उपाय प्राप्तरुपनिषदधीत सृभगवान् प्रसत् तस्कोक्कॆ प्रपदननिधिध्यासनग(स्वती ! तदारोहः पुंसस्सु कृतपरिपाकेन महता निदानं तत्रापि स्वयमखिल निल्दाण निपुणः ॥ २२ ॥
श्रीमते निगमान्त महादेशिकाय नमः
श्री मद्रहस्यत्रयसारद उपाय विभागाधिकारक्कॆ ‘सार चन्द्रिका” व्याख्या
हिन्दिन अधिकारदल्लि, भक्ति, प्रपत्ति विद्यॆगळिगॆ यारु यारु अधिकारिगळु ऎम्बुदन्नु विभाग माडिदरु ई आधिकारदल्लि मोक्षक्कॆ उपायवन्नु व्यवस्थॆ माडुत्तारॆ अदागि उपायवु ऎरडु विध, सिद्धोपाय मत्तु साद्योपाय, सन्द्योपायवु ऎरडु विध. भक्ति, प्रप यॆम्बुदु. अर्थ पञ्चकाधिकारदल्लि, “इष्टोपायं त्वयननमनो” ऎन्दु अयन शब्ददिन्द “सिद्योपायवू नमश्यब्ददिन्द साद्योपायवू विवक्षितवॆन्दु अभिप्रायपट्टु, आ अधिकारदल्लि इदर परिशोधनॆयन्नु प्राप्त स्थळदल्लि माडुवॆ, ऎन्दु आचाररु प्रतिज्ञॆ माडि, ई अधिकारदल्लि आ परिशोदनॆ माडलु उपाय स्वप्रा?” ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ.
$3
सः-शेषिय, सहजकारुण्य विशिष्टनू, आगिरुवुदरिन्द सर्वरक्षकनागि प्रसिद्धनाद, भगवान् रक्षणोपयुक्त षाडुण्य परिपूर्णनाद भगवन्तनु, स्वप्राप्तः तन्नन्नु पडॆयुवुदक्कॆ स्वविष यवाद परिपूर्णानुभववन्नु हॊन्दलु ऎन्दर्थ, उपाय–ताने उपायवॆन्दु, उपनि षदधीतु- “अमृतषसेतुः,” य आत्मदा बलदा, “यमेष तेतेनलभ्य”, धातुः प्रसादात्महिमान मीश इत्यादि उपनिषद्वाक्यगळल्लि हेळल्पट्ट वनागिद्दानॆ. हागादरॆ भक्ति, प्रपत्तिगळु उपायगळॆम्बुदु हेगॆ ऎन्दरॆ, अदन्नु प्रतितस्यक्कॆ ऎन्दारम्भिसि विवरि सुत्तारॆ. तस्य प्रस अवन प्रसन्न तॆगोस्कर अदागि जीवरुगळु अनादियागि माडिरुव
शि भगवराज्ञाति लङ्घन रूप अपराधगळिन्द भगवन्तनु कलुषितनागिद्दानॆ. आ कालु निवृत्तिगोस्क रवू सर्वमुक्ति प्रसङ्गवू, वैषम्य नैर्ष्ट्यण्यगळू तनगॆ उण्टागदिरलू सह जीवकृत व्याद रूपवाद उपायवन्नु अवलम्बिसिये मोक्षवन्नु कॊडलु इच्छिसुत्तानॆयाद्दरिन्द, अवन प्रसन्नतॆगागि प्रश्नॆदननिदि व्यासनग प्रपत्ति, भक्ति ऎम्ब ऎरडु मार्गगळु, उल्ले
उण्णॆ-ओमि
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श्रीमद्रहस्ययसारॆ आपायोपेयस्वरूप निरूपणम् इवर् हळुक्कु (इद्विरुव कुं) कर्तव्यमान उपायमानदु ?
इरुवक्कुं
ऒरु ज्ञान विकासविशेष. इत्ताले साध्यमाम् प्राप्ति रूपमान उपेयमानदु ? ऒरु ज्ञानविकासविशेषम्
त्यात्मानन्ध्यायद, (उवासनॆ), ओमित्यात्मानंयङ्गीत (शरण गति) भजस्व माम् (उपासनॆ), तमेव रणङ्गप्प (शरणागति), मानकं शरण व्रज, अहन्त्वा सर्वपावे मोक्षयिष्कामि मातु चः 1शरणागति ), इत्यादि श्रुति स्मृतिगळल्लि हेळल्पट्टिवॆ. अदागि भगवन्तनु सर्वज्ञनागियू नरक्षकनागियू परन कारुणिकनागिद्दु सिद्धपायनागिये इद्दरू, जीवरुगळु माडि रुव अद्याज्ञालङ्घनदिन्द कुपितनागिद्दान आ कोपवु तीरलु शास्त्रगळल्लि सिहितवाद भक्ति प्रपव साद्योपायगळल्लि ऒन्दन्नु अनुष्ठिसिये तीरबेकु, इवु व्यवहितोपायगळु इवगळन्नु व्याजवागिट्टुकॊण्डे भगवन्तनु बद्द चेतनवन्नु रक्षिसुत्तानॆम्ब दु अप्रकम्प्य वाद सिद्धान्त
हागादर एकॆ ऎल्लरू ई भक्ति प्रपत्तिगळल्लॊन्दन्नु अनुष्टिसुत्तिल्लवॆन्दरॆ तदारोर्ह पुंसः ऎन्दारम्भिसि समाधान हेळुत्तारॆ. तदारोहः- भक्ति प्रपत्तिगळल्लॊन्दन्नु अनुष्ठद मय पुंसः, महा सुकृत परिपाकेन-बद्द जीविय, अति दॊड्डदाद सुकृत परिपाठदिन्द उण्टा गुत्तदॆ
अदागि अनादि चित्र प्रवाह रूपवाद कर्म, अविद्यारूव चक्रदल्लि सुत्तुत्तिरुव बद्द जीविगॆ यादृच्छिकारि सुकृत परम्परा मूलवागि सदाचार प्राप्तियु एर्पट्टु भक्ति प्रपत्तिगळल्लॊन्दन्नु अनुष्ठिसुव महाभुग्यवु दॊरकुत्तदॆ ऎन्दर्थ तत्रापि- भक्ति प्रपत्तिगळ रॊन्दन्नु अनुष्ठिसुवुदरल्लू, अदक्कॆ कारणवाद सुकृत परिपाकदल्लियू, अखिल निर्माण निपुणः-समस्त चेतना चेतनात्मक जगष्टि स्थिति संहार मोक्षप्रद लीलॆयल्लि निपुणनाद भगवन्तनु सिद्धपायनागि स्वयं निदानव-ताने कारणभूतनु, अन्दरॆ स्वप्राप्तिगॆ ताने कारण भूतनादन्तॆ, भक्ति प्रपत्ति रूप उपायानुष्ठानक्कॆ प्रतिबन्धकगळाद सकलपापगळन्नू तॊलगिसि कारण भूतनागिद्दानॆन्दर्थ इदरिन्द मोक्षक्कॆ भगवन्तने अव्यवहितनाद सिद्योपा हनु, अवन सङ्करणार्थवागि साध्यगळाद भक्ति प्रपत्तिगळु व्यवहितोपायगळु, ऎन्दु निगमिसल्पट्टितु.
उपायोपेयगळ स्वरूप :
अनन्तर साद्योपायगळाद भक्ति प्रपत्तिगळ स्वरूपवन्नु इवर् हळुक्कु कर्तव्यमान ऎन्दारम्भिसि आचाररु. उपवादिसुत्तारॆ. इल्लिहळुक्कु हिन्दिन अधिकारदल्लि हेळिद सद्वारका द्वारकप्रपत्ति निस्करिगॆ, कर्तव्य मान माडबेकादुदागि शास्त्रदल्लि विधिसल्पट्ट उपायवु ऒन्दु ज्ञान विकास विशेष. इदरिन्द साध्यवाद प्राप्तिरूपवाद उपेयवु ऒन्दु ज्ञान ‘विकास विशेष अदागि- उपाय रूप ज्ञान विकास, विशेषवु, शारीरक शास्त्रदल्लि सर्वविद्यानुयारु यागि र्निसल्पट्ट, सत्य ज्ञानान्त, अनल, आनन्दवॆम्ब स्वरूप गुणगळिन्द कूडिद आयाया * विद्यॆगळिगॆ प्रतिनियकवाद गुण ग्रगळिन्द कूडिद ब्रह्म विसयकवागिरुत्तदॆ. अन्दरॆ उपाक्षना
उपायविभागाधिकारः
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विद्या
इवल् उपायमाहिरज्ञानविकासविशेषं, करणसापेक्षमुवाय शास्त्रविहितवु माय् सत्यत्वादिहळान स्वरूपनिरूपकरळ् अडे कूडिन अ विशेष प्रतिनियत गुणादिहळिनाले नियत ब्रह्म विषयमुनायिरुक्कु, उपेय माहिर ज्ञान विकासविशेषम् करण निरपेक्षनुवार्, स्वभाव प्राप्तमुना, गुणविभूत्यादिगळॆल्लात्तालुव परिपूर्णब्रह्मविषयमुमायिरुक्कुव
ई
त्मकवाद ज्ञानवु स्वरूप निरूपक धर्मगळिन्दलू कूडिद हागॆयॆ, निरूपित स्वरूप विशेष णगळाद आयाया विद्यानियतगळाद कॆलवु धर्मगळिन्दलू, आयाया विद्यॆगळल्लि हेळल्पट्ट विग्रह विशिष्टवागियू इरुव परब्रह्म विषयवाददु, प्रपत्तिय सहृदुपासन रूप ज्ञानवु. अदू इल्लि विवक्षित ई उपासनात्मक ज्ञानदिन्द प्रापिसल्पडुव उपेय रूपवाद ज्ञानवु जीवात्मनिगॆ मुक्ति दशॆयल्लि विकासवागि प्राप्तवाद स्वस्वरूपविर्भाव विशिष्ट परमात्म स्वरूप गुण विग्रह विभूति विशिष्टवाद परब्रह्म विषयवाददु इदन्नु आचाररु इवल् ऎन्दारम्भिसि विवरिसुत्तारॆ अदागि ई ऎरडु विध ज्ञानगळल्लि उपायात्मक ज्ञानविकास विशेषवभक्ति वैपत्ति रूपवादद्दु. करणसापेक्षमुमाय्-निरूपक धर्मगदरॊडनॆ कूडिद, मनोरूप करणसापेक्षवागियू, शास्त्रविहितमाय्-ओमित्यात्मानन्ध्यायथ, ओमित्यात्मानं युञ्जीत, भजस्व मां, नामेकं शरणंव्रज इत्यादि शास्त्रगळल्लि कर्तव्यवागि विहितवाद, सत्यत्वादि स्वरूप निरूपक धर्मङ्गळ् अञ्जोडेकूडिन - सत्यत्व, ज्ञान, अनन्त, आनन्दत्व, अमलत्व रूप ऐदु गुणगळु स्वरूप निरूपकगळु, ब्रह्म शब्दार्थवु लक्ष्मी विशिष्टवु ऎम्बुदन्नु सूचिसलु इब्बरिगू समानवाद स्वरूप निरूपक धर्मगळ्ळॆदन्नु मात्र इल्लि आचाररु हेळिरुत्तारॆ आ ऐदु गुणगळिन्द कूडिद अन्नोविद्या विशेष प्रति नियत गुणादिहळिनाले सद्विद्या, दहर विद्या, शाण्डिल्य विद्या, न्यासविद्यादि रूप विद्याविशेषगळिगॆ व्यवस्थितवाद गुणगळु भाष्यादिगळल्लि हेळल्पट्टिवॆ प्रपत्ति विद्यॆगॆ निरपेक्षॆपायत्ववु प्रति नियतवाद गुण, गुणादि ऎम्बल्लि आदिपदवु विग्रहादिगळन्नु तिळिसुत्तदॆ, ई व्यवस्थित गुण विग्रहगळिन्द, नियत व्याप्तवाद ब्रह्मविषयवु मायिरुक्कुम् परब्रह्म विषयवागिरु
अदागि भक्ति प्रपत्तिगळु शास्त्रविहितवागि मनस्सॆम्ब करणदिन्द परब्रह्म विषयवाद ध्यानात्मक रूप ज्ञान विकास विशेषगळु ऎम्बुदु तात्पर
*उव ऎम्बुदु गुणविग्रहादिगळन्नु तिळिसुत्तदॆ. उपेय माहिर ज्ञान विकास विशेष उपाय ज्ञानक्किन्त बेरॆ ऎन्दु निरूपिसुत्तारॆ. अदागि उपेय ज्ञानविकास विशेषवु-उपायानुष्ठानदिन्द हॊन्दल्पडुव ज्ञानविकास विशेषवु. करणनिरपेक्षनुवाय् मोक्षदल्लि अप्राकृतवाड चक्षुरादि करणगळिद्दरू ज्ञानविकासक्कॆ अवुगळ अपेक्षॆयिल्ल. अल्लि कॆलवु मुक्तरु देहविल्लदे भगवदनुभववन्नु माडुवुदरिन्द, ज्ञानविकासक्कॆ करण निरपेक्षत्ववन्नु ऒप्पबेकु. आद्दरिन्द मुक्तदणॆयल्लि उण्टागुव उपेयवाद ज्ञानविकास विशेषवु करण निर पक्षवू अहुदु. स्वभावास्तमुना“यथानक्रिय मलप्रज्ञाळवात्मणेः सजीवनीय व्यक्ति असतः सम्भन कुतु ३,’ ऎम्बन्तॆ भक्षवन्नु केळिदरॆ अदर स्वतस्सिद्द ईड प्रचण्ड तानागिये प्रजासत्तव इल्लदिरुव प्रकाशवु उण्टागुवुदिल्ल.
