प श्र यश्चित्त, विश्रीसु इत्यादि - “यः कामतो नरः पासं नुहत्युर्यातृथञ्चन नतस्यनिस्कुतिरगृ स्या भृग्वग्गि पतनादृ ते॥ । अन्त्र (न सहॆसम्पर्के ग् मॆ भनेक्क ते । जा सि प्रदीप्तागौ निक श्युन्नसौविुध्यत । ऒब्ब मनुष्यनु कामदिन्द (फलदल्लि आसॆयिन्द) नंहत्ताद पापवन्नु माडिदक्कॆ अवनिगॆ ऒडनॆ अग्नियल्लि बिद्दु पा गान बडुन णक्सॆन्त बेरॆ प्रायश्चिश्तविल्ल. अन्तैनॊडनॆ सम्पर्कवो भोजनवो, नथुनवो न ब ट्चरॆ चॆन्नागि उरियु परुव अग्नियन्नु प्रवेशिस बेकु. अग्नि यल्लि बॆं- मरणानन्तर, आ आत्मा विगॆ विशुद्धियु र्नीडुत्तदॆ. इन्थह विशेष प्रायतश्चि त्रगळल्लियू, सर्व स्वारादिकेषुच - “र्वस्वारवॆॊबुदु ऒन्दु याग. आ यागदल्लि अवभ्स त स्नान स्का नदल्लि आग्नि यल्लि स स बिडुवन्तॆ हेळल्पट्टिदॆ. इन्थह सन्दर्भ गळल्लियू तथा i - हागॆये आर्तनागि ऒडने मोक्षवु बेकॆन्दु असेक्षिसुववनु शरणागति माडिदरॆ, अदरिन्दलू, नान्त्महि ०सन दॊ ीसोस्ति अत्म हिंसॆ माडिद दोषवु उण्टागुवुदिल्ल. प्रसैतु यथाशास्त्रं इत्यादि - “यस्यदेहान्तर नृते शोको ्हदृष्तस्स उच्यतॆ! ऎनु) जा सम्बन्धवाद शोकवुळ्ळवनु आन्दरॆ देहानसानदल्लिये नोक्षनन्न सेक्टिसुवननु दृष्ट स्तनॆन्दु हेळल्बडुत्तानॆ. अवनु शास वन्न नुसरिसि चिरकाल (देहावसान काल सर्यन्त) जीविसलु इच्छॆयळ्ळवनु. अवनिगॆ तन्न प्राणवन्नु रक्षिसिकॊळ्ळबेकॆम्ब शास्त्रार्थवन्नु उल्लङ्घि “सिदरॆ अपराधवु एर्पडुत्तदॆ. प्राण रक्षण शास्प्रार्थवु यावुदॆन्दक्कॆ “सर्वत एन आत्मानं गोपायेत्” ऎम्बुदु. अन्दरॆ मरण प्रदवाद साहस कार्यवन्नु माडदिरुवुदु, व्याधि ग्रस्तनु चिकित्सॆ माडिकॊळ्ळु वुद. प्राण रक्षणवाद ई कार्यगळन्नु माडिकॊळ्ळदिद्दरॆ आत्म हिंसॆ माडिद दोषवु एर्नट्टु असराधवुण्टागुत्तदॆ. म तपस्तप्र्व्वा सुनुहत्बूर्ण मानसः । तीर्थादिषु तैजेद्दॆ (हसॆ वं कलियुगे भवेत् ॥ कृत, श्रेत, दासर युगगळल्लि ऒब्ब पूर्ण मनस्थनागि, पुण्य तीर्थादिगळल्लि मनुष्यनु स्वर्गादि पुरुषार्थगळिगॆ तपस्सु माडि शरीरवन्नु बिडबेकु. कलियुगदल्लि हीगॆ माडकूडद २ ऎन्दु हेळिदॆयल्लवे. माडुवुदु शास्त्र अरम्भिसि उत्तरिसुत्तारॆ. आ रीरियल्लि कलियुगदल्लि आर्त प्रपत्ति यन्नु अनुष्ठिसि शरीर त्याग सम्मतवे ऎम्ब चोद्यक्कॆ योगिहळ् योगनिशेषत्ताले ऎन्द आदागि योगिगळु योग विशेषदिन्द देहन्यासवन्नु माडुवन्तॆ चरमश्लोकाधिकारः 1194 EM इव्वार्र प्रपन्न ने ऎल्लारिलुवु् कडुह आत्मरस्सणम् पण्णु हिरिवन्. क अर्त दृ प्त शब्दयोरर्था वदति इप्पडि आरन्, दृ स्तन् विन्लिर सिरिवुवु् इवनुक्कु पिरन्न शोकतिल् नैसम्य मडि याह च्रॊ ल्लुहिरदत्त ल ऒरुवनुक्कु शोकखुला » मयनु जन्मान्तरादि मात्रवर् शोकनिमित्त माय् एदेनु नॊरुना प मोक्षवु पॆरुवो मॆन्रु तेरियिरुकु मवन् इज्लु दृस्त न्. अल्लदु उत ह्त ननव दि हेतुवान गग्व सा अनात्म गुणत्तै युद यवनल्लन्: इश्क रीरत्ति ल् चतुरु हैक 0रैम् पॆत्तालुऎर्, इदुपरिपूर्ण भगनदनुभन निरोधि यान सडिय ई इव ैनर्थमान देह सम्बन्धनुुव5 li महाग्निपोले दुस्सह माय् “उडलुवत् र मज वॊट्टु । ऎन्रूम्बु डि ५ ग्रपत्त्यनुष्ठा नानकतरम् क्स -मात्र विळॆम्ब क्षमनल्लादवन् आग्लस क्रपन्न न”. अल्लदु “आरॆ _«जिज्ञासुरर्थार्थिी? ‘न्सिरविद(क्ति र् च्हॊल्लप्पट्टवनल्लन् आर्त्यतिशयवुळ वनु स्रसत्तियिन्द दे हन्यास वन्नु माडुवुदक्कॆ, तीर्थ प्रवेश मॊदलादवुगळिगॆ इरुवन्त्क, युग ey नियमविल्ल. इव्वार्तप्रपन्नने इत्यादि - ई आर्त प्रसन्नने ऎल्लरिगिन्तलू कडुह - शीघ्रवागि आत्मरक्षणवन्नु माडुवननु _ इप्पडि अर्तन् दृस्तन् इत्यादि - ई आर्तनु, रृस्तनु ऎन्दु हेळुव विभागवु इवनिगॆ उण्टाद शोकदल्लि वैषम्य निमित्तवागि हेळल्पडुत्तदॆयष्टॆ. ऒरुवनुक्कु इत्यादि - ऒब्बनिगॆ शोकविल्लवॆन्दल्ल. जन्मान्तरादि मात्रम् इत्यादि.- जन्मान्तर प्राप्तियु मात्र क्कॆ कारणवागि, यावुदादरॊन्दु. दिनस ई जन्मदल्लिये मोक्षनन्नु हॊन्दुत्तेनॆन्दु सनताधानदिन्दिरुनननु दृस्तनु. इष्टल्लदॆ उत्कृष्टजनावमानादि हेतुनाद गर्नरूपवाद आनात्म गुणनन्नुळ्ळवनल्ल. इश्शरीरत्तिल् इत्यादि - ई शरीरदल्लि चतुर्मुख ऐश्वर्यवन्नु पडॆदरू इदु परिपूर्ण गॆवॆदनुभन विरोधियाद्द्वरिन्द ई वर्तमान मस सम्बन्धवू कूड महाग्मियन्तॆ दुस्सह नागि “उडलु मुंयिरुवं् मङ्गवॊट्टु देहवन्नू देहवन्नु आश्रयिसिरुव प्ला णकन्नू ईगले नशिसुनन्तॆ माडु, ऎम्बन्तॆ प्रसक्त सं ळं कणमात्र विळम्ब क्रमॆनल्लदननु आर्तप्रसन्ननु. अल्लदु इत्यादि - अल्लदि “आर्तो जिज्ञासुरर्थाथ्थ९’ ऎम्बल्लि हेळल्पट्ट वनल्ल. अल्लि आर्तनॆन्दकॆ कळॆदु होद ऐश ऎर्यवन्नु पुनः पडॆयबेकॆन्दु हम्बलिसुनवनु. इल्लि आर्त नॆन्दरॆ शरीरानुवृत्तियु अत्यन्त दुस्सहवागि कूडले भगनत्सायुज्यवन्नु सजॆयलॆणिसुववनु ऎन्दु तात्पर्य. 1195 श्र्रीमद्रहस्यत्र्रयसारे ’ 1) आर्तोनायॆदिनाद्यस्तः” ऎन्सि र ‘भिडम् अतिवादमॆन्सार्क वक् इज्ल व्वर्थ स्थितियल् निवादनु् पण ) वॊण्णा दु. उपायानुस्य्कानत्तु क्कु ह्भि न्फु फलमाह्टॆयालुम इदु उपदेशनेळैयाहै यालुव् इष्टा र्व न् तरि बळि नोक्षयिष्याविुं ऎन्र भनिष्यन्सिक्लीशत्ताक्सु कैुरैयिल्लै. इवा गद प्रादि निभागज्गळॆ ल्लाम् सुक्क त तारतम्यनूूलमान जिगवडनुग्र हतारतन्युत्ताले वरुम्. 