मुमुक्षत्व तु सति च मधुविद्यादिषु यथा व्यवस्था संसिद्ध त्यधिकृतिविशेषेण विदुषां । विकल्पित न्यासे स्थितिरितरविद्यासु च तथा ।
नियत्या वैयात्यं नियमयितुनोवं प्रभवति ॥२०॥
श्रीमते निगमान्त महादेशिकाय नमः
अधिकारि विभागधिकारक्कॆ सारचन्द्रिका व्याख्या
हिन्दिन अधिकारदल्लि नि वृत्ति धर्मगळल्लि प्रवर्तिसुववरु ममुक्षु-मोक्षदल्लि आसॆयुळ्ळ अधिकारिगळॆन्दु हेळि ई आधिकारदल्लि, अवरुगळु भक्तिप्रवयोगनिष्ठरु ऎन्दु ऎरडुविधवादवरॆन्दु हेळुववरागि अधिकारार्धवन्नु मुमुक्षु तुलै-ऎन्दारम्भिसि आचाररु अनुग्रहिसुत्तारॆ. विदुषां-उपासकरिगॆ, मुमुक्षु मोक्षरूप फलदल्लि अर्धित्ववु असॆयु तुसतिच समानवागिद्दाग्यू फलवु ऒन्दे आगिद्दु अदरल्लि आसॆयू ऎल्लरिगू समवागिद्दाग्यू, मधु विद्यादिष्टु-मधुविद्यॆ, सद्विद्य, दहरविद्यॆ, शाण्डिल्य विद्यॆ इत्यादि विद्यॆगळल्लि, अधिकृति विशेषेण अवरवर अधिकार विशेषदिन्द, अन्दरॆ वसलोक प्राप्ति पूर्वक मोक्षवन्नु पडॆयबेकॆम्ब आसॆयु ऒब्बनिगॆ (मधुविद्यानिनिगॆ उण्टागुत्तदॆ व्यवधानविल्लदॆ नेरागि मोक्षवन्नु पडॆय बेकॆम्ब आसॆयु मत्तॊब्बनिगॆ (दहरविद्यानिष्कनिगॆ), उण्टागुत्तदॆ यथाव्यवस्था संसिद्धति. हेगॆ व्यवस्थॆयु एर्पडुत्तदॆयो तथा-हागॆ न्यासे, इतरविद्यासुच-प्रपत्तियल्लियू, इव व्यतिरिक्त सद्विद्यादि भक्ति विद्यॆगळल्लिय स्थिति इरुविकॆयु अन्दर आ विद्यॆगळन्नु अनु सुव भाग्यवु एर्पडुत्तदॆ. विळम्बक्षमतॆयु उण्टागि प्रारब्ध कर्मावसानदल्लि मोक्षवन्नु आपेक्षिसुवन्तॆ ऒब्बनिगॆ बुद्धियुण्टागुत्तदॆ. मत्तॊब्बनिगॆ देहावसनदल्लियो, अथवा तानु अपेक्षित कालदल्लियो मोक्षवन्नु पडॆयबेकॆम्ब आसयुण्टागुत्तदॆ इदक्कॆ कारण आवरवर अदृष्टवे ऎन्दु आचाररु निगमिसुत्तारॆ, नियत्या-अदृष्ट विशेषद वैयात्यं-धार्ष्ट्यवु दृष्ट स्वभाववु, एवं नियमयितुं-हीगॆ व्यवस्थितवाद इच्छॆयन्नण्टु माडलु प्रभ वति-शक्तवागुत्तदॆ ऎल्लरिगू तत्वज्ञान वैराग्यादिगळु समवागिद्दरू मेलॆ हेळिदन्तॆ इच्छा रूप अधिकार वैचित्र वु व्यत्यासवु-आयाया अधिकारिगळ अदृष्ट विशेषदिन्द उण्टागुत्तदॆ, ऎम्बुदु तात्पय्य, भक्ति प्रपत्तिगळु व्यवस्थित विकल्पगळु.
अधिकारिविभागाधिकार
नोपाय अधिकारिहळ्
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इप्पडि परम पुरुषार्थपायळन निवृत्ति धन्मळिले प्रवृत्तरान अधिकारिहळ् आद्वारक प्रपत्ति निष्ठनुवर्, सद्वारक प्रपत्ति निष्ठनुवर्,
इरुव, अवरळाहिरार्
स्वतन्त्राङ्गप्रपत्ति भां प्रसन्नावत्रतावुभ ।
फलसाधन भक्तिभ्यां भक्तावसि च दत् ॥३॥
मोक्षवाय धिकारिगळु
आ आधिकारिगळु यारम्बुदन्नु विभागमाडि इप्पडि परम पुरुषाथोर्थोपायं गान ऎन्दारम्भिसि आचाररु निरूपिसुत्तारॆ अदागि हीगॆ परम पुरुषार्थवन्नु हॊन्दलु उपायगळाद निवृत्ति धर्मगळल्लि प्रवृत्तराद अधिकारिगळु इब्बरु अवरु यारॆन्दरॆ, अद्वारक प्रपत्ति निष्टनू, सद्वारक प्रपत्ति निष्टनू, द्वारक प्रपत्ति निष्ठनन्दरॆ मोक्षक्कॆ साक्षादु पायवागि प्रपत्तियन्नु अनुष्टिसुववनु. सद्वारक प्रपत्तिसि ष्टनॆन्दरॆ भक्तियोगवन्नु अनुष्ठिसुववनु, ६ द क्कॆ अङ्गव गि प्रपति य न्नु अनुष्ठिसुववनु इवनिगॆ भक्ति योगवे साक्षादुवाय, प्रपत्तियु भक्तियोगवन्नु अनुष्ठिसलु विरोधियाद पापगळन्नु तॊलगिसि सहकरिसुत्तदॆयाद्दरिन्द, भक्तियोगक्कॆ अङ्गवन्दु हेळि, इवनन्नु नद्वारक भक्तिद्वारक प्रवत्ति निनन्दु व्यवहरिसुत्तारॆ. इब्बरू भक्तरु मत्तु इब्बरू प्रपन्नरु हेगॆ ऎम्बुदन्नु स्वतन्त्राङ्ग प्रपत्ति भां ऎम्ब कलॆयिन्द आचाररु निरूपिसिरुत्तारॆ स्वतन्त्र प्रवत्ति-साक्षा कोपायवागि अनुष्ठिसल्पडुव प्रपत्ति अङ्ग प्रपत्ति-भक्तिगॆ अङ्गवागि अनुष्ठिसल्पडुव प्रपत्ति. हीगॆ ऎरडु विधवागि ई प्रपत्तिगळन्नु अनुष्ठिसुवुदरि द इब्बरू प्रपन्न. हागॆये *क्षार्ध प्रपत्तियु फल रूपवाद भक्ति, भक्तियोगवु साधन रूपवाद भक्ति, इवॆरडुग ळिन्द इब्बर भर ऎं. प्रमाणगळु हेळुत्तवॆ फलरूपवाद भक्ति ऎन्दरॆ शरणागति यिन्द भक्तियोगवु उण्टागि भक्तियोगदिन्द मोक्षवु सिद्धिसुत्तदॆ ऎन्दल्ल शरणागतिगॆ मोक्षवे फल. भगवदनुभव परीवाहवाद कैङ्करवु भक्ति वुरस्कृतवादद्दु “परभक्ति परज्ञान परम भक्तिकृत परिपूर्ण अनवरत नित्यविशद तमनन्य प्रयोजन प्रिय भगवदनु भव जनित अनव धिकातिशय प्रीतिकारित अशेषावचित अशेषशेषतैकरति रूव नित्य कैङ्कय्य”, ऎम्ब श्री भाष कारर गद्य श्री सूक्ति प्रकार, भगवदनुभववरिवाह कैङ्करवु परभक्ति वरज्ञान परम भक्ति पुरस्कृतवादद्दु. ई वर भक्तादिगळु स्वतन्त्र प्रपत्ति निष्ठनिगॆ फलकोटि निविष्टगळागि पाप्त वागुत्तवॆयाद्दरिन्द, स्वतन्त्र प्रपत्तियन्नु फलभक्ति” ऎन्दु व्यवहरिसुत्तेवॆ.
इदर मेलॆ कॆलवु आक्षेपगळू अवुगळिगॆ समाधानवू बरॆयल्पडुत्तवॆ आदागि श्री भाष्य काररु “तस्य वशीकरणं तरणागतिदेव “ऎन्दु” भगवन्तनन्नु वशीकरिसि कॊळ्ळुवुदक्कॆ अवनल्लि शरणागति माडुवुदरिन्दले” ऎन्दु ऒत्ति हेळुवुदरिन्द भक्तियु मोपायवल्लवॆम्बुदुएव कारदिन्द तिळिसल्पडुत्तदॆ ऎम्बुदु आक्षेप अन्यत्र साक्षान्नोक्ष साधनवागि भक्तियन्नु भाष्य काररवरे हेळिद्दारॆयल्ला, आद्दरिन्द भक्ति, प्रपत्तिगळॆरडू मोक्ष साधनगळॆम्बुदु समाधान.
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श्रीमद्रहस्ययसारे
हागादरॆ, “शरणागतिरेव” ऎम्बल्लिय एवकारक्कॆ एनु अर्थ ऎम्बुदु पुनः प्रश्नॆ.
इदक्कॆ समाधानवागि शरणागति शब्दवू भक्ति शब्दवू परस्पर परायवादुवु ऎन्दु हेळबहुदु. “त्वां प्रसन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषते । ययः पुण्डरीकाक्षतद्धा, यस्व सुरोत्तम ॥” (इष्टवाद गतियन्नु हॊन्दलु आनॆयिन्द निन्नल्लि प्रपन्ननाद भक्तनाद ननगॆ यावुदु श्रेयस् अदन्नु सुरोत्तमने दयपालिसु) ऎम्बुदे मॊदलाद प्रमाण वचनगळल्लि प्रपन्न, भक्त ऎम्ब पदगळु परस्पर परायवागि बळसल्पट्टिवॆयाद्दरिन्द भक्ति, प्रपत्ति शब्दगळु ऒन्दे अर्धवन्नु हेळुत्तवॆ ऎन्दु निगमिसिदरॆ, “तस्यवशीकरणं तच्छरणागतिरेव ऎम्ब वाक्यवु सरिहोगुत्तदॆयल्लवॆ. इल्लदिद्दरॆ भक्तियु बेरॆ, प्रपत्तियु बेरॆ ऎन्दु हेळि दरॆ गुरु लघु विकल्प सम्बन्धवाद दोषवू एर्पडुत्तदॆ. गुरूपायवाद भक्तियोगदिन्द (गुरूपाय-बहळ कष्टवाद बहुकाल साद्यवाद उपाय) साधिसल्पडव फलवन्नु लघुवाद (श्रमविल्लदॆ अत्यल्प काल साध्यवाद) प्रपत्तियु साधिसिकॊडुत्तदॆ ऎम्बुदु नमर्पकवल्लवल्लवे आद्दरिन्द भक्ति, प्रपत्ति शब्दगळु वन्याय शब्दगळु ऎन्दु हेळुवुदे मेलु ऎम्बुदु ऒन्दु मत मत्तॊन्दु भक्तियोगक्कॆ अङ्गवागि प्रपत्तियन्नु माडबेकु प्रपत्तियोगदिन्द परभक्ति युक्तं माङ्कुरुष, परभक्ति परज्ञान परम भक्ति स्वभावं माकुरुष” ऎन्दु शरणा गतिगद्यदल्लि कर्मयोग, ज्ञानयोग भक्ति योग रूप उपायन्तर स्थानदल्लि ररणागतियन्नु प्रयोगिसिरुवुदरन्द शरणागतिरेव ऎम्बल्लि एवकारवु शरणागति पूर्वकवागि भक्तियोगवु फल वन्नु कॊडुत्तदॆ ऎम्बुदु तात्पर ऎन्दु,
शरणागतियु, अङ्गवागि
इदक्कॆ समाधानवेनॆन्दरॆ भगवद्भाष्यकाररिन्द “त स व श्री करण० तच्चरणागतिरेव ऎन्दु हेळिरु वुदु उपपन्नवादद्दु मत्तु पारमार्थिकवु अनुष्ठिसल्पट्टु, विळम्ब क्षमनागि ज्ञानशक्तियुळ्ळ व णि । क समर्धाधिकारि विषयदल्लि भक्तियोगवन्नु पूर्तिगॊळिसि मोक्षन न्नु कॊडिसुत्तदॆ. ई विळम्बवन्नु सहिसलारदॆ तीव्रवाद मुक्ति कामन विषयदल्लि अवनु सङ्कल्पिसिद समयदल्लि प्रवत्तियु साक्षा नोक्ष साधनवागियू आगुत्तदॆ
आगुत्तदॆ मेलू गुरुलघुविकल्प दोषवु बरुवुदिल्ल विकल्पवु अधिकारि व्यवस्थॆयिन्दले हॊरतु, बेरॆयल्ल, यारु यावुदन्नु बेकादरू अनुष्ठिसबहुदॆन्दरॆ तुल्य विकल्पदिन्द लघुगुरु विकल्पादि दोषगळु सम्भविसुत्तवॆ आद्दरिन्द अधिकारिगॆ तक्कन्तॆ गुरुलघपायगळु विधिसल्पट्टिवॆ. हीगॆ उपपत्ति पूर्वकवागि भक्ति, प्रपत्तिगळिगॆ अविरोधवन्नु हेळलु शक्यवागिरुवाग, शरणागतियन्नु मात्र अवलम्बिसि भक्तियोगवन्नु तिरस्करिसुवुदो, भक्तियोगवन्नु अवलम्बिसि शरणागतियन्नु तिरस्करिसुवुदो प्रामाणिकरिगॆ हृदयङ्गमविल्ल. ऐक्यार्थ कल्पनवू सरियिल्ल. अङ्ग प्रपत्तियु गीताभाष्य चरमश्लोकदल्लि आदरिसल्पट्टिरुवुदु भक्ति प्रकरणक्कॆ अनुगुणवादद्दु. स्वतन्त्र प्रपत्ति य न्नु भगवद्भाष्यकाररु आ द रि सि शरणागति गद्यदल्लि स्वा नुष्टान
मूलक ६ रि सि कॊट्टि द्दारॆ. रि ० द ए व का र वु स्वतन्त्राङ्ग प्रप
मोक्षवॆम्बर्धदल्लि चरितार्थ, शरणागति गद्यदल्लि “परभक्ति युक्तं माङ्कुरु”, परभक्ति परज्ञान परम भक्ति युक्तं माङ्कु
पूर्वक
अधिकारिविभाधिकार
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रष्ट” ऎन्दु प्रार्थिसिरुवुदु प्रपत्तिय स्वातन्त्र्यक्कॆ धक्कॆयुण्टु माडुत्तदॆ ऎन्दु हेळलिक्किल्ल. शरणागतियु नानोक्ष साधनवागुवाग, आ मोक्ष फलवु ऎन्तहुदु ऎन्दरॆ, परभक्ति पर ज्ञान परम भक्ति पूर्वक भगवन्तनन्नु अनुभविसि, अनुभव परीवाहवाद परिपूर्ण नित्य कैङ्कवन्नु माडुवुदे ऎम्बुदु अन्दरॆ शरणागतियिन्द उम्बागुव फलस्वरूपवु परभ दि पूर्वक भगवदनुभव परीवासवाद नित्य, निरवद्य कैङ्करवॆम्बुदु “दैवीङ्गुणमं माया दासभूशरणागतोsस्मि तवास्मिदासः इतिवक्तारं मान्तारय”
इतिरीत्या शरणागति, अन्यवधानवागि अन्दरॆ भक्तियोगवन्नुण्टु माडि, ऎम्ब व्यवधानविल्लदॆ-साक्षात्तागि प्रकृति तरणोपायवागि हेळल्पट्टिदॆ हीगॆये “शरीरपातसमयेतु केवलं मदीयव दयया अति प्रबुद्धः”
” ऎम्ब रीतियल्लि भक्तियोग निष्ठनिगॆ अवश्यकवाद, स्वयत्न साध्यान्तिम स्मृतियिल्लदॆ ताने आ अन्तिमस्कृतियन्नुण्टु माडुवुदागि हेळिरुवुदरिन्द गद्यदल्लि अनुसन्धान माडिरुवुदु “स्वतन्त्र प्रपत्ति” इदु भक्तियू अल्ल, अदक्कॆ अ०गवाद अङ्गप्रपत्तियू अल्ल, ऎम्बुदु निर्विवाद. * द्वय मर्धानु सन्धानन सह सदैववका” ऎम्ब वाक्यदिन्द, “अखिलहेय प्रत्यनीक इत्यादि आरम्भिसि हेळिरुवुदु, गद्यवु द्वय व्याख्यान रूपवॆम्बुदन्नु करोक्तवागि निष्कर्षिसुत्तदॆ द्वय मन्त्रद पूर्वखण्डदल्लि हेळिरुव शरणागतिगॆ फलवेनॆम्ब दन्नु उत्तर खण्डदल्लि सर्व विरोधि निरसन पूर्वक साक्षरि पूर्ण भगवदनुभव परीवाह भूतवाद नित्य, निरव निरतिशय कैङ्कय्यवॆन्दु निरूपिसिरुवुदरिन्द शरणागति गद्यवु स्वतन्त्र प्रपत्ति निरूपकवॆम्बुदर ऎळ्ळष्टू संशयविल्ल आद्दरिन्द भक्ति विद्यॆयु बेरॆ शरणागतियन्नु, भङ्गकवागि गीत भाष्यदल्लि प्रकरणानुगुण वागि व्याख्यानमाडिरुवुदु, शरणागतिय स्वातन्त्रवन्नु भङ्ग माडुवुदिल्ल.