क
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श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
उपासित गुणादेरा प्रास्तावय्य बहिष्क्रिया ।
सा तम्म तुनयग्राहानाकारारवरनम् ॥ ४ ॥
प्राप्तिरूपमान इव्वनुभवनुडैय परीवाहमाक्कॊण्डु कैर उपेय.
रत्नवु मुञ्चॆ कॊळॆयिन्द मुच्चल्पट्टु स्वल्प प्रकाशदिन्द प्रकाशिसुत्तित्तु, तॊळॆद नन्तर कळॆयॆल्ला होगि पूर्णवाद प्रकाशदिन्द प्रकाशिसुवन्तॆ बद्धदशॆयल्लि पुण्य पाप रूप अविद्यॆयिन्द अपूर्णवागि प्रकाशिसुत्तिद्द ज्ञानवु, आ अविद्यॆयु कळॆद मेलॆ मुक्त दशॆयल्लि स्वभाव प्राप्तवाद आ ज्ञानवु पूर्ण प्रकारदिन्द प्रकाशिसुत्तदॆ आबुदु तात्पर. गुणविभूत्यादिहळॆल्लातालुं परिपूर्ण ब्रह्म विषयवुमायिरुक्कुवुक्ति दशॆ यल्लि सर्व प्रतिबन्धकगळू विशेषवागि तॊलगिद मेलॆ अज्ञातांशक्कॆ प्रसक्तिये इल्ल. अदरिन्द मुक्तन उपेयवाद (प्राप्यवाद) ज्ञानविकास विशेषवु परिपूर्णब्रह्मवेनु, अवन गुण विभूतिगळेनु, इवॆल्लवन्नू साक्षात्करिसि कॊण्डिरुवुदु ऎन्दर्, विषयुवुवायन् ऎम्बल्लिय “उम् ऎम्ब पदवु “च” कारार्धक, ब्रह्मवन्नू अवन गुणविभूत्यादि विशेषणगळॆल्लवन्नू साक्षात्क रिसुत्तदॆ ऎन्दर्थ,
हागादरॆ “तंयथादोपासते, तथैवभवति, यथाक्र तुरस्मिस् लोके पुरुषभवति । तथे तः प्रत्यभवति” याव रीतियाद उपासनॆयो, आ रीतियाद प्राप्ति, उपासनाकालदल्लि आयाया विद्यॆगॆ नियतवाद कॆलवे गुण, विग्रह विभूति विशिष्ट भगवदनुभववो, फलदा यल्लि यू अदे रीतियाद नियतवाद गुण विग्रह विभूति विशिष्टवाद भगवनभववु एर्प डुत्तदॆ ऎम्ब तम्म तुन्यायक्कॆ विरुद्धवागि फलदरॆयल्लि (उपेय दशॆयल्लि गुण विग्रह विभूति गळॆल्लदरिन्दलू परिपूर्णवाद भगवदन भववु एर्पडुत्तदॆ ऎन्दु हेळुवुदु सरिये ऎम्ब शङ्कॆगॆ समाधानवागि उपासित गुणादेरा ऎन्दारम्भिसि तम्म तुन्यायक्कॆ सरियाद अर्थवन्नु उपपादिसुत्तारॆ अदागि उपासित गुणादे-आयाया विद्यॆगळल्लि उपासनॆ माडल्पट्ट प्रति नियतगळाद गुण विग्रह विभूतिगळिगॆ (आदि शब्दवु विग्रह विभूतिगळन्नु तिळिसुत्तदॆ) प्रास्ताव प्राप्ति रूपवाद उपेय ज्ञानदल्लिय अबहिष्क्रिया-बहिष्कारविल्ल आ गुण विभूत्यादिगळु प्रकाशिसिदे इरुवुदिल्लवॆन्दर्थ. अन्दरॆ उपासन दशॆयल्लि प्रकाशिसुत्तिद्द गण विग्रह विभत्यादि गळु प्राप्ति रूप अनुभव दशियल्लू प्रकाशिसिये तीरुत्तवॆ साआ अबहिष्कारव-आ गुणादिगळु प्रकाशिसदे इरुवदिल्लवॆम्बुदु तम्म तुनयग्राह्या-तत्म तुन्यायक्कॆ अर्धवागि ग्रहिसबेके एनह, नाकारान्तरवर्जनं-उपासनॆगॆ विषयवल्लद ग णादिगळु प्राप्ति दशयल्लिल्लवॆम्बुदु अर्थवल्ल. इदन्नु ऒप्पदॆ होदरॆ, प्रति ब्रह्म विद्यानिष्ठनिगू आयाया ब्रह्म विद्या प्रति नियतगळाद गणानुभव मात्र मुक्ति दशय एर्पडुत्तदॆ ऎन्दागि आनन्द तारतम्यवन्नु ऒप्पि, मध्वमतदल्लि प्रवेशिसबेकागुत्तदॆ आग “सर्वंहपश्य- पश्यति, निरञ्जनः परमं साम्यमु
उपायविभाधिगाकार
भगवतः उपायोपेयत्वम्
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इप्पुपायरूपमायु, प्राप्ति रूपमायुव, इरुक्किर ज्ञानत्तु क्कु विषय मायकॊण्डु फलप्रदत्व भोग्यतादि वेषत्ताले ईश्वरनन्नु उपाय.मुम् उपेयत्तमुव,
}
भक्त प्रपन्न विषये भगवतः उपायत्व प्रकारः
स्थान
इत्तीश्वरनुड्डॆय उपायत्वम् अद्वारक प्रपत्तिनिर्ष्ठ पक्कल् उपायान्नर स्वा निवेशत्ताले विशिष्टवायिरुक्कु, मण अधिकारिक्कुव करयोगारम्भव मुदलाह उपासनपूरि परन माह नडुवुळ्ळ कत्रव्यफल् आत्यनाशक्यमान नेर् हळिल् इप्पपवशीकृतनानवीश्वरन्नु हुनु निन्नु अन्न दुष्टर कत्रव्यपाले वरुम् पापनिवृत्तियॆयुव, सतोषादिगळ्ळॆयु मुण्णाक्किकॊडुत्तु अवुपासनमाहिर उपाय फलपठ्यक्रमाक्सिडुक्कुम्,
ऎन्दारम्भिसि आचाररु अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि ई प्राप्ति रूपवाद ज्ञान विकास विशेषवु निरतिशय भोग्यवनुभववाद्दरिन्द, सैङ्कय्य पठ्यन्त परिवहिसि कॊण्डल्लदॆ इरुवुदिल्लवाद्दरिन्द कैङ्करवू भक्ति प्रशस्ति रूप उपाय ज्ञान साध्यवागि उवेयवागुत्तदॆ.
ईश्वरन उपायत्ववू उपेयत्ववू, अवु भक्त प्रसन्नरिगॆ उपयोगवागुव प्रकार
हीगॆ साध्यवाद उपायोवेयगळु भिन्न गळागि वूर्वोत्तर कालवृत्तिगळागिरुवन्तॆ द्यो पायोवेयगळू इवॆये ऎम्ब शङ्कॆगॆ परिहारवागि इ मृषाय रूपवायुव रूपवायुव इत्यादि अनुग्रहिसुत्तार ई उपाय रूपवागि प्राप्ति रूपवागियू इरुव क्लासक्कॆ विषयवागि, फलवन्नु कूड ववनु भोग्यभूतनु, ऎम्ब दे मॊदलाद आक र दिन्द ईश्वरनु उपायभ, उषेय भूतनू आगिद्दानॆ मलप्रदत्व दशॆयल्लि सिद्ध पायनाद भगवन्तनु मोक्षयिष्यामि ऎन्दु सङ्कल्प माडुत्तानॆ अवने आ पेय ज्ञानविष यनागि “रसग्गवाय० लज्ञानन्दी भवति” ऎम्ब रीतियल्लि मुक्तरिगॆ आनन्द रूपनागि भोग्यनागिरुत्तानॆ, ई दशॆयल्लि भगवन्तनन्नु सिद्धनेयनॆन्दु व्यवहरिसुत्तेवॆ भोग्यादि ऎम्बल्लिय आदि शब्दक्कॆ उपायदरॆयल्लि प्रतिबन्धक निर्वकनागियू उपेयदशॆयल्लि कैङ्कर् प्रति ति सम्बन्धियागियू इरुत्तानॆन्दर्थ ईश्वरनुष्टु ऎम्बल्लि ईश्वरशब्दवु लक्ष्मी मत्तु तत्पति याद नारायणनन्नु तिळिसुत्तदॆ. ईश्वर शब्दवु व्यासज्य वृत्तियिन्द द्विनिष्ठ, आद्दरिन्द उवा य पेयत्वगळु मेलॆ हेळिद रीतियॆल्लि इब्बरिगू उण्टु अन्दर सर्वपापेभो मोक्षयि ह्यामि ऎम्ब सङ्कल्पवू कैङ्कर प्रति सम्बन्धित्ववू लक्ष्मिनारायणरिब्बरल्लियू अन्वयिसुत्तदॆ.
ईश्वरन ई उपायवु अद्वारक, सद्वारकप्रपत्ति निष्ठर विषयदल्लि समवागिदॆये ऎम्ब प्रश्नॆगॆ समाधानवन्नु इश्वरनुड्डॆय उपायत्वम् ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि ई ईश्वरन उपाय.वु अद्वारक प्रपत्ति निष्कन विषयदल्लि उपायन्तर स्थान निवेशदिन्द-
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श्रीमहस्यतयसारे
विशिष्टवागिरुत्तदॆ. अन्दरॆ सॆद्वारक प्रपत्ति निष्ठनु अङ्गप्रपत्तियन्नु माडि नन्तर भक्तियोग वन्नू अनुष्ठिसिदरॆ कॊडुव फलवन्नु ईश्वरनु स्वतन्त्र प्रपत्ति निष्ठनिगॆ प्रपत्तियन्नु अनुष्ठिसिद नन्तर, भक्तियोगवन्नु माडदेनॆ, आ भक्तियोगवॆम्ब उपायान्तर स्थानदल्लि “त्वमेवो पाय भूतोमेभव” ऎम्ब भर स्वीकार प्रार्थनॆयिन्द, निवेशिसल्पट्टवनागि, निरपेक्ष रक्षकत्व विशिष्टनागिरुत्तानॆ श्रीमद्वयाधिकारदल्लि, “उपायान्तरस्थानले निवेशियवुदु ऎन्दारम्भिसि ऎन् डिलैयिल् उपायान्तरचु मत्तादे, अवच्चु मन्दाल् मेलवरु मभिमत मल्लान्तरु समर्थ करुणिकनान उनक्कॆ भरह एरिट्टुकॊळ्ळवेणु मनॆ, ऎन्दु आचाररु तावे उपायान्तर स्थान निवेशक्कॆ भरकार प्रार्थनापरवागि व्याख्यान माडिद त्तारॆ. आ प्रार्थ नॆय “उपायान्तर स्थान निवेश” पददिन्द विवक्षित * उपायान्तर स्थान निवेशशाले” ऎम्बल्लि करणे तृतीया विभक्ति, आद्दरिन्द शरण्यनल्लि भरकार प्रार्थना विशिष्ट शरणागतिय निक्षित, “त्वमेव” ऎम्बल्लि एवकारवु नन्नल्लि भलान्वयवु इल्लदॆ, उपायकोटियल्लि नन्न न
सेरिसदॆ समर्थ कारुणिकनाद नीने नन्न रक्षणभरवन्नु स्वीकरिसि नन्नन्नु निर्भरन्नागि माडि, फल प्रदान माडु ऎम्ब प्रार्थनाकरवु हेळिदन्तॆ तु, आदरिन्दागि दयनीयनाद अकिञ्च नन प्रार्थनानुसारवागि शरण्यनु अवन सर्वभरगळन्नू स्वीकरिसि निरपेक्ष रक्षकनागुत्तानॆम्बुद हृदय, हीगॆ सर्वाधिकारि साधारणवाद उपायक्किन्तलू प्रपन्नन विषयदल्लि सर्वेश्वरन उपाय त्ववु निरपेक्षरक्षक विशिष्टवागिरुत्तदॆ. प्रपन्ननिगॆ भगवन्तने उपायवॆम्ब मातिगॆ इदे अर्थवॆ विनह, प्रपन्ननु याव प्रार्थनॆयन्नू माडदे भगवन्तने उपायवागुत्तानॆन्दु अर्थवल्ल.