2) प्रा र मात्र अष्ट ब तत्र तत्त ऎवित्सु खमाप्त्नु यात? इत्यादि वचन ईग् प्रपन्न निषयत ले निरवसाशण्ण छि, हा दृस्तप पन्नन् तिरत्तिल् उत्तर कृत्यांशत्तैपुत्त “माश चः? ऎन्सिर वाक्यत्तिन् (1) “आर्तोवायदिवादृप्रः”, ऎम्ब श्रीमद्रामायण वचनदल्लि, सृस्त पदवन्नु गर्वितॆनॆम्ब : अर्थदल्लि, हेळबेकाद्दरिन्द अवनिगॆ रक्षितन्यत्ववन्नु हेळिरुवुदु अकिवादनॆुदु. कॆलवरु हेळिद्दारॆयल्ला, आ रीतियल्लि दृप्त रृनन्नु कुरितु “नोक्षयिष्यावि” ऎम्बुशू- अतिवादवल्पवे ऎन्दरॆ अल्लवॆन्नुत्तारॆ. अल्लि डेळल्पट्ट वनु गर्नितनादरू, : इल्लि जन्मांशरवनन्ट्स सहिसदॆ एत डॆ । हमात्ताभुनगम माडिदवनु दृ प्त प्रपन्ननागि गर्नाद ्यनात्म गुण रहितनाद्दरिन्द अवन विषयदल्लि “मोक्षयिस्यानि’ ऎन्दु सु EE उपायानुष्का नतु कु इत्यादि - उपायानुष्का नक्कॆ अनन्तर फलवु वर्सडुवुदरिन्दलू, ईग उपदेश वेळॆयागिरुवुद रिन्दलू, ई आर्तन विषयदल्लियू, “मोक्षयिष्यामि? बन्दु- भविष्यत्काल - -निर्देशकॆ बाधकनेनू इल्ल. इवा र्तदृप्तॆनिभागमॆल्ला वर् इत्यादि - ई आर्तॆ दृप्त विभागगळॆल्ला सुकृत तारतम्म ब भगवदनुग्रह तारतम्यदिन्द उण्टागुत्तवॆ. (2) ह्ला त्ररब्ध मात्र भुक्तत्र इत्यादि - तत्तवन्नु तिळिदननागिग्दरू, प्रारब्ध ह भन. अनुभविसिये ब्रह्मानु भव सुखवन्न अनुभविसुत्तानॆन्दु, हेळिरुव इदे मॊदलाद वचनगळु- आर्त प्रसन्नन विषयदल्लि “अन्वयिसुवुदिल्ल (1) “आर्तेष्वाशुफला, सक्क देनकृताहैसौ” ऎम्ब वचनगळु आर्त्कन विषयदल्लि आर्ति प्रपत्तियु आगले प्रारब्ध वन्नु होगलाडिसि फलवन्नु कॊडुत्तदॆयॆन्दु हेळिरुवुदरिन्द. उत्सर्गापवाद न्यायदिन्द “प्रारब्द मात्न भुक्? ऎम्ब वचनवु आर्तप्रसॆन्न व्यतिरिक्त विषय. गृस्तस्र्पन्ननिगू- देहानसान सर्यन्तगळाद कर्मगळु मात्र अनुभाव्यगळाद्द रिन्द *प्रारब्दमात्रभुक्’ ऎम्ब वचनवु प्रारब्द सामान्यानुभवानन्तरवे फलवॆन्दु. ’ थजुपुडरिन्द्र ग्रस्त प्र सन्नन विषयदल्लू अन्वयिसुवुदिल्ल. “द हस्र पन्न न्. तिरत्तिल्? इत्यादि - दृष्ट प्रसन्नन, निषयदल्लि उत्तर कृत्यांशनन्नु कुरित ip ऎम्ब- “वाक्यद तात्पर्यवन्नु, “आध्यात्मिकाधि भौतिकाधिदैविक”… ऎन्दारम्भिसि. “अतस्त्यृन्तवतत्वतो” इत्यादियागि कृपॆमाडि हेळिरुत्तारॆ… आदागि…उत्तर..क्क ृत्यांशगळु यावुनॆन्दरॆ, तापत्रय सहिष्णुत्व, . द्वयार्थानु सन्धान, भगवद्ग्यान दर्शन, -प्राप्तिगळल्लि
- आर्तोवा यदिवा दृप्तः परेषां शरणागतः । अरिः प्राणान् परित्यज्य रक्षितव्यः कृतात्मना ॥ श्रीमद्रामायण युद्धकाण्ड 18-28. चरमश्लोकाधिकारः 1196 करुत्तै “आध्का ति तॆ आदिभौतिक ऎन्रु तुडज्जि फस $० तन तत्वतो मद्ज्ञा न दि प्राप्तिषु निस्स ०शय पट्य ¥ व्र रुळिच्छॆ यस् इज्लु शॊल्लुहिर शोक- निवृ त्रि क्सु ऒरुसदयालुव्: सङ्कोच मिल्ला नॊ याले व्रु पाय विशेष ज्ञा नत्ता बर् स ऎनत्तालुमाह सर्व -प्रकार शोक ‘हेतुक्क नलस मर् कनयामृडि शॊल्लित्ताहिरदु. - अनुष्टान पॆरृन्न ज्ञा न सॆनकात्रैम् स्या सदेश त्ता ले हरन; लुम्. म ।
- नगाथा गाधिनं शास्ति बहुचेदनि गायॆति । प्रकृतिं यान्रि भूतानि कुलिङ्ग शकुनिर्यथाग ॥ ताग फु खान चा साह सज (स जफ ब डा त्वांशवु “आध्याश्मि] क्र” आदि षरि ० निस्संशयत्च, उचित क्षेत्र वासादिगळु , इदरल्लि र्रान्रयॆ सहि भौतिक, आदि दैनिक दुःख विघ्नगन्ध रहितस् ग म्” ऎण्ट वाक्यदिन्द प्रकातितवु. द्वयार्थानु सन्धानांशव्रु “द्वय मर्थानुसन्धानेन स हसॆदैनं वक्त्वा’ ऎंओरिररिन्द प्रकाशितवु. उचित क्षेत्रवासांशवु “यावच्छरीरपातं अत्रैव श्रीरङ्गे. सुखमास्त्र”. ऎम्बुदरिन्द हेळल्पट्टितु. भगवद्दान न. दर्शन प्रास्ति गळल्लि निस्संशयत्वांशवु, “अतस्त ऒन्तवतत्वत्यो मद्य्यान दर्शन प्रास्तिसु निस्संशयस्सुखमास्त्र ऎम्ब वाक्यदिन्द तिळिसल्पट्टितु. शोकक्कॆ का रणगळु. “माशुजळि, ऎम्बुदक्कॆ हण्तु निध अर्थगळु इङ्गुकॊल्लंहिर वित्यादि - इल्लि हेळुव शोक निवृत्तिगॆ ऒन्दु रीतियल्लू सङ्कोचकरिल्ल दिरुवुदरिन्द ई उपाय विशेष ज्ञानॆविङ्गलू, आनुष्ठानदिन्दलू कूडॆ सर्व प्रकार शोक हेतुगळॆल्ला कळॆदु होगुवन्तॆ हेळल्पट्ट. चरमक्कॊ (कद उपदेशदिन्द विर्हट्टि उपाय ज्ञ्यान मात्रदिन्द शोकसामान्यव्र ‘निनृत्त्नागुवुदे ऎन्दकॆ आगुवुदिल्लवॆन्दु सोप पत्रिकवागि अनुष्ठान पर्यन्त मल्लाद ऎन्दारम्भिसि तिळिसुत्तारॆ. आदागि ज्ञानवु अनुष्कान पर्यन्त वागबेकु… उपाय ज्ञानवन्नु, पडॆद नन्तर शरणागतियॆन्नु अनुष्ठिसलेबेकु. केवल ज्ञानवु कार्यकरवागुवुदिल्ल. अनुष्ठान सर्यन्तनल्लद ज्ञान मात्तवु ई उपदेशदिन्द उण्टादरू, (1) “नगाथागाधिनं शा ५ इत्यादि गाथा-श्लोकवु, शास्त्रवॆन्दर्थ. गाधिनं- अभ्यस, शास्त्रनाद पुरुषननन्हि बहुगायति जेरपि- इतररिगॆ उपदेश माडुवननागिद्दरू, नशास्ति-नियमिसुवुदिल्ल. प्रकृतिं यान्तिभूतानि - बकुिशास्त्र्र ज्ञानियागिद्दरू पा )णिगळ्ळ तम्म तम्म स्थिभाववन्नुु कुळिङ्ग शकुनिर्यथा - कुळिङ्ग गतियु हेगॆ तन्न Kp बिडुवुदिल्लवो हागॆ बिडजि अनुसरिसुत्तारॆ. कुळिङ्ग सक्सियु सदा “मासाहसं कुरु” - साहुसका न्नु माडबेडनॆन्दु हेळिकॊण्डे, सिंहवु आकळिकॆ माडुनाग अदर तॆकॆद बायॊळगॆ कृता अदर हल्लुगळल्लि अण्ट कॊण्डिरुव मांसद चूरन्नु तटिकॆनॆ इच्चिकॊण्डु हॊरबीळुत्तदॆ. वा क
- भारत सभापर्व 42-21 1197 श्रीनाद्रहॆसत्रयसारे ऎन्सिर कणक्ळाय् निन्न योजन माहै याले ज्ञा नानु ष्कानज्ञ ळिरुणि नुड यॆवुम् फलनान त निवृ त्रि यॆल्ला म् इजु” निवक्षिक्किरदु. आहै याल् उपायानुस्ना नत्तिल् पूर्वासरमध्य दशॆ हतैप्पत्त त “सम्भावितनतान शोकमॆल्ला न् इज्ले क्यगकृप्प डुटरन. ऎज्जने ऎन्निल आधिकारनितेषत्तॆ 4यंवर् उपा ‘यनिशेषत्तॆ यन्, उत्तरॆ थत्य निशे षतॆ युव् परिपूर्ण पर्यन्त फलसिद्धि य्सैेयम्म् पत्तॆ फॆशिनडियाह सोकम् सम्भा वतन्. 1) अदिले अनुषि कृप्पुहुहिर शरणागति धर्मवर् जति’ वर्णाश्रमादि विशेष नियॆतमल्लाम्रॆ याल् प्रास्यरुचियम्म् प्रा पक निश्वा समुमु्, आकञ्चन्य ज्ञानादि हळुमुण्णानपोजॊरुवरु कुव नानिदुत्तु स्स् रिहळल्लोम् ऎन पसक नेणा .