हागेये आगलि, शरणागतियु स्वतन्त्रवागि मोक्षवन्नु कॊडुत्तदॆ ऎम्बुदक्कॆ प्रमाणवेनु ऎन्दु केळिदरॆ, “दैनकामकामेन….परमात्माच तेवसाध्यते वुरुषोत्तमः” ओमित्यात्मानं युञ्जीत,.. ब्रह्ममहिमानवोति, इत्यादि प्रमाणगळु, मत्तु त्वमेवोपाय भूतोन भव, अनन्य साध्य…तदेकोपाय तायाञ्चा, इत्यादि प्रपत्ति स्वरूप लक्षणवाक्यगळु, “स्नेह पूर्वमनुध्यानं भक्ति,, ऎम्बुदु भक्ति स्वरूप लक्षण वाक्य इवुगळु, भक्तिप्रपत्तिगळु स्वरूपतः परस्पर भिन्नगळॆन्दु तिळिसुत्तवॆयल्लवॆ,
सरि हागादरू “नान्यः पन्धाविद्यतेयनाय” ऎम्ब निषेध प्रति वाक्यवु मोक्षक्कॆ भक्ति विनह बेरॆ मार्गविल्लवॆन्दु हेळुत्तदॆयल्लवे. अदागि “वेदाहमेतं पुरुषं महान्तन इत्यादि आरम्भिसि “ तमेव विद्वान् अमृत इहवति" ऎन्दु “एवंविद्वान्” ऎम्ब शब्ददिन्द भक्ति योगवन्नु सूचिसि, “नान्यः पन्धाविद्यते” ऎन्दु हेळिरुवुदरिन्द बेरॆ यावुदू उपायविल्ल वॆन्दु हेळुत्तदॆयल्लवे. हागिरुवाग प्रपत्तियु हेगॆ स्वतन्त्रवागि मोक्षसाधक ऎम्बुदु पूर्व पक्षिय भाव इदक्कॆ समाधान -नान्यः पन्थाविद्यतॆयनाय” ऎम्ब श्रुत्यर्थवन्नु “नाहंवे न तपसा नदानेन नचेज्यय शक्य एवं विधोद्रष्टु दृष्टवानसि मांयथा । भक्तनन्यया शक्य- अहमेन विधोSर्जुन । ज्ञा तुन्द्रष्टुञ्चतत्वन प्रवेष्टुञ्च परन्तप ॥ ऎम्ब गीतॆयु
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श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
श्लोकवु उपबृंहिसित्तदॆ निषेध श्रुतिगॆ, वेदाध्ययन, तपस्सु दान, यज्ञ मॊदलाद प्रपत्येतर धर्मगळु विषयवे हॊरतु प्रपत्तियल्ल. समर्धाधिकारि परवाद श्रुतिगॆ असमर्था धिकारिविषयदल्लि हेळिरुव प्रपत्तिरूप उपायान्तर निषेधदल्लि तात्सरविल्ल हागॆ कल्पनॆयु न्याय वल्ल. आद्दरिन्द स्वतन्त्र प्रपत्तियन्नु निषेधिसुव वाक्यवु यावुदू इल्ल भक्ति प्रपत्तिगळु एकार्ध भोधकगळॆम्बुदु अवुगळ लक्षणदिन्द, हिन्दॆये दूरोत्पारितगळु
आद्दरिन्द, “स्वतन्त्राङ्ग प्रपत्तिभ्यां प्रपन्नावत्रतुवु भौ !
फलसाधन भक्तिभ्यां भक्तावविचदर्शि ॥
ऎम्ब श्लोकद प्रकार मोक्षक्कॆ इब्बरु अधिकारगळु ऎम्बुदु सुगम.
अवरुगळन्नु भक्तरॆन्दू
हेळबहुदु प्रपन्नरॆन्दू हेळबहुदु. “फल भक्ति” ऎम्ब पदक्कॆ फलभूता भक्तिर्यस्या स्सा फल भक्तिः प्रपत्तिः ऎन्द कॆलवरु व्याख्यान माडुत्तारॆ इदु सरियल्ल. फलरूपा भक्ति-फलभक्ति- प्रपत्तिः ऎन्दु विग्रह माडुवुदु उचित श्रीमन्याय सिद्धाञ्जनदल्लि, “प्रपत्तेरसि भक्ति रूपत्वं भव वरव प्राप्यत्व प्रापकत्वानुरूप दिव्यात्म स्वरूपनुबन्धि गुणानां शुभाश्रयगत दृष्टि चित्तापहारि कल्याण गुणानामपि वेद्याकारानु प्रविष्टानामनु सन्धाने प्रकृष्ट सत्व व लके जायमाने तानुकूलानुभवस्य प्रीति रूपत्वानवायात् । दर्शन समानाका रात्यर्थ प्रीतिरूपत्वं – अनभ्यासान्न स्वात् । अतोभक्ति शब्द सङ्गाह्यत्वं प्रपत्तेरपिसाधीयः । इदर अर्थवेनॆन्दरॆ प्रपत्तिय भक्तिरूपवादद्दु परम प्राप्यनू प्रापकनू आद भगवन्तन दिव्यात्म स्वरूप निरूपक गुणगळन्नू, मनस्सु दृष्टि मॊदलादवुगळन्नु अपहरिसुव शुभाश्रय दिव्य म०गळ विग्रह, तदन बन्धि निरूपित स्वरूप विशेषगुणगळन्नू प्रकृष्ट सत्तोद्रेकदिन्द प्रीति पूर्वक अनुसन्धान माडि, आ भगवन्तनल्लि शरणवरणवन्नु माडुवुदु शरणागति स्वरूप. आ कालदल्लि अत्यर्धप्रियवाद दर्शन समानाकारवद साक्षात्कारवु असकृदावृत्तियिल्लदॆ उण्टागदे इद्दर, प्रीति विशेष पूव क सदनु सन्धानविरुवुदरिन्द, आ भगवदनुभवदल्लि प्रीत्यतिशयवु इर वुदरिन्द प्रपत्तिगू भक्ति शब्द सङ्ग्राह्यत्ववु उचितवादद्दु, हीगॆ निपुणरिन्द अनुष्ठिसल्पडुव साद्योपायवाद प्रपत्तियल्लि सिद्योपायनाद भगवन्तन कृपाफलरूपवाद अनुसन्धानवु गर्भितवागिदॆयाद्दरिन्द प्रपत्तियन्नु फलभक्ति ऎन्दु व्यवहरिसुवुदु उचित भक्तियोगवु साधनभक्ति, उपाय रूपवाद भक्ति ऎन्दर्थ.
अज्ञात निर्गमनागव, बें मां अन्धरन किञ्चिदवलम्बनव न्नु वानम् । एतावङ्गळयि तुः पदविन्दयाळो शेषाद्वलेशनयने कलवातिभारः ।
(वरदराज पञ्चाशत् श्लो….)
M
संसारदिन्द बिडुगडॆ हॊन्द : दारि तिळियदु. वेदवन्नु अरियॆ ज्ञान कुर डनु. संसार समद्रवन्नु दाटलु अवलम्बन-दाटु कोलु यावुदू इल्ल. इन्थह नन्नन्नु अज्ञात सुकृत मूलक, जायमान कटाक्ष, सात्त्विक सम्भाषणॆ, सदाचार प्राप्ति, ज्ञानोपदेश, उपायानु स्नानगळन्ने माडिसि इष्टु दूर नडॆसिकॊण्डु बन्द ऎलै कृपाळुवाद वरदने, इन्नु स्वल्प
अधिकारिविभाधिगकार
प्रपति भेदङ्गळ
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(1) “स्नानं सप्तविधं स्मृतं” ऎन्निरपडिये यथाधिकार, मान्त्रमानस दिव्य वायव्यादिहळुव तुल्यफलङ्गळान स्थान भेदङ्गळानाय्तले उक्ति आचार निष्ठॆयॆ निन्नॆयुव, प्रपत्तियिल् मुख भेद,
दूर अन्दरॆ निर्दिष्ट कालदल्लि शरीरदिन्द उत्कृमिसि, मोक्षक्कॆ करॆदॊय्यवुदु निनगॆ भारवे ? भारवल्ल. अवश्य नडॆसिकॊण्डुत्तीयॆ ऎन्दु तात्पर) ई रीतियाद स्वन्नॆ र्भरवु भगवन्तन कृपाफल वॆम्बुदु प्रप कालदल्लि तन्न बुद्धियल्लि आरूढवागिरुवुदरिन्द “फल भक्ति” पदवु फलरूपा भक्तिः ऎम्ब सामानाधिकरण्य वृत्तियिन्द प्रपत्ति परवॆम्बुदु सिद्ध हीगॆ जीवात्मन उजीवनक्क प्रयत्न माडुव भगवन्तनु मुख्योपायवॆन्दु निसि, अवन कृपॆयिन्द माडिसल्पट्ट साद्योपायवु गौण - अप्रधानवॆम्ब अर्थदल्लि “स्वहेतुत्वधियं रुन्दे ऎन्दु आचाररु हेळिरुवुदागि विचक्षणरु तिळिदिद्दारॆ इदरिन्द विधिविहितवाग प्रपत्तिय स्वरूपवन्ने अल्ल कळॆयुवुदु पण्डितकृत्यवल्ल.
एतावत प्रबन्धेन, “भक्तिये मोक्षसाधक, प्रपत्ति ऎम्ब पदवु भक्तिपायवादद्दु मुख्योपायवाद चिरकाल साध्यवाद भक्ति योगक्कॆ बदलागि गौणवाद अत्यल्प काल साध्यवाद प्रपत्तियन्नु उपायवागि हेळुवुदु सरियल्ल गद्यदल्लि हेळिरुवुद स्वतन्त्रवायवाद प्रपत्तियल्ल, भक्तङ्गकवाद प्रप” इत्यादि प्रपत्ति स्वरूपवन्नु भेदिसुव कुयुक्तिवादिगळिगॆ प्रत्तुत्तरवागि भक्ति प्रपत्तिगळॆरडू मोक्षसाधक भक्ति, प्रपत्ति ऎन्दु व्यवहरिसुवुदक्किन्त सद्दारक प्रपत्ति, अद्वारक प्रपत्ति ऎन्दु व्यवहरिसुवुदे मेलु. वागियो, स्वतन्त्रवागियो प्रपत्तियन्नु अनुष्ठिसदॆ मोक्षवु दूरॆयलारदु, तस्यवशीकारणं तच्छरणागतिरेव” ऎम्बल्लिय ऎवकारक्कॆ इदे तात्पय्य, भक्ति, प्रपगळु व्यवस्थित विकल्पगळु, आद्दरिन्द गुरु लघुविकल्प दोषगळु बरुवुदिल्ल, इत्यादिगळु विवरिसल्पट्टुवु प्रसानु प्रसक्त वाद विषयवन्नु इल्लिगॆ निल्लिसि प्रकृत विषयवन्नु अनुसरिसोण
प्रप भेदगळु
अङ्ग
मोकोपायगळु आद्वारक प्रपत्ति, सद्वारक प्रति ऎन्दु एर्पट्ट नन्तर, अद्वारक प्रपत्ति निष्ठरल्लि प्रभेदगळन्नु तिळिसुत्तारॆ. अदागि उक्ति निष्ठॆ, आचार निष्ठॆ ऎम्बुवु स्वतन्त्रप्रपत्तिय प्रभेदगळु (1) “स्नानं सप्तविध”, ऎन्दु हेळुव रीतियल्लि यथाधिकार, मान्त्र मानस दिव्य वायव्यादिगळु तुल्क फल प्रदगळाद स्नान भेदगळु. हागॆये उक्ता चार् निष्ठॆगळू प्रपत्तिय भेदगळु,
- वारुणं दिव्य मायं वायव्यं पार्थिवन्तथा । मान्त्रं मानसमिवं स्नानं सप्तविधं स्मृतम् ॥ आपोहिष्टादिभि र्मान्त्रं मृडालम्बस्सु पार्थिवम् आगोयं भस्मनात्मानं वायव्य रजतम् 11 यत्तुसातपवर्षण दिव्यन्त तानमुच्यते । वारुणञ्जावगाहस्तु मानसं एष्टु चिन्तनम् ।
सुन्नवु सप्तविध, वारुण, दिव्य, आक्षेय, वायव्य, पार्थिव, मान्त्र मानस ऎम्बुवु अवु
पादसंहितॆ [चा3-3]
!
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श्रीमद्रहस्यतयगारे
उक्तिनि
इवल् उक्तियावदु ?-आनुकॊल्य सङ्कल्पाद्य ळिल् वैशद्य मिल्लादार् अवनैयोनिय पोनिर वधिकारमुव, अपेक्षित्वाल् रक्षिक्कु मर विश्वासवु मुरा ण्णु, शरण्य नरिय पूर्णप्रपत्तिगल्बमान आचारोपदिष्ट वाक्य ताले दादिमार् शून्य पाशुरचॆल्लि साल्वभौम शरणं पुहु मुग्धरन सामन कुमारप्प पोले यन्नुडैय रक्षॆ युनक्कॆ भरवाह वेरिट्टुकॊळ्ळवेणु
उक्तिनिष्ठॆ
}
રે
उचार निष्ठॆगळ स्वरूपवन्नु इवट्रल् उक्तियावदु ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तार. अदागि प्रवत्तिगॆ अङ्गगळाद अनुकूल्य सङ्कल्प प्रातिकूल्यवर्जन, महाविश्वास, गोप्तवरण, कार्वण्यवॆम्ब ऐदु अङ्गगळल्लिय, अङ्गियाद भरसमर्पणदल्लियू विशद ज्ञानविल्लदवर-अन्दरॆ प्रपत्ति वाक्यदल्लि अङ्गाङ्गिगळु प्रतिपाद्यगळागिवॆ ऎम्ब सामान्य ज्ञानविद्दरू याव याव पदगळल्लि याव याव अङ्गगळू अङ्गियू निरूपितवागिवॆ ऎम्ब ज्ञानविल्लदवरू, अ०गगळु हे’ उपकारकगळु ऎम्ब ज्ञानविल्लदवरू, ऎन्दर्थ-भगवन्तनन्नु बेरॆ गतियिल्लवॆम्ब अनन्यगतित्ववू, नावु प्रार्थिसिदरॆ अवश्य रक्षिसुत्तानॆम्ब महाविश्वासवू कूडिकॊण्डिद्दु, शरण्यनु तिळियुवन्तॆ पूण- प्रपत्ति गर्भवाद आचापदिष्ट वाक्यवन्नु हेळि “नन्न रक्षॆयु निनगे भरवॆन्दु स्वीकरिसु, ऎन्दु भगवन्तनल्लि मॊरॆयिडुवुदु”, उक्ति निष्ठॆ दादिमार् न्न वाक्यत्ताले इत्यादि. इदु उक्तिनिष्ठॆगॆ दृष्टान्त दादिमार्-धात्रि-उपमाता, महाराजनॊब्बनु शत्रुराज्यगळ मेलॆ धाळि नडॆसि आ राज्यगळन्नु वशपडिसिकॊण्डिरुत्तानॆ. आ शत्रुराजरु नष्टरादरु. अवर मक्कळन्नु धात्रिगळु पोषिसि बर तारॆ आ साव०त राजकुमारनन्नु धात्रिगळु महाराजनल्लिगॆ होगि “नीने ननगॆ गति नन्नन्नु कापाडु ऎन्दु प्रार्थिसि कालिगॆ बीळु” ऎन्दु उपदेशिसि, महाराजनल्लिगॆ करॆदु कॊण्डु होगि, हेळिसि कालिगॆ बीळिसुत्तारॆ आ राजकुमाररु तावु हेळुव मातिन अर्धवन्नु विशदवागि तिळियदिद्दरू समुदायवाद ज्ञानदिन्द कूडिदवरागि “नन्नन्नु कापाडुव भर निमगे सेरिद्दु निम्मन्नु शरणहॊन्दिद्देनॆ”. ऎन्दु हेळि महा राजन कालिगॆ बिद्दु तम्म इष्टार्धवन्नु हॊन्दुत्तारॆम्बुदु लोकविदित ई दृष्टान्तद प्रकार उक्ति निष्कन आचारनिन्द उपदेशिसल्पट्ट अङ्गाङ्गि गर्भितवाद प्रपत्ति वाक्यवन्नु समुदाय ज्ञान पूर्वकवागि, तन्न, आ किञ्चिन्यानन्यगतित्वगळन्नु तोरिसि कॊण्डु नुहाविश्वासदिन्द भगवन्तनल्लि
पिसि, शरण हॊन्दिदरॆ भगवन्तनु निन्नंशयवागि रक्षिसुत्तानॆ
**
आपोहिष्ठा मयोभुवः 1, ऎम्ब ऒम्बत्तु मन्त्रगळिन्द तलॆ, कालु, ऎदॆगळल्लि नीरिनिन्द प्रोक्षिसिकॊळ्ळवुदु मन्त्र स्नान, शुद्धवाद मण्णन्नु शास्त्रचोदितवाद रीतियल्लि मै कै कालुगळिगॆ हच्चिकॊण्डु मन्त्र पूर्वक स्नान माद्र वुदु मृत्तिकास्थान अग्निय भस्मवन्नु मै कै कालुगळिगॆ हच्चिकॊण्डु स्नान माडुवुदु आय्कॆय स्नान, हसुविन कालु धूळुगळन्नु हच्चिकॊण्डु स्नान मडुवुदु गोरजान बिसिलिरुवाग बीळुव मळॆयल्लि स्नान माडुवुदु दिव्यस्नान, स्वर्गलोकदल्लिरुव गङ्गॆय नीरु बीळुवुदागि प्रतीति नीरिनल्लि मुळुगि स्नान माडुवुदु (आवगाहन) वारुण स्नान विष्णु ध्यान माडुवुदु मानसिक स्नान, आयाया अधिकारिगळिगॆ इवुगळु शरीर शुद्दि रूपवाद समवाद फलवन्नु कॊडुत्तदॆये हॊरतु ऎल्लरिगू इल्ल. व्यवस्थित विकल्पगळु
अधिकारिविभागाधिकार
पदवाक्यादि वृत्तामरियाद बालनॊरुट्बाल्, भवति भिक्षां
245
ऎज्राल्, आरान सत्तुक्कळहत्तले अदे अपेक्षित
अप्पोदे अपेक्षित सिद्धियुामाले 3) कॊळ्ळक्कुरैविलन्नेल्ला तरुव” ऎन्नु मडियिरुक्किर परिपूर्ण परमोदार विषयल्, इवुक्कुम् फलाविनाभाववुण्णु.