अनन्तर भक्तर विषयदल्लि ईश्वरन उपायत्ववु हेगॆ ऎम्बुदन्नु मट्ट अधिकारिक्कु, ऎन्दारम्भिसि विवसिसुत्तारॆ, मट्ट अधिकारि-सद्वारक प्रपत्ति निष्कनु, भक्तनु ऎन्दर्ध, इवनिगॆ कर्मयोगारम्भदिन्द उपासनॆयु पूर्तियागुव परत मध्यॆ माडबेकाद कर्तव्यांशगळल्लि अत्यताशक्यवाद कर्मगळ स्थानगळल्लि इप्रपत्तिवकृतनान ईश्वरन्, दुष्कर कर्मस्थानदल्लि निन्तु आयाया कर्मसाध्यवाद फलवन्नु कॊडबेकॆन्दु प्रार्थानान्वितवाद अङ्ग प्रपत्नियिन्द वशीकृतनाद ईश्वरनु पुटुन्दु निन्नु आयाया कर्मगळ स्थानदल्लिद्दु आ दुष्टर कर्मग इन्द उण्टागुव पापनिवृत्तियन्नू सषवन्नू आदि पददिन्द उत्तरोत्तर ज्ञानाभिवृद्धि यन्नू उण्टु माडि कॊट्टु ई उपासनॆयु सिद्दिसलु विरोधिगळाद पापगळन्नु तॊलगिसि, आ उपासनात्मक उपायवन्नु सफलगॊळिसुत्तानॆ. अन्दरॆ उपासनॆयु निष्पत्तियागि कैङ्कर परन्त वाद भगवदनुभववन्नु कॊडुत्तानॆन्दर्थ.
इदरिन्दागि सद्वारक प्रपत्ति निष्ठनिगू, अङ्ग प्रपत्ति वशीकृतनाद सर्वेश्वरनु भक्ति योग दल्लि दुष्कर
रवाद कर्मगळन्नु माडबेकाद भरवन्नु ताने वहिसिकॊण्डु उपायभूतवागु तानॆ. आद्दरिन्द विशिष्टोपायत्ववु भगवन्तनिगॆ इल्लियू उण्टु वैशिषांशदल्लि स्वल्प भेद अष्टे, इदरिन्द अङ्गवागियादरू प्रपत्तियन्नु माडदे मुक्तियु लभिसलारदु. “तमेव चाद्यं परुषं प्रपद्य यतः प्रवृत्तिः प्रकृता पुराणि, नवीकरणन्तच्छरणागति रेव” ऎम्ब गीतॆ कदुनुसारवाद भगवद्रामानुजर श्री सूक्तिगळिन्द सर्व मुमुक्षगळिगू प्रपत्तियु आवश्यवॆन्दु, मेलॆ हेळिद रीतियल्लि इब्बरल्लियू उयवु विष्टवादद्दु ऎन्दु अनुग्र सल्पट्टितु,
उपायविभागधिकार
कर्मयोगवन्
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अण्णु कर्मयोगमावदु ?-शास्त्रशाले जीव परमात्मयाथार्थ ज्ञानं पिर नाल, तनक्कु शक्यळाय फलसादि रहितन काम्य कर्मण्णनोडुव नित्यन्नॆ मित्ति कण्ण नोडुव कूड सनियमवाद परिगृहीतवायिरुक्कुव कर्मविशेषव अ(इ)दिल् अनारभेद४ (१) “दैववापरे यज्ञं” ऎन्नु तुडबि कॊल्लप्पट्ट देवारन तपसीर्थदान यज्ञादिह,
एकदशिगळु, लक्ष्मी तन्त्र प्रपत्य ध्यायगळल्लि “उपाया च चत्वारः” ऎन्दु कर्मयोग ज्ञानयोग, भक्तियोग प्रपत्तियोगवॆन्दु नाल्कुयोगगळू मोक्षक्कॆ उपायवॆन्दु हेळल्पडुत्तवॆ, “चतुर्थोयवुपाय प्रोक्तः शीघ्रफलप्रदः” ऎन्दु प्रपत्तिय नाल्कनॆय उपाय वॆन्दू, “पूर्वे त्रय उपाया” ऎन्दू मॊदलन मूरु उपायगळॆन्दू विशेष वचन गळिवॆ. आद्दरिन्द कर्म, ज्ञान, भक्ति, प्रपति योगगळु नाल्कू साक्षापायगळु, ऎन्दु हेळुत्तारॆ. इदु सरियल्ल. कर्म, ज्ञान योगगळे भक्तियोगक्कॆ अङ्गगळॆन्दु गीता भाष्यदल्लि भगवद्रामानुजरु स्पष्टिकरिसिद्दारॆ. कर्म ज्ञान योगगळु परम्परॆयागि “अध्यात्म योगाधिगमेन देवं मत्याधीरो हर्ष शोकौजहाति”-ऎम्ब श्रुतियिन्द व्यक्त. देवं मति विधेयमान परविद्याङ्गतया अध्यात्मयोगाधिगमेनेति प्रत्यगात्म ज्ञानमपि विधाय (रामानुज भाग्य, गीतॆ 3ने अध्यायद अवतारिकॆ) अदागि परविद्यॆयाद भक्तियोगक्कॆ अङ्गवागि जीवात्म ज्ञान-अन्दरॆ ज्ञानयोग साध्य आत्मावलोकन, ज्ञान योग शबळित कर्मयोगवू आत्मावलोकनक्कॆ साधनवॆम्बुदू इल्लि विवक्षित आद्दरिन्दपरम्परोपायगळन्नू साक्षा दुपायदॊडनॆ सेरिसि, “उपायाचत्वारः इत्यादि लक्ष्मीतन्त्रगळ वचनगळु हॊरटवॆ ऎम्बुदे निर्णित, जीव स्वरूप याथात्म ज्ञानदल्लि विश्रान्ति हॊन्दिद कर्म ज्ञान योग गळे ईश्वर साक्षात्कारवन्नु कॊडुवुदिल्लवाद्दरिन्द, परम्परासाधनगळे विनह साक्षान्नुक्ति साधन वल्ल. भक्तियोगक्कॆ अधिकार सम्पादकगळु ऎम्ब गीता भाष्य सिद्धान्तवन्नु अनुसरिसि आचाररु “अङ्गु कर्मयोगमावदु”ऎन्दारम्भिसि कर्म ज्ञान भक्तियोगगळ स्वरूपवन्नु शोधिसुत्तारॆ,
कर्मयोग स्वरूप
अङ्गुकर्मयोगवावुदु इत्यादि. अङ्गु-उपासकनिगॆ कर्तव्यवागि शास्त्रगळल्लि विहित गळाद कर्मगळल्लि ऎन्दर्ध, कर्मयोगवु यावुदॆन्दरॆ - जीवन मत्तु परमात्मन स्वरूप याधात्म ज्ञानवन्नु शास्त्रदिन्द मॊदलु तिळिदुकॊळ्ळबेकु. ई ज्ञानविल्लदिद्दरॆ निवृत्ति धर्मा नुष्ठानक्कॆ अधिकारियागुवुदिल्ल. निवृत्ति धर्मगळल्लि फलसङ्गकर्तृत्वादि त्यागगळु अवश्य. जीवनु परमात्मनिगॆ शेषभूतनु दासभूतनु, ई ज्ञानदिन्दागि तानु माडुव नित्य नैमित्तक वर्णाश्रम धर्मगळु मत्तु कर्मयोगानुष्टान दशॆयल्लि माडुव काम्य कर्मगळु सात्त्विक त्याग पुरस्सरवागि भगवदाराधन रूपगळॆन्दु तिळिदु माडबेकाद्दरिन्द जीव परमात्म याथार्थ्य ज्ञानवु आवश्यक. ई ज्ञानवु उण्टादरॆ तनगॆ माडलु शक्यगळाद फलसङ्गादि रहितगळाद काव्य कर्मगळॊडनॆय नित्य नैमित्तिक कर्मगळॊडनॆयू सनियमवागि परिग्रहिसि माडल्पडुव कर्मविशेषवु, कर्मयोगवॆनिसुत्तदॆ, अदिल् अवान्तर भेदङ्गळित्यादि आ कर्म
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274
- श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
अधिकारि भेदत्ताले प्रपत्ति ताने, भक्तियिडैयिट्टु, मिडैयिडादेयुव, मोक्षहेतुवानार् पोले, इक्करयोगम्, ज्ञानयोगयिष्टॆयिट्टु मिथैयिडा देयुव सहरिकरमान योग कॊट्टु आत्मावलोकन साधनमाम्
योगदल्लि अवान्तर भेदगळु, 11) दैवमेवापरीयज्ञं ऎन्दारम्भिसि हेळल्पट्ट देवार्चन तनर्ध दान यज्ञादिगळु कर्मयोगस्त सर्थ दान यज्ञादि नेवन ऎम्ब गीतार्थ ग्रह श्लोकद प्रकार, तपस्सु चान्द्रायण व्रत, तीर्थ -पुण्य तीर्थस्नान, दान, यागगळु कर्मयोगद भेदगळु,
अनन्तर कर्मयोगद काव्यवन्नु अधिकारि भेदत्ताले ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ अदागि सद्वारक प्रप्र निनिगॆ सकॆञ्चननॆम्ब अधिकारि भेददिन्द, अद्वारक प्रप निष्ठनिगॆ अकिञ्चननॆम्ब अधिकारि भेददिन्दलू प्रपत्ति ताने ऒन्दे प्रपत्तिय भक्तिय्कॆयिडैयिट्टु सङ्किचनन विषयदल्लि भक्तिद्वार, इडैयिडादेयुम्-अकिञ्चनन विषयदल्लि भक्ति द्वारविल्लदॆ
साक्षात्तागि मोक्ष रूप फलक्कॆ कारणवागुवन्तॆ,
मोक्ष रू फलक्कॆ कारणवागुवन्तॆ, ई कर्मयोगवु ज्ञानयोग
डैयिट्टु-दुष्करवाद उपायवन्नु निर्वहिसलु समर्धनादवनु ज्ञान योग द्वारा आत्मावलोकन योगवन्नु अनुष्ठिसुत्तानॆ. इडैयिडादेयुव.शिष्ट तया व्यप देश्यनागियू निष्टनाहसुकरोपायाभिलाषियू आदवनु कर्मायोगानुष्ठान दशॆयल्ले ज्ञानयोगवू तानुभगवच्छेषभूतरु-दासभूतनु ऎम्ब ज्ञानवु सम्मिश्रितवागि बरुवुदरिन्द आ ज्ञान योगवन्नु प्रत्येकवागि अन ष्ठिसदेनॆ, सहरिकारमान योगकॊण्डु यव नियमादि परिकरगळिन्द कूडिद आत्मावलोकन साधनवाद चित्तवृत्तियरॆ इधन रूप व्यापारवन्नु अवलम्बिसि आत्मावलोकन साधनमान् -जि वात्म साक्षात्कारक्कॆ साधनवागि इदॆ तधाच, ऒन्दे प्रपत्तियु हेगॆ भक्तियोग द्वारवागियू, द्वारविल्लदॆयू, सकिञ्चनाकिञ्चन अधिकारि भेददिन्द मोक्ष साधनवाग इदॆये हागॆये ई कर्मयोगवु, शिष्टतया व्यपदेशनू शक्तनू आद अधिकारि, अशक्ताधिकारि भेगदिन्द ज्ञानयोगानुष्ठानविल्लदॆयू, ज्ञानयोगवन्नु अनुष्ठिसियू आत्मावलोकनक्कॆ साधनवागुत्तदॆ. ज्ञानयोगक्कॆ अधिकारियु शिष्टतया व्यपदेशनू आदवनु, कर्मयोगवन्नु अनुष्ठिसदेनॆ. ज्ञान योगवन्नु अनुष्ठिसलु होगबारदु. इवनन्नु नोडि ज्ञान योगाधिकारियिल्लदवनू, कर्म योगवन्नु अनुष्ठिसदेने ज्ञानयोगवन्नु मात्र अनुष्ठिसि, आत्मावलोकन योगवन्नु अनुष्ठिसलु प्रयत्न पट्टु, कर्मयोगानुष्ठान विल्लद्दरिन्द मृदितान्तः कषायनागदॆ अन्दरॆ चित्र कालुष्य शान्तियन्नु हॊन्ददॆ, आत्म साक्षा त्कारवन्नु पडॆयदॆ नष्टनागुत्तानॆ अदक्कागि शिष्टतया व्यपदेश्यनू कर्म योगवन्नु अनु
सिय, आत्मावलोकन योगवन्नु आरम्भिसबेकॆम्बुदु तात्पर.