- इव्रु पाय नविशेषम् सपरिकरमाह क्षणकाल साध्यमाय्, सुकरमाय्, आवृत्ति निरपेक्षनाय् उपायतान्तर व्यवधानमु म् दुष्क र परिकरान्नरमु मिनि क्के इ प्रदाय् कोलिन कालत्ति “ती अपेक्षित फलज्ग कॆल्ला वत्तॆ ग युवा तरवटा फ्रयिकुत्कॆ मार् आकिञ्चन्यमुम् फलविळम्ब भयमम्मण्डैयननुक्सु सपरिकरनाह चिरका बन्सि रकणक्का य् निस क्रैयोजनमाहै याले इत्यादि- ई रीतियल्लि `केनलज्ञ्यानवु निष्ट्रयोजन वागुक्त जियाद्द रिन्द ज्ञानानुष्का नगळरडर फलवाद शोक निन्न तियन्नॆ ल्ला इल्लि वपक्षिसुत्त दॆ. आहैयाल* इत्यादि _ आद रिन्द उपायानुष्मानदल्लि पूर्वापर मध्यदतॆगळन्नु कुरितु सम्भावितवाद शोकनॆल्ला इल्लि निवर्किसल्पडुत्तदॆ. ऎङ्गनेयॆन्सि ल् इत्यादि - हेगॆन्दरॆ, अधिकारि विशेषनन्नू (इदु पूर्वदशाविषय), उपाय विशेषनन्नू (इदु मध्यदशाविषय), उत्तर कृत्य विशेषवन्नू सरिपूर्ण कैङ्कर्य सर्यन्त फलसिद्धियन्नू (इवॆरडू अपरदशाविषय) कुरितु अनेक विधवाद शोगळु सम्भावितगळु. अधिकार सम्बन्धवाद शोक निवृत्ति- 1])अदिल् अनुष्ठि कृप्पुहुहिर इत्यादि - अदरल्लि अनुषस्मिसलु आरम्भिसुव शरणागति धर्मवु ऒन्दु जाति वर्णाश्रमादि विशेष नियतवा् अला नॆैयाले - निर्बन्धविल्लदिरुवुदरिन्द. (आन्दरॆ ब्राह्मण, सन्यासिंयम्ब निर्बन्धविल्लदॆ) प्रास्यरुचियू, प्रापक विश्वासवू आकिञ्चन्य ज्ञानादिगळु उम्बादसमयदल्लि यारिगू नावु ई प्रसत्रिगॆ आधिकारिगळल्लनॆन्दु तोतिसबेकि. उपायु विशेष सम्बन्धवाद शोक निवृत्ति
- इव्रसाय विशेषम् इत्यादि - ई उपाय विशेसषवु सपरिकरमाह - अङ्ग गळॊडनॆ क्षणकाल साध्यवागि- सुलभवागि अनुष्मिसिल्पडलु शक्यवागि, आवृत्ति निरपेक्षवागि, उपायान्तर व्यवधानवू (अन्दरॆ भक्ति योगवन्नु अनुष्ठि सिद नन्तर फलसिद्दि ऎम्बुदू) दुष्कर परिकरान्तरमुम्-माडल शक्कगळाद यमनियमादि. अङ्गगळू, इनि ्रिक्टेजरुप्प दाय् इल्लदे इरुवुदागि कोलिनकालत्रिले इत्यादि - इवनु अपेक्षिसिद कालदल्ले, इवनिगॆ अपेक्षित गळाद ऎल्लू फलगळन्नू कॊडुवन्तॆ इरुवुदरिन्द आकिञ्चन्यवन्नू फलविळम्ब भयवन्नू चरमश्कोकाधिकारः 1198 लानु वर्तिनीयमाय्, अत्यत्ताव हितर्ळु म् कृभ्रसाध्यमाय्क तथाविध परिकरान्तर सापेक्षमुमाय् फलनिळम्ब “नुमुड्टै तान उपायास्तरत्तिले अल्लैयनेण्ट्नुहिरदो नॆन्रु शोकिक्कवेण्ना. ks
- इप्प डि लघूसायमात्र त्ताले नशीकार्य नाय्, फल प्रदानम् पण्ण विरुक्कि र शरण्यन् सर्व `सुलभना य् विश्व सफीय PRR परमं RU निरॆणु शॆ स्वतन्त्र नारी इरुक्कॆ याल् सिद्धोपायत्तॆ ैप्पुत्त तॆ शोकिकृवेण्हा.
- इव्रुपायॆंष्मानत्तु, क्सु फि फस्टु आज्ञा नुज्जॆ ःहळाले पण्णु म् स सत्यक्क ज्ञ ळॆल्ला म् इस्ट पत्तिक्कु अज्जमल्लू मैयारे” अवत्तु, क्कु देश कालादि वैगुण्यत्ता ले शिलनॆ कॆलवु हा नालुम््, उपासनतु ३ क्ळुप्पॊ ल् इदुक्टु परिकर वैकल्यं पिरक्कि रदोवॆनु प शोकिकृ नॆणा. । मु
- भगवक्कॆ ऎ ज्टुर्या दिहळुक्कु अनर्हतॆ यॆण्डाक्कुम् बुद्दि पूर महाभागनतापचारादि हळ्ळॆ विळ्सै त्र. दग । पटिम्पोले आक्कवल्ल प्रा रब्ध फलमान. पा पनिशेषत्तु क्कञ्जि प्रथम प्रसत्ति कालत्ति ले यादल्, सिन्बॊरुकाल् अदक्का ९ह प्रसत्तिपण्णियादल्, निशॆपरा धमान स उत्त रक त्क प् अपेस्तित्ताल् मेल् अपराध प्रसज्जत्तॆ “युव् पत्र शोकिकृवेण्णा. ४ लॆ पडॆदिरुव नमगॆ ससरिकरवागि (अङ्गगळॊडनॆ) चिरकालानुनर्तिठीयवागि अत्यन्तावहितर्बुम् - बहळ सावधानवागिरुववरिगू कृच्छ असाध्यमाय् -. कष्ट साध्यवागियू, आ विधवाद सपरिकरान्तरगळन्नु अपेक्षिसॆ तक्कगुदागियू, फलवु विळम्बनन्नू पडॆदिरुव भक्तिरूप उपायान्तर रल्लि अलॆदाडबॆ (कागि बरुत्तदॆयो यॆन्दु शोकिसबेड, सिद्धोसायनन्नु कुरितु एर्पडुव शोक निवृत्ति (3) इप्पडि लघूषाय मात्रत्ताले इत्यादि - हीगॆ लघुवाद शरणागतियॊम्ब उपाय मात्रदिन्द वशीकार्यनागि सङ्ग sd माडलिरुव शरण्यनु सर्वसुलभनागि विश्व सनीयतमनागि परमकारुणिकनागि निरङ्कुश ’ स्वतन्त्ल श्रनागिरुवुदरिन्द सिद्धॊ (पायनन्न्नु कुरितु शोकिसबेकिल्ल. उत्तर कृत्य निषयक शोक निवृत्ति (4) ई उपायानुष्मानानन्तर आज्ञानुज्ञैगळिन्द माडुन नित्य नैमित्तिकादि सत्सर्म गळॆल्ला ई सप्रसत्तिगॆ अङ्गनल्पवाद्दरिन्द अवुगळिगॆ देशकालादि वैगुण्यदिन्द कॆलवु नैकल्यम्- न्यूनतॆयु उण्टादरू, उपासनॆगॆ इरुवन्त, ई प्रसत्तिगॆ परिकर - अङ्गगळ वैकल्यवु उण्टागुत्तदॆयो ऎन्दू शोकिसबेकिल्ल. (5) भगवक्कॆ पङ्कर्गा दिहळुक्स्क इत्यादि - भॆगनत्तै छङ्कर्यादिगळिगॆ अनर्हतॆयन्नु टु माडुव ४ बुद्धि पूर्वक मॆणाभागन ता- चारादिगळन्नु आ ०टु माडि दग्गपटं पोले - सुट्ट बट्टॆयन्तॆ 1199 श्रीनु ग्र्हस्य त्रयॆसारे
- इप्पडि निरपराधनान उत्त रकृत्य त्तॆ । असेस्तियादार्कु वा् मेल् बुद्धि पूरा सरा धम् विस्टा लुम् 1) “नत्य जेयॆ& ‘सकॆचन” ऎन्रु इरुक्ळ कडव शरण्यन् इननङ्क्कु अनुतास त्रि यॆण्ड इक्कि प्र पुनः प सत्रियाहिर प्रा यति त्र निशेषत्ति ले मूट्टि युव् अदुवुम् ‘ृतप्पु म्पु डियान ह प्र कृ तिहळुसु pe रूपब ळान उपक्णॆ `तमात्र 0 गळ्ळॆक्काट्टि, मॆ” लिनरा धम् पण्णा दपडि “ निलक्कयुम, फलम् कोलिन ‘कालतु ळ्ळ मुन्से इण्ण- १क्कॆ याले प्रसस्य्य सुक्कू निन्नॊळपोले कोश, नि तै निल्लु देपोहिर बुद्धि पूर्जा पराध लेशण ळाले “कादि महाक्षॆ ीशज्ग४* वरिल् 9 शॆय्व न ननु शङ्कित्तु शोकि कृनेण्णा.