अरिविलिहळाय इवु मात्रवे पाशानवरळ तिर 1) यननापि प्रकारेण द्वयवकात्वं” ऎन्नुकॊल्लुहिरपडिये इवुक्तिमात्रमु मुरुक्क माट्टादु तरण्यन्यपै”- 2) इव्वक्कॆ “पापीयसोपि शरणागति शब्दभाव” ऎन्नुम् 3) *शरणवरण वागियं योदिता नभवति बतसापि दीपूद्विका” ऎन्नुव, 4) “प्रपत्ति वाच्यव
इदक्कॆ मत्तॊन्दु दृष्टान्तवन्नू पदवाक्य वत्तान्तवरियाद ऎन्दारम्भिसि आचाररु अनु ग्रहिसुत्तारॆ अदागि बालरु भिक्षा मन्त्रद पदज्ञानवन्नू, वाक्य ज्ञानवन्नू तिळियदे इद्दरू, “भवति भिक्षान्देहि” ऎन्दु हेळिदरॆ हणवन्तराद सत्पुरुषरु भिक्षॆयन्नु कॊडुत्तारॆम्ब सामान्य ज्ञान वन्नु वुळ्ळवरागि अवरुगळ मनॆ बागिलल्लि “भवति भिक्षान्देहि” ऎन्दु हेळि ऒडने भिक्षॆयन्नु पडॆयुवु दन्नु नोडिद्देवॆ. आड्यरान-हणवन्तराद, सत्तु क्कळहत्तिले सत्पुरुषर मनॆयल्लि इवॆरडू दाता विन गुणगळु, असत्पुरुषनू दरिद्रन भिक्षॆयन्नु कॊडलार सत्पुरुषनागियू, अन्दरॆ याचकनिगॆ भिक्षॆकॊडबेकादुद्दु धर्मवॆन्दु तिळिदवनू, दरिद्रनु, भिक्षॆ कॊडलु सामर्थ्य विल्लदवनाद्दरिन्द हणवन्तनागियू इरुववर मनॆ बागिलल्लि बेडिदरॆ भिक्षॆयु सिगुवुदरल्लि संशयविल्लवॆम्बुदु, ई ऎरडु पदगळ तात्पय्य, इदे रीतियल्लि (३) कॊळ्ळक्कुविलन्-याचकरु तम्म भिक्षॆयन्नु स्वीकरिसिदरॆ तनगॆ याव कॊरतॆयू इल्लद परिपूर्णनू, वेण्डिल्लान्तरु- याचकरुगळ अपेक्षॆयन्नॆल्ला कॊडुववनागि इरुव परमोदारनू, आद भगवन्तन विषयदल्लि ई उक्तिगू फलवु इल्लदे इल्ल. परिपूर्ण परमोदार विषयल्, ऎन्दु साधारणवागि हेळिरुवुदु लोकदल्लियू अथ्यरू, उदारिगळू आद सत्पुरुषरल्लिय इन्थह प्रार्थना रूपवाद उक्तिगॆ फलवु सिगदे इरुवुदिल्लवॆम्बुदु द्योतित हागिरुवाग परिपूर्ण परमोदार नाद भगवन्तनल्लि फलाविनाभाववन्नु (फलविल्लदे इरुवुदिल्लवॆम्बुदन्नु हेळबेके, इवुक्कुव अज्ञात करण मन्त्रर्धनागिद्दरू, महाविश्वान शालियागियू आकिञ्चननागियू इरुव चेतननु हेळुव द्वयमन्त्रोच्चारणॆगॆ, फलाविन भावमुण्डु-सम्यक् ज्ञानविल्लदिद्दरू, सर्वज्ञनू सत्पुरुषन परमोदारनू आद सर्वॆश्वरनु ई उक्तिय अर्थवन्नु चॆन्नागि तिळिदु कॊण्डिरुवुदरिन्द केवल तन्न औदारगळिन्द मोक्षान्तवाद ऐश्वरवन्नु कॊडुवुदरल्लि संशयविल्लवॆम्बुदु तात्पर. इल्लि महाविश्वास, आकिञ्चन्यवॆम्ब ऎरडे अङ्गगळन्नु हेळिरुत्तारॆयल्ल बाकि अङ्गगळु बेडवे ऎन्दु केळबहुदु. ऎल्ला अङ्गगळू बेके बेकु. उक्ति निष्ठनिगॆ विशद ज्ञानविल्लद आकिञ्चन्यवू, विशद ज्ञानविल्लदॆ समुदाय ज्ञान पूर्वक सहृदुक्तिगू फलवु अवश्य उण्टॆम्ब अंशवू महाविश्वासदल्लि सेरिरबेकॆम्बुदन्नु तिळिसलु, ई ऎरडु अङ्गगळन्नु विशेषवागि इल्लि ऎत्ति हेळिरुवुदु ऎन्दु तिळियतक्कद्दु. अरिविलिहळाय् इत्यादि-अरिवु-परि पूर्णज्ञान. अदागि परिपूर्णवाद ज्ञानविल्लदिद्दरू समुदाय ज्ञान पूर्वकवागि, उक्ति
a) तिरुवाय् (3-9-5)
1). 2), 3)., 8, Jac
246
श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
निरीक्षितुं प्रणे” ऎन्नुम् अभियुक्तर् पेशिनार, इवु मात्र निष्क नुडैयवुवर् आचारनिष्ठनुडैयवु, निन्नॆ हळिरुव, 5) तवभरोहनकारिसि धाग्निस्मरण मित्यपि वाचमुरिरं । इति ससाक्षकयन्निदमद्यमाम् कुरु भरं तव रङ्गधुरन्धर” ऎन्नुशेनुसन्धित्तार, इदिल् मिहुदि काट्टुहिर “अपि” शब्दाले हीरोनो यमैयन्नु सूचितमायि,
अदागि मेलॆ
मात्रन-द्वय मन्त्रवन्नु उच्चरिसुवुदन्ने बाकि शरणागति मन्त्रगळिगॆ ई प्रभावविल्लदिद्दरू, परिपूण - प्रपत्ति गर्भितवाद द्वय मङ्क्तियन्ने अवलम्बिसिरुववर विषयदल्लि, “येनकनापि प्रकारेण द्वयवकात्ववु” ऎन्दु श्री भाष्यकाररु हेळिरुवन्तॆ समुदाय ज्ञान पूर्वकवाद सदुक्तियन्नु शरण्यनाद (रक्षकनाद) भगवन्तन कृपॆयु भुजिसि जीर्णमाडिकॊळ्ळलारदु (4) येनकेनापि प्रकारेण इत्यादि आर्तनागियो, दृप्तनागियो, पूर्वदल्लि मित्रनागियो, शत्रुवागियो, अङ्गाङ्गिगळल्लि विश्वद ज्ञानविल्लदॆ, समुदाय ज्ञानयुक्तनागियो, ऎन्दर्ध शरण्यन् कृ-शरणेसाधु शरण्य. -रक्षणसमर्धनाद भगवन्तन कृपॆ इत्यर्थ-ऎन्दारम्भिसि, आचारवररु, ई अर्धक्कॆ सम्प्रदा यु श्री सूक्तिगळन्नु प्रमाणीकरिसुत्तार हेळिद समुदाय ज्ञन पूर्वक याञ्चान्वित भरन्यासात्मक सहृदु मात्रवे फलप्रदवॆम्ब अर्थवन्नु, (2) पापीयसोपि शरणागति शब्द भामहापापियागिद्दाग शरणाग नॆम्ब शब्दवन्नु पडॆदवनु, ऎन्दू, (२) करणवरणवागियं-इत्यादि शरणागति प्रतिपादक वाक्यवु, सत्यज्ञानपूर्वकवल्लदिद्दरू, ऎन्दू, (4) प्रपत्तिवाचैव निरीक्षितुण्णे-पुपूर्ण ज्ञान विल्लदिद्दरू प्रपत्तिवाच्चारण मात्रदिन्दले निन्नन्नु कटाक्षिसलु आसॆपडुत्तेनॆ, ऎन्दू अभियुक्त - भगवत्सरूप रूप गुण विभूतिगळन्नु चॆन्नागि अरित कूरता वान् रवरु हेळिरुत्तारॆ. अनन्तर पराशर भट्टर श्री सूक्तियन्नु उक्ति निष्ठॆगॆ प्रमाणीकरिसुत्तारॆ. इन्नु मात्र निष्ठनुडैयवु-इत्यादि. अदागि उक्तिनिष्ठन मत्तु आचार निष्ठन स्थिति, इवुगळॆरडन्नू, (5) तवभरोहं इत्यादि श्लोकदिन्द ऒन्दु गूडिसि हेळिरुत्तारॆ. अदागि, निलै रङ्गनाथने, लोकद जनरु, “निर्हेतुकवागि हेगॆ नन्नन्नु स्वीकरिसुत्तीयॆ. निनगॆ वैषम्म नैर्तृग्यादि दोषगळु अन्दरॆ निर्हेतुकवागि ऒब्बनन्नु स्वीकरिसि मत्तॊब्बनन्नु स्वीकरिसदॆ होदरॆ ऒब्बनल्लि पक्षवात, मत्तॊब्बनल्लि कृपॆयिल्लदिरुवुदॆम्ब दोषवु उण्टागुत्तदॆयॆन्दु हेळबहुदु अदक्कॆ इवनु आहार मूलक शरणागरनागिद्दानॆ. (चार नम्मॆ) इवनु “नीने शरणु", ऎम्ब वाक्यवन्नु उच्चरिसिद्दानॆ (उक्तिनिष्ठॆ) ऎम्ब व्याजगळन्नु अवरुगळिगॆ ऎत्ति तोरिसि आक्षेपगळिगॆ समाधान हेळि, नन्नन्नु रक्षिसु, निन्न भरवागि स्वीकरिसु”, ऎन्दु उक्काचार निष्टगळ उपायत्ववन्नु ऒन्दे श्लोकदल्लि क्रोडीकरिसिद्दारॆ. ई श्लोकदल्लि “अपि” ऎम्ब शब्दवु ऎरडु निष्टॆगळन्नू मोक्षक्कॆ आनुष्टिसबेकिल्ल. यावुदादरू ऒन्दे सुकु ऎम्ब अर्धवन्नु तिळियपडिसुत्तदॆ.
عاء
- यनकनाट प्रकारेणव्वयवात्वं (शरणागति गद्य)
2), 3), 4), 5), ई 3. dot.अधिकारिविभाधिगाकार-
247
हागादरू
इल्लि कॆलवु आक्षेप समाधानगळु तिळिसल्पडुत्तवॆ. अदागि ई अधिकारदल्लि भक्तियोगनिष्ठॆ, शरणागति निष्ठॆ ऎन्दु ऎरडु अधिकारिगळन्नु हेळुवुदागि प्रसङ्ग, इदर मध्यॆ उक्ति निष्ठॆ, आचार निष्ठॆ ऎन्दु आरम्भिसि, हेळिरुवुदरिन्द मोक्षक्कॆ सदुपायगळु नाल्कु ऎन्दु एर्पडुवुदिल्लवे ऎम्ब शङ्कॆगॆ उक्काचार निष्ठॆगळु प्रपत्तियप्रभेदगळु ऎन्दु समधान हेळिद्दारॆ प्रपत्तियु उपायध्यवसाय रूप उक्तियु हागल्लवादद्दु आचार् नियु, आचारनु तन्न धनादिगळन्नु रक्षिसुवन्तॆ शिष्य रक्षणॆयु तन्नदॆम्ब भिर्ननदिन्द अवन रक्षणा भाररन्नू भगवन्तनल्लि सव पिर्सुवुदरिन्द आचारनन्ने प्रपन्ननॆन्दु हेळबेके विनह, शिष्यनिगॆ आचारधनादिगळ हागॆ इवन्न त्ववे सम्भविसुवुदिल्ल. हीगिरुवाग उक्ताचार् निरन्नु प्रपन्नरॆन्दु हेगॆ व्यवहरिसुवुदु ऎम्बुदु शङ्कॆ इदक्कॆ स्नानं सप्त निधं स्मृतवन्” ऎन्दारम्भिसि आचाररु समाधानवन्नु हेळिद्दारॆ
उक्ताचारनिष्ठॆगळू प्रपत्ति रूपवादुवु ऎम्बुवुदक्कॆ स्नानंसप्तविधं स्मृतं ऎम्बुदु उदाहरणॆ, अदागि, एककालदल्लि सर्वाङ्गगळल्लियू नीरन्नु संयोगिसुवुदु स्नान शब्दार्ध अदु अशुचित्ववन्नु होगलाडिसुत्तदॆ मत्तु शुचित्ववन्नुण्टुमाडुत्तदॆ, ई विलक्षण शुचित्व
ई
- पापीयसोपि शरणागति शब्दभाजः नूपेक्षितुं ममतवोचितमीश्वरस्य
त्वज्ञानशक्तिकरुणासुसतीष नैव पाप पराक्रमितु मर्हति मानकीन
(अतिमानुषस्तव 61} महापापियागिद्दाग्यू शरणागति शब्दवन्नु अन्दरॆ, “निन्न पादगळल्लि शरणागतनागिद्देनॆम्ब शब्दवन्नु हेळिद नन्नन्नु सर्वॆश्वरनाद नीनु उपेक्षिसकॊडुदु, निन्न ज्ञानशक्ति करुणॆगळु इरुवाग नन्न पापक्कॆ परा सलु तन्न पराक्रमवन्नु तोरिसि फलवन्नु कॊडदॆ इरुवन्तॆ माडलु - शक्तियिल्ल,
- शरणवरुणवागियं दिता नभवति बडसाधि पूर्विका
इतियदि दयनीयतामय्य हो वरदढव भवेत्सर्त प्राणि #
(280. 2,3, 92)
اليا
हे वरद प्रभो निन्न पादगळन्नु शरण हॊन्दिद्देनॆ ऎन्दु हेळिद मातू एरद ज्ञानपूर्वकवल्ल हीगिद्दाग्यू ई मातन्नु केळि इष्टक्कॆ नन्नल्लि कृपॆ माडिदरॆ, नानु बदुकिकॊळ्ळुत्तेनॆ इल्लदिद्दरॆ इल्ल, अय्यो ऎम्बुदु कृपोतम्भक्कदाद शब्द,
- यथासियावानसियोसि यद्गुण करीशयादृभवोयदिङ्गितु । तथाविधन्त्वाहमभक्तदुग्र्रहु प्रपत्नि वाच्यव निरीक्षितु व्यवे क
(वरद सैव, 92)
ऎ करीशने, नीनु याव प्रकारकनु, याव महिमॆयिन्द कूडिदवनु, निन्न स्वरूपवेनु, निन्न गुणगळु यावुवु, ऐश्वरवु ऎन्तहदु, निन्न इङ्गितवेनु ऎम्बुवु भक्तरल्लदवरिगॆ साक्षात्करिसलु अशक्यगळु अन्धह निन्नन्नु शरणागतनागिद्देनॆन्दु हेळि आदरिन्दले साक्षात्करिसलु आसॆपडुत्तेनॆ
(इदु आचार
- ऎ रङ्गनाधने धार्मिकराद आचाररुगळिन्द नानु निनगॆ भरवागि समर्पिसल्पट्टिद्देनॆ. निष्ठॆ) शरणागतनागिद्देनॆ ऎम्ब वाक्यवन्नू हेळिद्देनॆ (इदु उक्ति निष्ठॆ, इवुगळन्नु साक्षियागिट्टुकॊण्डु नन्नन्नु निनगॆ भरवागि ईगले स्वीकरिसु,
इल्लि अद’ ऎम्ब पदस्वारस्यदिन्द ऎरडनॆय सल माडिद प्रपत्ति, आर्ति पत्नि ऎन्दु सम्प्रदाय इद्धर हेळुव मातु,
243
श्रीमद्रहस्य क्रयसारे
सम्पादक व्यापारवन्नु नॆनॆसिकॊण्डु मानस भगवच्चिन्तनादि व्यापरगळन्नू स्नान पदार्थदल्लि सङ्ग्रहिसि हेळुवुदु शास्त्रसिद्ध. हीगॆये उक्ति निष्ठॆयिन्दलू, आचार निष्ठॆयिन्दलू भगवन्तनु आत्मरक्षा भरवन्नु स्वीकरिसुत्तानॆ. ई रीतियाद भर स्वीकारदल्लि उक्ति निष्ठ, आचारनिष्ठरिब्बरू विषय भूतरु. रक्षा भरस्वीकारवु साक्षात्तागि तानागिये यथावस्थितवाद प्रपत्त्वनुष्ठानमाडु ववन हागॆ उक्तिनिष्कनल्लियू आचार निष्ठनल्लियू सव मूवरिगू अन्दरॆ स्वनिष्ठॆ, उक्ति निष्ठॆ आचार निष्ठॆ ऎम्ब मूरु निष्ठॆगळल्लॊन्दन्नु अनुष्ठिसिदवरिगू, नाने मोक्षवन्नु कॊडुत्तेनॆ आ विषयदल्लि व्यापारान्तरापेक्षॆयु बेड, ऎम्ब भगवन्तन प्रसन्नतॆयल्लि व्यत्यासविल्ल आद्दरिन्द उचार निष्ठॆगळू प्रपत्ति शब्द वाक्यगळु अन्थह “भरस्वीकार विषयत्वापादक याञ्चा न्वित भरन्यासात्मक अविशद जनवन्तनाद उक्तिनिष्टनु, अदरिन्दले प्रपन्न शब्द वाच्यनु, आचा राभिमानवन्तनाद आचारनिष्ठनू, आचारन आत्मात्मीय भरस्वीकार हेतुवाद प्रपत्तिगॆ विषय भूतनागिरुवुदरिन्द प्रपन्न शब्द वाच्यनु,
भक्ति प्रपत्तिरथवाभगवस्त्र दुक्ति- तन्निष्ट संश्रय, इव विकल्प मानम् । यञ्चिदेकमुखवादयता तव शातास्करन्त्यवसरे भविनोभवाब्दम् ॥
ऎन्दु श्रीदेशिकरु, शरणागति दीपिकॆय श्री सूक्तियल्लि भक्ति प्रप(स्वनिष्ठॆगळ हागॆ उक्तिनिष्ठॆ, आचार संश्रयण (आचार निष्ठॆ ऎन्दु उपायान्तरगळन्नु हेळिरुत्तारॆयल्लवॆ, आद्दरिन्द उपायगळुनाल्कु विध ऎन्दु एर्पडुवुदिल्लवे ऎन्दरॆ इदक्कॆ समाधान, तदुक्ति तन्निष्ट संश्रय # ऎन्दु अल्लिन श्रीसूक्ति इदु प्रप मङ्क्ति तन्निष्ठ संश्रय-स्वार्थवागि अनुष्ठित प्रपदननादसदाचार समार यणमयनाभिव तोsयं चेतनः” ऎन्दु अवन अभिमानक्कॆ लक्ष्मभूतनु, ऎन्दर्थ रिन्द साक्षात्पपत्तिय हागॆ उक्ति, आचार समाश्रयणगळिगू, अवरवर भरस्वीकार जनक्कवु उण्टॆम्बुदु तात्पर, इदरिन्द प्रशस्ति प्रभेदगळाद उक्ता चार निष्ठॆगळू, साक्षान्नोक फलवन्नु कॊडुवुवॆम्ब भावनॆयिन्द भक्ति प्रपत्तिगळ हागॆ परिगणिसल्पट्टिवॆ
सरि, हागादरू, भक्ति प्रपत्तिगळल्लि अधिकारवु यारु यारिगॆ ऎम्ब अधिकार विभागवु ई अधिकार विषय प्रपत्ति स्वरूप परिशोधनॆयु मुन्दिन प्रपत्ति योग्याधिकारदल्लि माडल्प डुत्तदॆ. आद्दरिन्द उक्ति अ निगळ स्वरूपगळु मुन्दिन आधिकारदल्लि शिक्षणीयगळल्लवे ऎन्दरॆ, उक्ति आचारनिष्ठॆगळ उपायत्ववन्नु सिद्धवत्करिसि, आवुगळु प्रपत्तिय प्रभेदगळॆन्दु मेलॆ निरूपिसियायितु. ईग उक्ता चार निष्ठॆगळिगॆ उपायत्ववु हेगॆ ऎम्बुदन्नु सप्रमा णवागि समर्थिसलु ई अधिकारदल्लि अवुगळ स्वरूप शोधनॆ माडबेकाद आवश्यकतॆयिन्द उक्ताचार निष्ठॆगळिगॆ फलाविनाभाववन्नु लोकवेदानुगुणवागि दृष्टान्त पूर्वक इवल् *उक्तियावुदु
सर्वेश्वरन् परम पुरुषार्थं कॊडुक्क इरङ्गानॆदायिट्रु, ऎन्दु आचाररु निरूपिसिरुत्तारॆ. “उनक्कॆ भरमाह एरिट्टु कॊळ्ळ वेणु” ऎम्ब श्रीसूक्ति यिन्द भरस्वीकार प्रार्थनॆयु अङ्गिस्वरूप विशेषणवॆम्बुदु तिळिसल्पट्टितु. “येन कना प्रकारेण दृय वक्ता” ऎम्ब गद्य श्रीसूक्तिय उदाहरणॆयिन्दलू उक्तचार निष्ठॆगळल्लि
अधिकारि विभाधिगाकार
249
सर्वस्य “नकृदुच्चारस्संसारतारकः ऎम्ब श्रुत्यभिप्रायवन्ननुसरिसि “द्वयवक्ता” ऎम्ब शरण्य वाक्यवन्नु प्रमाणीकरिसियू, ‘योक्ति”गेनॆ फलाविनाभाववु (फलसिद्धि हेळल्पट्टिरुवुद रिन्द “उक्ति शब्दवु द्वयोक्ति विश्रान्तवॆम्बुदु गमनार्ह, मन्त्रान्तरगळु पूर्ण प्रपत्ति यन्नु अनुष्ठापिसि करणमन्त्रवागिद्दु कॊण्डु उपायगळु, अत्यन्त आकिञ्चिनानु सन्धान विळम्बाक्षमत्व, महाविश्वासवॆम्ब अधिकारगळु पूर्तियागिद्दु सदाचार प्रसादलब्ध समुदाय ज्ञानमात्रविद्दरू श्रुत्यादि बलदिन्द द्व योक्तियु परमपुराषार्थक्कॆ हेतु भूतवॆम्बुदु हृदय, इदरिन्द अङ्गाङ्गि रूप पूर्ण प्रपत्तिगर्भवाद द्वयवचनक्कॆ प्राशस्त्रवु अधिक मुग्ध समन्तकुमार वाक्य, भवतिभिक्षान्देहि, इत्यादि दृष्टान्तगळु, द्वक्ति मात्रक्कॆ उवाय इवन्नु तिळिसलु निरूपितगळु मन्त्रान्तरोक्तिगळल्लि ई विषयवाद अति प्रसङ्गगळन्नु माड बारदु. ई अंशवु श्रीमद्वयाधिकारदल्लि व्यक्तवागि हेळल्पडुत्तदॆ.