- दैववादरॆ यज्ञं योगिनः परपासतॆ ।
क
- m3 (4-25)
बृहाग्यावपर यज्ञं यज्ञवोप जुह्यति । कॆलवु योगिगळु भगवदाराधन रूपवाद यज्ञवन्नु अनुष्ठिसुत्तारॆ. मत्तॆ कॆलवरु अग्नियल्लि होम रूपवाद यागगळन्नु अनुष्टिसुत्तारॆ ब्रह्मागौ ब्रह्मरूपवाद अग्नियल्लि, यज्ञ होम रूपवाद याग तम्म, यज्ञनै
हस्सु स्पुश् स्तुवादि यज्ञ साधनगळिन्द, उपयुति-होम माडुत्तारॆन्दर्थ, “ब्रह्मा र्पां ब्रह्महपि" ऎम्ब न्यायदिन्द, याग होमगळल्लि सर्वरू ब्रह्ममयवॆम्ब निष्ठॆयनु अवलम्बिसुत्तारॆन्दर्थ
1
उपायविभागाधिकारः
ज्ञानयोगम्.
275
ज्ञानयोगमावदु? करयोगत्ताल् अन्तःकरण जयप्परन्नवनुक्कु, प्रकृत्यादि विलक्षणवाम्, ईश्वरनैप्पत्त अधेयत्व, विधेयत्त शेषव्वळाले शरीरतया प्रकारमानत ९ स्वरूप निरर चिन्ननम् पण्णु
इक्करयोग ज्ञानयोगळाले योगमुखत्ताले आत्मावलोकनं पिरन्हाल्, वैषयिक सुखवैतृष्णा वहमान आत्मानुभव सुखमाहिर आकर कल् अहप्पट्टल नाहिल् परम पुरुषरमान भगवदनुभवत्तुक्कु उपायमान भक्तियोगले इ युम् पोदु, उळ्ळिरुक्किर रत्नं काक्कु निरैक्कार् पोले, आन्नरामि प्पारुव पोरैक्कु अवनुडैय शरीरभूतनान जीवात्माविनुडैयदर्शनम् उप
युक्तना कॊट्टु भक्तियोगत्तुक्कु अधिकारकोटियले एरिट्टुक्कि डक्कुम्
ज्ञानयोग स्वरूप
ज्ञान योगमावदु -ज्ञानयोगवु यावुदॆन्दरॆ कर्मयोगदिन्द आन्तःकरण जयवु उण्टादवनिगि, (इदरिन्द कर्मयोगवु अत्यावश्यकवॆम्बुदु सूचित), प्रकृति परिणामवाद देह क्किन्तलू बेरॆयादवनू (देहात्म भ्रमविल्लदॆ) आधेयत्व-ईश्वरनिन्द धरिसल्पट्टवनागि, विधे यत्न अवनिन्द नियमिसल्पट्ट, शेषत्व- वनिगॆ अधीननागियू इरुव कारण, ईश्वरनिगॆ शरीर भू नागि प्रकारनाद (इदरिन्द ईश्वरनिगिन्त बेरॆ स्वतन्त्रनु ऎम्ब भ्रमविल्लदॆ ऎन्दर्ध तन् स्वरूप’ जीवात्म स्वरूपवन्नु अन्दरॆ नित्यत्व ज्ञान, आनन्द, अणत्व, अमलत्व, अहन्त्व विशिष्टवाद तन्न स्वरूपवन्नु ऎन्दर्ध, निरन्तर चिन्तनं हण्णु -ऎडॆबिडदॆ ध्यान
माडुवुदु ज्ञानयोग
एकबेतिगळु तम्म आर्ध पञ्चक ग्रन्थदल्लि ज्ञानयोगवॆम्बुदु “हृदय कमल्लादित्य मण्ड लादि स्थान विशेषगळल्लि सन्निहितनाद, भगवन्तनन्नु दिव्यास्त्रभूवण महिषि विशिष्टनागि अवन रत भावने माडुवुदॆन्दु निरूपिसिद्दारॆ, इदु सरियल्ल, जीवात्म तत्वयाथात्म ज्ञान चिन्तॆ नॆयु ज्ञानयोगवॆम्बुदु गीताभाष्यदल्लि निरूपिसिरुवाग अदक्कॆ विरुद्धवागि भगवच्चिन्तनवु ज्ञानयोगवॆम्बुदु अप्रामाणिक र्पयोगॆ ज्ञानयोगादिगळन्नु माडुव समयदल्लि “तानिसर्वाणि संयुक्त आ तमत्रर”-
-(n°32-61) ऎम्ब गीतॆय-प्रकार, शुभाशय “ भूतद बगवन्तरि मन क ऎन्दु मर
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276
श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
भक्तियोगव
भक्तियोगमानदु ? अनन्यनिष्ठनाय, अनन्याधीननाथ्, अनन्यशेषभूतनान भगवानुडैय स्वरूपादिहळ्ळि विषयवाह वुडै त्ता निरतिशय प्रीतिरूपमान ध्यानविशेष. अदुतान् तैलधारैयॆले निररमान स्मृति रूपमा, साक्षात्कार तुल्यमान वैश्यद्य युडैत्ताय परमपदत्तुक्कु प्रयाणम् पण्णुव दिवस मरुदियाद नाळ तोरुव अनुष्क वळर्न्नु वरुवदाय् आस्तिमप्रत्य यावधियान ज्ञानसन्तति विशेषव,
PRE
माडुव, अन्दरॆ प्राकृत भोगगळल्लि आसॆयन्नु नीगिसि, “यंलज्ञा चापरंलाभं मन्यते नाधिकं त” इत्यादि गीतॆयल्लि (6- 2)हेळिरुवन्तॆ, आत्मानुभव सुखक्कॆ मेलाद सुखवावुदू इल्ल ऎन्दु इदरल्लिये मनस्सु ऎळॆयल्पडुत्तदॆ. आ रीतियाद आत्मानुभव सुखमन आकर्ष कल् आत्मानुभव सुखरूपवाद बलॆयल्लि अहप्पलनाहिल्, सिक्किकॊळ्ळदॆ इरुव धीरनु परमपुरुषार्थमान भगवदनु भवत्तुक्कु आ आत्मानुभव सुखक्किन्तलू, उत्कृष्टवाद पुरुषार्थवाद भगवदनुभवक्कॆ उवायवाद भक्तियोगले-इयुपोदु भक्तियोग वन्नु माडलु उद्युक्तनागुवाग उळ्ळिरुक्किररत्नं काकु-इत्यादि ऒळग ऒब्बनु अमूल्य वाद रत्नवन्नु ऒन्दु वस्त्रदल्लि सुत्ति तन्न मडियल्लिट्टिद्दु अदु कळॆदुहोदाग अदन्नु हुडुकि आ वस्त्रवन्नु नोडिद तक्षण बहळ सन्तोषगॊण्डु अदरॊळगॆ इरुव रत्नवन्नु नोडलु अधि कारियागि उद्युक्तनागुत्तानॆ. आ वस्त्रवु रत्न दर्शनक्कॆ उपयुक्तवागुत्तदॆ. अदे रीतियल्लि, जीवत्यान्तामियाद परमात्मनन्नु नोडुव समयक्कॆ, (जीवात्मा वस्त्रस्थानीयनु, अन्त क्यामियु रत्न स्थानीयनु) आ परमात्मन शरीर भूतनाद जीवात्मदर्शनवु उपयुक्तवागि भक्तियोगत्तुक्कु अधिकारकोटियले एरिट्टुक्किडक्कु भक्तियोगक्कॆ अधिकारस्थानदल्लिरि सुत्तदॆ. भक्तियोगदल्लि केवल परमात्म स्वरूपवल्लदे, जीवात्मान्त रामितत्ववू धैयवा द्दरिन्द अन्यनाद जीवात्मन स्वरूपवु अन्यनाद परमात्म स्वरूप ध्यानक्कॆ हेगॆ उपयुक्त वागुत्तदॆ, ऎम्ब चोद्यक्कॆ अवकाशविल्ल “आतूप गच्छन्तिग्राहयन्तिच” ऎम्ब ब्रह्मसूत्रद प्रकार “अहम्ब्रह्मास्मि” “मत्कारकं ब्रह्म”ऎन्दु उपासनॆ.
भक्तियोगद स्वरूप
भक्तियोगमावदु इत्यादि, अनन्यनिष्ठनागि, अनन्याधीननागि अनन्यशेष भूतनागिरुव भगवन्तन स्वरूपादिगळन्नु (आदि शब्ददिन्द गुण विग्रहादि सङ्ग्रह) विषयवागि उळ्ळदागि अन्दरॆ भगवन्तन स्वरूप रूप गुण विभवादिगळ विषयवाद निरतिशय प्रीति रूपवाद ध्यान विशेष. ई ध्यान विशेषवु हेगिरुत्तदॆ ऎम्बुदन्नु अदुदान् ऎन्दारम्भिसि विवरिसुत्तारॆ, अदागि तैल धारॆयु सुरियुवाग, मध्यॆ मध्यॆ बॊट्टु बॊट्टागि बीळदे हेगॆ ऒन्दे कम्बिय हागॆ बीळु इदॆयो अदे रीतियल्लि, ई भगवान विशेषवु निरन्तरवाद (मध्यॆ मध्यॆ विच्छेदनविल्लदॆ अवि च्छिन्नवाद ऎन्दर्ध) स्मृतिरूपमाय्-स्मरणरूपवागि साक्षात्कार तुमान वैशद्य युडैत्ताय्-प्रत्यक्षवागि नोडुवुदक्कॆ समानवाद विशदवाद स्मरण सन्तति रूपवागिरुत्तदॆ. रामभयदिन्द कूडिद मारीचनु
1
¦}
उपायविभागाधिकारः
वृ वृक्षे श्यामि चीर कृष्णाजिन०ऒरम्
गृहीत धनुषंरामं पाशहस्तमिवन्त कम् ॥
الحياة
学
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ऎन्दु हेळुवन्त चीर कृष्णाम्बरवन उट्टु कैयल्लि यमनपाशदन्तॆ धनस्सन्नु हिडिदु कॊण्डिरु वन्तॆ र मनन्नु मानसिकवागि साक्षात्करिसुत्तिद्दनु. इदु भयदिन्द नव दा रव स्मरण माडु
र तिद्द मारीचनिगॆ उण्टाद प्रत्यक्ष समानवाद सातार इदे रीतियल्लि भगवत्सरूप रूप गुणविभवैश्वद्यादिगळन्नु शास्त्र ज्ञान श्रवणदिन्द तिळिदु मन माडि अदरिन्द योग दशॆयल्लि उण्टाद अविच्छिन्नवाद स्मृति सन्तति विशेष प्रति दिनवू अभ्यास माडल्पट्ट भावना प्रकर्षदिन्द विशद, एशद, विशद तमवाद प्रत्यक्ष समानाकारवाद मानसानुभववन्नु उण्टु माडुत्तदॆ, इदु परमपदत्तुक्कु प्रयाणम् हॆण्णु दिवसमरुदियाह इत्यादि. श्री वैकुण्ठक्कॆ हॊरडुव दिवसद आरुदि-परन्त, प्रतिदिनवू अनुष्ठिसि बरतक्कद्दागि, अदरिन्द वळन्नु वरुवदाय उत्तरोत्तर दिनगळल्लि पूर्व पूर्वदिनापेक्षया अधिक कालानुवृत्त वागियू, वैशद्यातिशयवन्नुळ्ळदागियू अन्तिम प्रत्ययावधियान-चरम शरीर वियोग कालदल्लि व्यापारवु नीं होगि मनोव्यापारवू निन्तु होगुव समयदल्लि उण्टागुव भगवध्यानमे अन्तिम प्रत्यय अदन्नु ऎल्लॆयागि उळ्ळदागिरुव ज्ञान सन्तति विशेष - प्रीति रूप भगवत्तु तार रूप जन सन्ति तधाच श्रुति सिद्धवाद ई भक्तिरूपोपाय वु साक्षात्कारक्कॆ स शानवाद स्मृति सङ्गति मात्रवल्लदॆ, श्री वैकुण्ठक्कॆ प्रयाण बॆळॆसुव पठ्यन्त प्रतिदिनवू अभ्यास - आवृत्ति माडल्पट्टु दिन दिनक्कू बॆळॆयुत्ता, अन्तिम शरीरावसानरल्लि अन्दर मनस्सिनल्लि इन्द्रियगळॆल्ला उपरतवागि, आ मनस्सु प्राणवायविनॊडनॆ जीवनल्लि सेरुव - उपरतवागुव कालदल्लि उण्टागुव भगवा स्मृति सरन्तवाद ज्ञान सन्तति विशेष. “सखवं वर्तयन् यावदायुषं”, “आप्रयाणात्’ तत्रासि हिदृष्टं” ऎम्ब श्रुति सूत्र गळु अन्तिम शरीरावसान पठ्यन्त उपासनॆयन्नु माडबेकॆम्बुदक्कॆ प्रमाण లునాయ विधायक वाक्यगळु, तमेव विदित्वा, तमेवंविद्वान्, ध्यायीत, उवासीत इत्यादि सामान्य शब्दगळु श्रुतगळादरू, “धृवास्कृति”, “स्मृतिलंवे सर्व ग्रन्दीनां विप्रमोक्ष”, ऎम्ब विशेष विधि वचनगळिन्द, सामान्य विशेष न्यायवन्नवलम्बिसि, वेदनवु स्मृत्यात्मक ज्ञान सन्तति विशेषदल्लि पर्यवसान हॊन्दुत्तदॆयॆम्बुद, हागॆये अदु “यवेष वृण तेतेन लभ्य”- प्रियनु एवहिवरणीयो भवति, “इत्यादि श्रुति तद्भाष्यगळिन्द, प्रीति रूपापन्न वॆन्दू निष्कर्षिसल्पट्टु, “प्रीतिरूप मनु ध्यानं भक्तिरित्यभिधीयते”, ऎम्ब वचनदिन्द भक्ति रूपापन्न वॆन्दु निगमिसल्पट्टिदॆ. इदरिन्दागि
t
वेदनं ध्यान विश्रान्तं, तद्विश्रान्तं ध्रुवात् ।
साच दृष्टित्वमभीति दृष्टि र्भक्तित्व मृच्छति ।
ऎम्ब कारिकॆयल्लि हेळिरुवन्तॆ, भगवत्सरूप रूप विभवादि वेदनवु ध्यानदल्लि पठ्यवसान हॊन्दुत्तदॆ. आ ध्यानवु निरन्तर स्मृति रूपवादद्दु. आ निरन्तर स्मृतियु साक्षात्कार तुल्यवु मत्तु भक्तिरूपापन्न ज्ञानवु.
se
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श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
भक्तियोगे वर्णाश्रमधराणां उपकारप्रकारः
इदुक्कु वरा श्रमधर४ ज्ञानविकासहेतुवान सत्वविवृद्धि कुक्कयान, रस सुक्कळुक्कु मलमान, पापण्ण कत्तु कॊण्णु, इतिकर्तव्यया यिरुकुमक
भक्तियोगक्कॆ वर्णाश्रम धर्मगळ आवश्यकतॆ
ई भक्तियोगक्कॆ वर्णाश्रम धर्मगळु अङ्गगळॆन्दु इदुक्कु वर्णाश्रम धर्म ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तार इल्लि भक्तियोगवु नॆलॆसिद मेलॆ वर्णाश्रम धर्मगळ अन इदॆये ऎम्बुदु शङ्कॆ. इदॆ ऎम्बुदु प्रत्युत्तर उवाय विरोधि पाप विष प्रपत्तियिन्द कळॆदरू, भक्तियोगानुष्ठान दडॆयल्लि प्रति दिनवू संवादनीयवाद भक्ति
रजोगुण तमोगुणगळिगॆ ज्ञान विकानक्कॆ विरोधिगळाद
कारणवाद पाप विशेष वर्णाश्रम धर्मगळिन्द कळॆय बेकु, अदु कळॆदरॆ सत्वग इवु हॆच्चि “सात् सं.: ज्ञान” ऎम्बन्तॆ ज्ञानवु दिने दिने अभिवृद्धवागुत्तदॆ. इदुक्कु वर्णाश्रम धर्म इत्यादि ई भक्तियोगक्कॆ वर्णाश्रम र्मगळु ज्ञान विकास हेतुवाद सत्वविवृद्धिगॆ क प्रति ऒन्धरवाद रजोगुण तमोगुणगळिगॆ मूलवाद पापगळन्नु होगलाडिसि इति नैयायिरुक्कु अङ्गवागिरुत्तदॆ
W
इल्लि वर्णाश्रम धर्मगळन्ने माडबेके, कव योग कालदल्लि माडुवन्तॆ यावुद कम्य कर्मवन्नु सात्त्विक त्याग पुरस्सरवागि माडबारदे ऎम्बुदु अधिकवाद आतङ्क समाधानवेनॆन्दरॆ - कर्म योग दशॆयल्लि नित्य नैमित्तिकगळॊडनॆ काम्य कर्मगळन्नू ता ग पुरस्सरवागि माडबेकॆम्बुदु विधिबल प्राप्त, भक्ति योगवन्नु आरम्भिसि माडु वर्णाश्रम धर्मगळिगिन्त बेरॆयार काव्य कर्मगळन्नु स्वरूपतः परिग्रहिसबारदु स त्याग पुरस्सरवागियू काव्य कर्मगळन्नू माडबारदॆन्दर्थ, नित्य नैमित्तिकानुष्ठान विनह बाकि कुलगळल्लि अवकाशविद्दाग साक्षाद्भगवदक्षिण प्रणाम मालुकरण दीपा व्यापक भगवन्मन्त्र जपध्यानार्चन वेदान्त रहस्य तत्व चिन्तनादिगळन्नु माडब “अभ्याने समर्थ्सिमत्कर्म परमोभव” ऎम्ब गीता (12-10) वचनदल्लि हेळिरुव, “मु परमोभव’ ऎम्ब वाक्यक्कॆ भगवद्रामानुजरु भगवन्नाम संर्कीतन, प्रदक्षणॆ सुत्ति स्टारादिगळु भक्तियोग निष्ठनिगॆ भक्ष्यभिवृद्धिगॆ सहायकवॆन्दु भाष्यदल्लि अनुग्रहिसिरुवुदु गमनार्ह विद्यानुपयुक्त कारीत्यादि सुकृतगळ अन वादवु भाष्यादिगळल्लि हेळल्पट्टिरु भक्तियोगानुष्ठान दशॆयल्लि माडिदुदल्ल हिन्दॆये विद्यानुष्ठानक्कॆ पूर्व भाविय अनुष्ठिसल्पट्टु फलवन्नु कॊडदॆ इद्द सुकृतवु इद्दरॆ, अदर विषयवादुदॆन्दु तिळिय एकॆन्दरॆ भक्त प्रपन्नरिब्बरू परमै कान्तिगळु अवरुगळिगॆ विहित कर्मनुष्ठानदल्लियू कर्मान नुष्ठानदल्लियू व्यत्यासविल्ल प्रायश्चित्तवू यथाधिकारवे माडतक्कद्दु. महायज्ञादनुष्ठान शक्तितः क्रिया, अहरहरनुष्ठियमान वर्णाश्रम धर्मानु आ उपासनरूप तत्समाराधन प्रीतः”, ऎन्दु भाष्यदल्लि भक्तियोग निष्ठनिगॆ वर्णाश्रम इ नुष्ठानवु अङ्गवागि विधिसल्पट्टिदॆ. “सकारनु, विहितत्वाच्च आश्रम कर्मासि, अग्नि हॊ तुतार्यादैव, सर्वापेक्षा च यज्ञादि श्रुतेरत्वव” इत्यादि सूत्र तद्भाष्यगळ
उपायविभागाधिकार
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ई भक्तियोगाने *प्रत्ययारञ्च मोक्षस्य सिद्धयस्सम्प्रत” ऎन्निरपडि इळनॆरॆत्तॆत्तु हैक्किट्ट विरगान मूयिल् कामना भेदत्ताले ऐश्वय्यादिहळुक्कुं साधनमातन्नु मिव्वर्थं (1) *चतुथा भजनॆ मां” ऎन्नुकॊल्लप्पट्टदु.
ज्ञाने सत्वश्रेष्ठः
तेषा
अडल्, (2) तेषां ज्ञानी नित्ययुक्तः एकभक्तिल्वशिष्यते” ऎन्नु तॊडज चॆन्न ज्ञानियिनुडैय वेत (3) चतुधा ममजना भक्ता एवहिते स्मृताः । मेकात्तिन श्रेष्ठा चैवा नन्यदेवताः । आहमेव गतिस्तेषां निराशीः करकारिणां । येतु शिष्टा भक्ता फलकामाहि तेमताः । स च्यवन धराणः प्रतिबुद्धस्तु मोक्षभा” ऎन्नु ताने बॆळियिट्टा
कर्म
अंशवु स्पष्ट. आद्दरिन्द भक्त प्रपन्नरिगॆ ई कर्म परित्यागवु शास्त्रीयवादद्दु. योगदल्लि विहितवाद्दरिन्दि काव्य कर्मवु फलसङ्गकर्तृत्वादि रहितवागि माडबेकादद्दु मै कान्त्यक्कॆ कुन्दुकवन्नण्टु माडुवुदिल्ल धर्मानुष्ठानवु विद्यॆगॆ सहकारियू आगुत्तदॆ ऎम्ब बुद्धियु भक्तनिगॆ विशेषवागिरुत्तदॆयॆम्बुदु इल्लिय तत्ववॆम्ब विषयगळन्नु करूरु स्वामि गळु तम्म ग्रन्धदल्लि अनुग्रहिसिरुत्तारॆ
भक्तियोगवु ऐश्वय्य कैवल्य साधक
अनन्तर ई भक्तियोगवे कामनाभेददिन्द ऐश्वय्य कैवल्यगळिगॆ साधकवॆम्बुदन्नु इब्बक्ति योगन्ताने ऎन्दारम्भिसि आचाद्यरु अनुग्रहिसुत्तारॆ अदागि ई भक्ति योगवु, प्रत्ययार्थञ्च मोक्षस्य सिद्धय सम्प्रकीर्तिता-मोक्षदल्लि नम्बिकॆयन्नुण्टु माडलु- सिद्धय-अणिमादि अश्वर सिद्धिगळु, भक्तिगॆ फलवागि हेळल्पट्टिवॆ, ऎम्ब सात्वत संहिता वचनद प्रकार, इळ नॆञ्ज तेट हवन्द विश्वास शालिगळन्नु, वेदविहत शास्त्रीय कर्मानुष्ठानदिन्द मोक्षवु लभिसुत्तदॆ ऎम्ब महा विश्वाशालिगळन्नागि माडलु कामना भेददिन्द ऐश्वय्य कैवल्य गळन्नू साधिसिकॊडुत्तदॆ. ई अर्धवु 1) चतुर्विधा भजन्तेमाडि ऎन्दु गीतॆयल्लि हेळल्पट्टिदॆ
ज्ञानिय उत्कर्ष
अन्निडल् इत्यादि- अवरुगळ मध्य 2) “तेषां ज्ञानि नि युक्तः एकभक्ति विति र्ह्य ”ऎन्दारम्भिसि ज्ञानिय उत्कर्षवन्नु 3) चतुर्विधाममजना ऎन्दु महाभारतदल्लि
- चतुर्विधाभजन्तेवां जनास्सु कृतिनॊर्जुन । आर्तोजिज्ञासुरर्थार्थि ज्ञानीच भरतर्षभ !