- आर्त प्रपन्ननुक्कु अन्फोदे फलसिद्धियुण्डाम शडियिरुक्कॆ 4याले 2) देहे चेति (तिमान् ऎ 1 जक्क नरकेसिस्य? ऎन्रु मुडि नरक शुल्यमान इशृ रीरं घु रिक्टिरदोनन्रु शोकिक्कन (५. माडबल्ल प्रारब्ध फलवाद पास विशेषक्कॆ. हॆदरि प्रथम प्रस्त, कालदल्ले आगलि, अनन्तर कुलदल्लियागलि अदक्कागि प्रसश्तियनल्नि माडि, निरसराधनाद उत्तर कृत्यवन्नु अपेक्षिसिदरॆ तदनन्तर अपराधगळु सम्भविसुत्तनॆयो ऎन्दु शोकिसबेड. (6) इप्पडिनिरपराधमान इत्यादि - हीगॆ निरपराधवाद उत्तर कृत्यवन्नु असेक्षिसदॆ इरुवन७गू आनन्तर बुद्धि पूर्वापराधवु बन्दरू (1) नत्य जेयङ्कथञ्चन - याव रीतियल्लू कैबिडुवुदिल्लनॆन्दिरुव आशरण्य शरण्यनु. इवनिगॆ ग ०टु माडि पुनः प्रपति, यॆम्ब प्रायश्सिक्र् : निशेषदल्लि नूडिसियू, अदू कैतप्पु नन्तॆ इरुव कठिन प्रकृतिगळिगॆ शिक्षारूसगळाद उपक्लेश मात्रॆगळन्नु तोरिसि मुन्दॆ असराधगळन्नु माडदॆ इरुवन्तॆ तडॆदू फलवन्नु असेक्षिसिद कालक्कॆ मुञ्चिसवागिये. कण्ण! _ गक्कैयाले-आ प पासगळन्नुहोगलाडिसुवुद रिन्दल्यूप्रपन्न निगॆ मिस्मू ४पोलेतोट्र मिञ्चिनन्तॆ तोरि, निलैयागिल्लदॆ मकॆयुन, बुद्धि पूर्नापराध लेशगळिन्द नरकादि : महाक्सेशगळु बन्दरॆ. माडुवुदेनॆन्दु शङ्किसि शोकिस बेड. अन्थहॆ’ नरकादिक्सेशगळु’ बरुवुदिल्लवॆन्दु तात्पर्य, (7) आर्तप्रपन्ननुक्टु इत्यादि - आर्त प्रपन्ननिगॆ आगले फलसिद्धियुम्बागुवन्तॆ : इरुवुदरिन्द (2) देहेजीत् प्रीतिषान् इत्यादि -मांस, रक्ष मॊदलादवुगळिन्द तुम्बिद ई देहदल्लि पि ९ तियुळ्ळैवनु, नरकदल्लियू प्रीतियुळ्ळवनागुत्तानॆ ऎन्दु हेळुवन्तॆ, नरक तुल्कवाद ई शरीरवु अनुनर्तिसुत्तबॆयो ऎन्दु शोकिसबेड.
- मित्रभावेन सम्प्रूप्तं नत्यजीयं कथञ्चन । दोषो यद्यपि तस्मस्कात् सतामेतदगर्जितम् ॥ श्री मद्वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड 18- ] मैश्रीभावदिन्द नन्नल्लि शरणागतनादवनन्नु याव विध दल्लियू कैबिडुवुदिल्ल. अवनल्लि दोषगळिद्दरू सत्पुरुषरु अवनन्नु तिरस्करिसुवुदिल्ल. 2) . मांसास्कक् पूयविण्मूत्र स्नायु मज्जास्थि सम्भवा ॥ दे हेचेत् प्रीतिमान् मू भविता नरकेपि सः ॥ विष्णुपुराण 1-17-63चरमुश्लॊ काधिकारः ; । 12010
- कर्कयोगव् मॊदलान निन ऎत्ति थर्मज्ञळिल्लाम् “नेहाभिकृम नाशोस्ति? इत्यादिहळिर् आडिये यिट्ट पडैक्क र डैयाक्म यालुम् इशृरणागतन्रॆ प्पत्त निशेषित्तु “स्र तृजेयं कथञ्चन ऎनॆ. यामिना, दृप्र प्र प्रपन्ननुक्कु होरि कालत्तळवु निळम्ब त्तालुम्, फलसिद्धि यिल् oe नलामैसारे, 3) सहज त न तेन क्लरति भ् हरति विस यात् आयर्विप्प हरीवादा त् दानं च हरि कीर नात्” इत्यादिहळिर् पडिये सुकृतनाशकज्ग जन शन शिलदुष्भृतज्ग ४ाले इप्प पत्ति रूपमान सुक्र तम् नशित्तु फलं किडैया दर्द्योॊयिर् शॆय्वदॆन्र न्रु कोक नेण्ला. ।
- इश्यरीरानन्तरं मोक्षम् पॆरनेणु मॆन्रु कालं कुरिक्टैया ले जन्मान्तरादि हेतुक ळान प्पा रब्ब कर्म निशेषज्ग ळाले नम्मक्क जन्मान्तरज्ग ४5 वरिल् कॆंश5वदॆन्न न्रु कोकिस् नेण्मु
- अनन्य स्रयोजननाय् प्रपन्ननान इवनुक्कु प्रति बन्धकङ्गळान सर्वषापज्गळुवु्
- कर्नुयोगम् मुदलान इत्यादि - कर्मयोगवे मॊदलाद निवृत्ति धर्मगळॆल्ला “ 3)नेहाभिक्रमनाशॊटस्ति” (आरम्भिसिद धर्मानुष्ठानवु नशिसदॆ, स्वल्पवागिद्दरू महत्तर वाद भयदिन्द कापाडुत्तदॆ)इत्यादि हेळिरुवन्तॆ इट्टपडैक्करृडै- हाकिद अस्तिवारवु कल्लुकट्टडदन्तॆ शाश्वतवागिरुवुदरिन्दलू, ई शरणागतनन्नु कुरितु विशेषिसि “नत्यजेयं कथञ्चन- याव रीतियल्लू कैबिडुवुदिल्लऎन्दु हेळिरुवुदरिन्ददू दृप्तप्रपन्न निगू अननु अपेक्षिसिद काल पर्यन्त विंळबिसिदरू फॆलसिद्दियप्लि संशयविल्लदिरुवुदरिन्द (3) “यज्ञोन्नृतेनक्षरति? इत्यादि . यागवु सुळ्ळु हेळुवुदरिन्द नशिसुत्तदॆ, तपस्सु विस्मयदिन्द अन्दरॆ इष्टु कष्टवाद तपस्सन्नु नानु माडिदॆ, ऎन्दु आश्चर्य सट्टु स्तोत्र माडिकॊळ्ळवुदरिन्द नशिसुत्तदॆ, ब्राह्मणर दूषणॆयिन्द आयुस्सु क्षीणिसुत्तदॆ. दानवु हेळि कॊळ्ळुवुदरिन्द फलसिद्धियिल्लदॆ नशिसुत्तदॆ इत्यादिगळल्लि हेळिरुवन्तॆ सुकृत नाशकगळागिरुन कॆलवु दुष्कार्यगळिन्द ई प्रपत्रि रूसवाद सुकृतवु नशिसि फलव लभिसदे होदरॆ माडुवुदेनु ऎन्दु शोकिसबेकिल्ल. ई प्रसत्तियु “फशिसुवुदिल्लवॆन्दु तास्पर्य. (9) इश्यरीरानन्तरव् इत्यादि - ई शरीरवु कळॆदु होद नन्तर मोक्षनन्नु हॊन्द बेकॆन्दु कालनन्नु निर्देशिसिरुवुदरिन्द जन्मान्तरादिगळिगॆ कारणगळाद प्रारब्द कर्म विशेष गळिन्द नमगॆ जन्मान्तरगळु उण्टादरॆ माडुवुदेनॆन्दु शोकिसबेड. देहानसानदल्लि मोक्षनन्नु अफेक्रिसि शरणागति माडिदवरिगॆ यान कारणदिन्दलू मोक्षवु विळम्बिसुवुदिल्लनॆन्दु तात्पर्य. परिपूर्ण कै ०कर्य सर्यन्तॆ फलसिद्धि निसयकवादशोक निवृत्ति. (10) अनन्य प्र योजननांयं् इत्यादि - अनन्य प्रयोज ननागि प्रसन्ननाद इवनिगॆ म म मा- ला 1201 । श्री नुन् स भत क(0गै याले केनलात्माः नुभवादिहळान अन्तरायॆज्ञ ळाले परम फलत्तु क्कु निळॆम्बं नरुटिरडो ऎन्रु शोतिकृवेह्मा. इप्प डि सर्वप्रकार शोक हेतुक्कुळुम् कः (युम्पडियॆनक्कु अनुग्रह निषय भूतान नी जि शोकिक्टैैयावदु मुन्नु निग्रह भॊतनाय् निन्र दशर् शोकि यादाप्ट्पोले अनिपुणकृत्यमाय्, इव्रु ह वैलक्षण्यत्तु कवर् रक्षण भरव एरिट्टुक्कॊळ्ळु ओर सिदॊ ही हायभूतनान ऎस्प्र्रैभावत्तु क्फुवर् ऎन्स कृ लिले सर भरन्यासम् पण्णि तॆ तकृत्यनायिरुक्ति र उफि लैकु म् a न्रॆन्रु तरुप्रळॆ, म्. इप्प डि चरमु श्लॊ (कत्ति ल् सारतमवतान “माशुचळि ऎन्नि र चरम श्लॊ आकत्तिल$ तात त्तॆ त्र ज्गळ् चरनु “दक्कि यिले आचार्यर् सच्चि ‘ष्यरुक्कु उपदेशिष्टा र्हळ्. चरवनुश्लोक पदार्थान् सब्ल )हेणाह उ [a इक्लोकत्तिल् पद ४ळल् अडैवे आधिकार निकेषम्, अकिञ्चन्य सुरस्कारम्, दुष्टर स १ सप्रतिबन्धकगळाद सर्वपापगळू निवृत्तियागुवुदरिन्द केवलात्मानुभवादिगळाद,, आन्तरायं गळाले - विफ्नगळिन्द परम फलक्कॆ निळम्बवु बरुत्तदॆयो ऎन्दु शोकिसचेड. . इप्पडि सर्व प्रकार इत्यादि - हीगॆ सर्वप्रकार शोक हेतुगळू कळॆदु होगुवनन्ति ननगॆ अनुग्रह विषय भूतनाद नीनु इन्नु मेलॆ शोकिसुवुदॆन्दक्कॆ पूर्वदल्लि निग्रह विषय भूतनागि निन्तिरुव दशॆयल्लि शोकिसदॆ इरुवन्तॆ अनिप्रुण कृत्यवागि, ई उपाय विशेषद वैलक्षण्यक्कू, रक्षण भरनन्नु मेलॆ हॊरुव सिद्धोपाय भूतनाद, : नन्न । व स व्र ट्ट भ (भगवन्तन) प्रभावक्कू, नन्नल्लि सर्व भरन्यासवन्नु माडि कृतक तनागिरुव निन्न स्थितिगू सॆरियल्लनॆन्दु भगवन्तन अभिप्राय. नेलॆ हेळिद अर्थगळु अत्य त रह स्कगळु इप्पडि इत्यादि - हीगॆ चरनुश्लोकदल्लि साटि “माशुचः” ऎम्ब चरम षा तात्पर्यवन्नु तम्म चरम - अन्तिम “दशॆयल्लि आचार्यरुगळु सचि ैस्यरुगळिगॆ उपदेशिसुत्तारॆ. इवु अत्यन्त रहस्यगळु ऎन्दर्थ चरमुक्लोकद अर्थ सङ्ग्रह अनन्तॆर चरमश्लॊ (कद अर्थवन्नु इश्कॊ इत्ति ल् आडि मे ऎन्दारम्भिसि. सङ्ग्रहिसुत्तारॆ. अदागि चरमश्लॊ (कदलि अडैने - क्न क मनवागि, (5 ब विशेषम् व सर्वधर्मान् परित्यज्य ऎम्बल्लि “अतो ‘शक्ताधिकारत्व्तम्” ऎन्दु आशक्तनिगॆ अधिकारत्ववु हेळल्प ट्र तु. इडु अनुवादॆ सक्षरल्लि हेळिद आकॆञ्चन्य यात अधिकार विशेष. (9) अकिञ्चनै. पुरस्का रम्- आकॆञ्चन्यवन्नु मुन्दिट्टु कॊ सृनुदु. विधि पक्षदल्लि अकिञ्चननाद नीनु नमगॊ सर्व धर्मगळन्नू बिट्टु ब हेळुवुदु. आकॆञ्चन- स्यानुसन्धानात्म- नाद कार्पण्य रूपाङ्ग विधान वॆन्दर्थ. (3) दुष्ट रॆ सरिकरान्तरनै रषैक्स्यवा् - प्रसत्तिगॆ निहितगळाद. ऐदु. अङ्गगळु चरमश्लोकाधिकारः परिकरान्तर नैरसेक्ष्यम्, आशक्यप्रवृत्त न गाजित्यम्स्, दुष्कराभि निनेश वैय्यर्थ्यमः् सुलभत्त उपाय सुशीलत्वादि विशेषत्तिन् शुणॆ गुणपूर्णत्वं, । युडन्नॊ, प्राप्यने पुम्मङ्क्षुपुकु स्रापकनानमै, शरण्य विशेषम्, हिततनोपनीशित्वने? शरण नुड्कॆय निरपेक्ष स्वविषय निप्प्रत्यूह कर्त Ki म्, व्या वमात्र पॆ तीत्सत्त म्, तिजयनिन र व्यवधान शरण्यान्तर स्वीकर्र त्वम्, निरपेक्षत्तम्, परिग्रहासहत्वम्, PS शरण्य सेक नैशिस्ट्य म्, प “सद्य उपायास्रर बान सर्रफलार्थि स्थान शरॆण्यत्वनर्, निनॆ ीशृत्वर्न् ’ भर 1212 भरना ्यसरॊस साभ्यॊ €पायॆ निशीषम्, अदिन् AT सर्वाधिकारत्तम्, याववू बेडदिरुवुदु. इदन्नु “अनङ्गभावोधर्माणां’ ऎन्द) सङ्ग्रहिसिरुत्तारॆ. 4) अशक्क प्रवृत्य नौचित्यं - “अशक्यारम्भवारण’ ऎन्दु. हेळिद आशक्यवाद कार्यगळल्लि प्रवृत्तियु अनुचितॆ वॆम्बुदु, (5) दुष्कराभिनिवेश वैय्यर्थैवा् - “तत्स्रत्याशाप्र शमनम्’ -भक्तियोगवनन्नु स्वल्पवादरू आरम्भिसि माडोण ऎम्ब प्रत्याशॆयु व्यर्थवॆन्दु तिळिदु अदन्नु बिट्टु शान्त मनस्कनागिरुवुदु. ,6) उपाय विशेषत्तिन् शुणैयखण्डै मै - उपायान्तरासहिस्सुत्व चं अतिशयवु वनागिरुवुदु, “ब्रह्मास्त्र न्याय सूचनम्” ऎन्दर्थ. ई आरू सर्व धर्म सन्त्याग शब्दार्थगळु (7) मुमंश्षुवुक्ळु शरण्य विशेषम् - मोक्षदल्लि आसॆ युळ्ळवरिगॆ शरण नु सर्वेश्वरनु, 2 शरण्यन्युडैय. इत्यादि - शरण्यन सुलभत्व सुशि-लत्वादि गुण सङ्घट (२9) हितकनोपदेशित्वनत् - हितॆतमुवाद उपायवन्नु उसदेशिसुवुदु, (7, 8, 9) इवु मूरु “मां शब्दार्थगळु. अनन्तॆर एकशब्दक्कॆ ऎण्टि अर्थगळन्नु हेळुत्तारॆ :.. (10) प्राप्यने प्रासकनानमै - प्राप्यनाद भगवन्तने; प्रासकनु - “प्रास्यस्यैन प्रासकश्वम्” ऎम्बुदु मोक्षनन्नु कॊडुववनागिरुवुद्कु (11) ३र पेस्ट सर्व विषय इत्यादि - स्वप्टाधान्य निवारणम् ऎम्बुदर अर्थ - याव अपेक्षॆयू इल्लदॆ सर्व विषयगळल्लियू याव तडॆयू इल्लदॆ प्रधान कर्ता भगनन्तनॆम्बुदु (12) म्याज मात्र प्रतीक्षत्ववर् - व्याजसापेक्षनागिरुवुदु. प्रपत्त्ये र्व्याजमात्र म्म् ऎम्बुदर आर्थ- (15) सहायान्तक व्यवधान निरपेक्षत्वम् - fe J Re ऎम्बुदर अर्थ. - अदागि भक्तियोग रूसवाद उपाखयान्तर न्यवधानवन्नु असॆ क्षिसदिरुवुदु. (14): ‘पॆरिकरारतर निरपेक्ष प्रसाद्यत्वम् - तदङ्गैैॆरस्य सम्बन्धः, ‘प्रसत्रिगॆ स्ट अङ्गगळु विनह इतर अङ्गगळु बेडदिल्लवागि, स्रसन्ननागुवुदु. (15) सर्वफलार्थि शरण्यत्त्व म् - “सर ्र साभ्येष्ट भन्नता’ ऎन्दु हेळिरुनवॆन्तॆ’सर्न फलगळन्नु अर्थि सुववरिगू शरण्यनागिरुवुदु (16) शरण्यान्तर परिग गृैहासहत्वम् - इतररन्नु रक्षकरन्नागि वरिसकूडडॆम्बुदु’’ (17) शरण्यनै शिस क्रम् लक्षि क विशिष्ट्यनागिरुवुदु (16) मत्तु (17) इवॆरडू एकशब्ददल्लि आर्थिकवागि लभिसुव ‘शिर्थगळु- (18) उपायान्तर स्था ननिनेशृत्वम् भक्ति योगनॆम्ब “उपायान्तर स्थानदल्लिरिसुवुदु. (19) भॆरसि बकतृत्व म् - भक्षियोगवॆम्ब’ भरनन्नु तन्न मेलॆ 1 निरिसिकॊळ्ळुवुदु. (18) मत्तु (19) इवॆरडू शरण शब्दार्थगळु अनन्तर “व्रज? ऎम्बुदक्कॆ शाब्दवागियू आर्थवागियू लभिसुव अर्थगळन्नु भरन्यास 1208 ’ त्री नुग्रॆहॆस्कत्र्रयसारे सक्कतृर्रव्यत्तम्, सुकरत्वम्, आनिळम्बित फलस्र्र दत्तम्, प्रा रब्द निवर र्र कश्षमत्त म्, अधिकारियिनुडै य पराधीन कर्त त्वम्, शास्त्रनश्यत्ववं् रक्षकनुडै य परमकारुणिकत म्, सुप्र सन्न त्वम् निरज्णुुश स्वातन्त्र्यम्, दुर्लिवारत्व म् सरानपेक्लत्व मुजळवसर सॆ प 5 तीक्षत्त मे शॆरहागतनुडॆ यं कृ तक तृत्व म्, सरिगृ SR ee तत लङ्गळ्ळॆ प्पत्त त्त कर्रव्यान, रत्तिल् प्राप्ति यल- न्न. भगवहतृर्थप्रियत्व म्, तॆ श्र का इलिक निकोधॆभॊयस्त. म् निकोधिवर्ग नै चित्र म्. अनत्तिनुडैय ईश्वर सज्जुल्ल निवर्तृत्वम्, प ग्रैपन्नेच्छा नियतमान नय् निवृत्ति pe रूप साध्योपाय विशेषव ऎन्दारम्भिसि प्रारब्ध निवर्तनक्समत्ववरत् ऎन्दु एळु अंशगळिन्द तिळिसुत्तारॆ. अदागि (२0) भरन्यास रूप साध्योपायवु व्रज ऎम्ब धातु विनिन्द विधिसल्पडुत्तदॆ. (21) अदिन्परिकरङ्गळ् - आ उपाय विशेषवु आनुकूल्य सङ्कल्पाडि परिकरगळॊडनॆ अनुस्किसतक्कद्दु. (22; सॆवा ९धिकारत्व व् - आ उपायॆदल्लि आकिञ्चन्यानन्य गतित्वगळन्नुळ्ळ सर्वरिगू, जात्यादि व्यत्यास. इदॆ अधिकार, अणु (28) सक्स तृतृत्वनर् - ऒन्दु सलवे माडतक्कद्दु. (24) सुकरत्तनवु*् - सुलभवागि अनुष्ठेयवु २न आनिकम्बतफल प्रदत्वम् - विळम्बनिल्लदॆ फलवन्नु कॊडतक्कद्दु. (26) प्रारब्द निवर्तनक्षमुत्वम् - प्रारब्ध कर्मवन्नू होगलाडिसशक्कद्दु. (27) अधिकारियिनुडैय प-इधीन कतृत्वम् शरणागति माडुव अधिकारियु भगनदधीननाद कर्ता- ऎम्बुदु 28) शास्त्रवश्यैत्वम्-शास्त्रक्टॆ वशपट्टि रुवुदु इवॆरडू “व्रज? ऎम्ब धातुविन मॆलिन मध्यम पुरुषद अर्थ. नन्तर “अहं” शब्दद आरु अर्थगळन्नु (29) रक्षकनुडैय परनुकारुणिकत्वम्” ऎन्दारम्भिसि. तिळिसुत्तारॆ अदागि रक्षकनाद भगवन्तन परनुकारुणिकत्व, (30; सुप्रसन्न त्वम् प्रुपत्तियिन्द प्रसन्मनागिरुविकॆ (51) निरङ्कुश स्वातन्त्र्यम् - “मोक्षयिष्यामि? ऎम्ब सङ्कल्पक्कॆ याव तडॆयू इल्लद स्वातन्त्र्य, 35, ) दुर्किवारत्वम् - निरङ्कुश स्वातन्त्र्यदिन्द याव तडॆयू इल्लदिरुविकॆ. (88) परानपेक्षत्वम् - इतरर अपेक्षॆयिल्लदिरुविकॆ. (24) अवसर प्रतीश्षत्ववु् कालवन्नु प्रतीक्षिसुत्तिरुविकॆ. अनन्तर मूरु अंशगळिन्द “फ्रा? शब्मार्थवन्नु सङ्ग्रहिसुत्तारॆ. आदागि (55 शरणागतनुडैय कृ कृतकृत्यत्वम् - “त्वा? पददिन्द शरणागतनाद नीनु कृतकृत्यनु ऎम्बुदु, (36) परिगृ हीत ‘उपायतत्छ लङ्गळ्ळॆ : इत्यादि इवन अनुष्ठि सिद शरणागतियॆम्ब उपाय मत्तु ey फलगळन्नु कुरितु बेरॆ यान कर्तॆव गळू माडबेकिल्लदॆ इरुवुदु. (87 भगवदत्यर्थ प्रियत्वम् - भगवन्तनिगॆ बहळ प्रीति -पात्रनागिरुविकॆ, “सर्वपापेभ्यॊलि शब्द्बार्थगळु मूर्त, (38) त्रैकालिक निरोधिभूय स्त्ववं् - भूत भनिष्यर्वर्तमान कालगळल्लि ऎर्पट्टि विरोधि पापगळु पाप शब्दार्थ, मगळु अनन्तगळागिरुवुदु बहुवचनार्थ. (39) निरोधि वर्गवैचित्र किव - पापगळु _विचित्रगळागिरुवुदु सर्वशब्दार्थ-अनन्तर मोक्षयिष्यामि शब्दार्थवन्नु (40) अवट नुडैय ईश्वर सङ्कल्प मात्र निनर्त्यत त्ववर” ऎन्दारम्भिसि, (41) “अपुनरावृत्ति स्य पर्यन्त . कोड . करिसुत्तारॆ. औिदागि (42) अट त्रैनुडैय इत्यादि - आ पापगळु क्षमॆ ( - क्रून्तम् ऎम्ब ईश रन “सङ्कल्प माव्रदिन्द i CE तक्कवु. (48) प्रसन्नेच्छा निय तमान निरोधि Wes चरमश्लॊ काधिकारः . 1204 कालम्, विरोधि निवृ त्ति स्वरूपम्, अत्म’ त्रॆ वल्यवा ्य्यावृत्त त. यथावसि बतॆस्टरूपानिर्भावम् परिपूर्ण भगवदनुभवर्् सर्वविध कैैङ्करॆ म्, अपुन नरावृत्ति, मुन्नु शोकहेतु प्रा चुर्य म् ‘हिन्फु शोक प्राप्ति यिला मै, विमर्शकालमॆल्ला द् निस्स न्तॆयॆत म्, शोक निवृत्ति, निर्भयतॆ म्, हर्षनिशेषम्, शरीरपातकाल ५ प्रतीक्षत्त्व म् निरपराध कैङ्कर्य रसिकत्तम्, ऎनु ननॆ प्रधानमाय् मत्तु निंवत्तु र्ळु अपेस्सितज्गळॆल्लामा् शब्द शक्ति, यालुवा् अफुस्वभादत्ता लुम् अनुशिप्ट ऎगळ््, चरमश्लोकस्य समुदितार्थः. आल्पज्ञनायर्, अल्पशक्तिया य्, परिमितकालवर्तियाय्, विळम्बक्षमनु मन्रिक्के इरुक्किर उन्माले, अरियवुम् अनुष्टिकृवुवु् अरिदाय्. फलनिळम्बमुमुण्णा यिररि कर उषायतान्तरज्गळिललैयादे सर्व सुलभनाय् सर्वलोकशरण्यनाय् शरण्यत्तोप me निवृत्ति कालम् - आ विरोधिगळन्नु होगलाडिसुव कालवु प्रसन्नन ‘इच्छानुसारवागि दीहानसानदल्लियो, क्षिस्रवागियो, प्रारब्ध कर्मावसानदल्लियो .’ एर्सडतॆक्टद्सु. (44 ह निवृत्ति स्वरूपम्’. £रोधि पापगळ निनर्तन स्वरूप, (42, 43, 44) इवु मूरू अनिष्ट निवृत्ति स ळु (45) आत्मकॆ वल्य व्यावृत्त त्त यथा वसि त स सै रॊपाविर्भूवम्- Ue गूसॆ कैनल्यानन्दक्किन्त सग यथानस्थ तवाद भगनचॆ [पत्वरूस स्वस्तरूपा विर्भाव (46) परिपूर्णभगवदनुभनम् - परिपूर्णवाद भगवन्तन अनुभव. ’ (47) सर्व विध क्रैङ्कग्यम् - सर्वजीश, सर्नकाल, सर्वावस्योचित सर्वविध कैङ्कर्य, (48) अपुन रावृत्ति - हिन्तिरुगि बरदे इरुवुरु (45) रिन्द (48) रवरॆगॆ इवु नाल्कु इष्ट. प्रान्ति रूप. (49 इस शोक हेतुपा स भत ऎन्दारम्भिसि ऎण्टु अंशगळु “माशुचः ऎम्बुदर वाक्कार्थ. अदागि प्र्सत्तिगॆ मॊदलु स्रचुरवाद शोक हेतु. (50) निन्नु शोकिक्क प्राप्ति यिल्लामृु - शरणागतनागि न्यस्त भरनाद’ नन्तॆर शोकिसलु प्रास्तियिल्लदिरुवुदु. (51) विमर्श कालमॆल्लाम् निस्संशयत्वम्’ - स्रसत्यनन्तर विमर्शन क्लालदल्लल्ला फलसिद्धियल्लि , संशय विब्धदिरुवुदु (52) शोकनिवृत्ति — “सर्वविधगळाद शोकगळ निवृत्ति. (53) निर्भयत्व ०२ प्रपत्र्यनन्तर नरक भयविल्लदिरुवुदु (54) हर्ष निशेषम् - मोक्ष फलव्रसिद्धि सुत्तजॆयॆेम्ब फॊ विशेष. (25) शरीर पातकालप न्रृतीक्षत्त म् - यावाग ई शरीर पतनकालवु बरुत्तदॆ अन्दकॆ अभ्युपगत प्रारब्ध कर्मवु टा कळॆयुत्तदॆयिन्दु प्रतीक्षिसि कॊण्डिरुविकॆ. (56) निरप ह हॆ । ङ्कर्यरसिकत्यॆ व् - निरपराधवाद कैङ्कर्य दल्लि रासिक्यविरुविकॆ, ऎनि ्रिवैप्रधानमांय् इत्यादि - ऎन्दु इवुगळु प्रधानगळागि, मेलू इवुगळिगॆ अपेक्रितगळादनॆल्ला शब्दशक्तियिन्दलू अर्थ सैभानदिन्दलू अनुशिष्टङ्गळ - अनुसरिसि हेळल्प ट्टु. क् चरमक्लोकद समुदितार्थ अनन्तर चरमुश्लोकद समुदायार्थवन्नु अल्पज्ञ इयु इत्यादि तिळिसुत्तारॆ. अदागि अल्पज्ञनागियू अल्बशक्तियागियू, परिमितकाल वर्तियागियू विळम्ब क्षमनू अल्लदे इरुव : निन्निन्द तिळियलू अनुष्मिसलू कष्टवागि फलविळम्बवू उण्टागिरुव भक्तिरूह उपायान्तर क ४
- श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
युक्त सर्वाकार विशिष्ट नान ऎन्नै ऒरुवनै यन A अध्यवसित्तु क्कॊ ०डु अब्दपञ्चक सम्पन्न मान आता र्क “र समर्पणात्रॆ सुण्ण. इप्पडि अनुष्ठि तोपायनाय्, कृ तक ैत्यनाय्, ऎनक्टडैक्स र य् अत ैर्शप्रि eed उन्नॆ नरनु कारुणिकनाय् सुप्प’ सन्न नाय् ‘निरजुश स्वातन्त्र नाय्, स्वार्थप्रवृ त्तनान नाने; ऎन् सज्य ल्प मात्रमे तुण्ळैयाहक्कू ण्डु, बहु प्र कारमाय्, जनर. दुरत्यंयमान सर्वनि कोधि वर्गत्तोडुम् हिन्तुडर्टि हिल्ला द पडि तुवक्क रुत्तु, ऎनॊ ि आडॊक्क ऎनु डैय आत्मात्मी यज्ञळॆल्लाम् आनुभविक्कॆ यालॆ तुल्यभोगनाक्कि. परिपूर्णानञ्जव सरेवाहरूसमा सर्वदेश सर्वकाल सरा वॆस्कोचित सर्वविध कॆ ैङ्कर्यृत्तॆ पयम्म् तन्नुहप्प . नीयॊनुु सुम् कोकिकृनेह्माणिनु चरम क्लोकत्तिल” तिरण्डपॊरुळ्.