मेलू “ज्ञानान्नोक्षु” ऎम्ब सिद्धान्तरीत्या समुदाय ज्ञान मात्रक्कॆ उपायचू वन्नु हेळबेकेविनह, उक्तिगॆ प्राध्यानतॆ हेगॆ ऎम्बुदु शङ्कॆ. इदक्कॆ समाधान करश्रुति यल्लि “सदुच्चारस्संसारतारको भवति” ऎन्दु उच्चारणक्कॆ प्राधान्यवन्नु कॊट्टिदॆ. “येन केनापि प्रकारेण द्वयवक्ता” ऎन्दु शरणागतिगद्यदल्लिय द्वयोक्तिगेनॆ प्राधान्यवन्नु कॊट्ट रुवुदरिन्द प्रमाणशरणरु अन्यथाकरिसलागदु, हागादरॆ ज्ञानवुबेकल्लवे ऎन्दु केळबहुदु. अदक्कॆ समाधान, समुदाय ज्ञानवादरू आवश्य इरलेबेकु. समुदाय ज्ञानवन्तनिगॆ द्वयो क्रिये उपाय, समुदाय ज्ञानवू इल्लदॆ द्वयोक्तियु उपायवागलारदु, ऎम्बुदु तात्पय्य,
इदु हेगॆ ऎन्दरॆ, पञ्चाग्नि विद्यॆयल्लि परमात्म प्रकारक स्वाविशेषक चिन्तनदिन्दलू श्रुतिबलदिन्द मोक्षकारणत्ववु हेळल्पडुत्तदॆयादरू, प्रसन्ननाद परमात्मने सिद्धोपाय वॆम्बुदु विद्यान्तरगळ हागॆ अङ्गीकरिसल्पडुत्तदॆ. अन्दरॆ, जीवात्मपासनॆयु प्रधानवागिद्दु परमापासनवु प्रकारवागिद्दरू श्रुतिबलदिन्द कैवल्य लोकदल्लि स्वात्मानुभववन्नु मॊदलु कॊट्टु नन्तर भगवन्तनु (सिद्योपायनु मोक्षवन्नु कॊडुत्तानॆ हीगॆये अङ्गाङ्गिगळ स्वरूपादिगळल्लि वैश्यद्यवु इल्लदिद्दरू समुदायज्ञान पूर्वक अङ्गागि स्वरूपानष्ठान गर्भ द्वयोक्तिगॆ साद्योपायत्ववु अङ्गीकरिसल्पट्टिदॆ. तथाच ज्ञानान्नोक्षवॆम्ब साधनकोटियल्लि द्वयोक्तियु साधनतावच्छेदकवागि श्रुत्यादि बलदिन्द निवेशिसल्पडबेकु.
मन्त्रान्तरदिन्द प्रपत्ति माडुवाग उक्ति प्रसक्तियिल्लदॆ, विशदज्ञान पूर्वक प्रपत्तियिन्दले उपायत्व, विशद ज्ञान वुळ्ळवनु द्वयमन्त्रदिन्द प्रपत्तियन्नु अनुष्ठिसिदरॆ, यथावस्थित प्रपत्तिये उपाय, न्यास. विद्यॆयल्लि अत्यन्त वैशद्यवु इद्दरू विळम्बक्षमरिगॆ उपासददिन्दले मोक्ष विशदतर प्रपत्ति तत्व वित्तुगळिगॆ समुदायज्ञानवु इद्दरू, विशदतर ज्ञानपूर्वक यथावस्थित प्रपतिये उपाय शरण्य कृपोत्तम्भक परम कार्पण्य, तीव्रतरविळम्बा सहिष्णुत्व, अविकल महाविश्वास सम्पत्ति यिन्द कूडिरुव मन्दप्रज्ञरिगॆ येन केनापिप्रकारेण द्वयवा” ऎम्ब रीतियल्लि समुदा य ज्ञानदिन्द साङ्गानुष्ठान गर्भ द्वयोक्तिये
गर्भ द्वयोक्तिये उपाय, आर्तप्रपत्तिय हागॆ उक्ति प्रप
250
श्रीमद्रहस्ययरे
आचार निष्ठॆ
इवळिल् आचार निर्ष्क * “पुत्र श्रेष्यस्तथा शिष्यः इवञ्च निवेदयेत् ऎन्नु शाण्डिल्य त्यादि दिहळिल् ल्लुहिरपडिये आजारनुड्डॆय आश्चात्मीय भरसमर् इले तानुमनर्भूतन्,
*सिद्धिर्भवति वा नेति संशयोच्युतसेविनां ।
न संशयोत्र तद्भक्तपरिचल्या रतात्मनाम्” ॥
ऎन्निरकणक्किले आचार निष्टनुक्कु कैमुतिकन्यायाले फलसिद्धियिल् सन्देहविल्लॆ,
यल्लियू दावानलदिन्द बॆन्दुहोगुव जन्तुविन हागॆ संसाराग्निदाहदिन्द तीव्रतर शोकवु विशेषाधिकार, “येन केनापि प्रकारेण द्वयवक्तां” ऎम्बल्लि त्वं-नीनु ऎम्ब शब्दवु ई तीव्रतर शोकवन्नु तिळिसुत्तदॆ, यथावस्थित प्रशस्ति तत्वविदग्रेसरराद भगवद्भाष्यकाररु, “यनकनापि प्रकारेण द्वयवक्ता” ऎन्दु मन्दाधिकारियल्लि विशेष कटाक्षदिन्द, अवनिगॆ फलवु अवश्यलभिसुत्तदॆ ऎन्दु विश्वासवन्नुण्टु माडलु हीगॆ अनुग्रहिसिरुत्तारॆ. “प्रपरन्यन्नमे कल्पकोटि सहपापि साधनॆ मतिमन्यानः” ऎन्दु विशदज्ञानवुळ्ळवनु तानु अनुष्ठिसुव प्रपत्तियल्लि अनु सन्धान माडुव * * * य ल्लि - स मु दा य ज्ञानवुळ्ळ उक्ति निष्कनु “मन्दप्रज्ञसमम विळम्बाक्षमस्यॆ द्वयोरन्यत् कल्पकोटि सह श्रेणापि साधनं नास्तिति* कार्पण्यानु सन्धानदल्लि विशिष्ट तरवाद शोकवन्नु तोरिसिकॊळ्ळबेकादुदु आवश्यकवॆम्बुदु सार वागि तिळियतक्कद्दु
आचार निष्ठाविचार
अनन्तर आचार निष्ठॆय स्वरूपवन्नु इवर् हळिल् आचार निष्कन् ऎन्दारम्भिसि आचाररु उपवादिसुत्तारॆ इवर्हळिल्र्पू मॊ क रि : ति य० कॆ मूरु विधवाद प्रपन्नरल्लि 1) पुष्यस्तथा शिष्य इवं च निवेद येत् ऎन्दु शाण्डिल्य स्मृत्यादिगळल्लि (3- 5) हेळ वरीतियल्लि आचारन आत्मात्मीय भरसमर्पणदल्लि अन्तर्भूतनादवनु आचार निष्ठनॆन्दु हेळल्प डुत्तानॆ. ई प्रकरणवु यावुदॆन्दरॆ, “कुटुम्बि नोपि कर्तव्यं कर्तु कुरुर तन्द्रिताः!” ऎन्दु सामान्यवागि कुण्टुम्बियादवन नित्य नैमित्तिक कर्मगळन्नु बेसरिकॆयिल्लदॆ माडबेकु ऎन्दु
हेळ नन्तर
उत्ताय पूर्व० गृहिणी सुा त यत मानसा ।
स्मषालु हित्य पुत्याज्यन्यथाहं शुचितान्न येत् ॥
• ऎन्दु गृहिणियादवळु ऎल्लरिगिन्तलू मुञ्चॆ हासिगॆयिन्दॆद्दु स्नानादिगळन्नु माडि, मक्कळु सॊसॆ मॊदलादवरिगू अवरवरिगॆ तक्कन्तॆ स्नान माडिसि शुचित्ववन्नु उण्टु माडि, ऊर्ध्व पुण्ड्रॆ वस्त्र भूपणादिगळिन्द आलङ्करिसबेकॆन्दु गृहिणिय व्यापारवन्नु हेळि नन्तर
F
अधिकारिविभाधिगाकारु
उर्ध्वपुण्ड्रधराशुद्धाः वस्त्राभरण भूषिताः । स्वाचान्ता प्रयतादेवनगच्छेरातुः ॥
251
ऎन्दु वस्त्रादिगळिन्द तम्मन्नु अलङ्करिसिकॊण्डु ऎल्लरू मनॆयल्लिरुव देवरसन्निधिगॆ होगबेकु.
ऎन्दु हेळि अनन्तर
त्रिसन्ध्यं कारये द्वाला वन्दन देवपादयोः !
पुत्रः व्यव्यस्तथा विष्यः इवञ्चनिवेदयेत् ।
ऎन्दु मक्कळन्नु बॆळिग्गॆ, मध्याह्न सायङ्कालवॆम्ब मूरु वेळॆगळल्लियू देवरिगॆ नमस्कार माडिसबेकु हागॆये तनगू अवरिगू इरुव सम्बन्धवन्नु तिळिसि, निरपराधपाञ्चकालिक अन्दरॆ बॆळिग्गॆयिन्द आरम्भिसि रात्रि पठ्यन्त कैङ्कय्य सिध्यर्धवागि अभिगमन कालिक प्रपत्तियन्नु माडु नाग कुटुम्बियादवनु पुत्र, आळु, शिष्य इत्यादियागि अवर भरवन्नू तन्न भरदॊडनॆ सेरिसि, भगवन्तनल्लि समर्पिसबेकु. इदे न्यायवन्नु अनुसरिसि मोक्षार्थवागि भरसमर्पण माडुवाग आचारर आत्मायभवन्नु तन्न मत्तु तन्न अल्लि मानक्कॆ विषयराद पुत्र वैष्य शिष्यादिगळिगू सेरिसिमाडबहुदु ऎम्बुदु घट्ट तात्पय्य, इदरिन्द अचारन आत्मातीय भरसमर्पणदल्लि अत्मी यनागि सेरुववनु आचार निष्टनु ऎन्दु हेळिदन्ताय्तु. “निवेदयत माङ्क्षिप्रं विभीषणमुप त”, “निवेदयित स्वातं विष्णव मलतेजिसि” ऎम्ब रीतियल्लि “निवेदये” ऎम्बुदु समर्पण पर. ई समर्पणवु “यत्न रक्षत यार्व्यते” ऎम्बन्तॆ अनन्य रक्षत्व रूपवाददु. “निवेदय शब्दक्कॆ तिळिसु, ऎन्दु अर्थवन्नु हेळुवुदु सन्दर्भक्कॆ सेरुवुदिल्ल.
शास्त्र फलं प्रयोक्तरि “ऎम्ब न्यायदन्तॆ शास्तानुष्ठानद फलवु आनुष्ठिसुवननिगॆ मात्र इल्लवे तानु माडुव यागदिन्द अन्यनिगॆ स्वर्गवु सिगलारदल्लवे, हागॆये उपासनॆयिन्द मोक्षवु अनुष्ठिसुववनिगेनॆ विनह अन्यनिगिल्ल. हीगिरुवाग तानु इन्नॊब्बनिगागि शरणागतियन्नु अनुष्ठिसिदरॆ अवनिगॆ फलवु लभिसुवुदु हेगॆ ऎम्ब शङ्कॆगॆ “वचन बल” ऎन्दु प्रत्युत्तर, शरणा गतिगॆ इरुव इन्थह वचनवु, भक्तिगॆ इल्ल तनगू तन्नन्नु आश्रयिसिद आत्मीयराद ऎल्ला आर्थिग ळिगू सह सेरिसि प्रपद नानुष्ठानवु उप पन्नवु ऎम्ब विलक्षणवाद ई प्रपत्ति सामर्थ्यवन्नु अनुसन्धान माडि अदन्नु सूचिसलु “आत्मात्मीय भरसमर्पण” ऎन्दु आचाररु अनुग्रहि सिरुत्तारॆन्दु, करूरु स्वामिगळु तम्म साङ्कौमुदियल्लि निरूपिसिरुत्तारॆ.
अनन्तर “सिद्धिर्भवतिवानेति” ऎन्दारम्भिसि ई आचार निष्ठनिगॆ फलसिद्धियल्लि सन्देहविल्ल वॆन्नुत्तारॆ, ई श्लोकवू शाण्डिल्य स्मृतियल्लि (1-95) हेळल्पट्टिदॆ. अदागि अच्युतनन्नु आश्र यिसिदवरिगॆ फलसिद्धियु उण्टो इल्लवो ऎम्ब सन्देहवु बरबहुदु. वस्तुस्थितियल्लि सन्देहवु बरलिक्किल्ल हङ्गॆ बन्दरू, अवन भक्तर शुशूषॆयल्लि आसॆयुळ्ळवरिगॆ फल सिद्धियल्लि संशयवे इल्ल, हीगॆ हेळुव रीतियल्लि आचार निष्ठनिगॆ कैमुतिक न्यायदिन्द फल सिद्धियल्लि सन्देहविल्ल. इल्लि कैमुतिक न्यायवु हेगॆन्दरॆ, भगवद्भक्त परिचरॆयल्लि आसॆयिल्लदॆ अच्युत भक्तरिगे फलवु सिद्धिसुत्तदॆयॆन्दरॆ, भगवदक्कॆ परिच्चार परन्त भगवङ्करवन्नु पुरुषार्धकाष्ठॆयॆन्दु तिळिदु
कै
252
श्रीमद्रहस्य त्रयसारे
ऒरुमयिल् निन्न ऒरुमयिले तावु सिंह शरीरल् जनु कळ्ळ पोले भाष्यकारर् संसारातिलङ्घनं सण्ण आवरोडुान कुडल तुवाले नामुत्तिद्द रावु दो नन्नु मुदलियास्थानरुळि पातुरम्,
याव माहात्मरु आ परिचरॆयल्लि आसॆयुळ्ळवरो अवर गळिगॆ फलसिद्धियल्लि संशयवेनिदॆ भागव तदास्य परन्त स्वरूप ज्ञान पूर्वकवागि स्वरूपोचितवाद भगवदत्यन्दाभिमतवाद भागवत कैङ्करदल्लि प्रवर्तिस ववरिगॆ, भगवन्तनल्लि परिपूर्णवाद नित्यकैङ्कय्य परीवाह परं तानु भवलक्षणवाद परम पुरुषार्धदल्लि सुदृढतरवाद अभिरुचियुण्टागुवुदरिन्द पूर्णाधि कारवु सिद्द. इन्तह महात्मर वृत्तियन्नु परिशीलिसिदरॆ इवरे परमपुरुषार्थलाभक्कॆ उचि तरु, इतररु इल्ल ऎन्दु “नहिनिन्दान्यायवन्नु अवलम्बिसि, “सिद्धि भरतिवानेति” इत्यादियु हेळल्पडुत्तदॆ.