24
(nea 7-16)
ऎलॆ अर्जुन, पुण्य पुलिजनरु नाल्कु विध अवरु नन्नन्नु पूजिसुत्तारॆ, अवरु यारॆन्दरॆ आर्त-कळॆदु आत्मानुभवसुखदल्लि आसॆयुळ्ळवन्नु आर्धा होद ऐश्वरवन्नु तिरुगियू बेकॆन्दु हम्बलिसुववनु, जिज्ञासु र्थी’ - नूतन ऐश्वरक्कॆ आसॆपडुववनु, ज्ञानि -भगवन्तनाद नन्नन्ने बेकॆन्दु आसॆपडुववनु
2), 3),
J. 3. Loc.
280
श्रीमद्रहस्यत्रयसार
परभक्ति
इप्पडि मोक्षपायवाद निधि, भक्तियोग परभक्ति ऎन्नु पेशप्पट्टिदु
नुडैय हेतुवा, सात्त्विक परिशीलनादिगळाले नन्न भगवद्विषयल् प्रीतिविशेषम् सश्वेश्वरनैतॆळिय वरियवेणु नन्नुं अभिनिवेशत्तुक्कु कारणमाय् भक्ति ऎन्नुपे
भगवन्तनु ताने प्रकाशपडिसिरुत्तानॆ
अदागि वलान्तरगळिगॆ आ पट्टु भगवन्तनन्नु ध्यान माड ववरु आ फलवु लभिसिद नन्तर अदर अनुभवदल्लि निरतरागि भगवध्यानवन्नु बिट्टु बिडुत्तार ज्ञानियु उपायदशयल्लि यू फल दशयल्लियू भगवन्तनन्नु बिडदॆ अवनल्ले नॆट्ट मनस्कना अवनन्ने पडॆयुत्तान मॊदलु मूरु पङ्गडदवरु च्यवनमर -अन्दरॆ स्वल्प काल फ वन्नु पडॆदु नन्तर अदर नियोगवन्नु हॊन्दुत्तारॆ ज्ञानिय हागल्ल, निरन्तर भगवंश उळ्ळवनु आद्दरिन्द अवने श्रेष्ठन
वरभक्ति परज्ञान परम भक्तिगळ स्वरूप,
fa
योगवेनॆम्बुदन्नु विवरिसि त शास्त्रगळल्लि परभक्ति, परज्ञ, परमभक्ति ऎन्द व्यवहरिसिरुवुदु याव भक्ति ऎम्बुदु ६०कॆ. इदन्नु, इप्पडि नोकोपाय माह ऎन्दार *सि विवरिसुत्तारॆ. अदागि हीगॆ मोक्षवायवागि विधिसल्पट्टि, “भक्तियोगमावदु रम्भिसि ज्ञाननन्तति विषम” ऎन्दु निरूपिसल्पट्ट भक्तियोगवु परभक्ति ऎन्दु हेळल्पट्टिदॆ. “म किंलभतेवां” ऎन्दु गीतॆयल्लि इदु हेळल्पट्टिदॆ. ई परभक्तियु शास्त्र जन्य ज्ञानदिन्द उण्ट गव भक्तिगिन्त बेरॆ ऎम्बुदन्नु इदिनुडैय हेतुवा ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तारॆ. अदा भक्ति ऎन्दरॆ भगवद्विषयदल्लि उण्टागुव प्रीति, ई प्रीतिगॆ नाल्कु अवस्थॆगळु मॊदलनॆ अवस्थॆय ऎरडनॆ अवन * कारण वाददु ऎरडनॆयद परनॆ आवस्थॆगॆ, हागॆये मूरने अवस्थॆय नाल्कनॆ अदगॆ कारणवादद्दु कॆळगॆ भक्तियोग यावुदु ऎन्दु विवरिसि ऎदु ऎरडनॆय अव
- प्रियोहि ज्ञानिनत्यर्धं आहंसचममप्रियः । ऎम्बुदु
(उत्तरार्ध गीतॆ 7-17)
आ नाल्करल्लि भगवदनु - भववन्नु आसॆ वडुव ज्ञानियादवनु, नित्ययुक्त-नन्नॊडनॆ नित्ययोग ( बन्धवन्नु आसॆ पडुववनागि शन्नं भूतदच्च इतिकृ) अन्दरॆ ऐश्वय्य कैवल्यार्थिगळु उपासन कालु मात्र भगवन्तनन्नु धान माडि आवनॊडनॆ सम्बन्धवन्नु अपेक्षिसुत्तारॆ. फलानुभवदशॆयलिल्ल. हाग ज्ञानियु उपासनाकादल्लियू फलदरॆयल्लियू भगवन्तनॊडनॆ नित्य सम्बन्धवन्नु अपेक्षिसुत्तानॆ. ऎकभक्ति नन्नल्ले प्रीतियुळ्ळवन्नु बेरॆ यावुदरल्लि ईगॆ इल्लदवनु अन्दरॆ प्रयोजनान्तर विमुखनु विशिष्यते-उ एनु आ ज्ञानिगॆ नानु अत्यय प्रियनु, आद्दरिन्द अवनु ननगू यनु
- भारत न्तिपर्द 350-33 35 नन्नवरु नाल्कु विधवादवरु अवरॆल्लरू भक्तरन्दॆ शास्त्रगळल्लि हेळि ओवॆ अवरुगळ मध्य एकान्तिगळु नन्नल्ले साधनत्व ऒन्द्दि निश्चयवुळ्ळवरु. अवरुगळु अनन्यदेवतु पा देवतॆयू, उचायसाधना देवतॆय ऒन्दॆ ऎन्दु तिळिददरु. अवरिगॆ नाने गतियु-बाकियवरु ऐश्वर कृषि प्राप्तनन्तर देवतान्तरगळन्नु भजिसतक्कवरु ऐकान्तिगळु हागल्ल, निराशि कर्मकारिणां, फल सङ्गादिर कर्ममाडुववरिगॆ, अवमेदगतिः नानॆ प्रानु बाकि मूरु भक्तरु फलदल्लि आसॆयुळ्ळवरु सर्वेच्यवन धर्मा अवरिगॆ आ फलगळु स्वकाशारन्तर नरिसिहोगुत्तवॆ, धर्म-फल) प्रतिबुद्दु, अन्दरॆ ज्ञानियु मोक्षव पडॆयुत्तानॆ.
उपायविभाधिकरण
परज्ञानम्
28F
इतले (१) “शुद्ध भावं गतोभक्ता शास्त्रादेजनारनं” ऎन्निरपडिय शास्त्र जन्य तत्वज्ञान करयोगादि परस्परैयाले पिरन्न भक्तियानदु, साक्षात्तरिक्क वेणुवॆन्नु मभिनिवेशण्णा, (२) “गेश्वरततोमेश्वं दरियात्मानमव्ययं (३) काणुमाररुळाय (४) “ऒरुनाळ् काणवारा” ऎन्नुविलपिक्कुमृडिप्प यिव्वपेक्षा मात्र मडियाह वन्न भगवत्नसाद विशेषत्ताले तत्कालनियतमान परि पूर्ण साक्षात्कार युण्णाकु इस्सा क्लात्कारम् परज्ञानवन्नु (शोल्ल) पेश प्पट्टदु.
ई भक्तियोगक्कॆ कारणवाददु सात्त्विक परिशीलनादिहळाले-सत्तरवाद ज्ञानिगळॊडनॆ सम्भाषण, सल्लावादिगळिन्द अन्दरॆ सत्सङ्गदिन्दलू आदि सरदिन्द इतिहासवुराण श्रवणगळिन्दलू उण्टाद भगवद्विषयद प्रीति विशेषवु सर्वेश्वरनन्नु इळिय अरियवेणु शास्त्रङ्ग इन्नु अभ्यासमाडि भगवन्तनन्नु विशदवागि स्वरूप रूपगुण विभूतिगळॊडनॆ तिळिदुकॆ बेकॆम्ब अभिनिवेशत्तुक्कु – इच्चा शेषक्कॆ तिळिद कॊण्डल्लदॆ धरिसिरलु अशक्यवाद आवस्थाजनक : आसिगॆ, कारणमाय-कारणवागिरुत्तिदॆ आ ल य नुं माडुत्तदॆ
अन्दरॆ वेदान्त शास्त्र परिचयदिन्द ८.०टद तत्व “नदिन्द भगवन्तनल्लि उण्टागुव प्रीति विशेषवु भक्ति शब्द वाच्यवु इदरिन्द अविधेय ज्ञानरूपवाद शास्त्र ज्ञानक्किन्त बेरॆयाददु उपाय रूपवाद शास्त्र गळल्लि विधिसल्पट्ट भक्तियोगरूप ज्ञान विशेषवु ऎन्दु सिद्धवायितु अविधेय ज्ञानदिन्द मोक्षवॆम्ब सिद्धान्तवु सरियल्लवॆम्बुदु भाव इदन्नु शुद्ध भावङ्गभक्ता ऎन्दारम्भिसि विवरिसुत्तारॆ, इत्ताले शस्त्रजन्य ज्ञानदिन्द उण्टाद प्रेवभक्तियिन्द 1) शुद्ध भावङ्ग भक्ता इत्यादि हेळिरुव रीतियल्लि शास्त्र जन्य तत्व ज्ञान, कर्मयोग ज्ञानयोगसाध्य
- आत्मावलोकन रूप ज्ञान परम्परॆयिन्द उण्टाद परभक्तियानदु भक्तियोगवॆन्दु निरू पिसल्पट्ट परभक्तिय साक्षात्करिवेणुवॆर इत्यादि भगवन्तनन्नु प्रत्यक्षवागि नोडबेकॆम्ब अभिनिवेश, प्रत्यक्षवागि नोडदॆ इरलागद श्रीव्रवाद आसॆ अवन्नु उण्टुमाडि 2) योगेश्वर ततोमें 3) काणुमाररुळाम् 4) ऒरुनाळ् काणवाराये 1) विद्याराजन्नतॆ विद्या मम विद्यागरियसी !
मायान्न सेवे भद्रन्ते नव्यधा धर्ममाचर ।
शुद्द भावं गतो भट्टा शास्माद्वजनार्वनम् ।
भारॆ उद्योग 68-5}
सञ्जयनु धृतराष्ट्रनिगॆ हेळुव मातु ऎलै राजनॆ नीनु गुरुविनिन्द उपदेश हॊन्दिद एद्यॆय कारण नानु कपटॆयल्ल सरियागि ग्रहिसदे इरुवुदु, नानु ग्रहिसिद विद्यॆयु निन्न विद्यॆगिन्त श्रेष्टवाददु धर्माचरणॆ माडुत्तेनॆन्दु नटिसुववनल्ल नीनु कापट्यदिन्द माडुव धर्माचरणॆ व्यर्ध नानु शुद्धवाद मनोभावदिन्द शास्त्राभ्यास माडि भक्ति पूर्वकवागि भगवन्तन स्वरूप रूपादिगळन्नु तिळिदिद्देनॆ
- मनसेयदितं मयाद्रष्टु मिति प्रभो ।
योगेश्वर ततोमेश्वं दर्शयात्मानमव्ययम्
नीनु हागल्ल.
(nea. 11-4)
नानु निन्नन्नु साक्षात्करिसलु शक्यवु ऎन्दु तिळिदिद्दरॆ, ऎलॆ प्रभुवे । योगेश्वर । निन्न स्वरूप रूप
गुण विभवगळन्नु यथावत्तागि तोरिसु, प्रत्यक्षवागि निन्नन्नु नोडबेकॆन्दु आर्सॆ
3), 4), . 8, JDE.
282
श्रीमद्रहस्य त्रयसारे
परमभक्तियिनुड्डॆय स्वरूपं
इप्पडि निरतिशयभोग्यमान भगवत्सरूप साक्षात्करित्तवारे पॆरुविडाय पट्ट वन् तटाक कृष्णार् पोले पिरन्न प्रीत्यतिशयन परमभक्ति, इदु (१) “मुनिये नानु हनिल्पडिये सचवर अनुभविल्लदु धरिक्क वॊण्णाद अभिनिवेशयुत्ताक्कि मरुक्कवॊण्णाद तिरुवायिट्टु, ऎत्तु कप्पिडुहैयाले, इवनुक्कु कडुह प्राप्ति मैकॊडुक्कु पडि सश्वरनुन्नु ऊरातिशययुण्डक्कि, इवक्कॆ अवावत्तु नीडु पॆरप्पण,
योगेश्वरने निन्नन्नु तोरिसु, निन्नन्नु नोडु ०तॆ अनुग्रहिसु, ऒन्दु दिवस निन्नन्नु नोडुवन्तॆ बा, ऎन्दु आक्रन्दनवन्नुण्टु माडि, ई अवेक्षॆये कारणवागि उण्टाद भगवन्तन विशेषानुग्रहदिन्द - अन्दरॆ उपाय निष्पत्तियुण्टाद मेलॆ श्री वैकुण्ठदल्लि उण्टागुव परि पूर्ण भगवत्साक्षात्कारक्कॆ हेतुवाद अनुग्रहक्किन्त बेरॆयाद विशेषदिन्द तत्कालनियतवाद परिपूर्ण साक्षात्कारवन्नुण्टु माडुत्तदॆ.