एकं सर्वप्रदं धर्मं क्रियाजुष्ट 0 समाश्रि तैः $ । अपेत शोकै राचारै ऎरयं स पन्नू $ प ग्रदरिि 5 [
व वतन सद जजवाना ंयैृजाजा जं भाभा रारा मादार रि ऎ त
गळल्लि आलॆदाडदॆ (सर्व धर्मान् परित्यज्य ऎंऒरिरर अर्थ) सर्व सुलभनागि सर्वलोक शरण्य त्होसयुक्त सर्वाकार. विशिष्टनाद नन्नॊब्बनन्ने (मामेकं ऎम्बुदर अर्थ) उपायवागि - आध्यवसाय माडिकॊण्डु Fp. सञ्चक सम्पन्न वाद आत्मरक्षाभरसमर्पणवन्नु माडु. शरणं व्रज ऎम्बुदर अर्थ.) इप्पडि इत्यादि - हीगॆ उपायानुष्ठानवन्नु माडि कृतकृत्यनागि नन्नल्लि शरणागतनाद अत्यर्थ प्रियनाद निन्नन्नु (त्वा शब्दार्थ, ER SEE गि सुप्रसन्म नागि निरङ्कुश स्वतन्त्रनागि स्वार्थक्कागि प्रवर्तिसिद. नाने नन्न्न सङ्कल्पवन्ने सहायवागि कॊण्डु (अहं शब्बार्थ), बहु प्रकारवागि अनन्तवागि दुरत्ययवाद - दाटिल शक्यवाद सर्व निरोधि वर्गदॊडनॆ (सर्वपापेभ्यः ऎम्बुदर आर्थ,) अनुनर्तनीयवावुदू इल्लद रीतियल्लि सम्बन्धवनन्न्न नीगिसि (मोक्षयिष्यामि - अनिष्ट निवृ त्र्यर्थ) नन्नॊडनॆ ननगॆ समानवाद _ आत्मात्मीयगळन्नॆल्ला आनुभविसुवुदरिन्द तुल्य भोगवन्नु पडॆदवनागि माडि नरिसूर्णानुभव परिवाहवाद सर्वदेश सर्वकाल सर्वावस्कॊ चित सर्व विध कैङ्क कर्यवन्नू कॊट्टु सन्तोष पडिसुवॆनु. (इष्ट प्राप्त्य्यर्थ,.
नीनु यावुदक्कू शोकिसबॆः NE 0 शब्दार्थ; चरमत्कोकद स सम्म - महा वाक्यार्थ. एकं सर्वप्रदं धर्मवु इत्यादि NR अन ई चरमश्लोकार्थवु तिरुक्को ट्टियूर् भि श्री भाष्य काररु मॊरलादवर सम्प्रदाय प ंसकॆयिन्द उप सदेशिसल्पट्ट तरुवुदु... इदन्नु सदेश ग दिव्यदम्पतिगळल्लि न्यस्तैभररागि सांसारिक क्लेशादिगळन्नॆल्ला बिट्टि वादिहंसाबु रा आचार्य वर्यरिन्द ई शरणागति मार्गवु उप पठेशिसल्पट्ट त्कुऎन्दु (खॆकंसर. प ग्रदन्धर्मं? ऎन्दारम्भिसि आचार्यरु आनुग्रहिसुत्ताकॆ एकं - मां : शब्बा र्थ. सर्नप्रदं.. - मोकान्त म् वाद सृ त्ररुसासं(/न्नु कॊडतक्क श्रियाजुष्टं - लक्ष्मी विशिष नाद धर्मं - "कृष्णं धर्मंसनातनं' ऎम्ब ५नाकन धर्मस्वरूसनाद कृष्ण सरमाता नन्नु । WN "एकं? ऎम्बल्लि फ्यासाफानण सृरूह इरू धर्मळाद लक्ष्मियु. इल्लदॆ तन्न स्वरूपवु देवतान्तर व्यावर्तकवागि तिळियलागदॆ इरुवुदरिन्द, . श्री विशिष्टत्ववु आनशा म! PrN भाव. चरमश्लोकाधिकारः 1206 कुरिप्पुडन् मेवुन,रुमज्ज ४न्रि य क्योवलनार् : वॆशित्ताळवक्स ल् मॆय्यरणॆन्रु विरैन्हडैन्नु । पिरित्तनिनैत्तिरळ् पिन्लुड रावहैयपैरियोर् मरिप्पु डै मन्मरुळ् वाशहत्ताल् मरुळत्तनमे ॥2 ॥ हुत्त यपयोधि कासु भनिभं ह गद्यं हरेरुत्तमुमे । श्लोकं केचन लोकनेडद पदनी विशा ऎसितार्थं विदुः । इदरिन्द अहं' ऎम्बल्लियू “अहमेव? ऎम्बुदु सावधारणार्थद अभिप्रायदल्लि सर्वेश्वरनु श्री विशिष्टनागिये निरपेक्षोपायनागि आश्रितॆ भरस्वीकार माडि फलप्रदान माडुत्तानॆम्बुदू विनक्षित. 'समाशि तैः सम्यक्कागि आश्रयिसिद अन्दरॆ अवनल्लि न्यस्तभररागि, अपेतशोकै राचारैैः - शो कवन्न्नु परित्यजिसिद आचार्यरुगळाद IL अय पन्थाः प्रदर्शितः - तावु पूर्वाचार्यरुगळिन्द उपदेश हॊन्दिद ई प्रपत्ति शास्त्रार्थवु उपजीतिस्बटि तु. अनन्तर चरनुश्लोकार्थनन्नु कुरिप्पुडन् मेवुम् ऎम्ब श्लोकद मूलक सङ्ग्रहिसुत्तारॆ. कुरिप्पुडन्- सानधानवागि, मेवुम् - अनुष्ठिसल्पड तक्क, तरुमङ्गळिन्रि सर्वधर्मगळन्नू बिट्टु, अकिञ्चननाद, अक्कोनलनार् - प्रास्यनागियू प्रापकनागियू इरुव आगोसपालन, वॆरित्तुळॆनक्स ल् - सरिमळवु तुम्बिद तुळसियिन्द अलङ्कृतवाद श्री पादगळन्नु मॆय्यरणॆन्रु - सत्यवाद उपायनॆन्दु, विकैन्दु - विश्वास पूर्वक अडैन्दु.. शरण हॊन्दि, हिरित्त - बिडिसल्पट्टि, विनैत्तिरळ् - पास समूहगळु, किरुगियू पिन् तुडरावहै - हिम्बालिसदॆ माडिद अप्पॆ रियोर् - “महान् प्रभुर्वै”, ऎन्दु श्रुतियल्लि स्रसि्मनागि हेळल्पट्ट पुरुषोत्तनुन, मरिप्पु डै-बळसिकॊळ्ळुव अन्दरॆ नशीकारवन्नु माडुन, मन्नरुळ् - दृढवाद कृपॆयॆन्द उण्टाद कृपास्रवाहवाद, वाशकत्ताल् - चरमश्लोक रूपवाद वाक्यदिन्द मरुळॆ ट्रिनने - अज्ञानवन्नु निन्न त्रिसिदॆवु. आज्ञानवू आदरिन्द उण्टाद शोकवू भीतियू होगि सन्तुष्टरादॆवु. श्रद्धा भक्तियिन्द माडल्पडतक्क कर्मयोगादि सर्नधर्मगळन्नू बिट्टु” तद्वि सॆक अज्ञानाशक्तिगळिन्द कूडिद नावु साक्षादुपायवू प्रास्यवू आद 'आ श्रीकृष्ण- कमात्मन पादारविन्दगळल्लि शरणागति माडि नोक्ष निरोधियाद सर्वप्रकिबन्धकगळन्नू तॊरॆदु, भगवन्तन कृषॆगॆ पात्ररागि आदॆवु... ई अर्थ विशेषगळन्नु तिळिसुव चरमुश्लोक रूप भगवद्याक्यदिन्द अज्जा कनवॆल्ला तॊरॆय संसार भय कोळगळावु इल्लदॆ "निर्भरो निर्भ योसस्मि' निडाडिष्ट. अनन्तर ई चरमश्लोकवन्न्यु महर्हिगळिन्दलू कॊण्डाडल्बडतक्क महास्रभानशालिगळाद नम्माळ्वार्, नाथमुनिगळ, आळवन्दार्, भगवद्भास्यकाररे मॊदलाद सरमाचार्यरुगळु