इन्नॊब्बनिगागि भक्ति माडलु प्रमाणवचनविल्ल. आत्माय भरसमर्पणत्तिले तानु मन्त र्भूतन्कॆलवरु आचाररु तनगोस्कर प्रपत्ति माडुव समयदल्लि मात्र आत्मीयन्नु (पुत्र, शिष्य इत्यादि) अन्तर्भाव्यनु, बेरॆ समयदल्लि आत्मीयनु आचार शरणागतियल्लि सेरि इदु सरियल्ल. कॊळ्ळलागुवुदिल्लवॆन्दु श्री सूक्ति स्वारस्यवन्नु तिळियुदवरागि मोहगॊण्डिद्दारॆ “पुत्रः प्रष्यथा शिष्यः इत्यवञ्चनिवेदयेत्” ऎम्ब वचनदिन्द पार्धक्यवु (बेरॆ बेरॆ यॆम्बुदु) तिळियुत्तदॆ पुतादिगळॆल्लरिगू प्राप्तवाद कालदल्लि ऒट्टिगेने तन्नॊडनॆ ऒन्दे प्रपत्ति सेरिसिमाडबहुदु अथवा अनन्तरवू प्राप्तवाद कालदल्लि अवरवरिगॆ प्रत्येकवागियू माड बहुदु अन्यनिगॆ प्रपत्ति माडुव आचारनु मुञ्चितवागिये प्रपन्ननागिरबेकॆम्ब निर्बन्धवू इल्ल. अन्यनिगॆ उपनय नमाडुव ब्राह्मणनु तानु मॊदलु उपनीतनागिये इरबेकॆम्ब निर्ब० दवु इल्लिल्ल तनगू आत्मीयराद ऎल्ला अर्धिगळॊडनॆ सेरिसि प्रपदनवन्नु माडिकॊळ्ळबहुदॆम्ब विलक्षणवाद प्रपदन साव र्ध वन्नु अनुसन्धान माडि, अदन्नु सूचिसलु “आत्मात्मीय ऎन्दु अखिलोपुदानवॆम्बुदु तत्ववित्तुगळ अभिप्रायवॆन्दु करूरुस्वामिगळु तम्म ग्रन्थदल्लि व्याख्यान माडिरुत्तारॆ
तदीय परन्तदास्यवु मूलमन्त्रादिगळल्लि शिक्षिसल्पट्टिरुवुदन्नु, ऎल्ला मुमुक्ष गळू तिळिदि द्दरू, अवरवर सुक्कुत तारतम्यदिन्द बद्ध दशॆयल्लि कैङ्कर भोग तारतम्यवु इद्दे इदॆ. आद दिन्द निरतिशय परम भागवत शुशूषॆयॆम्ब भोग परन्त भगवन्तनल्लि शेषत्व काष्ठा रासिक्यवु यारिगॆ निष्पकम्पवागि अनुवर्तिसुत्तदॆयो, अवरिगिन्त केवल भगवङ्कय्य मात्र भोगदल्लि आसक्तियुळ्ळवरु मन्दाधिकारिगळु ऎम्बुदे इल्लिय तत्व. आद्दरिन्द आचार निष्ठॆयन्नु अवलम्बिसिद प्रपन्नरु निपुणाग्रेसररु ऎम्बुदु भाव,
ई
आचारनिष्कनिगॆ फलसिद्धिउण्टॆम्बुदक्कॆ सम्प्रदायानुष्ठानवन्नु ऒरुमलैनिन्नु” ऎन्दारम्भिसि निरूपिसिरुत्तारॆ. अदागि ऒन्दु बॆट्टदिन्द इन्नॊन्दु बॆट्टक्कॆ हारुव सिंहद शरीर -दल्लिरुव जन्तुगळु नावू आ सिंहवन्नु आश्रयिसिद मात्रक्कॆ आचॆ बॆट्टवन्नु तलुपुव हागॆ
अधिकारि विभागाधिकार
(१) अन्धोनन्थ ग्रहणवशगो याति रजशयद्वत् ।
पङ्गु का कुहर निहितो नीयते नाविगेन ।
भुज
भोगानविदितनृपवकस्यार्भकादि ।
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त्वत्सम्प्राप् प्रभवति तथा देशिको मे दयाळुः ॥ ऎन्नु न्यासतिलकत्तिले
भाष्यकाररु संसाराति लङ्घनोपायवाद प्रवत्तियन्नु अनुष्ठिसिदाग, अवर आत्मीयरॆन्दु आ कालदल्लि सम्बन्धपट्ट नावॆल्लरू अवर आत्माय भरसमर्पणदल्लि अन्तर्भूतरागि, उ र्णरादॆवु” ऎन्दु मुदलि याण्डान् कृपॆ माडि हेळिद मातु. अवरोडुण्डान कुडल् तुवक्काले – कुडल् तुवन्नु शरीरसम्बन्ध अवर ( भाष्यकारर) आत्मीय भरसमर्पणदल्लि अन्तर्भूतरागि ऎन्दर्थ शिष्यनु आत्मीयनु, एष्यनु अचारनन्नु आश्रयिसि आचारनिष्ठॆयिन्द मोक्षवन्नु हॊन्दबहुदु, ऎम्बुदक्कॆ शिष्यानुष्ठान. इल्लि ज्ञानशादिगळिन्द कूडिदवरू सह आचारन मदीयत्तेनाभिमानितरागि आचार् निष्ठॆयन्नु माडबहुदु ऎम्बुदु तिळिसल्पट्टितु शिष्यरु ईवत्तिगू आचार निष्ठॆयन्नु अवलम्बिसुत्तिद्दारॆ
अनन्तर ज्ञानशक्तादिगळिल्लदवरू आचारनन्नु आश्रयिसि मोक्षवन्नु पडॆयबहुदु, ऎम्ब शास्त्रार्थवन्नु अन्दोनन्धग्रहणवशगः ऎन्दारम्भिसुव श्लोकदिन्द अचाररु निरूपिसिरुत्तारॆ, अदागि अन्दोनन्द ग्रहणवशगः, इत्यादि श्लोकवन्नु न्यास तिलकदल्लि हेळिरुत्तेवॆ ऎन्दु आचा ररु अनुग्रहिसिरुत्तारॆ इदर अर्थवेनॆन्दरॆ कुरुडनु कुरुडनल्लदवनन्नु आश्रयिसि हेगॆ नडॆ युत्तानॆयो हागॆ ज्ञानविल्लदवनु ज्ञानवुळ्ळ आचारनन्नु आश्रयिसबहुदु. हागॆये कालि ल्लदवनु दोणियल्लि ऎत्तिडल्पट्टु, नाविकनिन्द आचॆदडक्कॆ ऒय्यल्पडुत्तानॆ. अन्दरॆ शक्तियिल्लद वनु शक्तियुळ्ळ आचारनन्नु आश्रयिसबहुदु. आनन्तर राजनन्नु अरियदॆ इरुव, राजसेवकन मक्कळु मत्तु भाल्यादिगळु राजनवकनिन्द मनॆगॆ तरल्पट्ट राज भोग रूपवाद शेषान्न वस्त्रादिगळन्नु हेगॆ भुजिसि उट्टुकॊण्डु सन्तोषपडुत्तारो, हागॆ ज्ञानशक्तिगळॆरडू इल्लद
वन सदाचारनन्नु आश्रयिसि भगवन्तनन्नु पडॆयुबहुदु, ऎम्बुदु.
ई श्लोकदिन्द ज्ञानशा दिगळिल्लदवनु संसार निस्तारक्कॆ उपायवागि आचारनन्नु आश्र यिसबहुदु ऎन्दु अयोग व्यवच्छेदवु तिळिसल्पडुत्तदॆये विनह ज्ञानशक्तादिगळिन्द कूडिदवनु आचार निष्ठयन्नु अनुष्ठिसकूडदु ऎन्दु अन्ययोग व्यवच्छेदवु तिळिसल्पडुवुदिल्लवॆम्बुदु गमनि सतक्कद्दु, “अन्ध्रनन्द ग्रहणवशग” ऎम्ब श्लोकक्कॆ कुमारनयनाचाररु वाख्यान माडिरु त्तारॆ आ वाख्यानदल्लि ज्ञानाभावे प्रथम :- शभावे द्वितीयः- उभयाभावे तृतीय ऎन्दु अनुग्रहिसिरुत्तारॆ,
ई सन्दर्भदल्लि हेळिरुव वाक्यगळिगॆ तात्परवेनॆम्बुदन्नु करूरुस्वामिगळु तम्म प्रबन्ध दल्लि ई रीतियल्लि तिळिसिरुत्तारॆ. आदागि, “अज्ञानाशक्तिगळिन्द सदाचारैर मूलक भगवन्तनल्लि प्रपत्ति माडुववरु इरलि, अवरिगॆ मोक्षवु सङ्कल्पितकालदल्लि अवश्यवागि लभिसुत्तदॆ ऎम्बदू निस्संशयवागिरलि. प्रप तत्वयाथात्म ज्ञानवु परिपूर्णवागिद्दरू अदन्नु प्रयोगिसुव
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श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
कौशल्यवू अतिशयितवागिद्दरू सदाचार लक्षण पौष्कल्यदिन्द भगवन्तन दिव्यावतारद हागॆ, आवि कलवाद अखिल कल्याण गुणगळन्नुळ्ळ आचाररल्लि गुणकृतदास्यत्ववन्नु हॊन्दिदवरु मोक्ष दल्लियू तदीयरॆन्दु व्यपदेशिसल्पट्टु, भगवदमर कैङ्कय्य वर्गदल्लि नियोगिसल्पडलु योग्य रागि आ आचारर दास्यवन्ने स्वरूव निरूपकवागि तिळिदु, “सेवाह्वान सपदि श्रुणुयां पादुकासेवकेति” ऎम्ब रीतियल्लि पुरुषार्थकाष्ठॆयल्लि हॆच्चु रासिक्यदिन्द आ सदाचारमुखवागि उपायवन्नु आवलम्बिसि, आचार निष्ठरागि अवर पाद पद्यसेवॆये परव पददल्लियू परम प्राप्यवॆन्दु तिळिदु अवर सन्तोषक्कोस्कर भगवन्तन कैङ्कर वर्गगळन्नू अवर अभिमतकरण ऎम्ब बुद्धियिन्द माडि माडलु कृतार्थरागुव मनस्करागि अदरिन्दले भगवन्तनिगू अभिमत तम रागुववरु प्रसन्नाग्रेसरु. इन्धह भगवपापरिणाव वु याव अधिकारिगॆ लब्धवागुत्तदॆयो, आ महात्मनु सुदुर्लभनु, ऎम्ब ई अधिकारि विशेष दृष्टियि०द, श्रीमत्सार सार ग्रन्धदल्लि इन्थह आचार निष्ठरु निपुणरॆन्दु अनुग्रहिसल्पट्टिदॆ
त्वचारैर्निनिहित भरस्तावकारङ्गनाथ इङ्कय्य प्रवणवनस इद्दुणास्वादमत्ता- । इकस्मिन्न पिविजह
मुक्तवत्साधनं
इषत्व स्वरसरसिकास्टरयोवे स्वदन्ताम् ॥
ऎम्ब न्यास तिलक श्लोकवु मेलॆ हेळिद निपुणाचारनिष्ठॆयन्नु तिळिसुत्तदॆ हेगॆन्दरॆ ऎलै रङ्ग नाथने, निन्नल्लि आचारर मूलक तम्म भरवन्नु समर्पिसिद आचारनिष्ठराद निन्नवरु निन्न गणगळिगॆ वशपट्टु निन्नकैङ्करवन्नु राजकुमारनन्नु लालिसुव हागॆ निन्नवराद भागवतर कैङ्कर परन्तवागि माडुत्तारॆ. आवरु मुक्तर हागॆ निन्नल्लि उपायत्वबुद्धियन्नु बिट्टवरागि, सदाचारनल्लिये उपयाव्यवसायवन्नु माडि, निन्नल्लि पुरुषार्ध बुद्दियन्नु मात्र माडि, निन्न ‘शेषत्वदल्लि रसिकरागिद्दारॆ अन्थह सूरिगळु (पण्डितरु) ननगॆ रुचिसलि ऎम्बुदु ई श्लोकद आर्थ “आत्रपरचापि नित्यं यदीय चरण् शरणं मदीयव” ऎम्बन्तॆ इहपर ऎरडु लोक गळल्लिय आचारन पादगळे ननगॆ शरणु ऎम्ब भावनॆयु द्योतित, “त्वक्कॆङ्कय्य प्रवण मनस त्वद्दुणास्वादमत्ता” ऎम्ब वाक्यगळिगॆ राजकुमारनन्नु लालिसुव हागॆ, तदीयराद भागवतर कृङ्करगळल्लियू, भगवदनुग्रह महिमॆयिन्द उद्भविसिद भागवत कल्याण गुणगळल्लिय दृष्टियु तिळियतक्कद्दु, “येकस्मिन् विजतो मुक्तवादनत्व” ऎम्बल्लि सदाचारनल्ले उपाय त्याज्यवसायुवन्नु इट्टु, भगवन्तनल्लि केवल पुरुषार्धता बुद्धिये सुदृढवॆम्बुदु भाव”
ऎम्बुदु
श्री मन्निगमान्त महादेशिकरु तम्म अक्कलप्पत्तु प्रबन्धदल्लि “अळवुडैयार् अष्टॆन्दार्कु, अदनुरैयेकॊण्डवरु वळवु तन्दवनरुळे मन्नि यमादवरु !