इस्साक्षात्कारम् इत्यादि - ई साक्षात्कारवे परज्ञान “पर ज्ञान तु तव साक्षात्कार परिस्पुट” परज्ञानवु-आ भगवन्तन परिस्पुटवाद साक्षत्कारवॆन्दु हेळल्पट्टिदॆ. अनन्तर परमभक्तियन्नु इप्पडिनिरतिशय भोग्यमान ऎन्दा रम्भिसि विवरिसुत्तारॆ. हीगॆ निरतिशय भोग्यवाद भगवत्सरूपवन्नु
साक्षात्करिसिद नन्तर, पॆरुविडाय पट्टवन्-बहळ दाहदिन्द कूडिदवनु तटाकवन्नु नोडिदन्तॆ उण्टागव प्रीर्तियवे वरमभक्ति इदु साक्षाद्भगवत्पाप्तिगॆ कारणवागुत्तदॆ
परम भक्तियु मोक्षवन्नु हॊन्दिसुव क्रम
1
अदर प्रकारवन्नु इदु (1) मुनियेनानुहनिरप्पडिये” ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तारॆ
तेविवारवार् तिरुमह भूमि एवदुत्तमरर् अचियार् मेविद उलग मन वैयाट्टि वेन्दु वेण्डुरुव निन्नु रुं । पावियेन् तन्नॆ आडुहिन कमलक्कण्णदु ओर् पदळवाय मणिय
J आविये अवदे अल्प कडल कन्द पप्पन काणमाररुळाम् । श्री भूमि आ समेतनागि दूरलोकगळन्नू आळुव स्वामिये नीनु धरिसुत्तीय पाषियाद नन्नन्नु विश्लेषदल्लि हिंसिसुव सॊगसाद कण्णुगळन्नू कन्तियुळ्ळ, नन्न पने, आमृतवे, समद्रमधन माडिद स्वामिये निन्नन्नु प्रत्यक्षवागि दर्शिसुवन्तॆ ननगॆ अनुग्रहिसु
4
मायक्कूत्तु वामना विनेयन् कण्णु कण् कैकाल् तय शॆयु मलळु शोदिच्चॆ न्याय मुन्दु । शायल् शादुत्तिरु मेनि ताप डैय तम वाशत्तडं पोल् वरुवाने ओरुनाळ्’ काणवारा
।
आश्चरवाद नृत्यवन्नु माडुववने, वामन पापियाद नन्न कण्णने, शुद्धवाद कॆम्पाद पुष्पदन्तॆ विकसितवागिवॆ. निन्न शरीरवु श्यामलवर्णदिन्द विकसितवाद तामर हूवुगळिन्द कूडिद तटाकवे नडॆदु बरुवन्तिदॆ. अन्थह ऒन्दु दिवस् बा
(80203 8 1-1)
भक्तरिगॊस्कर आनेक रूपगळन्नु
हवळदन्धह बायि, रत्नदन्थह सौन्दय्य सौलभ्यादिगळिन्द कूडिद
तिरुवाय् (8-5-1)
निन्न कण्णु, कै कालुगळॆल्ला परि कूडिदॆ. नीनु नडॆदु बन्दरॆ निन्नन्नु प्रत्यक्षवागि नोडुवन्तॆ
1
उपायविभागाधिकार
भक्तियोगानराणां अशक्तानां च प्रपत्तिरेवोपायः
283
इच्छक्तियोगव, वर्णि करॆयन्दारु वर, वरिकर तळिल् ज्ञानत्तिले यादल् शक्तियिलेयादल् इरलुमादल् कुरैयुडैयारु, फलविळन्नुव पॊरुळ्ळ विद्यॆयाद तीव्रसंवेग मुडैयारुव, योग्यवल्ला मैयाले, तळळवु हत्तिळिद्दु अद्वारकवाह प्रपत्तिय मोक्षेपायमाहप्पत्तुमवर्हळुक्कु सर् फलसाधनमान प्रपत्ति ताने परभक्तिस्थानले चोदितैयायाले उपासकनुक्कु पर भक्तिक्कु मेल्वरुव अवस्थॆहळ् पोले, इस्कृत प्रपत्ति निष्ठनुडैय कोलुतलुक्कि डाह इष्टपक्कु मेल्वरु अनुकूलावदळ इदिन् फलमायिरुक्कु,
ई परज्ञानवु मुनिये नानुहने ऎन्दारम्भिसुव तिरुवाय मोळियल्लि हेळिरुव प्रकार सङ्कोचमर, तत्कालनियतवाद सङ्कोचविल्लदॆ, भगवन्तनन्नु निरन्तर अनुभविसि अनुभव परीवाहवाद कैङ्करवन्नु माडियल्लदॆ तानु धरिसलारद तीव्रवाद आसॆयन्नुण्टु माडि, मरुवॊण्णाद तिरुवायिट्टु भगवन्तनन्नु अतिक्रमिसदॆ इरुवन्थह रीतियल्लि उन्रु, मार्बत्तु मालॆ नङ्गै वाशङ्कॆट् पूङ्गुलाळ् तिरुवा निन्ना कण्डाय् ऎन्दु नन्नन्नु मोसगॊळिसदॆ निन्न निरन्तर सेवॆयन्नु कॊडु, इल्लदिद्दरॆ निन्न ऎदॆयल्लिरुव लक्ष्मि मेलॆ आणॆ, निन्न मेलॆ आणॆ ऎन्दु आणॆ इट्टु “इनिखान् फोहलोस्पेन् ऒन्नु मायं शॆल्यल इन्नु निन्नन्नु बिट्टिरलारॆ, मोस माडबेडवॆन्दु भगवन्तनन्नु निर्बन्धिसि आक्रन्दन वन्नु माडिसुत्तदॆ. ई आक्रन्दनवु भगवन्तनिगॆ आतिशयवाद त्वरॆयन्नु उण्टुमाडि, इवन्नॆ रअनावट्टु नीडहॆरप्पण्णु-परम भक्तियुक्तनाद इवन महत्तरवाद आसॆयन्नु नीगिसि, सम पदवन्नु हॊन्दुवन्तॆ माडुत्तदॆ.
भक्तियोगदल्लि अधिकारविल्लदवरिगॆ प्रपत्तिये फलदायक
त्रै
疆
अनन्तर भक्तियोगानुष्ठानक्कॆ अनधिकारियाद प्रपत्ति योग निष्ठनिगू, परभक्ति पर ज्ञान परम भक्तिगळु प्रपत्तिगॆ फलवागि उण्टागुत्तदॆ ऎन्दु इब्बक्तियोग ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तारॆ अदागि ई भक्तियोगवु, वर्णिक-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यरु, ऒयिन्दार्कु अवरन्नु बिट्टु इतररिगू, वर्णिकरल्लिय, ज्ञानदिन्दागलि, शक्तियिन्दागलि, ज्ञानशक्ति गळॆरडरल्लियागलि कुरैयुडैयारु - परिपूर्णवागिल्लदवरिगू, फलविळम्बर् इत्यादि वर्णिकरागिद्दु ज्ञान शक्तिगळॆरडू पूर्णवागिद्दरू फलविळम्बवन्नु सहिसलारद तीव्रवाद त्वरॆयन्नुळ्ळवरिगू, अन्दरॆ भक्तियोग निष्कनिगॆ प्रारब्ध कर्मावसानदल्लि मोक्ष, तावत्परन्त ई संसारदल्लिरलारद त्वरॆयुळ्ळवरिगू, योग्यवल्ल अन्थहवरु तङ्गळ अळुवुहळ्ळि इत्यादि- तम्म तम्म सामर्थ्यद अळतॆयन्नु तिळिदुकॊण्डु, अद्वारकवागि प्रपत्तियन्नु मोक्षपायवागि पट्टुमवर् हळुक्कु-अवलम्बिसबहुदु, आ अधिकारिगळिगॆ, सर्वफल साधनवाद प्रपत्ति ताने परभक्ति स्थान चोदितैयायाली-परभक्ति स्थानदल्लि शास्त्रगळल्लि, “यन काम कामेन नसाध्यं साधनान्तः । मुमुक्षुणा यत्साङ्ख्यन योगेन नचभक्तितः । तेन तेना इके तत्तन्नु सेनैव महामने !!” ऎन्दु (साधानन्तरगळिन्द साधिसलसाध्यवाद अभीष्ठवू
284
श्रीमद्रहस्यप्रयतारे
भक्ति प्रसर्त्यल्यफलत्वं
इप्पडि प्रपत्तिक्कुव, भक्तिक्कुव अधिकारिविशेष प्पत्ति तुल्यफलत्व मुक्तायाले विकल्पवाहक्कडवदु. इवत्तुक्कु “नानाशब्दादिभेदात्” ऎन्निर अधिकरणले भेदव सिद्द.
“विकविशिष्ट फलत्वात्” ऎन्निरवधिकरणत्तिले विकल्प युव सिद्ध.
ई
मोक्षदल्लि आनॆयुळ्ळवनु कर्म योग ज्ञान योगाङ्गकवाद भक्तियिन्द साधिसलु असाध्य वाद मोक्षवन्नू, न्यासदिन्दले अन्दरॆ प्रपत्तियिन्दले साधिसबहुदु) चोदितवागिदॆ. प्रवत्तियन्नु अनुष्ठिसिदवनिगॆ, ई पासकनुक्कु वरभक्कु मेवरुं इत्यादि, उपासकनिग परभक्तिगॆ नन्तर उण्टागुव परज्ञान वरम भक्तिरूप अवस्थॆगळु, ई स्वतन्त्र प्रपत्ति निष्ठनु प्रपत्ति कालदल्लि माडुव सङ्कल्पानुसार, ई प्रपत्तिगॆ फलवागि उण्टागुत्तवॆ
अन्दरॆ प्रप नन्तर उण्टागुव परभक्ताज्यवस्थॆगळु प्रवत्तिय फलवागिरुत्तवॆ प्रपत्ति ताने परभक्ति स्थानले चोदितैयाहैयाल् ऎन्दु हेळिरुव वाक्यदिन्द भक्तिय हागॆ प्रपत्तियू साक्षान्नोक्ष साधनवागि भगवप्रसादक्कॆ द्वारवॆम्बुदु तत्व प्रपत्तियु भक्ति स्थानदल्लिद्दु भक्तिये मोक्षवन्नु कॊडुत्तदॆ ऎन्दु हेळिदर, मेल्वरुं अनुकूलावहळ इदिन् फलमायिरुक्कु, ऎन्दु पर भक्तादि अनुकूलावस्थॆगळु प्रपत्तिय फलवागिरुत्तवॆ, ऎम्ब श्री सूक्तिगॆ विरोधवागुत्तदॆ. आद्दरि०द प्रवत्तिगॆ साक्ष नाधकवॆम्बुदु श्री सूक्तिय हृदय.
A
भक्ति प्रवत्तिगळिगॆ फलवु ऒन्दे
प्रपत्तियू भक्तिय हागॆ साक्षाक्ष साधनवॆन्दरॆ, ऎल्लरू लघुवाद प्रपत्तियन्नॆ अवलम्बिसि गुरुवाद भक्ति योगवन्नु कैगॆ रुवदिल्लवे आद्दरिन्द भक्तिये मोक्ष साधकवॆम्बुदु लोद्य इदक्कॆ समाधानवागि इप्पडि द्रवक्कुं भक्तिक्कुं ऎन्दारम्भिसि आचारर ६न ग्रहि सुत्तार अदागि हीगॆ प्रपत्तिगू भक्तिगू धिकारिगॆ - बेरॆ बेर अकिञ्चन, नकिञ्चनाधिकारिगळन्नु देशिसि प्रवत्तिगू भक्तिगू फलवु समानवाद्दरि०द विकल्पव हेळल्पट्टिदॆ अन्दरॆ किञ्चनन्नु प्रवत्तिय न्नु नष्टिसबेकु सकिम्बननु भक्तियन्नु अनुष्ठिसबेकु इब्बरिगू पक्षवॆम्ब फलवु ऒन्दे. आद्दरिन्द ऎरडरल्लि ऒन्दन्नु अनुष्ठिसिदरॆ साकु हागादरू समर्थाधिकारिगॆ (नकिञ्चन) भक्ति, असमर्धाधिकारिगू (अकिञ्चन), सामर्ध्यविद्दरू विळम्बाक्षसरिगू प्रप ऎन्दु व्यवस्थितवागिरुवाग, ऒन्दे अधिकारिगॆ ऎण्डरल्लॊन्दन्नु माडबहुदॆन्दु हेळिदरॆ तानॆ विकल्पवु उण्टागुत्तदॆ भक्ति प्रपत्तिगळिगॆ विकल्पवु हेग ऎम्बुदु शङ्कॆ इदक्कॆ समाधानवागि फलवु ऒन्दे आगिरुवुदरिन्द, भक्ति प्रपत्तिगळु परस्पर निरपेक्ष साधनवागिरुवुदरिन्द विकल्पवु हेळल्पट्टिदॆ. सूत्रकाररू “विकविशि फला” ऎन्दु फलवु ऒन्दे आगिरुवुदरिन्द विकल्पवन्नु सूत्रिसिद्दारॆ. हागादरॆ भक्ति प्रपत्तिगळु ऒन्दे रूपवे ऎम्बुदु पुनश्यन्तॆ. अदक्कॆ प्रत्युत्तरवागि, इवुकु, “नानाशब्दादिभेदात्”, ऎन्दारम्भिसि समाधानवन्नु हेळुत्तारॆ.