लोकदल्लियू वेददल्लियू विश्वसिसल्पट्ट शरणागति रूस महार्थ स्रतिपादकनॆन्दु तिळिदु अनुष्मिसिदराद्दरिन्द अदे नमगॆ उपादेयनॆन्दु स्तुतिसुत्तारॆ. अदागि, व्यासान्म्माय 1297 ' श्रीमद्रहस्यत्रयसाके येषा मङ्क्तिसु मुक्ति सौध विशिखा सोपान पजब्ध_ष्तमिसा । वैशम्पायन शौनक प्रभृतयश्छै ्रष्ठाश्मिरः कम्फिनः 1601 इति कविशार्किक सिंहस्य सर्वतन्त्रस्क स्वतन्त्र प्री सादा 0 0. नेदान्ताचारृस्य कृतिसु श्रीमुद्रहस्यत्रयसारे चरम श्लोकाधिकार एकोनश्रिंशः । (श्रीनुते निगमान्त महादेशिकाय नमः [। पयोधि - “भारतः सञ्चनोवेदः” ऎन्दु कॊण्डाडल्पडतक्क महाभारत रूप समुद्रदल्लि, कौस्तुभनिभं -. कौस्त्युभरत्न्न तुल्यवागि, हृद्यंहरेरुत्तमम् - भगवन्तनिगॆ बहळ हॆ ृद्यवाद श्लोकं - ई चरमश्लोकवन्नु केचन - भगवत्पसादलब्द ज्ञा कनराद नम्माळ्वार्, नाथ मुनिगळु, आळनन्दार्,. श्रीभाष्यकारादिगळु लोकवेदपदनी विशा तसितार्थं - लोकदल्लियू, वेदमार्ग - श्रुतिगळल्लियू अमोघवागि प्रसिद्धवाद शरणागति या अर्थदिन्द कूडिदु दागि, विदुः - अनुष्ठान पर्यन्त तिळिदिरुत्तारॆ. अदागि लोकदल्लि शरणागत संरक्षण संरम्भवु पामररल्लियू तिळिदिदॆ.अथवा लोक शब्दवु स्मैृृतिसर. लोक्यते अनेनेतिलोकः-स्मृृति मत्तु वेद पदनी-नेददल्लियू, "देवावैत्वष्टारम जिफासन्, ससत्मीः प्रानद्यत' ऎन्दु देवतॆगळु "त्वष्टा? नन्नु कॊल्ललु इच्छिसिदाग, अवनु देन पत्तिगळन्नु शरण हॊन्दिदनु. आ देव पत्तिगळु अवनन्नु कापाडिदरु, ऎन्दु हेळिदॆ.वेददल्लि शरणागतरन्नु कापाडबेकॆन्दु “तस्माद्वध्यं प्रनन्नं नप्रति सप प्रयच्छन्ति? - वध्यनागिद्दरू प्रसन्ननादननन्नु शत्रुविगॆ तोरिसि कॊडकूडदॆन्दु शरणागत संरक्षण. धर्मवन्नु तिळिसुत्तदॆ. हागॆये कपोत ्छवृत्तान्तवू श्रुतीति हासगळल्लि हेळल्पट्टिदॆ. हीगॆ शरणागति धर्मवन्नु श्रुतिस्म मृतिगळिन्द तिळिदु तम्म गीताप्रबन्धदल्लि महर्षि व्यास महर्षिगळु “सर्वधर्मान् परित्यज्य, ऎन्दारम्भिसुव चरमश्लोकदल्लि निबन्धिसिरुत्तारॆ. इदन्नु अवलम्बिसि,.- येषाम् -. नम्माळ्वार् प्रभृतिगळ, मङ्कि क्रिसौध विशिखासोपान पङ्क्तिषु - मोक्षनॆम्ब उसप्परिगॆगॆ बीदियिन्द एरुत्ति रुव सोपान मार्ग गळाद, उक्तिषु - श्री सूक्तिगळल्लि अदागि (1) पुहलॊन्रिल्लानडियेन् उन डिक्कि्री अमरु फुहुञ्जीने, ph नागण्यिमिश्छिनम्बिरान् शरणे शरण् नमक्कॆ न्रु, (नम्माळ्वार् तिरुवाय् मॊ) (11) त्वत्पाद. मूलं शरणं प्रस सद्ये; (सॊ (4 yy स त्वत्पादारविन्द युगळं शरणमहं प्रसद्ये, (शरणागति गद्य) इत्यादि श्री सूकि किगळन्नु, श्रेषा ,2-उत्कृष्टराद, अमी - ई वैशम्पायन - साक्राद्व्यास शिष्यराद फैकम्पायनरु डु इतिहास पुराण प्रवचन कर्तावाद्दरिन्द विभवावतारदल्लि निरतिशय भक्तियुक्तरु - आ भगवन्तन चरमश्लोक श्री सूक्तिगळल्लि विशेष अभिमानवुळ्ळवरु. शौनकप त्रभ्छतयः - शौनकोमहाशालः ब श्रुति प्रसिद्धरु. .. इवरु खुग्गॆ ्रीदाचार्यराद आश्वलायनरिगॆ आचार्यरु. “शौनकोहं "प नक्ष्यावि विति नित्यं निष्ण्वर्चनं परम्? ऎन्दु अर्चानतारार्चनादिगळन्नु हेळि, स सुरूपाम्प्र तमां निष्टोः प्रसनृ्मवदनेक्षणाम् । सफ्रीतिकरीीं NTN । ह म बव टट उण्ट इ त् चरमश्लोकाधिकारः 1208 तामर्जयेत्तां प्रणमेत्तां यजेत्तां विचिन्तयेत् । विशतृपास्तदोषस्तु तामेव ब्रह्मरूपिणीम् ॥ इत्यादि वाक्यगळिन्द अर्चारूपियाद भगवन्तने थध्येयनॆन्दु अवनल्लि भक्ति अथवा शरणागति माडि सकल पास विनिर्मुक्तनागि मोक्षवन्नु पडॆयबहुदॆन्दु हेळिरुत्तारॆ. प्रभृति शब्ददिन्द शुकरे मॊदलादवरु सङ्गृहीतॆरु. शिरःकम्पिन - श्लाफिसि शिरः कम्पन माडुत्तारॆ. वैशम्पायन शौनकादिगळु शरगोप यामुन रामानुजादि परमाचार्यरुगळु तम्म तम्म श्री सूक्तिगळल्लि निरूपिसिरुव चरनुश्लोक विहितवाद शरणागठृ नुष्कान प्रकार वैखरिगळन्नु श्लाफिसुत्तारॆन्दर्थ. अथवा ज्ञ्यानदृष्टियिन्द श्री शकगोपादिगळ श्री सूक्तिगळन्नु साक्षातृरिसि सर्वदा शिरःकम्पन शीलरागिरुत्तारॆन्दर्थ. कृष्ण परमात्मनु गीताचरमश्लोकरल्लि हेळिरुव “शरणागति” धर्मवु वेजोक्तवादद्दु. इदु वेदव्यासरु हेळिरुव महाभारतवॆम्ब (सञ्चम वेद) समुद्र मथन माडि अदरिन्द पडॆद कौस्तुभरत्स तुल्कवाददु. भगवन्तनिगॆ हृद्यवाददु. इदर अर्थवन्ने नम्म पूर्वा चार्यरुगळु तम्म तम्म प्रबन्धगळल्लि ग्रथिसिद्धारि. ई अर्थवन्ने आचार्यवर्यरु चरम श्लोकाधिकारदल्लि निरूसिसिरुत्ताकि. ई शरणागति विद्यॆय निरूसणवु ’ मोक्षनन्नु पडॆयलु सोपान मार्गदन्तिदॆ. सुलभवागि ई सोपान मार्गवन्नु हत्ति अन्दरॆ स्वतन्त्र शरणागति यन्ननुष्ठिसि. ऎल्लरू मोक्षवन्नु पडॆयबहुदु. इदन्नु वैशम्पायन शौनक प्रभृतिगळु श्लाफिसित्तारॆन्दु तात्पर्य… श्रीमुद्रहॆस्यत्रयसारद “चरमश्लोकाधिकार?कै “सारचन्द्रिका” व्याख्यानवु सम्पूर्ण, श्रीमते निगमान्त महादेशिकाय नमः अस्मद्दुरु परम्परायै नमः