अधिकारि विभागधिकार
प्रपं विना भगवतः मोक्षप्रदाभाव,
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एदेनुरुप्रकारवाहवु माव, आरेनुमॊरुवर् आनुष्टिक्कवुमावर्, प्रपत्ति कल्लदु सर्वॆश्वर परमपुरुषार्थव कॊडुक्कविरा नॆन्नदायिgl
कळवूवारॆमरॆन्न इन्दवरु कावलराम् तुळममाडिअरुळ् वरदर् तुवक्किलॆनैने ॥”
ऎन्दु प्रपन्नरन्नु नाल्कु विधवागि हेळिरुत्तारॆ अदागि परिपूर्णज्ञानवन्तरु तावागिये अनुष्टिसुवुदु 1) स्वनिष्ठॆ. आ प्रपत्तिय वाक्रोच्चारणॆयन्नु माडुवुदु 2) उक्ति निष्ठॆ मन्त्र मन्त्रार्थगळन्नु उपदेशिसिद आचारन कृपॆयन्नु अवलम्बिसि अवनन्नु आश्रयिसुवुदु. 3) आचारनिष्ठॆ कृपा प्रसन्ना चाररु नन्नवरु तम्म आत्मापहार चौल्यवन्नु बिडलि ऎन्दु तावा गिये अवरिगोस्कर भगवन्तनल्लि शरणागति माडुवुदॆम्ब 4) निष्टार, ई रीतिगळल्लि शरणागत रन्नु रक्षिसुव, तुळसिमालॆयन्नु धरिसिद, दयमूर्तियाद वरदन कटाक्षदल्लि नानु नन्नन्नु समर्पिसिद्देनॆम्बुदु पाशुरद तात्पर
इ नाल्कनॆय निष्ठॆयन्नु कॆलवरु भागवत निष्ठॆयॆन्दु करॆयुत्तारॆ. इदक्कॆ प्रमाणविल्ल. इदू आचार निष्ठाभेदवे. मूरनॆयदु प्रार्थित आचार निष्ठॆ नाल्कनॆयदु अप्रार्थित अचार निष्ठॆ स्वनिष्ठॆ, उक्कि निष्ठॆ आचार निष्ठॆ ऎम्बुवे प्रसिद्दवागि आचार श्रीसूक्तिगळल्लि हेळ ल्पट्टिवॆ कै मुतिक न्याय प्रदर्शन समयदल्लि भागवतनिष्ठॆयॆम्ब निष्टान्तरवु हेळल्पडल्लिल्ल. हागादरॆ ब्रह्मविद्योपदेशवन्नु माडदॆ, विपत्समयदल्लि कृपातिशयदिन्द शिष्य तररु आर्तरागि रुवाग अवरिगॆ प्रपत्तिय अनुष्ठि सल्पडुत्तदॆ अवरिगॆ आचारळवन्नु माडदॆ इरुवाग अवरु हेगॆ आचार निष्ठरागुत्तारॆ ऎम्बुदु प्रश्नॆ ब्रह्म विद्योपदेशविल्लदॆ इरुवाग अवरिगॆ आदा रागुव बगॆ हेगॆ ऎन्दरॆ ब्रह्म विद्यानुष्ठानवु अन्दरॆ प्रपत्तियु शिष्टेतररिगागि अनु सल्पट्टिरुवुदरिन्द आ कारणदिन्दले अनुष्ठाताविगॆ आचाररॆम्ब शब्द प्रयोगवु उपपन्नवागुत्तदॆ. प्रपत्ति प्रयोगानन्तर आ शिष्यतररिगॆ कृपा प्रसन्न आचाररु आचारराग तारॆ अदक्कॆ मॊदलु आचाररल्लवाद्दरिन्द आ तिष्य तरर विषयवादप्रपत्तिगॆ भागवतनिष्ठॆ ऎन्दुव्यवहारवॆम्बुदु वुट्टशोद्य इदु सरियल्ल. हेगॆन्दरॆ “तद्विज्ञानार्धं सगुरुमेवाभि गच्छेत्, पटो निर्मीयते इत्यादि व्यवहारगळल्लि ज्ञान प्राप्तनन्तर गुरुवु सिद्धिसुत्तदॆयाद्दरू ज्ञानक्कॊस्कर आश्रयिसुव वरन्नु गुरुवॆन्दु करॆयुवुदू, नेय्द मेलॆ बट्टॆ ऎन्दु व्यवहरिसुवुदु सूक्तवागिरुवाग नेयुवुदक्कॆ मॊदले बट्टॆयु नेयल्पडुत्तदॆ ऎन्दु व्यवहरिसुवुदू हेगॆ उपवन्नवो हागॆये आचरनॆम्ब व्यवहारवू समञ्जसवागुत्तदॆ. इल्लदिद्दरॆ अगतिक प्रसङ्गवु बरुत्तदॆ. मेलू “पुत्र प्रेष्य तथाशिष्य इत्यवञ्चनिवेदयेत् ऎ ० ब न च न वु आ चा री निष्ठॆगॆ प्रमाणवागि हेळल्पट्टिदॆ मेलॆ हेळिद पूर्वपक्षिय अभिप्रायवन्नु अनुसरिसुवुदादरॆ, पितृ निष्ट, प्रेषक निष्टा, ऎम्ब व्यवहारगळू कल्पिसल्पडबेकागि बरुत्तवॆ इदरिन्द प्रपत्ति प्रयो गोपदेशवु मात्र आचारवन्नु निर्वहिसुत्तदॆ. ऎम्ब चोद्यवूनिरस्तॆ आद्दरिन्द हितोपदेश - क्किन्तलू हितानुष्ठानवु आचारकवन्नु अधिकवागि उण्टु माडुत्तदॆयॆम्बुदु सूक्तवादद्दु ऎन्दु करूरु स्वामिगळु निर्वहिसिद्दारॆ
2:6
श्रीमद्रहस्यत्रयसारे
इप्पडि, (1) पशुर्मनुष्यः पक्षवा ये च वैष्णव संश्रयाः ।
तेनैव ते प्रयास्यनि तद्विःपरमं पदं’ ऎन्नुव, (2) “ते वयं भवता रक्षा भवनवासिनः ।
नगरवनवा त्वं नो राजा जनेश्वर” ऎन्नुव, (3) “नालयिल् वाम शराशरनु वुम् ।
नालुक्कु तन” ऎन्नुव,
प्रकारगळन्नु एदेनु मॊरु प्रकार अदागि एदेनु मॊरु प्रकारव स्वतन्त्र प्रपत्ति रूववागियू अङ्ग समुदाय ज्ञानपूर्वक सदुक्तिरूप यारादरू ऒब्बरु अनुष्टिसबह दु,
प्रपत्ति माडदॆ मोक्षवु सिगलारदु अनन्तर तावु मेलॆ हेळिद उपायानुष्ठान माहवु माव इत्यादि वाक्यगळिन्द सङ्ग्रहिसुत्तारॆ आहवुमाम् यावुदादरू ऒन्दु रीतियल्लि अन्दरॆ प्रपत्तिरूववागियो, विशदानुसन्धान रूपवागिये वागियो, आरेनु मॊरुवर् आनुष्टिक्कवुदा अन्दर तानु शक्तनागि प्रार्थनान्वित विशद भरसमर्पण रूपवागियो, समुदाय ज्ञान पूर्वक प्रार्थनान्वित भरसमर्पणात्मक सदुक्ति रूपवागियो, तनगागि आचाररु विशदभरसमर्पण रूपवागियो समुदाय ज्ञान पूर्वक सक्कदक्तिरूपवागियो, अनुष्टिसबहुदु ऎन्दर्थ ई रीतिगळल्लि अनुष्टिसबहुदाद प्रपत्तिगल्लदॆ, सर्वेश्वरन्
भक्त, परमयावासि प्रपत्ता वाम हामते । प्राप्यकं नान्यथा प्राप्यः मवकैकर लिप्पुभिः ।
ई
ऎन्दु शासन माडिद, सर्वेश्वरनु, परमवुरषार्थवन्नु अन्दरॆ देश विशेषदल्लि भगवदनुभव परिवाह रूप भगवङ्करवन्नु साक्षात्तागि कॊडलु, इरङ्गान्-कृपॆमाडुवुदिल्लवॆम्बुदु एतावत्परन्त हेळिद श्री सूक्तिगळिन्द निष्कर्षिसल्पट्टन्तायितु निर्हेतुक कृपॆयो, केवल सिद्धोपाय निष्टयो, आचाराभिमानवो बेरॆ यावुदादरू सरिये सुक्षात्तागि मोक्ष वन्नु कॊडलारदु
वैद्यम्य नैर्ट्स् दोषवू सर्वमुक्ति प्रसङ्गवू बारदे इरुवुदक्कॆ भगवन्तनु भक्ति, प्रपत्तिगळल्लॊन्दन्नु अपेक्षिसुत्तानॆम्बुदु तीरानवाद अभिप्राय. इदु अप रनुयोजवाद निरङ्कुश स्वतन्त्रनाद ईश्वरन सङ्कल्प, इदन्नु कुयुक्तिगळिन्द अन्यधाकरि
सलागदु
भागवताभिमान भगवत्रवास फल
आनन्तर प्रपत्तियन्नु द्वारवागि कॊळ्ळदॆ इरुव वैष्णवाभिमानादिगळिगॆ मोक्षेपायवु * उण्टु ऎन्दु हेळुव अतिवादिगळ उक्तिगळिगॆ मोकोपाय कोटियल्लि प्रवेशिसलु आर्हतॆ यन्नुण्टु माडुवुदागि 1) इप्पडि पकुर्मनुष्यः पक्षीवा ऎन्दारम्भिसि उपकारकङ्गळम् ऎम्बुव पठ्यन्त आचाररु अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि इप्पडि-उक्काचार निष्टॆगळल्लि हेळिद
1). 2). 3). . 3. Sætअधिकारि विभागाधिकार
(4) “वयावदु निन्नॊयिलिल् नाम् वैखव नॆन्नुव
257
ऎन्नुव कॊल्लुहिर भागवताभिमान भगवद्विषय वासादिहळुक्कु तन्नक्कलिले यादल् पिरर् पक्कलियाद, मुयादल्, पिन्नॆयादल्, ऒरु उपायत्तु नक्कुण्णु.
ण्णु, ऎण्णनेयॆन्निल्– इवैयुवुपासनलीयादल्, प्रवत्तियले यादल् मूट्टियुव, उत्पनोपासकनुक्कु उत्तरोत्तरोषचयप्पणियुव, स्वतन्त्र प्रपत्यनुष्ठानम् पण्णिनवनुक्कु इट्टु राभिवृद्धिय युाक्कियु, भगव क्याप्तियिले त्वरॆयुत्ताक्कियुमुपकारकळाम्,
प्रकार वैष्णवरन्नु आश्रयिसि, अवर अभिमानक्कॆ पात्रराद पशु, मनुष्य, पक्षि मॊदलाद वरु तेनैव वैष्णवसमाश्रयणदिन्दले परमपदवन्नु हॊन्दुत्तारॆम्बुदू 2) ते वयं इत्यादियागियू 3) नालयोतियिल्म् इत्यादियागियू 4) वया वदु इत्यादियागियू साक्षाक्षसाधनवागि हेळुव भागवताभिमान अन्दरॆ भागवतनु नन्नवनु ऎन्दु अभिमानिसुवुदक्कू, भगवद्विषयवासादिगळिगू, तन्नल्लियागलि इतररल्लियागलि मुञ्चित वागियागलि, अनन्तरवागियागलि उपाय सम्बन्धवु उण्टु, तन्नल्लि इतररल्लि उण्टागुव उपाय सम्बन्ध प्रपत्ति विषय मुञ्चितवागियागलि, अनन्तरवागियागलि उण्टागुव उपाय सम्बन्ध भक्ति प्रपत्ति विषय. ऎष्टनेयॆन्निल् इत्यादि ई भागवताभिमान भगद्विषयवासादिगळु, इवन चित्र कालुष्यवन्नु होगलाडिसि, सात्त्विक बुद्धियन्नु हॆच्चिसि, उपासनॆ (भक्ति) अथवा प्रपत्तियन्नु अनुष्ठिसुवन्तॆ माडुत्तवॆ. हागॆये उपासनॆयन्नु आरम्भिसि माडुववनिगॆ उत रोत्तर वृद्धियन्नुण्टुमाडि ई लोकदल्लि कैङ्कराभिवृद्धियन्नुण्टु माडुत्तवॆ. मेल इवु स्वतन्त्र प्रपनुष्ठानवन्नु माडिरुववनिगॆ, ई लोकदल्लि कैङ्कराभिवृद्धियन्नुण्टु माडि य, भगवन्तन प्राप्तियल्लि त्वरॆयन्नुण्टु माडियू उपकारवन्नुण्टु माडुत्तवॆ
-
शाण्डिल्य स्मृति 115
-
रामा (3-1-20) स्वामि रामचन्द्रने निन्न देशदल्लिरुव नावु निन्निन्द रक्षिसल्पडतक्कवरु, नाडिन काडिन, ऎल्लिद्दरू नीने नमगॆ राजनु, (इदु ऋषिगळु हेळुव मातु
-
कार् इराम पिरायल्लाल् मत्तुं करो प्रामुदलाप्पुरम्बारि ऒय 1
ना-योतियिल् वा चराचरं मुत्तवुम् नालुक्कुनन् नाम्रहनाथ् पत्तनाल्कुळ
Bduspodar +7-5-11
श्रीरामचन्द्रनु
उपासनॆ माडुववरु श्री रादुचन्द्रनन्नु बिट्टु बेरॆ यारन्नु उपासनॆ माडियारु अयोध्यॆयल्लि वास माडुत्तिद्द, हुल्लु, क्रिमि, इरुवॆ मॊदलाद ऎल्ला जन्तुगळन्नू सान्तानिक लोकक्कॆ करॆदु कॊण्डु होगि अल्लि तन्नन्नु उपासनॆ माडुवन्तॆ माडिसि नन्तर मोक्षक्कॆ करॆदॊय्द दीनदयाळु, अयोध “अल्ल वास माडुत्तिद्दरॆम्ब व्याजदिन्द अल्लिद्द स्थावरजङ्गम जन्तुगळन्नॆल्ला ब्रह्मलोकक्कॆ समीपवाद, सान्तानिक
लोकक्कॆ करॆदुकॊण्डुहोगि अल्ल उपासनॆ माडिसि मोक्षक्कॆ करॆदॊय्द महाकारुणिकनु अवनु
(4) पु. ति नो,
258
श्रीमहस्यत्रयसारॆ
भक्ति प्रपत्तिहळ्ळिल् फलोत्पत्तियिल् प्रकारभेदम्
इवरहळिल् व्यासादिहळ्ळिप्पोले उपायार समर्थनाहैयाले अननु मन्रि विळम्बक्षमनाहैयाले अनन्यगतियु मन्रिक्कॆ इरुक्किर सद्वारक प्रपत्ति निष्ठनु कु प्रारब्धकर परवसानभावियान अस्तिम प्रत्यययवधियाद वुडैतान उपासन रूपाङ्गियिनुडैय यथावन्निष्पत्ति पूरकमान मोक्षम् फलम्,
;
सधिकारवाणि, सानिष्टनिवरन क्षममाम्, सद्वेष्ट साधनवाहवायर्, सुकरमा सकृर्तव्यमाय, आशुकारियाद, प्रतिबद्धानर माद, ब्रह्मास्त्र बन्धव पोले स्वफलत्तिल् उपायान्तर प्रयोगासहना, इरुन्नुळ्ळ प्रपत्तिय तन्नधिकारानु रूपमाह अद्वारकवाद वृत्तिनवनुन्नु परिपूरानुभवत्तुक्कु बेरु प्रति
भक्ति प्रपनिष्ठरिगॆ मोक्षवन्नु पडॆयुव काल
છે
हीगॆ प्रति कानुप्रशक्तवागि बन्द संशयगळन्नु महरिसि अधिकारद प्रमेयवन्नु इवर् हळि व्यासादि हळ्ळवॊले, ऎन्दारम्भिसि, परिष्करिसुत्तारॆ अदागि इव हळिल्ल ई सदार * द्वारक प्रपत्तिनिष्ठरु, स्वासादिगळ हागॆ उपायान्तरवाद कर्मयोग ज्ञानयोगाङ्गक वाद भक्तियोगवन्नु अनुष्ठिसलु समर्थनागिरुवुदरिन्द अकिञ्चननल्लदे, विळम्बवन्नु सहिसिकॊळ्ळु वराद्दरिन्द अनन्य गति इल्लदे इर व सद्वारक प्रवत्ति निष्टनिगॆ प्रारब्ध कर्मपरवसान भावि याद, अन्तिम प्रत्ययवन्नु अन्तिम भगवत्सरणवन्नु, अवधियागि, चरमाङ्गवागि हॊन्दिरुव उपासनरूप अङ्गियन्नु पूर्तिगॊळिसि तत्पर्वकवाद मोक्षवु फल
सर्वाधिकारवाणि इत्या- भक्तियोगदल्लि वर्णि करिगॆ मात्र अधि-र वर्णि करॆन्दरॆ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यरु इवरुगळिगॆ वेदाध्ययनदल्लि अधिकारविरुवुदरिन्द, भक्तियोगदल्लि उप क्रमोपसंहारगळन्नु वेद मन्त्रगळन्नु जपिसि माडबेकागिरुवुदरिन्द भक्तियोगवु वर्णिका धकरवॆन्दु निश्चित प्रपत्तियु हागल्ल सर्वरिगू अन्दरॆ ब्राह्मणरे आदियागि चण्डालन परन्त, ऎल्लरिगू प्रपत्तियन्नु अनुष्ठिसलु ६धिकारवुण्टु सर्वाधिकारवागियू, सर्वानिष्टगळन्नू होग लाडिस नागिय, (न क्ष विरोधि सकल पापगळन्नू होगलाडिसुवुदु ऎन्दर्थ) सर्वेष्ट गळन्नू साधिसिकॊडुवुदागियू (भक्तियन्नू साधिसि कॊडुवुदु, हागॆये नेरवागि मोक्षवन्नू *धिसिकॊडुवुदु ऎन्दर्ध सुकरवागियू (सुलभवागि अनुष्ठिसतक्कदागियू) ऒन्दे सल अन ष्टिसतक्कदागियू, आतुकारियाय्-भक्तियोगद हागॆ विळम्बिसि फलवन्नु कॊडदॆ, क्षिप्र दल्लिये फलप्रदवागियू, प्रतिबन्धानर्हवाय्-निरन्तर स्मृति सन्तति रूपभक्तियल्लि मध्यॆ
4] नन्नॆ हनुमरियन् नारणावन्नु मत्तनैयल्लाल्
पुयालुन्न पुळ्ळुमं पेति – हवानन्नु कण्डाय् तिरुमले । उन्नु मारु ऒन्नुमरियन् ओवादे नमोनारणवॆन्नन् वयावदु उन् कोयिलिल्ाम् वैष्णवनन्नु म व कण्डाये ई ननगॆ बलवु निन्न क्षेत्रदल्लि वासमाडुव वैष्णवनॆंऒन्दे,
फरियावार् तिरु[5-13
अधिकारि विभागाधिकार
259
बन्धक मिल्लादपडियाले प्रपत्ति क्षणम्मुदलाह, १, “इतिरिरिक्कुर्त्तॆ” ऎन्नुम् २) “इच्चु वैतविरयानॆयिर लोकमाळु मच्चु पॆरिनुव वेंर्डे” ऎन्नुम्, ३) “एरार् मुयल् विट्टुक्काक्कॆ प्पिवदे” ऎन्नुम्, ४) “स्नेहो मे परमो रार्ज त्वयिनित्यं प्रतिष्ठितः भक्तिश्च नियता वीर भावोनान्यप्रगच्छति,ऎन्नुम्, कॊल्लुहिर पडियेइशरीरडेयिरुन्नु कैबराद्यनुभवं हण्णवेणु मॆर आभिसक्कु कारण मान अरावतारादि सण्ण मडियाह वन्न स्वानुमतियाले स्थापितमान शरीर अवसा ननियाह, उड्कत्ताय, देशकाल स्वरूप परिच्छेदवाय् कॊण्णु इष्टु स्टाम् कैय्य फलो मत्तॆ मुदलाद वुडैान परिपूर्ण कैर परन मोक्षं फलम्,
काप्पि
प्रतिबन्धकगळु उण्टागुव सम्भावनॆयुण्टु, अदु इल्लदिरुवुदागिदॆ, ब्रह्मास्त्र बन्धद हागॆ तानु कॊड व फल बेरॆ उपायगळन्नु अनुष्ठिसिदरॆ अदन्नु सहिसलारदुदागियू इरुव प्रपत्तियन्नु तन्न आकॆञ्चव्यानन्य गतिरूप अधिकारक्कॆ तक्कन्तॆ, अद्वारकवागि अनुष्ठिसुववनिगॆ, परिपूर्ण ब्रह्मानुभवक्कॆ बेरॆ प्रतिबन्धकगळिल्ल, प्रपत्तियन्नु अनष्ठिसिद तरुवाय, (1) इङ्गेति रिं देरु इक्कुत्तॆन्-ई लोकदल्लिये अर्चावतारगळन्नु अनुभविसुववरिगॆ एनु नष्ट, ऎन्दू (1) इच्चु वैतविर इत्यादि अर्चानुभववन्नु बिट्टु परमपद नाधन अनुभववू बेड, ऎन्दू (3) एचामुयल्विट्टु प्पिन् पोवदे भोग्यवाद मॊलद मांसवन्नु बिट्टु आ काशदल्लि सञ्चरिसुव कागॆय मांसक्कॆ आसॆपड वुदे, ऎन्दू अन्दरॆ अर्चावतारदल्लि भोग्य तातिशयवु सन्निहितवागिरुवाग इदन्नु बिट्टु परम पदवु बेड ऎन्दु अर्ध (4) स्नेहोन परराजन्-ऎलै रामचन्द्रने निन्नल्लिरुव प्रीति भक्तिगळु बेरॆ ऎल्लिय इल्ल ऎन्दु दनुमन्तनु हेळिद रीतियल्लि, ई शरीरदिन्द कूडि इरुव काल पठ्यन्त, भगवन्तन कैङ्कय्य गळन्नू, अवन शरीर सौन्दराद्यनुभववन्नू माडबेकॆन्दु हम्बलिसि अदक्कॆ कारण भूतवाद अर्चवतारसङ्ग विभवावतारगळल्लि प्रीति, इवुगळन्नु हॊन्दि तन्न इष्टदन्तॆ ई शरीरवन्नु स्वल्प धरिसिकॊण्डिरुवनु. ई रीतियल्लि तन्न इष्ट प्रकार स्थापितवाद शरीरावसानवन्नु ऎल्ल यागि उळ्ळन्धाद्दागियू, देश काल स्वरूपगळिन्द परिच्छिन्नवागियू इरुव (परिच्छिन्न अळतॆ, अल्पवादद्दु ऎन्दर्थ) ई लोकदल्लि उण्टागुव कैङ्करवु श्री वैकुंरदल्लि अनुभविसुव कैङ्कय्यक्कॆ ई रीतियाद परिपूर्ण कैङ्कर, परन्तवाद मोक्षवु अद्वारक प्रपत्ति निष्ठॆगॆ फल
आरम्भ
ई
- इङ्गेतिरिन्देरिक्कु” इरुमालमुन्नुण्डुमि हिन्न
शङ्गोल पवळवाय तन्दामरन्मान् ।
पॊङ्गॆ पुह्मर्द वायवार्य प्रलिनगॊळिडिवन्मनत्तदॆ अङ्गमलर्हळ् कैय्यमय दृपडवरु ।
(C=57° 8-10-4)
♡
विशालवाद भूमियन्नु प्रळयकालदल्लि तन्नल्लि अडगिसिकॊण्डु, अदन्नु सृष्टि कालदल्लि उरण वागिरनु भगवन्त, अवन कॆम्पाद सॊगसाद हवळदन्तिरुव बायि, कॆन्दावरॆदळदन्तिरुव कण्णु, ई सॊबगिनिन्द नन्नन्नु वशीकरिसिदवनु अवन, मेलॆ मेलॆ उक्कि बरुव कल्याण गुणगळन्नु बायल्लि स्तोत्र माडि, इन्द्रियगळन्न
वशपडिसिकॊळ्ळुव रूप लावण्यगळन्नु नन्न मनस्सिनिन्द ध्यान नाडिकॊण्डु, अवन पाद पद्मगळन्नु पुष्पगळिन्द आर्किसि ई रीतिय सन्मार्गदल्लि कालवन्नु कळॆयुवन्तॆ आ भगदन्तनु अनुग्रहिसिदरॆ, ई लोकदल्लिये इरुववरिगॆ एनु नष्ट
- 3), 4.,
प्र, ६, नो
260
श्रीमद्रहस्यत्रयसारॆ
भक्ति प्रपस्सत्व फलसाधन प्रमाणानि
- इवरं वरय तस्मात्वं यथाभिमतमात्मनः ।
e
सत्वं समृते पुंसां मयि दृष्टि पथं गते” । आकिं वा सत्व जगतृष्टः प्रसन्ने त्वयि दुर्लभं.” 7) तस्मिन्स्सन्ने किमिहास्यलभ्यं,”
6
}
दाल्म
8 * किं लोके तदिह परत्र चास्तिपुंसां यष्टु प्रवणधियां न दा
साध्यं.”