उपायविभागाधिकार
उपासनविद्या प्रकारा इव न्यास विद्या प्रकाराति
285
उपासनल् विशेषणळपोले, शाखाभेदळिलुं भगवच्छास्त्र संहिताभेदङ्गळि लुम् कॊल्लु(म्)हिर न्यासविद्यॆयिल् मन्मादि विशेषळ कण्णु कॊळ्ळदु. नमस्कारम् वाचकं, कायिकं, मानसं, ऎन्नु पिरिन्हा प्रोले, प्रपतियिलुरॊ मुन्निट्टु इद्विभागळ शूल्लप्पट्टदु. इनैनुम् पॊरुनपोदु पूर नमस्कारमाना “ले, पूर प्रपत्तियायक्कडवदॆनवर पाशुरळुक्कु, वाचिक कायि कण्ण ळान व्यापारविशेषङ्गळ परीवाहमाम्रडियान मानसप्रपत्तियिनुडैय पूरियिले तात्पर माहक्कडवदु.
यथाधिकार इवॆयॆल्ला फलप्रदङ्गळॆनुविडम्मुन्ने €
अदागि भक्ति, प्रपत्तिगळु बेरॆ बेरॆ विद्यॆगळु ऎम्बुदु नाना शब्दात्, ऎन्दारम्भिसुव अधि करणदिन्द सिद्द. हागॆये “विक… विशिष्ट फलत्वात्” ऎम्ब अधिकरणद प्रकार विकल्पवू सिद्ध’ विकल्प ’ विभिन्न कल्प एव नतु समुच्चयः, कुतः अविशिष्ट फलत्वाक् - परस्पर असहायेन तुल्य फल जननात् ऎम्बुदु, सूत्रार्थ
“शब्दादि भेद” ऎम्बल्लि शब्द भेदवु यावुदॆन्दरॆ, उपासीत, प्रपद्योत, भक्ति, प्रपत्तिः इत्यादिगळु, परस्पर भिन्न प्रवृत्ति निमित्तगळन्नुळ्ळवु ई शब्दगळु, स्नेह रूपतापन्न ध्यान सन्ततित्ववु भक्ति पदक्कॆ प्रवृत्ति निमित्त, निरपेक्षपाय ई पार्थनान्वित भरन्यासत्ववु प्रप पद प्रवृत्ति निमित. आद्दरिन्द शब्द भेदवु एर्पडुवुदरिन्द कर्म भेदवु सिद्ध.
प्रपत्तियल्लि आवान्तर भेदगळु उपासन विद्यॆय हागॆ
अनेक करण मन्त्रगळन्नु उपयोगिसि न्यास विद्यॆयन्नु अनुष्ठिसुवुदरिन्द न्यास विद्यॆगळु अनेकवे ऎम्बुदु शङ्कॆ. इल्लवॆम्बुदु सिद्धान्त, हेगॆन्दरॆ, उपासनल् विशेषङ्गळ पोले उपासन रूपवाद दहर शाण्डिल्यादि विद्यॆगळ हागॆ, शाखाभेदङ्गळिलुं, तैत्तिरीय, श्वेता श्वरादि वेद शाखा भेदगळल्लिय भगवच्छास्त्रसंहिता भेदङ्गळिलु-पाञ्चरात्र सम्बन्धि गळाद लक्ष्मीतन्त्र, अहिर्बुध्यादि संहितॆगळल्लियू शूल्लन्न्यास विद्यॆयिल्-प्रतिपाद्यवाद न्यास विद्यॆयल्लि मन्त्रादि विशेषङ्गळ कण्डु कॊळ्ळदु-मन्त्र कृत भेदगळन्नु तिळियुवुदु
शब्ददिन्द गुण विग्रह परिग्रह, नमस्कारव इत्यादि नमस्कारवु वाचिक, मानस, कायिक वॆन्दु मूरु विध नमः ऎन्दु हेळुवुदु वाचिक, उत्कृष्टन विषयदल्लि अन्दरॆ शेषि विषयदल्लि अवनिगॆ नानु शेष भूतनु ऎम्ब अनुसन्धानवु मानसिकवाद नमस्कार कायिक वॆम्बुदु प्रणिपतन, अञ्जलि बन्ध इत्यादिगळु. अदे रीतियल्लि प्रपत्तियल्लिय मानस वाचिक कायिक व्यापारगळल्लि ऒन्दन्नु मुन्दिट्टुकॊण्डु ई विभागगळन्नु तिळियतक्कद्दु. ई मूरू सेरिदाग पूर्ण नमस्कारवादन्तॆ, वाचिक व्यापार परीवाहवाद मानस प्रपत्तियु पूर्ण प्रपत्ति, अवरवर अधिकारानुगुण मानस, वाचिक प्रपत्तिगळु फलप्रदगळॆम्बुदन्नु हिन्दॆये तिळिसिरुत्तारॆ. अन्दरॆ स्वनिष्ठॆ, उक्तिनिष्ठॆ, आचारनिष्ठॆ ऎम्बवु यथाधिकार फलप्रदगळु
286
श्रीमुद्रहस्यत्रयसारे
45
"
निन्न निक्कुर निरुम् करुममु सीमतियाल् नन्नन नाडिय इानवुलु मुळ् कण्णु डैयार् । ऒन्निय पतियु मनुमिला विरैवाररुळाल् अन्नु सयवरु मारु
मरिनवरन्नणरे ॥६॥ करज्ञानमुपासनञ्च शरण प्रति चावस्थिर्ता सन्मारु नपवर्ग साधनविद् सद्वारकाद्वारर्का ॥
- एकद्वा कृति योगसंस्कृत पृथग्धावानुभावानिर्मा ।
सत्य क्षेत्रशरण्य सारथि गिरामने रमबुधाः ॥
इति श्री कवितार्किकसिंहस्य सतस्वतन्त्र श्रीमटनाथस्य वेदानाचारस्य कृतिष
श्रीमद्रहस्यत्रयसारे उपायविभागाधिकारो नवनुः
श्रीमते निगमान्त महादेशिकाय नमः
अधिकारार्थ सङ्ग्रहः
अनन्तर अधिकारार्धवन्नु निन्ननिक्कु ऎन्दु पाकर रूपदल्लि आचाररु अनुग्रहिसुत्तारॆ. निन्ननिलैकु-बेतनरु स्थिरवागि निन्त स्थितिगॆ उरनिक्कुं योग्यवागिरुव, करुममुव कर्म योगवन्नू, नेर्मदियाल् सूक्ष्मवाद बुद्धियिन्द, दुष्करवाद ज्ञानयोगवन्नू निमादवागि निर्वहिसतक्क सूक्ष्म बुद्धियिन्द, नननाडिय ज्ञानमुम्- ऒळ्ळॆदॆन्दु अङ्गीकरिसिद नयोगवु आदागि कर्मयोगवु लौकिक कर्म सञ्जातीयवाद्दरिन्द निमाद वागियू सुकरवागियू इरुत्तदॆ ज्ञान योगवू विषय व्यापार शून्यवागिरुवुदरिन्द दुष्कर वादरू ज्ञानन सजातीयवागिद्दरू अन्तरङ्गवागिरुवुदरिन्दलू ऒळ्ळॆयदॆन्दु आत्मावलोकन दल्लि इच्छॆयुळ्ळवरिगॆ अङ्गीकृतवु . नल्लु मुट्टि कण्णु डैयार्- स्व स्वरूपदल्लि स्नेहवुळ्ळ आत्मा
स्व वलोकनवन्नुळ्ळवर ऒळ्ळॆय स्वीकरिसिद, पत्तियुव-भक्तियोगवन्नू, ऒनुमिलानिरैवारु- कर्मयोगादिगळल्लि ऒन्दरल्लियू अधिकारविल्लदवरू, विळम्बाक्षव रू आदवरिगॆ अरुळाल्- उवायां र स्थानजन्य कृपॆयिन्द अन्नुपयन्तरुं-भगवत्पसादवन्नुण्टुमाडि इवनु इच्छिसिद कालदल्ले फलवन्नु कॊडुव आरुं पारवन्नू, अन्दरॆ प्रपत्तियन्नू, अरिन्दवर् , तिळि
अन्दणर्-ब्राह्मणोत्तम ब्रह्मज्ञानिगळु ऎन्दर्थ
दवरु
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अनन्तर प्रपत्ति, सद्वारकवागियू अद्वारकवागियू मोक्ष साधकवॆन्दु कर्मज्ञान मुपासनञ्च ऎन्दारम्भिसि श्लोक रूपवागि आचाद्यरु अनुग्रहिसुत्तारॆ कर्म-कर्मयोग ज्ञान-ज्ञानयोग सहकृत उपासनं भक्तियोगवू, चकारवु इवु मूरू ऒन्दु राप्तिगॆ सेरिदुवु ऎन्दु तिळिसुत्तदॆ. शरणव्रज्योतिच-शरणवरणवॆन्दू चकारवु इदु स्वतन्त्र पायवॆम्बुदन्नु सूचिसुत्तदॆ. अपवर्ग साधन विद्-मोक्षवन्नु साधिसि कॊडुववु ऎन्दु विधायकगळागि अवस्थितान, सन्मार्गान् - उपनिषत्तुगळल्लियू गीतॆयल्लियू विधिसल्पट्ट समीनोपायगळाद सद्वारकाद्वारकान् - सद्वारकवागियू अद्वारकवागियू इरुवउपायविभागाधिकार
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कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग प्रपत्तियोगगळन्नु, कर्मयोग ज्ञानयोगगळु भक्तियोग द्वारा मोक्षप्रदगळु, भक्तियोगवू स्वतन्त्र प्रपत्तियोगवू अद्वारकवागि साक्षात्तागि मोक्षप्रदगळु, एका कृतियोग संस्कृत पृथग्यावानुभावान्-एकद्वा
एकाकृतियोग कृतियोगेन संस्कृतः पृधावू यस्यसः, तादृश अनुभाव प्रभावः यषान्ते तरोक्ता एका कृतियोग, कर्मज्ञान उपासन शरणागति ऎम्ब नाल्कु उपायगळिगू ऎरडु आकारगळिवॆ. अदागि कर्मयोगक्कॆ ज्ञानयोग द्वारा आत्मावलोकनवू, ज्ञानयोग द्वार विल्लदॆ साक्षात्तागिये आत्मावलोकनवू ऎम्ब ऎरडु आकारगळिवॆ. हागॆये ज्ञानयोगक्कॆ भक्तियोगाधिकार भूतवाद आत्मावलोकनक्कॆ कारणत्ववू, कैवल्या भोग हेतुत्ववॆम्बुदू, ऎरडु आकारगळु. हागॆये भक्तियोगक्कॆ ऐश्वरादि प्राप्ति हेतुत्व; साक क्ष प्राप्ति
नोक्ष हेतुत्ववॆम्ब ऎरडु आकारगळिवॆ. शरणागतिगू, यथोक्त कर्म योगाडिगळल्लि प्रवृत्तराद अधिकारिगळिगॆ दुष्करोपायान्तर स्थानदल्लि निन्तु सम्पूर्णवाद भक्तियोगवन्नु याव अड्डिय इल्लदन्तॆ नडॆसिकॊडुवुदॆम्ब अङ्ग प्रपत्ति रूपवू, ताने मोक्षवन्नु साधिसि कॊडबल्ल स्वतन्त्र प्रपत्ति रूपवाद आकारवू इदॆ. हीगॆ ई अधिकारदल्ले निरूपिसिद प्रकार, ई नाल्क (गौण मुख्य) उपायगळिगू नाल्कु विधवाद द्वाकृति योगत्ववु हेळल्पट्टिदॆ ई योग दिन्द कूडिद, पृथक् पृथक् प्रभावगळन्नुळ्ळ ई योगादिगळन्नु सत्यळ चॆन्नागि श्रुति स्मृतिगळ मूलक निरूपणॆ माडि शरण्य सारथिगिरां शरण्य रक्षकनू, अर्जुन सारधिय आद सर्वेश्वरन गीता वाक्यगळ, अन्ते-अन्त्यदल्लिरुव चरम श्लोकदल्लि, बुधाः रमन्ते पण्डितरु रमिसुत्तारॆ. चरम श्लोकदल्लि हेळिरुव प्रपत्ति शास्त्रदल्लि रमिसुत्तारॆ. अङ्ग प्रपत्ति रूपवागियू स्वतन्त्र प्रपत्ति रूपवागियू बळसुत्तारॆन्दर्थ
इति श्रीमद्रहस्ययसारद उपायविभागाधिकारक्कॆ सारचन्द्रिका व्याख्यानवु समाप्त, श्रीमती निगमान्त महादेशिकाय नमः
प्रियॆ नमः
६ नते रामानुजाय नमः
श्रीम निगमान्त महादेशिकाय नमः
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