- फलवत उपपत्तॆ” ऎन्नुव, सॊल्लुहिरपडिये, सरेश्वरः सकल फल प्रदना हैयाले अवन् तिरुवडिहळि प्रपत्ति सकल फल साधन माहैयाल् इव्वधिकारिहळ् इरुवरु विदु यथाभिमत फलहेतु वायिpp
भक्तिप्रसत्तिगळिरडू सकल फल प्रदगळु
8
(5) वरंवरय इत्यादि ऎलै ध्रुवने निनगॆ इष्टवाद वरगळन्नु केळु. नन्नन्नु साक्षात्करिसुववरिगॆ ऎल्लवू सिद्धिसुत्तदॆ. (6) किंवासर्वजगतृष्टः इत्यादि-सर्व जगत्तिगू सृष्टि करने ! नीनु प्रसन्ननादर यारिगॆ एनु दुर्लभ, अवरवर कोरिकॆय प्रकार ऎल्लवू सिद्धिसुत्तदॆ. (7) तस्मिन प्रसन्ने इत्यादि. अवनु प्रसन्ननादर सिद्धिसदॆ इरुवुदु एनिद. ऎल्ला सिद्दिसुत्तदॆ ऎन्दर्थ. (8) किंलोक इत्यादि ई लोकदल्लियू परलोकदल्लियू
- पमामफोमेनि पवळवाय् कमलङ्गण्ण्
अच्चुदा अमररेरे आयर् तम् कॊन्दे ऎन्नुम् । इच्चुतविरयान् फोन् इन्दिर लोकमाळु
अच्चु वैपॆरिनुवेण्डेन् अरङ्गमानगरुळाने कि
ऎळॆहसुरुगळिन्द कूडिद बॆट्टद हागॆ देहकान्ति, कॆम्पु हवळदन्थह बायि, कॆम्पाद कमल पुष्पदन्तॆ कण्णुगळु, इन्थह भगवन्तनन्नु अच्चुता आश्रितरन्नु कै बिडदवने, नित्यसूरिगळिगॆ स्वामिये, गोपालर मगुवे, ऎन्दु अवन सौन्दय्य, सौशील्य, सौलभ्य, वात्सल्यगळिगॆ मनसोतु स्तोत्र माडुव ई भोग्यवाद रसवनु बिट्ट, परम पदक्कॆ होगि अल्लिरुव भगवन्तन रस अनुभवानन्दवन्नु पडॆदरू, ऎ रङ्गनाधने अदु
ननगॆ बेड
3} कारापुरविये पण्डानियागि
तेरार् निन्नॆळदिरोन् मण्डलक्कॆ कीण्डुवुक्कु
आरवमुदवङ्गै, अदॆनिन्नुम् मरुदॊरिवन्नुण्ड, आदुनिर
एडर्मुयल् बिट्टु
प्पिन्पोवद
(शिरियकिरुमडल् 3, 4 सॊरमण्डलवन्नु भेदिसिकॊण्डु अपरुप्पामृतवाद परवु पद नाथनन्नु हॊन्दि, अल्लिन्द तॆरागियू ई संसारक्कॆ हिन्तिरुगुवुदिल्लवॆम्ब सिद्धान्तवु इरलि, भोग्यतॆयु पूर्णवाद मॊलद मांस वन्नु बिट्टु आकाशदल्लि हारि होगुव कागॆय मांसक्कॆ आहत्तु ऒब्बनु प्रवर्तिसुवन्त आर्चावतारदल्लि भगवन्तनन्नु अनधनद श्री वैकुण्ठनाथनन्नु अनुभविसलु होगुवुदु ऎन्दु आबाचवारद ना
प्राशस्त्र
4). 5% $ 7) d♣ det
अधिकारिविभागधिकार
भक्तः प्रपत्तिकये प्रमाणानि,
261
- “चतुधा भजनॆ मा” ऎन्निरपडिये उपासन यादॊरुपडि चतुरिद
फलत्तुक्कु साधनवायिरक्किरदु, अप्पडिये
- “तावदारि स्तथावाञ्छा तावनॆह स्वथासुखं ।
यावन्न याति शरणं त्यामशेषाघनाशनं”
ऎल्ला पुरुषार्थगळू लभिसुत्तवॆ
विष्णुविनल्लि भक्तियुळ्ळवरिगॆ यावुदु साधिसलाग वुदिल्ल !, ऎन्दर्ध (9) फलमत उपपत्तेः-सकल फलगळू ब्रह्मदिन्दले उण्टागुत्तवॆ. अदे युक्ति युक्तवु, ऎन्दू, हेळुवन्तॆ सर्वॆश्वरनु सकल फर्लदनादुदरिन्द अवन वादगळल्लि प्रपत्तियु सकल फलगळिगू साधन आद्दरिन्द ई ऎरडु अधिकारिगळिगू प्रपत्तियु यथाभिमतफलहेतु- अवरु अपेक्षिसिद फलक्कॆ कारणवागुत्तदॆ. (1) चतुर्विधाभजन्तेनां, ऎम्बन्तॆ-उपाननवु याव रीतियल्लि नाल्कु फलगळिग (नूतनैश्वर, भ्रश्वर, कैवल्य, मोक्ष) साधनवागिदयो, हागॆये प्रपत्तियू, (11) तावदार्तिस्तथावाञ्चण ऎम्बन्तॆ नाल्कु विध फलगळिगू साधन वागिदॆयॆन्दु महर्षिगळु निश्चयिसिद्दार
- रामायण 17-40-15) ऎलै राजने -श्री रामचन्द्रने निन्नल्लि ननगॆ प्रीतियु नित्यवादद्दु ऎलै ‘र निन्न पीर, सौन्दय्य सौलभ्यादि गुणगळिन्द भक्तिय निरवादद्दु नन्न मनस्सु अन्य-श्री वैकुंरदल्लिरुव पररूपदल्लि होगुवुदिल्ल
23
-
1-12-76-
-
किंवासर्वजगतृष्ट :: प्रसन्नॆत्वयिदुलभव 11
बारदु
‘सादफलं भुङ्क्त त्रिलोक्यं मघवान ।
(ऎ. पु 1-12-29) ऎल्ला लोकगळन्नू पडॆदवने नीनु प्रसन्ननादरॆ यारिगॆ याव इष्टार्धवु लभिस
इन्द्रनु मूरु लोकगळिगू स्वामियागिरुवुदू निन्न अनुग्रहदिन्दले (7)
- माङ्गल्यं परम पदंसदार्धसिद्धिं निर्विघ्ना मधिकफलां श्रीयन्दधाति । किरिलोके तदिह पत्र जास्ति पुंसारियष्टु प्रवाधियां नदाल्मसाध्य
(विष्णु धर्म 4346) ऎ दाल्मने विष्णुविनल्लि प्रावण्यवुळ्ळवरिगॆ इहपर ऎरडु लोकगळल्लियू लभिसदे
मङ्गळवु, परम पदवु, ऎल्ला काव्यसिद्धियू, विघ्नवल्लद आधिक फलवाद सम्पत्तु मॊदलादवॆल्ला
इरुवुदु एनिद सिद्धिसुत्तवॆ.
-
ब्रह्मसूत्र 32+37
-
चतुर्विध भजन्ते मां जनास्सु कृतिनोर्जुन ।
تاند
भ, गीतॆ
आर्तोजिज्ञासुरर्थार्थ ज्ञानीच भरतर्षभ । आर्त -ऐश्वरवन्नु कळॆदुकॊण्डु अदक्कॆ आसॆ पडुववनु, कैवल्यक्कॆ आसॆपडुववनु, नूतनवागि ऐश्चरवन्नु अपेक्षिसुववनु, ज्ञानि - मोक्षवन्नु अपेक्षिसुववनु ई नाल्कु पुण्यशालि जनरू नन्नन्नु भजिसुत्तारॆ. 11) स्वामिये आयाया फलप्राप्तिगॆ विरोधवाद पापगळॆल्लवन्नू नाशमाडुव निन्नन्नु शरणु ` हॊन्ददॆ इरुववरॆगेनॆ, आर्ति नष्टवाद ऐश्वरवन्नु हॊन्ददॆ इरुत्तानॆ. अल्लियवरॆगेनॆ, नूतनैश्वरवन्नु पडॆयदॆ इरुदनु, अल्लियवरॆगेनॆ मोहन
आन्दरॆ शरीरक्कॆ बेरॆयाद आत्म साक्षात्कार पडॆदु सुखवन्नु अनुभविसदे इरुत्तानॆ अल्लियवरॆगेनॆ असुखवु भगवदनु
सुखविल्लदिरुवुदु, प्रप माडिदरॆ ई चतुध परुषार्थगळॊ लभिसुवॆयन्दर्य,
262
श्रीमद्र हस्यत्रयसारे
ऎर पडिये प्रपत्तियुव इच्च तुरिद फलत्तुक्कुम् साधनवाहविरे महहळ् अरुदियिट्टदु, इदिल् अशेषाघनाशनवॆ”यालु
आदर
“तावता
तानॆ
निन्नॆत्तु,
वत” ऎन्नु अधिकारव तोरु मावरियालुव इवनपेक्षित फलमॆल्ला लिन कालत्तिले यथामनोरथम् सिद्दिक्कुम् इप्पडिप्पट्ट वेदिक्कॆ
- “सतनिरताशुद्धास्साङ्ख्ययोगविदस्तथा ।
नारनि शरणस्त्रस्य कलाङ्कोटितामपि ॥” ऎन्नु कॊल्लुहिरदु. इवनु द्गुरु कालल् कैय्यल् वैषम्यम् तन्नोदलिल् वैषम्यत्ताले नन्नदु ; अदु तनक्कडि प्रारब्ध सुकृत विशेषव,
भक्ति प्रपः फलप्राप्ति ; पारतञ्च एकरूपम् अमशरीरानरु पॆरुम् पेल् ऒरुषनि ; पारत मुम् एक
रूपव.
भक्तियोगक्किन्तलू प्रपत्तियोगक्कॆ उत्कर्ष
છે
इल्लि “ अशेषाघनाशनवर” ऎन्दु हेळिरुवदरिन्दलू, आदरवु तोरुवन्तॆ तावत” ऎन्दु प्रति अधिकारक्कू, आवर्ति माडिरुवुदरिन्दलू, इवनु अपेक्षिसुव फलवॆल्ला इवनु अपेक्षिसिद काल दल्ले यथामनोरद प्रपत्तियिन्दसिद्धिसुवुदु इन्तह उत्कर्षवन्नु नॆनॆसि (12) सत्कर्म निरताशुद्धारॆ ऎन्दु कर्मयोग, ज्ञानयोग भक्तियोगगळन्नु फलसङ्गादॆ आसॆयिल्लदॆ अनु सि बरुववरु, शरणागतन कोटियल्लि ऒन्दु अंशवन्नू हॊन्दलाररु ऎन्दु हेळिरुवुद आ द्वारक प्रपत्तियु प्रारब्ध कर्मवन्नू होगलाडिसि अपेक्षित कालदल्लि फलवन्नु कॊडुवुदरिन्दलू इदक्कॆ उत्कर्षवन्नु, “नहिनिन्दान्याय’वन्नु अवलम्बिसि हेळिदॆये विनह, भक्ति योगादिगळिगॆ सर्वफलसाधकत्व महिमॆयन्नु कडिमॆ माडलु, अल्ल इवनुक्कु-ई प्रपन्ननिगॆ, संसारदल्लि रव कालदल्लि कैङ्करदल्लि वैषम्यवु तन्न आपेक्षॆय वैषम्यदिन्द बरुवुदु, वैषम्यवॆन्दरॆ हॆच्चु कडिमॆ. अदक्कॆ कारण प्रारब्ध सुकृत विशेष ऎन्दरॆ इल्लवॆन्दु अन्तिम शरीरानन्तरं ऎन्दारम्भिसि आचाररु निरूपिसुत्तारॆ.
- वैषम्यवु परम पददल्लियू
भक्ति प्रपत्तियोग निष्ठरिगॆ मोक्षवु फल, पारतन्त्रवु एकरूप
उण्टे
अदागि अन्तिम शरीरानन्तर-प्रारब्धादि सर्वकर्म क्षय पूर्वकवाद चरम शरीरद वियोगानन्तर, इवनु हॊन्दुव पुरुषार्थ रूप कैङ्कय्यदल्लि याव न्यूनतॆयू इल्ल. “सदापश्यन्ति सूरयः” ऎम्बन्तॆ परिपूर्ण भगवदनुभववू तत्परीवाह रूप कैङ्कर् रूप पारतन्त्रवू एकरूप.
- लक्ष्मीतन्त्र (16-62) निवृत्ति धर्मगळाद, कर्मज्ञान भक्तियोगगळन्नु शुद्धरागि अन्दरॆ कर्तत्व त्याग, ममता त्याग, फलत्याग, फलोपायत्न त्याग पूर्वकवागि अनुष्टिसुववरिगिन्त न्यासविद्यॆयन्नु अवलम्बिसि भगवन्तनल्लि शरणागति माडुववरु उत्कृष्टरु इवर महिमॆय कोटियल्लि ऒन्दु भागवन्नू अवरु(भक्तरु) हॊन्द लाररु सर्वफल साधकवाद भक्तियोगक्कॆ दोषवन्नु हेळलु बन्द वचनवल्ल. प्रपत्नियु प्रार होगलाडिसि इवनु अपेक्षिसिद कालदल्लि मोक्षवन्नु कॊडबल्लदु ऎम्ब उत्कर्षवन्नु हेळलु ई वचन हॊरटॆ. कर्मवन
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अधिकारिविभाधिकार
- “पारत परे पुंसि साव्य निरतबन्मनः
स्वातन्यमतुलं प्राप्य तेन सह मोदते ॥”
ऎन्नुफलदकॆयिस्कॊल्लुहिर स्वातुम् कवश्यनक्कॆ सत्वविध कैर योगना ऎन्नु फलपादले निर्णितम्
263
हीगॆ कैङ्करदल्लि वैषम्य (न्यूनतॆ, व्यत्यासविल्लदिद्दरू कॆलवु विद्यानिष्ठरुगळिगॆ, “सस्वराद्भवति ऎन्दु स्वातन्त्र्यवन्नु हेळिरुवुदरिन्द अवरिगॆ स्वातन्त्र पूर्वकवाद कैङ्करवू अर्थात्, इतर विद्यानिष्ठरुगळिगॆ वारतन्त्र पूर्वक कैङ्करवू लभिसुत्तदॆयल्लवे, हागादरॆ प्रकारान्तर दिन्द कैङ्करदल्लि व्यत्यासवन्नु हेळिदन्तॆयागुवुदिल्लवे, ऎन्दरॆ पारतन्त्रवु एकरूपवॆम्बुदन्नु (13) पारतन्त्र पुरेपुंसि ऎम्ब विष्णु तम्म वचनवन्नु प्रमाणीकरिसि निरूपिसुत्तारॆ. सकल सांसारिक बन्ध रूपवाद कर्मवु तॊलगुवुदरिन्द, ऎल्ला विद्यानिष्ठरिगू भगनन्तनल्लि पारतन्त्रवु ऒन्दे रूपवागिरुत्तदॆ “सस्वराद्भवति” ऎम्ब श्रुतिगॆ “अकर्मवश्य” कर्म पर वशनल्ल ऎन्दर्ध, “स्वातन्त्र्य मतुलम्प्राप्य” ऎम्ब वचनक्कू इदे अर्थ, हीगॆ, फलदशॆयल्लि हेळुव स्वातन्त्र्यवन्नु, कर्म परतन्त्रनल्लदॆ, सर्वविधवाद कैङ्करक्कू योग्यनागुत्तानॆन्दु, विवरिसि शारीरक शास्त्र चतुर्धाध्याय चतुर्ध पाददल्लि, “आतुवचनन्याधिपतिः” ऎम्ब सूत्र भाष्यदल्लि निर्णयिसिरुत्तारॆ सांसारिक दशॆयल्लि कर्म परतन्त्रनागिद्दरिन्द, मुक्त दशॆयल्लि हेळुव स्वातन्त्रक्कॆ, कर्मपारतन्त्र निवृत्तियन्ने हेळबेके हॊरतु बेरॆयल्लवॆम्बुदु भगवद्रामानुजर अभिप्राय. कॆलवरु मोक्षदल्लियू भक्ति, प्रपतिगळिगॆ फलभेदवुण्टु ऎन्दु हेळुत्तारॆ. इदक्कॆ साधकवागि भक्तनु, “सस्वराच्छवति”, “परम साम्य मुपैति” ऎम्ब वचनदिन्दलू स्वातन्त्र्यमतुलं प्राप्य तेन सहमोदते, ऎम्ब वचनदिन्दलू पूर्ण स्वातन्त्र्यवन्नू, परम साम्यवन्नू हॊन्दुत्तानॆ. भक्तनु ध्यान रूपवाद अनुभवदल्लिळिदि रुवुदरिन्द अवनिगॆ भगवदनुभवदल्लि दृष्टि, प्रपन्ननिगॆ “तवातिचयाचते” ऎन्दु भगव ष, पारतन्त्रगळन्नु अपेक्षिसुवुदरिन्द इवनिगॆ कैङ्करवे पुरुषार्थ, आद्दरिन्दले
“वैकुण्ठेतु परे लोके क्रियासार्धञ्जगत्पतिः ।
आ विष्णु रचिन्त्या भ भागवह
ऎम्ब श्लोकदल्लि, श्री वैकुण्ठदल्लि भक्तरु, मत्तु भागवतरु, इवरुगळॊडनॆ भगवन्तनिद्दानॆन्दु, श्री वैकुण्ठदल्लिरुववरन्नु ऎरडु पङ्गडवागि विभागिसिरुत्तारॆन्दु हेळुव ई मातुगळु अप्रामाणिक भाषॆ परिचयविल्लदे हेळुव मातु. इदक्कॆ समाधानवागि आचाररु पारतन्त्रं एकर - -
- (वि, त ) परवु इरुषनल्लि पारतन्त्रवन्नु अवलम्बिसि भक्ति प्रपत्तिगळल्लॊन्दन्नु अन पण्यपाप रूपकर्व बन्धवन्नु नीगिसिकॊण्डु, अतुलवाद स्वातन्त्र्यवन्नु अन्दरॆ कर्म पारव तापरषमिसि स्वातन्त्र्यवन्नु हॊन्दि, अर्मपत्यनागि ऎन्दर्थ आ परव परुषन जतॆयल्लि रसस्ट्म्पा अ नन्दी भवः” ऎम्ब श्रुति प्रति चदरकॆन्दवन्नु हॊन्दि सजॆष सयाट
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श्रीमद्रहस्यॆय सारॆ
वेण्णु मैरुमय नीडरिन्नु विदिवया । नीण्णु जारुहियुव निरुव हळुक्केरु मन्सर् गॆ मन्सिल् मूलविन मातुदलिल् मुहुननडि । पॊण्णनॆ, मडिर्पुहलॊ ऎन निन्ननरे ।sail
ऎन्दु हेळि, इदक्कॆ आधारवागि पारतन्त्र परेपुंसि इत्यादि श्लोकवन्नु उदाहरिसिरुारॆ भक्त प्रसन्नरिब्बरिगू भगवत्पारतन्त्र्यवु एकरूपवादद्दु “सस्वाद्भवति” ऎम्ब श्रुतिगॆ भूमाधि करण भाष्यदल्लि अकर्मव” ऎन्दु भगवद्रामानुजर व्याख्यान माडिरत्तारॆ फलपाणॆ दल्लियू “आतजवच अन पति” ऎम्ब सूत्र भाष्यदल्लि, भगवत्पारतन्त्रवे इदॆ आ पारतन्त्रविल्ल, संसारदल्लि कर्मा धीननागिद्दन्तॆ इल्ल. केवल भगवत्पारतन्त्रवे ऎन्दु अर्थ माडिरुत्तारॆ आद्दरिन्द भक्त प्रपन्न रिब्बरिग ळ इदु समान,
प्रपन्नरिब्बरिगॆ
मोक्षदल्लि याव व्यत्यासवू इल्ल ऎम्बुदु सिद्धान्त ‘भक्कॆ र्भागवतैस्सु” ऎम्ब वचनगळिगॆ भक्तरु बेरॆ, भागवतरु बेरॆ ऎन्दर्थवल्ल भगवद्भक्तरे भागवत भक्ति पठ्यन्तवाद भगव क्तियुळ्ळवरु ऎन्दर्थ,
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मेलू “वचनभसदल्लि, “उपायान्तर निष्ठां उपेयो भगवदनुभव”, ऎन्दु भक्तरिगॆ अनुभववु फल प्रपन्नरिगॆ कैङ्करवु फल, ऎन्दु विभाग माडिरुवुदु सरिये ऎन्दु. मुमुक्षुप्पडि व्याख्यानकाररु, तात्सर दीपिकॆयल्लि केळिकॊण्डु, “अन्थह विभागदल्लि तात्पय्य विल्ल. कैङ्करवु अनुभव परिवाहवाद्दरिन्द भक्तरिगू उण्टु अदरिन्द प्रपन्नरिगू अनुभववु तुल्य” ऎन्दु वचनभूषणकारर साक्षात् शिष्यरे हेळिरुवुदरिन्द ई विषयदल्लि सम्प्रदाय भेदवन्नु हेळुवुदु सरियल्ल प्रपत्ति माडिदवनिगे वारतन्त्रक, भक्तनिगॆ अहं इर लेशवम्ब, अ अहङ्कार लेशदिन्द “स्वातन्त्र मुलं प्राप्य” ऎन्दु मोक्षदल्लि स्वातन्त्र्यवन्नु हेळिरुवुदरिन्द अदन्नु नॆनॆसिकॊण्डु इल्लियू भक्तनि : असम्भाववण्टु, इत्यादि कल्पनॆगळॆल्ला अ माणिगळु अपरामर्शॆमूल भाग्यविर द. मेलू प्रपन्न कस्थराद नम्माळ्वारवर सम्प्रायातवाद शरणागति सद्यॆयन्नु अनुष्ठिसिद भगवद्रामानुजरु तम्म शरणागति गद्यदल्लि, परभक्ति परज्ञन परम भक्तिकृत परिपूर्ण नवरत नित्यविशदतमानन्य प्रयोजना नवधिरतिशय प्रिय भगवदनुभवजनित अननधिकतिशय प्रीतिकरिताशेषावचिताशेषशेष कैक रतिरूप नित्य करोभवानि” ऎन्दु प्राधिसि आ प्रार्थनास्त्रकार, भगवन्तनू, “मदनुभव जनितानवधिकातिरिय प्रीति कारिता- शेषावचित शेषशेष करतिरूप नित्य किङ्करोभव”, ऎन्दु प्रत्युत्तर नित्तिरुवुदू गमनार्ह इल्लि प्रपन्ननिगू भगवदनुभववु उण्टॆम्बुदू, कैङ्करवु तत्पवादवाददु, ऎम्बुदू स्पष्ट * हागॆये भक्तनिगू भगवदनुभववु परिवहिसि कैङ्कय्य परन्तवागुत्तदॆयॆम्बुदु निर्विवाद. आद्दरिन्द प्रमाण सम्प्रदायगळिगॆ विरुद्धवाद अर्थगळु तिरस्कारगळु,
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अनन्तर तावु मेलॆ निरूपिसिद सद्वारक द्वारक प्रपत्तिल्लदॆ सर्वेश्वरन मोक्ष साम्राज्य वन्नु कॊडुवुदिल्लवॆम्ब सिद्धान्तवन्नु पाशुर रूपदल्लि नेण्डुम् पॆरुम्पयन् ऎन्दारम्भिसि अनुग्रहिसुत्तारॆ. अदागि नेन्दु पॆरुम्पयन्-प्रार्थनीयवाद महाफलवु नीडॆनरिन्दु कवॆन्दु शास्त्रगळिन्द तिळिदु, नीण्डुं कुरुहियुन्निरु दीर्घकाल साध्यवागियू, क्षण
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अधिकारिविभागाधि कारु
प्रपन्नादषां न दिकति मुकुन निजपद प्रसन्नर बैधा सुचरित परिपाकभिदया । विळण्टीन प्राप्तिर्भजन सुखनकस्य विपुलं परस्याशु प्राप्तिः परिमितरसा जीवितदशा ॥२१॥
इति कवितार्किकसिंहस्य सर्वतन्त्र स्वतन्त्रस्य श्रीमद्वेटनाथस्य वेदानाचार्यस्य कृतिय श्रीमहस्यतयसारे अधिकारि विभागाधिकारोष्टमः
श्रीमते निगमान्त महादेशिकाय नमः
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काल साध्यवागियू इरुव निन्नॆ हळुळ्ळु-सद्वारक प्रपत्ति, अद्वार प्रपत्तियॆम्ब भक्ति प्रप रष उपायगळिगॆ विधव याल् एरु-पूर्वसुकृत विशेषदिन्द सकिञ्चन, अकिञ्चन गळिन्द `योग्यराद अन्सर् मुम क्षगळु ऒल्मण्डु - ऒन्दु उपायवन्नु अनुष्टिसि मूलवि-संसारानुवृत्तिगळिगॆल्ला कारणवाद प्राचीन कर्नगळन्नु उपाय विरोधियागियू प्राप्ति विरोधियागियू इरव प्राचीन कर्मगळन्नु माट्टदलि - होगलाडिसुवुदरल्लि मुकुन्दनडिपॊण्ड भगवत्पादारविन्द शरणागतियन्नु माडुवुदन्नु बिट्टरॆ, मट्रोल् पुहल् – बेरॆ याव उपायवु. ऒम्मॆ - ऒन्दू इल्ल ऎननिस्रनरे ऎन्नुवन्तॆ निन्तिद्दारॆ
अनन्तर प्रपत्तिगल्लदॆ सर्वेश्वरनु परम पुरुषार्थवन्नु कॊडुवुदिल्लवॆम्ब अधिकारार्थवन्नु प्रसादवां ऎम्ब श्लोकदिन्द स्थापिसुत्तारॆ प्रपन्ना दन्यषां-हिन्दॆ हेळिद सद्वारण द्वारक प्रपत्ति निष्ठरिगिन्त बेरॆयवरिगॆ मुकुन्दू निजपदं नदिशति-मुकुन्दनु तन्न पाद गळन्नु अथवा परम पदवन्नु कॊडुवुदिल्ल. प्रपत्तियॊन्दे मोक्षवन्नु कॊडुवुदादरॆ, भक्तियोगक्कॆ मोक्षविल्लवे ऎम्ब शङ्कॆयन्नु ‘च’ कारदिन्द होगलाडिसि अधिकारि भेदवन्नु “प्रपन्नश्चद्धा” ऎन्दु निरूपिसुत्तारॆ प्रपन्नक-आ प्रपन्नन द्विधा-सकिञ्चननु मत्तु
8-
अकिञ्चननु ऎन्दु ऎरडु बगॆयवनु सकिञ्चनसु, अकिञ्चनु ऎम्ब अधिकारि भेददिन्द, सकिञ्चिरनिगॆ प्रपति पूर्वक भक्तियोगदिन्दलू, किञ्चिननिगॆ केवल प्रपत्ति (अद्वारक प्रशस्ति)यिन्दलू मोक्षवॆम्बुदन्नु निरूपिसुत्तारॆ इदक्कॆ * इवेनॆन्दर सुचरित परिसाकदया-अवरवर सुकृत कर्मद परिणामवे ऎन्दु अनुग्रहिसु त्तारॆ हीगॆ परस्पर विलक्षणवाद सुकृत कर्मद पणामवे कारणवॆन्दरॆ फलदल्लियू व्यत्यानवुण्टे ऎन्दरॆ विळम्बेन प्राप्ति ऎन्दारम्भिसि निरूपिसुत्तारॆ एकस्य-भक्त प्रपन्नरिब्बरल्लि भक्तनिगॆ-सद्वारक प्रपत्ति निष्ठनिगॆ विळम्बेनप्राप्ति- * पर भजनसुखं मोक्षवु विळम्बिसुत्तदॆ.अदागि प्रारब्ध कर्मावसानदल्लि मोक्ष प्राप्ति विपुलम्-ई लोकदल्लि भगवदनुभव रूपवाद आनन्दवु विस्तारवादद्दु, परस्याशुप्राप्ति
आ परिवितरसा इतरनिगॆ अ०दरॆ अद्वारक प्रवत्ति निम्मनिगॆ शीघ्रदल्लि इल लजिसुत्त जीवितादशा-जीविसि रुव दशॆयु परिमितवाद भगवदनुभव रूपवाद आनन्दवुळ्ळ, अन्दर जीवित कालदल्लि भगवन्तन अनुभववु अवरवर कर्मानुगुणवाद भक्ति श्रद्धॆगॆ अनुगुणवागि परिमितवादद्दु, भक्तियोग निष्ठनिगॆ इवन्तॆ प्रीति रु ववागियू, तैलधारॆयन्तॆ अविच्छिन्न
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श्रीमद्र हस्यप्रयसाडे
स्मृति सन्तति रूपवागियू, आ प्रयाणादनु वर्तिसुवुदू आद भगवन्तन साक्षात्कारवु प्रपयोग निष्कनिगॆ इल्लदिरुवुदरिन्द, ई लोकदल्लिय भगवदनुभव सुखवु प्रपन्ननिगॆ परिमित वादद्दु, नम्माळ्वार्, नाथमुनिगळिगॆ जन्मान्तर सुकृत फल निमित्तवागि, इहलोकदल्लियू भगव अाक्षात्कारादिगळु पूर्णवागित्तु,
हागादरॆ महाज्ञानिगळाद व्यासादिगळु एकॆ प्रपत्तियन्नु अनुष्टिसि मोक्षक्कॆ होगलिल्ल, कालक्षेपाक्षमत्ववॆम्ब त्वरॆयु एकॆ अवरिगॆ उण्टागलिल्ल हागॆये महाज्ञानिगळागि योग दशॆयल्लि भगवन्तन साक्षात्कार हॊन्दि ई लोकदल्लि भगवाक्षात्कार रूपवाद आनन्दवु अभिसिद्दरू, नम्माळ्वारवरु एकत्वरॆ पडबेकागित्तु ऎम्ब प्रश्नॆगळिगॆ उत्तरवेनॆन्दरॆ
व्यासादिगळु अमृतत्वञ्चानुपोष्य’ ऎन्दु हेळुव रीतियल्लि परिपक्ववाद भगवदन्न - भववन्नु ई लोकदल्लिये पडॆयुव आसॆयिन्द भक्ति विद्यॆयन्नु कैगॊण्डरु. अद्वारक प्रपति शास्त्रदल्लि विश्वास माद्यदिन्दल्ल दृप्त प्रपन्नरु-अन्दरॆ शरीरावसानदल्लि मोक्षवन्नु बयसि शरणागति माडिदवरु, इहलोकदल्लि अर्चावतारगळल्लि भगवदनुभववन्नु पडॆयुव सलुवागियू, अध्यात्म ग्रन्ध निराण माडि, अनेकरिगॆ ज्ञानोपदेश माडबेकॆम्ब अभिलाषॆयिन्दलू, कालयापनॆ माडिकॊण्डिरुव अभिलाषॆयुळ्ळवरु. आद्दरिन्द श्री रङ्गागि दिव्य क्षेत्रगळल्लि तनगॆ कैङ्कय्यगळन्नु माडुवन्तॆ तन्न दासनाद प्रपन्ननन्नु इहलोकदल्लिये स्वल्प काल इरुवन्तह भगवन्तन सङ्कल्पवन्नु अनुसरिसि तद्दासनागि कालवन्नु कळॆयबेकॆम्ब पारतन्त्र काष्ठा विशेषवे दृप्त प्रपत्तिगॆ कारणवॆम्बुदु आचारर हृदय
नम्माळ्वारवरन्नु ऋषिगळिगॆ होलिसलागद रीतियल्लि, अवर भक्तियु अत्यन्त अशिशयवागित्तु. अवरिगॆ प्रकृति सम्बन्धवु अति हेयवागित्तु, भगवत्ताका तारवु ऎल्लि भग्नवागुत्तदॆयो ऎम्ब भय दिन्द त्वरॆपडुत्तिद्दरु आदरॆ लोकोजीवनार्थवागि भगवन्तनु निर्बन्धिसि अवर मूलक तिरुवाय
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प्रबन्धवन्नु पूर्तिगॊळिसि अवरन्नु मोक्षक्कॆ करॆदॊय्दनु. भगन्तन स्वातन्त्रवु अपरनु योज्यवादद्दल्लवे, आळ्वारवर भाग्यविशेषवू इदक्कॆ कारण.
इति श्रीमन्निगमान्त महादेशिक प्रणीतवाद रहस्यत्रय सारदल्लि अधिकारि विभागाधिकारक्कॆ” “सारचन्द्रिका’ व्याख्यानवु समाप्त,
श्रीमत निगमान्त महादेशिकाय नमश्रीयॆ नमः
श्रीमते रामानुजाय नम-
श्रीमते निगमान्त महादेशिकाय नमः
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